भगवान वासुदेव स्वयं ही पद्मासन में बैठे हैं, और स्वयं ही स्वयं का ध्यान कर रहे हैं| वे ही परमशिव हैं, वे ही नारायण हैं, और वे ही पारब्रह्म परमेश्वर हैं ---
एक समय था जब हृदय में एक अभीप्सा, तड़प, अतृप्त प्यास और बेचैनी थी भगवान को प्राप्त करने की| बाधक था तो स्वयं का ही प्रारब्ध| अब कुछ-कुछ कृपा हुई है भगवान की, जिस से पता चला है कि वस्तुस्थिति कुछ और ही है|
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एक दिन अचानक ही पाया कि -- वह अभीप्सा, साधना करने, व साधक होने का भाव एक भ्रम मात्र ही था| भगवान स्वयं ही स्वयं की साधना करते हैं| हम तो उनके एक उपकरण, माध्यम और निमित्त मात्र हैं, कर्ता तो वे स्वयं हैं| जब भी उनसे प्रेम की अनुभूति होती है तो पाता हूँ कि प्रेमी, प्रेमास्पद और प्रेम वे स्वयं ही हैं| न तो मैं हूँ, और न कुछ मेरा है, और कुछ भी उन से अन्य नहीं है| सब कुछ तो व्यक्त हो गया, पता चल गया, और बचा ही क्या है? जो करना है वह वे ही करेंगे|
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यह भारतभूमि पुनश्च: भगवान की क्रीड़ास्थली बनेगी| यहाँ सनातन धर्म की पुनर्स्थापना होगी और वैश्वीकरण भी होगा| गीता के ब्रह्मज्ञान का घोष फिर से यहाँ गूंजेगा| असत्य का अंधकार दूर होगा| भारत एक आध्यात्मिक धर्मनिष्ठ राष्ट्र होगा|
हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०२१
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