नित्य नियमित स्मरण और जप की आवश्यकता ---
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भगवान का निरंतर स्मरण, चिंतन, मनन, और जप आदि अति आवश्यक हैं क्योकि जब तक अन्तःकरण में हम उन को लाएँगे नहीं तब तक उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति हमें नहीं हो सकती। जैसा भी हम सोचेंगे, वैसे ही हो जाएँगे। भगवान से परमप्रेम होगा तो बुरे विचार आयेंगे ही नहीं। आसुरी विचारों का चिंतन करते करते हम स्वयं ही एक असुर बन जाते हैं। सब से बुरा आसुरी विचार जो हमें भगवान से दूर ले जाता है, वह है - "परस्त्री/परपुरुष और पराये धन की कामना, व असत्य का आचरण।"
भगवान कहते हैं --
"प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥१६:७॥"
अर्थात् - आसुरी स्वभाव के लोग न प्रवृत्ति को जानते हैं, और न निवृत्ति को। उनमें न शुद्धि होती है, न सदाचार और न सत्य ही होता है॥
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आसुरी प्रकृति के मनुष्य अशुद्ध, दुराचारी, कपटी और मिथ्यावादी ही होते हैं। उनका संग किसी भी परिस्थिति में नहीं करना चाहिए। हमने धन के लोभ में शास्त्रों का अध्ययन छोड़ दिया है और वही अध्ययन करते हैं जिन से धन मिलता है। यह भी एक तरह की आसुरी वृत्ति ही है।
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भगवान का नित्य निरंतर स्मरण तो हम कर ही सकते हैं। भगवान कहते हैं --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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भगवान ने सभी को विवेक दिया है। उस विवेक के प्रकाश में निरंतर भगवान की चेतना में रहें। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०२२
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