समय बहुत कम है, जो भी समय बचा है, वह धर्म, राष्ट्र व ईश्वर के लिए है। वर्तमान समय बड़ा विकट है। धर्म व राष्ट्र की रक्षा हेतु देश को लाखों आध्यात्मिक साधक/उपासक चाहियें, जो उपासना द्वारा निज जीवन में ईश्वर को व्यक्त कर सकें। उनकी उपासना के प्रभाव से राष्ट्र में एक ब्रह्मशक्ति का प्राकट्य होगा, जो निश्चित रूप से धर्म की पुनर्स्थापना व वैश्वीकरण कर, चारों ओर छाये असत्य के अंधकार को नष्ट करेगी। यह एक ईश्वरीय कार्य है। अब आवश्यकता व्यावहारिक उपासना की है, बौद्धिक चर्चा की नहीं। अतः अधिकाधिक समय भगवान को दें, ताकि धर्म व राष्ट्र की रक्षा हो।
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स्वयं शिवभाव में स्थित होकर शिव का गहन से गहन ध्यान करते हुये, ध्यान में प्राप्त आनंद का वैसे ही सर्वत्र विस्तार करते रहें, जैसे भगवान शिव अपने सिर से ज्ञान रूपी गंगा का करते हैं। वह अनंत विस्तार और उससे परे की चेतना हम स्वयं हैं, यह नश्वर देह नहीं।
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भगवान शिव परम-चैतन्य हैं। समस्त सृष्टि के उद्भव, स्थिति और संहार की क्रिया उनका नृत्य है। उनके माथे पर चन्द्रमा कूटस्थ-चैतन्य, गले में सर्प कुण्डलिनी-महाशक्ति, उनकी दिगंबरता सर्वव्यापकता, और देह पर भभूत वैराग्य के प्रतीक हैं। जैसे उनके सिर से ज्ञान की गंगा निरंतर प्रवाहित हो रही है, वैसे ही हमारे कूटस्थ से उनकी चेतना निरंतर दशों दिशाओं में विस्तृत होती रहे। वह अनंत विस्तार और उससे भी परे का अस्तित्व हम हैं, यह देह नहीं। उस शिवभाव का निरंतर विस्तार करते हुए उसका आनंद लें।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२३ मई २०२२
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