Thursday, 23 January 2020

भगवान सब के हृदय में हैं .....

भगवान सबके ह्रदय में हैं, ढूँढने से वहीं मिलते हैं| मेरा आध्यात्मिक हृदय इस शरीर का यह भौतिक हृदय नहीं, कूटस्थ चैतन्य है| मुझे भगवान की अनुभूतियाँ कूटस्थ में ही होती हैं, पर इस भौतिक हृदय में भी वे ही धड़क रहे हैं, इन फेफड़ों से वे ही साँस ले रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे हैं, और इस मन से वे ही सोच रहे हैं| वे और कोई नहीं, मेरे प्रियतम ही हैं, जिनके साथ जुड़कर मैं भी उनके साथ एक हूँ|
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति| भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया||१८:६१||
सभी को सप्रेम सादर नमन! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ||
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
२४ जनवरी २०२०

स्वयं के साथ सत्संग .....

मैं जो कुछ भी भगवान के बारे में सोचता व लिखता हूँ, वह मेरा स्वयं के साथ एक सत्संग है| जीवन में इस मन ने बहुत अधिक भटकाया है, जो अब पूरी तरह भगवान में निरंतर लगा रहे इसी उद्देश्य से लिखना होता रहता है| मैं किसी अन्य के लिए नहीं, स्वयं के लिए ही लिखता हूँ| वास्तव में वे ही इसे लिखवाते हैं| किसी को अच्छा लगे तो ठीक है, नहीं लगे तो भी ठीक है| किसी को अच्छा नहीं लगे तो उनके पास मुझे Block करने का विकल्प है, जिसका प्रयोग वे निःसंकोच कर सकते हैं|
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भगवान हैं, यहीं हैं, अभी हैं, और सदा ही रहेंगे| भगवान का और मेरा साथ शाश्वत है| वे निरंतर मेरे साथ हैं, पल भर के लिए भी कभी मुझ से पृथक नहीं हुए हैं| सारी सृष्टि ही भगवान से अभिन्न है, मैं भी भगवान से अभिन्न हूँ| भगवान ही है जो यह "मैं" बन गए हैं| मैं यह देह नहीं बल्कि एक सर्वव्यापी शाश्वत आत्मा हूँ, भगवान का ही अंश और अमृतपुत्र हूँ| अयमात्मा ब्रह्म| जैसे जल की एक बूँद महासागर में मिल कर स्वयं भी महासागर ही बन जाती है, कहीं कोई भेद नहीं होता, वैसे ही भगवान में समर्पित होकर मैं स्वयं भी उनके साथ एक हूँ, कहीं कोई भेद नहीं है|
जिसे मैं सदा ढूँढ रहा था, जिसको पाने के लिए मैं सदा व्याकुल था, जिसके लिए मेरे ह्रदय में सदा एक प्रचंड अग्नि जल रही थी, जिस के लिए एक अतृप्त प्यास ने सदा तड़फा रखा था, वह तो मैं स्वयं ही हूँ| उसे देखने के लिए, उसे अनुभूत करने के लिए और उसे जानने या समझने के लिए कुछ तो दूरी होनी चाहिए| पर वह तो निकटतम से भी निकट है, अतः उसका कुछ भी आभास नहीं होता, वह मैं स्वयं ही हूँ|
सभी को सप्रेम सादर नमन! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
२४ जनवरी २०२०

भारत के विभाजन का किसी को क्या अधिकार था? ....

भारत के विभाजन का किसी को क्या अधिकार था? क्या इसके लिए कोई जनमत संग्रह करवाया गया था? जो लोग इसके लिए जिम्मेदार थे वे अब तक तो नर्कगामी हो गए होंगे, पर उन को दिये गए सभी सम्मान बापस लिए जाएँ, और उनकी आधिकारिक रूप से सार्वजनिक निंदा की जाये| उन के कारण ३५ लाख से अधिक निर्दोष लोगों की हत्याएँ हुईं, करोड़ों लोग विस्थापित हुए, और लाखों महिलाओं और बच्चों पर दुराचार हुए| विभाजन के लिए जिम्मेदार लोग मनुष्य नहीं, साक्षात नर-पिशाच हत्यारे थे|
ऐसे ही कश्मीर से कश्मीरी हिंदुओं पर भयावह अत्याचार कर के उनको वहाँ से निष्काषित करने वाले नर-पिशाच राजनेताओं, सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों, हत्यारों, बलात्कारियों, धमकाने वालों, हिंदुओं के मकानों पर कब्जा करने वालों, व अन्य अत्याचारियों पर देर से ही सही पर प्राथमिकियाँ दर्ज हों| उस समय अपराधियों पर कार्यवाई न करने वाले मन्त्रियों और अफसरों पर भी प्राथमिकियाँ दर्ज हों| उन हत्यारों व अत्याचारियों के विरुद्ध अब तक कोई कारवाई क्यों नहीं हुई है?

भगवान सदा हमारे साथ एक हैं, वे पृथक हो ही नहीं सकते .....

भगवान सदा हमारे साथ एक हैं, वे पृथक हो ही नहीं सकते .....
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भगवान के बारे में मनीषी कहते हैं कि वे अचिंत्य और अगम्य हैं, पर मैं इसे नहीं मानता| वे तो निकटतम से भी अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं| जिनका साथ शाश्वत है वे कभी अगम्य और अचिंत्य नहीं हो सकते| यहाँ पर मैं न तो वेदान्त की भाषा का प्रयोग करूँगा और न ही दार्शनिकों की भाषा का| जो मेरे हृदय की भाषा है वही लिख रहा हूँ| यहाँ मैं एक ईर्ष्यालु प्रेमी हूँ क्योंकि भगवान स्वयं भी ईर्ष्यालु प्रेमी हैं| भगवान पर मेरा एकाधिकार है जिस पर मेरा पेटेंट भी है| उनके सिवाय मेरा अन्य कोई नहीं है अतः वे सदा के लिए मेरे हृदय में बंदी हैं| मैं नहीं चाहता कि वे मेरे हृदय को छोड़कर कहीं अन्यत्र जायें, इसलिए मैंने उनके बाहर नहीं निकलने के पुख्ता इंतजाम कर दिये हैं| वे बाहर निकल ही नहीं सकते चाहे वे कितने भी शक्तिमान हों| चाहे जितना ज़ोर लगा लें, उनकी शक्ति यहाँ नहीं चल सकती|
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भगवान करुणा और प्रेमवश हमें अपनी अनुभूति करा ही देते हैं| हमें तो सिर्फ पात्रता ही जागृत करनी पड़ती है| पात्रता होते ही वे गुरुरूप में आते हैं और अपने प्रेमी की साधना का भार भी अपने ऊपर ही ले लेते हैं| उन्होने इसका वचन भी दे रखा है| जब भी परम प्रेम की अनुभूति हो, तब उस अनुभूति को संजो कर रखें| यहाँ भगवान अपने परमप्रेमरूप में आए हैं| उनके इस परमप्रेमरूप का ध्यान सदा रखें| इस दिव्य प्रेम का ध्यान रखते रखते हम स्वयं भी प्रेममय और आनंदमय हो जाएँगे|
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योगियों को भगवान की अनुभूति प्राण-तत्व के द्वारा परमप्रेम और आनंद के रूप में होती है| यह प्राण तत्व ही विस्तृत होते होते आकाश तत्व हो जाता है| आकाश तत्व प्राण का ही विस्तृत रूप है| प्राण का घनीभूत रूप कुंडलिनी महाशक्ति है, और यह एक राजकुमारी की तरह शनैः शनैः बड़े शान से उठती उठती सुषुम्ना के सभी चक्रों को भेदती हुई ब्रह्मरंध्र से भी परे अनंत परमाकाश में स्वतः ही परमशिव से मिल जाती है, जो योगमार्ग की परमसिद्धि है| गुरु के आदेशानुसार शिवनेत्र होकर भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करते करते जब ब्रहमज्योति प्रकट होती है, तब उसमें लिपटी हुई अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई देने लगती है| नाद व ज्योति दोनों ही कूटस्थ ब्रह्म हैं जिनका ध्यान सदा योगी साधक करते हैं| यहाँ भी करुणावश भगवान स्वयं ही साधना करते हैं, हम नहीं| साधक होने का भाव एक भ्रम ही है|
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भगवान कण भी है और प्रवाह भी| स्पंदन भी वे हैं और आवृति भी| वे ही नाद हैं और बिन्दु भी| वास्तव में उनके सिवाय अन्य कोई है भी नहीं| अतः वे कैसे अचिंत्य और अगम्य हो सकते हैं? अपने प्रेमियों के समक्ष तो वे नित्य ही निरंतर रहते हैं| उनके प्रति प्रेम जागृत हो जाने का अर्थ है कि हमने उन्हें पा लिया है| निरंतर उनके प्रेम में मग्न रहो| हम भगवान के साथ एक हैं| वे हैं, यहीं हैं, इसी समय हैं और सर्वदा हमारे साथ एक हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२२ जनवरी २०२०

मेरा धर्म क्या है? .....

मेरा धर्म क्या है?
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मैं अपने धर्म को दो भागों में बांटता हूँ .....
(१) मेरे में जो भी सर्वश्रेष्ठ है ----- मेरी सर्वश्रेष्ठ क्षमता और सर्वश्रेष्ठ विचार .... उनकी निज जीवन में पूर्ण अभिव्यक्ति का यथासंभव प्रयास ही मेरा प्रथम धर्म है| उससे किसी को पीड़ा न हो, सिर्फ कल्याण ही हो|
(२) साधनाकाल में मेरा धर्म .....सूक्ष्म "प्राणायाम" हैं| जिन साधना पद्धतियों में मैं दीक्षित हूँ, और जिनका अनुशरण करता हूँ, वे कुछ गोपनीय सूक्ष्म प्राणायामों पर आधारित हैं जो सूक्ष्म देह में मेरुदंडस्थ सुषुम्ना, परासुषुम्ना और उत्तरासुषुम्ना नाड़ियों में किए जाते हैं| मुझे सूक्ष्म जगत से मार्गदर्शन मिलता है, अतः कहीं, किसी भी प्रकार की कोई शंका नहीं है| उन सूक्ष्म प्राणायामों के साथ साथ अजपा-जप और नादानुसंधान भी साधना के भाग है| साधना की परावस्था में मेरा धर्म सच्चिदानंद भगवान से परमप्रेम (भक्ति), और प्रत्याहार-धारणा-ध्यान द्वारा जीवन में समत्व की प्राप्ति का प्रयास, पहिले से ही जागृत कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव में समर्पण, और अनंत परमशिव का ध्यान|
बस ये ही मेरे धर्म है| इससे अधिक मैं कुछ भी अन्य नहीं जानता| पूरा मार्गदर्शन मुझे मेरी गुरु-परंपरा और गीता से मिल जाता है| उपनिषदों का कुछ कुछ स्वाध्याय किया है जो आंशिक रूप से ही समझ पाया हूँ, पर वेदों को समझना मेरी बौद्धिक सामर्थ्य से परे है, इसलिए उन्हें नहीं समझ पाया हूँ|
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भगवान से परमप्रेम मेरा स्वभाव है, जिसके विरुद्ध मैं नहीं जा सकता| मेरी जाति-कुल-गौत्र आदि सब वे ही हैं जो परमात्मा के हैं| यह देह तो नष्ट होकर एक दिन पंचभूतों में मिल जाएगी, पर भगवान के साथ मेरा सम्बन्ध शाश्वत है|
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ॐ तत्सत, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ ॐ ॐ||
कृपा शंकर बावलिया
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२१ जनवरी २०२०

बाहर के विश्व या अन्य व्यक्तियों में पूर्णता की खोज निराशाजनक है .....

बाहर के विश्व या अन्य व्यक्तियों में पूर्णता की खोज निराशाजनक है .....
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इस संसार में मैं अकेला हूँ| मेरे साथ मेरे सिवाय अन्य कोई नहीं है| मैं सदा से ही बार-बार इस संसार से दूर जाने का प्रयास करता हूँ पर भगवान फिर से खींच कर यहाँ बापस इस संसार में ले आते हैं| एक क्षण के लिए भी यहाँ रहने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, पर ईश्वर की इच्छा के आगे विवश हूँ| अब सोचना ही छोड़ दिया है, जैसी ईश्वर की इच्छा! जो उनकी इच्छा है वह ही सर्वोपरी है| वे कुछ सिखाना चाहते हैं अतः इस जीवन को वे ही जी रहे हैं| न तो मैं हूँ और न ही मेरा कुछ है| मेरी कोई स्वतंत्र इच्छा भी नहीं होनी चाहिए| स्वतंत्र इच्छाओं का होना ही मेरी सारी पीड़ाओं का कारण है| अब बचा-खुचा जो कुछ भी है वह बापस भगवान को समर्पित है| समर्पण के उन क्षणों में ही मैं ..... मैं नहीं होता, सिर्फ परमात्मा ही होते हैं|
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किसी भी अन्य व्यक्ति में मेरी कोई आस्था नहीं रही है, चाहे संसार की दृष्टि में वे कितने भी बड़े हों| जो जितना बड़ा दिखाई देता है, वास्तविकता में वह उतना ही छोटा है| पर क्या मेरे से अतिरिक्त अन्य कोई है? इसमें भी मुझे संदेह है| कोई अन्य है भी नहीं| मैं ही सभी में व्यक्त हो रहा हूँ| पूर्णता कहीं बाहर नहीं, परमात्मा में ही है, और परमात्मा स्वयं में ही है| बाहर के विश्व या अन्य व्यक्तियों में पूर्णता की खोज निराशाजनक है| किसी भी अन्य का साथ दुःखदायी है| साथ स्वयं में सिर्फ परमात्मा का ही हो| अन्य सारे साथ अंततः दुःखी ही करेंगे| मेरी साधना ही मेरा बल है और मेरा संकल्प ही मेरी शक्ति है, परमात्मा के सिवाय अन्य कोई सहारा नहीं है|
ॐ नमः शिवाय! ॐ नमः शिवाय! ॐ नमः शिवाय!
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"मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं, न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:, चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः, न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु, चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ, मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः, चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं, न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:, पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||
अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो, विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:, चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||"
(इति श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य विरचितं निर्वाण-षटकम सम्पूर्णं).
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कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२० जनवरी २०२०

जातिवाद सबसे बड़ा धोखा है .....

"जाति हमारी ब्रह्म है, माता-पिता हैं राम | गृह हमारा शून्य में, अनहद में विश्राम ||"
जो जाति परमात्मा की है, वह जाति ही मेरी है| जैसे विवाह के बाद स्त्री का वर्ण, गौत्र और जाति वही हो जाती है जो उसके पति की होती है, वैसे ही परमात्मा को समर्पित हो जाने के बाद मेरा वर्ण, गौत्र और जाति वह ही है जो सर्वव्यापी परमात्मा की है| मैं 'अच्युत' हूँ|
जातिवाद सबसे बड़ा धोखा है| मैं किसी भी जाति, सम्प्रदाय, या उनकी किसी संस्था से सम्बद्ध नहीं हूँ| सब संस्थाएँ, सब सम्प्रदाय व सब जातियाँ मेरे लिए हैं, मैं उन के लिए नहीं| मैं असम्बद्ध, अनिर्लिप्त, असंग, असीम, शाश्वत आत्मा हूँ जो इस देह रूपी वाहन पर यह लोकयात्रा कर रहा हूँ| मेरा ऐकमात्र शाश्वत सम्बन्ध सिर्फ परमात्मा से है जो सदा रहेगा| जिस नाम से मेरे इस शरीर की पहिचान है, उस शरीर का नाम इस जन्म में कृपा शंकर है| पता नहीं कितने जन्म लिए हैं और पता नहीं कब कितने नाम तत्कालीन घर वालों ने रखे होंगे|
यथार्थ में परमात्मा के सिवाय न मेरी कोई माता है, और न कोई पिता है, और परमात्मा के सिवाय मेरी कोई जाति नहीं है| परमात्मा की अनंतता में जहाँ अनाहत नाद गूंज रहा है, वहीं मेरा घर है, वहीं मुझे विश्राम मिलता है| वहीं मैं हूँ| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१६ जनवरी २०२०

मोक्ष-सन्यास योग में पराभक्ति .....

मोक्ष-सन्यास योग में पराभक्ति .....
भक्ति का अर्थ, नारद भक्ति सूत्रों के अनुसार भगवान के प्रति परम प्रेम है| गीता में भक्ति के बारे में भगवान श्री कृष्ण ने बहुत विस्तार से प्रकाश डाला है| हिन्दी में रामचरितमानस, और संस्कृत में भागवत, भक्ति के ही ग्रंथ हैं| इन ग्रन्थों के स्वाध्याय के पश्चात भक्ति पर और कुछ लिखने को रह ही नहीं जाता| गीता के मोक्ष-सन्यास योग नाम के अठारहवें अध्याय में भी मुझे तो भगवान की पराभक्ति ही दिखाई देती है| इस अध्याय का अगली बार जब भी पाठ करें तब भक्ति के दृष्टिकोण से ही करें| कुछ बहुत ही प्यारे श्लोक हैं....
"विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः| ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः||१८:५२||
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्| विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते||१८:५३||
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति| समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्||१८:५४||
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः| ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्||१८:५५||
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः| मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्||१८:५६||"

Friday, 17 January 2020

हमारा जीवन सदा उत्तरायण, धर्मपरायण व राममय रहे ....

लोहिड़ी / मकर संक्रांति / पोंगल के शुभ अवसर पर चलो हम सब तीर्थराज त्रिवेणी संगम में स्नान करते हैं ताकि हमारा जीवन सदा उत्तरायण, धर्मपरायण व राममय रहे|
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इड़ा भगवती गंगा है, पिंगला यमुना नदी है और उनके मध्य में सुषुम्ना सरस्वती है| इस त्रिवेणी का संगम तीर्थराज है जहां स्नान करने से सर्व पापों से मुक्ति मिलती है| वह तीर्थराज त्रिवेणी प्रयाग का संगम कहाँ है? वह स्थान ... तीर्थराज त्रिवेणी का संगम हमारे भ्रूमध्य में है| अपनी चेतना को भ्रूमध्य में और उससे ऊपर रखना ही त्रिवेणी संगम में स्नान करना है| आने-जाने वाली हर सांस के प्रति सजग रहें| चेतना का निरंतर विकास करते रहें|
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हम अनंत, सर्वव्यापक, असम्बद्ध, अलिप्त व शाश्वत हैं| हं सः/सो हं| ॐ || हमारे हृदय की हर धड़कन, हर आती जाती साँस, ..... परमात्मा की कृपा है| हमारा अस्तित्व ही परमात्मा है| हम जीवित हैं सिर्फ परमात्मा के लिए| सचेतन रूप से परमात्मा से अन्य कुछ भी हमें नहीं चाहिए| माया के एक पतले से आवरण ने हमें परमात्मा से दूर कर रखा है| उस आवरण के हटते ही हम परमात्मा के साथ एक हैं| उस आवरण से मुक्त होंने का प्रयास ही साधना है| यह साधना हमें स्वयं को ही करनी पड़ेगी, कोई दूसरा इसे नहीं कर सकता| न तो इसका फल कोई साधू-संत हमें दे सकता है और न अन्य किसी का आशीर्वाद| अपने स्वयं का प्रयास ही हमें मुक्त कर सकता है| अतः दूसरों के पीछे मत भागो| अपने समक्ष एक जलाशय है जिसे हमें पार करना है, तो तैर कर पार तो स्वयं को ही करना होगा, कोई दूसरा यह कार्य नहीं कर सकता| किनारे बैठकर तैरूँगा तैरूँगा बोलने से कोई पार नहीं जा सकता| उसमें कूद कर तैरते हुए पार तो स्वयं को ही जाना है|
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जब भी भगवान की याद आये वही सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है| उसी क्षण स्वयं प्रेममय बन जाओ, यही सर्वश्रेष्ठ साधना है| अपनी व्यक्तिगत साधना/उपासना में एक नए संकल्प और नई ऊर्जा के साथ गहनता लायें .....
> रात्रि को सोने से पूर्व भगवान का ध्यान कर के निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ| > दिन का प्रारम्भ परमात्मा के प्रेम रूप पर ध्यान से करें| >पूरे दिन परमात्मा की स्मृति रखें| यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः स्मरण करते रहें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२०

लोहड़ी के त्योहार की अग्रिम शुभ कामनायें .....

लोहड़ी के त्योहार की अग्रिम शुभ कामनायें .....
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एक मध्यकालीन महान राजपूत हुतात्मा धर्मरक्षक महावीर दुल्ला भट्टी (मृत्यु: १५९९) की स्मृति में पंजाब, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश में मनाए जाने वाला लोहड़ी का त्योहार हर वर्ष १३ जनवरी को मनाया जाता है| अब क्रमशः होने वाले खगोलीय परिवर्तनों के कारण १४ जनवरी को मनाया जायेगा| मकर संक्रांति भी १४ जनवरी के स्थान पर १५ जनवरी को पड़ेगी| पंजाब में जो वीर योद्धा दुल्ला भट्टी के नाम से प्रसिद्ध था, राजपूताने में वह दूलिया भाटी के नाम से विख्यात था| राजस्थान में भी नौटंकी के लोक कलाकार दूलिया का नाटक खुले मैदान में दिखाते थे| लगभग ६० वर्ष पूर्व झुञ्झुणु में देखे गए लोकनायक दूलिया के नाटक की एक स्मृति मुझे भी है|
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पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में मकर संक्रान्ति की पूर्वसंध्या पर इस त्यौहार का उल्लास रहता है| रात्रि में खुले स्थान में परिवार और आस-पड़ोस के लोग मिलकर आग के किनारे घेरा बना कर बैठते हैं और रेवड़ी, मूंगफली आदि खाते हैं| गीत भी गाये जाते हैं और महिलाएं नृत्य भी करती हैं|
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मुगल बादशाहों के काल में विशेषकर अकबर बादशाह के काल में हिन्दू कन्याओं का अपहरण बहुत अधिक होने लगा था| विवाहों के अवसर पर जब सभी सगे-संबंधी एकत्र होते थे, मुगल सैनिक हमला कर के सभी पुरूषों को मार देते और महिलाओं का अपहरण कर के ले जाते| हिन्दू बहुत अधिक आतंकित थे| तभी से हिंदुओं में बाल-विवाह और रात्री-विवाह की प्रथा पड़ी| तभी से छोटे बच्चों का विवाह रात के अंधेरे में चुपचाप कर दिया जाने लगा|
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दुल्ला भट्टी एक राजपूत थे जिन्हें बलात् मुसलमान बना दिया गया था| पर हिंदुओं की गरीबी और दुःख-दर्द उन से सहन नहीं हुआ और वे विद्रोही बन बैठे| दुल्ला भट्टी बादशाह अकबर के शासनकाल के दौरान पंजाब में रहते थे| उन्होंने एक छापामार विद्रोहियों की सेना बनाकर मुगल अमीरों और जमीदारों से धन लूटकर गरीबो में बाँटने के अलावा, जबरन रूप से बेचीं जा रही हजारों हिंदू लड़कियों को मुक्त करवाया| साथ ही उन्होंने हिंदू परम्पराओं के अनुसार उन सभी हिन्दू लड़कियों का विवाह हिंदू लड़कों से करवाने की व्यवस्था की, और उन्हें दहेज भी प्रदान किया| इस कारण वह पंजाब के हिंदुओं में एक लोक-नायक बन गए| धीरे-धीरे दुला भट्टी के प्रशंसकों और चाहने वालों की संख्या बढऩे लगी| सताये हुए निर्धन हिन्दू अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसके पास जाते और अपना दुखड़ा रोते| उनके दुखों को सुनकर दुला भट्टी उठ खड़ा होता और जैसे भी संभव होता उनकी समस्याओं का समाधान करता|
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एक धर्मांतरित मुसलमान होकर भी हिंदुओं की सेवा करने के कारण दुला भट्टी से अकबर बादशाह बहुत अधिक नाराज हुआ| उस ने दुला भट्टी को एक डाकू घोषित कर दिया और देखते ही उसकी हत्या का आदेश भी जारी कर दिया| अकबर बादशाह के सिपाही कभी भी दुला भट्टी को जीवित नहीं पकड़ सके क्योंकि उसका भी सूचनातंत्र बहुत ही गहरा और व्यापक था| वह मुगलों को लूटता और उस धन से निर्धन हिंदुओं की पुत्रियों का विवाह बड़े धूमधाम से करता| कहीं-कहीं वह यदि व्यक्तिगत रूप से किसी विवाह समारोह में उपस्थित ना हो पाता था तो वहाँ अपनी ओर से धन भेजकर सारी व्यवस्था अपने लोगों के माध्यम से करा देता| दुला भट्टी के लोग पंजाब, जम्मू कश्मीर आज के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, हरियाणा, राजस्थान और पाकिस्तान के भी बहुत बड़े भूभाग पर सक्रिय हो गये थे| इतने बड़े भूभाग में अकबर ने कई बार भट्टी को मारने का अभियान चलाया, परंतु उसे कभी सफलता नहीं मिली|
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एक बार एक निर्धन ब्राह्मण अपनी पुत्री के विवाह में सहायता प्राप्त करने हेतु दुला भट्टी के पास गया| उस गरीब ब्राह्मण की दरिद्रता को देखकर दुला भट्टी बहुत अधिक दु:खी हुआ| उस गरीब कन्या के कोई भाई नहीं था इस लिए दुला भट्टी ने उसे अपनी धर्मबहिन बना लिया और स्वयं उपस्थित रहकर विवाह करवाने का वचन भी दे दिया| यह समाचार अपने गुप्तचरों से अकबर को मिल गया| उसने उस गाँव के आसपास अपने गुप्तचर इस आदेश के साथ नियुक्त कर दिये कि देखते ही बिना किसी चेतावनी के दुला भट्टी की हत्या कर दी जाये|
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विवाह कार्यक्रम में दुला भट्टी दहेज का सारा सामान लेकर स्वयं उपस्थित हुआ| विवाह के बाद जब डोली विदा हो रही थी तब अकबर के छद्म सैनिकों को पता चल गया और उन्होने उस पर बिना किसी चेतावनी के आक्रमण कर दिया| उसे संभलने का अवसर भी नहीं मिला और वह महान धर्मरक्षक महावीर मारा गया| जिस दिन उस की हत्या हुई वह दिन मकर संक्रांति से पहले वाला दिन था|
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दुला भट्टी के रोम-रोम में अपने देशवासियों के प्रति प्रेम भरा था, वह उनकी व्यथाओं से व्यथित था और उनका उद्घार चाहता था| अपने इसी आदर्श के लिये अपनी समकालीन मुगल सत्ता के सबसे बड़े बादशाह अकबर से टक्कर ली| वह जब तक जीवित रहा तब तक अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करता रहा| वह परम राष्ट्रभक्त था| दुला भट्टी की स्मृति में पंजाब, जम्मू कश्मीर, दिल्ली, हरियाणा राजस्थान और पाकिस्तान में (अकबर का साम्राज्य की लगभग इतने ही क्षेत्र पर था) लोहिड़ी का पर्व हर्षोल्लास के साथ मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व मनाया जाता है| वह महावीर दुल्ला भट्टी अमर है और अमर रहेगा| भारत माता की जय|
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२०

परमात्मा में निरंतर रमण ही सद् आचरण यानि सदाचार है .....

परमात्मा में निरंतर रमण ही सद् आचरण यानि सदाचार है .....
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आध्यात्म में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं ..... सद् आचरण में तत्परता| रण का आध्यात्मिक अर्थ है ... जिसमें हमारी आत्मा रमण कर सके उसका निज जीवन में आविर्भाव यानि निरंतर आगमन| हम शाश्वत आत्मा है और सिर्फ परमात्मा में ही रमण कर सकते हैं जैसे महासागर में जल की एक बूँद| हम परमात्मा में निरंतर रमण करते रहें ... यही सद् आचरण है जिसके लिए हमें सदा तत्पर रहना चाहिए| जो परमात्मा में निरंतर रमण करते हैं उन्हें किसी उपदेश की आवश्यकता नहीं है| उनके मुँह से जो निकल जाता है वही उपदेश है|
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हम परमात्मा में निरंतर रमण करते रहें, इसके लिए ... (१) हमारे जीवन में कुटिलता नहीं हो| (२) हम सत्यवादी हों| (३) सबके प्रति प्रेम हमारे ह्रदय में हो| (४) हमारे विचार और संकल्प सदा शुभ हों
ब्रह्मा जी ने ब्रह्मज्ञान सर्वप्रथम अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व को दिया| ब्रह्मा जी का ज्येष्ठ पुत्र कौन हो सकता है? थर्व का अर्थ है कुटिलता| जिनके जीवन में कोई कुटिलता नहीं है वे अथर्व यानि ब्रह्मा जी के ज्येष्ठ पुत्र, और ब्रह्मज्ञान के अधिकारी है|
परमात्मा सत्य है, इसीलिए हम उन्हें भगवान सत्यनारायण कहते हैं| हमारे जीवन में जितना झूठ-कपट है, उतना ही हम परमात्मा से दूर हैं| झूठ बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है| उस दग्ध वाणी से किया हुआ कोई भी मन्त्र-जप, पूजा-पाठ और प्रार्थना प्रभावी नहीं होती| असत्यवादी कभी परमात्मा के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता| सिर्फ धर्मरक्षा और प्राणरक्षा के लिए कहा गया झूठ तो माफ़ हो सकता है, अन्यथा नहीं| झूठे व्यक्ति नर्कपथगामी हैं|
जब हमारे ह्रदय में परमात्मा के प्रति प्रेम होगा तभी हम दूसरों को प्यार और निज जीवन में अपना सर्वश्रेष्ठ कर सारे गुणों को स्वयं में आकर्षित कर सकते हैं|
जैसा हम सोचते हैं वैसे ही बन जाते हैं| हमारे विचारों और संकल्प का प्रभाव सभी पर पड़ता है, अतः अपने विचारों पर सदा दृष्टी रखनी चाहिए| कुविचार को तुरंत त्याग दें, और सुविचार पर दृढ़ रहें| दूसरों से कभी कोई अपेक्षा न रखें पर हर परिस्थिति में अपना सर्वश्रेष्ठ करें|
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हम सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं, अतः सभी को सादर नमन|ॐ तत्सत ! ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ||
कृपा शंकर बावलिया मुद्गल
झुंझुनूं (राजस्थान)
१३ जनवरी २०२०

यह सोचना छोड़ दें कि कौन हमारे बारे में क्या सोच रहा है ....

हम इसी क्षण से यह सोचना छोड़ दें कि कौन हमारे बारे में क्या सोच रहा है| ध्यान सिर्फ इसी बात का सदा रहे कि स्वयं जगन्माता यानी माँ भगवती हमारे बारे में क्या सोचेंगी| भगवान माता भी है और पिता भी| माँ का रूप अधिक ममता और प्रेममय होता है| भगवान के मातृरूप पर ध्यान अधिक फलदायी होता है| जितना अधिक हम भगवान का ध्यान करते हैं, उतना ही अधिक हम स्वयं का ही नहीं, पूरी समष्टि का उपकार करते हैं| यही सबसे बड़ी सेवा है जो हम कर सकते हैं| जब हम परमात्मा की चेतना में होते हैं तब हमारे से हर कार्य शुभ ही शुभ होता है| जिस के हृदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा पड़ा है वह संसार में सबसे अधिक सुन्दर व्यक्ति है, चाहे उस की भौतिक शक्ल-सूरत कैसी भी हो|
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भगवान से हमें उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं माँगना चाहिए| प्रेम ही मिल गया तो सब कुछ मिल गया|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०२०

शराब और भांग-गांजे में क्या अंतर है?.....

शराब और भांग-गांजे में क्या अंतर है?.....
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ईसा की उन्नीसवीं शताब्दि तक अमेरिका में भांग-गांजे का सेवन पूरे विश्व में सबसे अधिक था| वहाँ के मूल निवासी, काले नीग्रो और गरीब श्वेत लोग भांग-गांजे का खूब सेवन करते थे, और श्वेत अमीर लोग शराब पीते थे| शराब मंहगी होती थी और उसे अमीर लोग ही पी सकते थे| भांग के पौधे free होते थे जिन्हें कहीं पर भी उगाया जा सकता था, इस लिए गरीब अमेरिकन लोग खूब भांग खाते थे| वहाँ की सरकार भी इसे प्रोत्साहित करती थी| फिर एक समय ऐसा आया कि शराब बनाने वाली कंपनियों ने अपने डॉलरों के जोर से अमेरिकी सरकार पर दबाव डाल कर अमेरिका में ही नहीं पूरे विश्व में भांग-गांजे पर प्रतिबंध लगवा दिया ताकि शराब खूब बिके|
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आजकल नई मेडिकल शोधों में भांग में कैंसर रोधी तत्व पाये गए हैं और यह देखा गया है कि भांग खाने वालों को केन्सर नहीं होता| अब अमेरिका में एक आन्दोलन चल पड़ा है भांग-गांजा फिर से free करने के लिए| उनका तर्क है कि जहाँ तंबाकू और शराब का सेवन कर हर वर्ष हजारों लोग मरते हैं, वहाँ आज तक के इतिहास में भाँग-गांजे के सेवन से एक भी आदमी नहीं मरा है|
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भारत में नियम बड़े सख्त हैं| बिना लाइसेंस के भांग-गाँजा और अफीम उगाना एक अपराध है जिसमें जमानत भी नहीं होती और बहुत अधिक सजा का प्रावधान है| अतः भांग-गांजा पास में भी रखने जैसी गलती भूल कर भी न करें| भारत में इनके सेवन करने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता है, अन्यथा इनको पास में रखना भी गंभीर अपराध है| इसलिए इन से दूर रहें|
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आजकल भारत में बढ़ रही शराब के नशे की प्रवृति बड़ी दुखद है| समाज के हर वर्ग में, क्या अमीर और क्या गरीब,यहाँ तक कि महिलाओं में भी पनप रही शराब पीने की प्रवृति बड़ी दुखद है| यह भ्रष्टाचार से भी अधिक भयावह है| यह भारत को खोखला कर रही है| भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व मद्यपान बहुत कम लोग करते थे| अंग्रेजों ने इसे लोकप्रिय बनाया| अंग्रेजों के आने से पूर्व नशा करने वाले भांग खाते थे और गांजा पीते थे जो बहुत कम हानि करता था| भांगची और गंजेड़ी लोग अपनी पत्नियों को नहीं पीटते थे, और किसी का कोई नुकसान नहीं करते थे| पर सरकारों को इसमें कोई टेक्स नहीं मिलता था इसलिए सरकारों ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया| शराब की बिक्री से सरकार को 40% कर मिलता है इसलिए सरकारें शराब को प्रोत्साहन देती हैं|
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भारत में साधू संत अति प्राचीन काल से भांग गांजे का सेवन करते आ रहे हैं| जंगलों में और पहाड़ों की दुर्गम ऊंची चोटियों पर रहने वाले साधु स्वस्थ रहने के लिए भांग-गांजे का सेवन करते हैं और बीमार पड़ने पर शंखिया नाम के जहर का एक कण खाते हैं, पता नहीं इस से वे कैसे ठीक हो जाते हैं| किसी दवा का कोई साधन उनके पास नहीं होता और वे इन्हीं से काम चलाते हैं| सीमित मात्रा में नियमित भांग खाने वालों ने बहुत लम्बी उम्र पाई है|
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प्राचीन भारत के राजा बड़े गर्व से कहते थे कि मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है और कोई शराब नहीं पीता| भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि भारत में एक दिन ऐसा अवश्य आये जब कोई चोर, दुराचारी और शराबी नहीं हो|
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ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
११ जनवरी २०२०

नववर्ष की शुभ कामनाएँ और संकल्प :-----

नववर्ष की शुभ कामनाएँ और संकल्प :-----
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आज़ादी मिलेगी, आज़ादी मिलेगी, आज़ादी मिलेगी, निश्चित रूप से आज़ादी मिलेगी, सब को आज़ादी मिलेगी| सब तरह की कुत्सित राक्षसी विचारधाराओं से, गलत मज़हबी दुराग्रहों से, गलत राजनीतिक-पारिवारिक गुलामी की परम्पराओं से, और लोभ, राग-द्वेष, अहंकार, झूठ-कपट व कुटिलता से सब को आज़ादी मिलेगी| गुलामी की परम्पराएँ समाप्तप्राय हैं| सभी तरह की गुलामी का विनाश होगा, जो गुलाम रहना चाहेंगे, प्रकृति उन्हें नष्ट कर देगी|

आज़ादी सिर्फ परमात्मा में है| परमात्मा से बाहर गुलामी ही गुलामी है| साकार रूप में जो भगवान वासुदेव हैं, निराकार रूप में वे ही पारब्रह्म परमात्मा परमशिव हैं| आज़ादी मिलेगी गीता में बताई हुई अहैतुकी अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति और समर्पण से| श्रुति भगवती ने इसी का डिमडिम घोष किया है| अपनी अपनी गुरु-परंपरानुसार उपासना करें| जो मेरे साथ हैं वे अनंताकाश के सूर्यमण्डल में कूटस्थ ब्रह्म परमशिव का ध्यान करें| वहाँ निश्चित रूप से आज़ादी ही आज़ादी है, कोई गुलामी नहीं है|

आप मेरे प्रियतम परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप स्वयं शाश्वत परमशिव हैं, यह नश्वर देह नहीं| आप सब को नमन| आप सब को इस नववर्ष में आज़ादी मिले, यही मेरा इस नववर्ष का संकल्प है|
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३१ दिसंबर २०१९

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"निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह| सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह||"
जो लोग 31 दिसंबर की मध्य रात्रि को ग्रेगोरियन कलेंडर के अनुसार नववर्ष मनाते हैं, उन को नववर्ष की शुभ कामनाएँ .....
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मुस्लिम देशों को छोड़कर विश्व के सभी देशों, यहाँ तक की पूर्व साम्यवादी देशों और भारतवर्ष में भी सरकारी स्तर पर नववर्ष ग्रेगोरियन कलेंडर के अनुसार ही मनाया जाता है| (व्यक्तिगत रूप से मैं तो चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि को घट-स्थापना कर माँ भगवती की उपासना से नववर्ष मनाता हूँ) आज ३१ दिसंबर को निशाचर-रात्री है| निशाचर-रात्री को निशाचर लोग मदिरापान, अभक्ष्य भोजन, फूहड़ नाच गाना, और अमर्यादित आचरण करते हैं| "निशा" रात को कहते हैं, और "चर" का अर्थ होता है चलना-फिरना या खाना| जो लोग रात को अभक्ष्य आहार लेते हैं, या रात को अनावश्यक घूम-फिर कर आवारागर्दी करते हैं, वे निशाचर हैं| जिस रात भगवान का भजन नहीं होता वह राक्षस-रात्रि है, और जिस रात भगवान का भजन हो जाए वह देव-रात्रि है| ३१ दिसंबर की रात को लगभग पूरी दुनिया ही निशाचर बन जाएगी| अतः बच कर रहें, सत्संग का आयोजन करें|
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भगवाम श्रीराम की प्रतिज्ञा अवश्य याद रखें .....
"निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह| सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह||"
भावार्थ :---- श्रीराम ने भुजा उठा कर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूँगा| फिर समस्त मुनियों के आश्रमों में जा-जा कर उन को (दर्शन एवं सम्भाषण का) सुख दिया ||
भगवान के भजन हेतु कोई तो बहाना चाहिए| इस बहाने यथासंभव अधिकाधिक भगवान का ध्यान, जप और कीर्तन करेंगे| जिन के भी ऐसे विचार हैं, मैं परमात्मा में उन के साथ हूँ| पुनश्च: सभी को शुभ कामनाएँ| यह नववर्ष हम सब के लिये मंगलमय हो|
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३१ दिसंबर २०१९

अग्नि स्नान :-----

अग्नि स्नान :-----
जो भगवान शिव की उपासना करते हैं उन्हें गले में रुद्राक्ष की माला, रुद्राक्ष की जपमाला, माथे पर भस्म से त्रिपुण्ड, और गुरु-परंपरानुसार देह के विभिन्न अंगों पर भस्म लगानी चाहिए| इनके बिना शिवपूजा उतनी फलदायिनी नहीं होती| भस्म सिर्फ देसी गाय के शुद्ध गोबर से ही बनती है| इसकी विधि यह है कि देसी गाय जब गोबर करे तब भूमि पर गिरने से पहिले ही उसे शुद्ध पात्र या बांस की टोकरी में एकत्र कर लें और स्वच्छ शुद्ध भूमि पर या बाँस की चटाई पर थाप कर कंडा (छाणा) बना कर सुखा दें| सूख जाने पर उन कंडों को आड़े-टेढ़े इस तरह रखें कि उनके नीचे शुद्ध देसी घी का एक दीपक जलाया जा सके| उस दीपक की लौ से ही वे कंडे पूरी तरह जल जाने चाहियें| जब कंडे पूरी तरह जल जाएँ तब उन्हें एक साफ़ थैले में रखकर अच्छी तरह कूट कर साफ़ मलमल के कपडे में छान लें| कपड़छान हुई भस्म को किसी पात्र में इस तरह रख लें कि उसे सीलन नहीं लगे| पूजा के लिए भस्म तैयार है|
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देह पर भस्म-लेपन अग्नि स्नान कहलाता है| यामल तंत्र के अनुसार सात प्रकार के स्नानों में अग्नि-स्नान सर्वश्रेष्ठ है| भस्म देह की गन्दगी को दूर करता है| भगवान शिव ने अपने लिए आग्नेय स्नान को चुन रखा है| शैव दर्शन के तन्त्र ग्रंथों में इस विषय पर एक बड़ा विलक्षण बर्णन है जो ज्ञान की पराकाष्ठा है| 'भ'कार शब्द की व्याख्या भगवान शिव पार्वती जी को करते हैं .....
"भकारम् श्रुणु चार्वंगी स्वयं परमकुंडली| महामोक्षप्रदं वर्ण तरुणादित्य संप्रभं||
त्रिशक्तिसहितं वर्ण विविन्दुं सहितं प्रिये| आत्मादि तत्त्वसंयुक्तं भकारं प्रणमाम्यह्म्||"
महादेवी को संबोधित करते हुए महादेव कहते हैं कि हे (चारू+अंगी) सुन्दर देह धारिणी, 'भ'कार 'परमकुंडली' है| यह महामोक्षदायी है जो सूर्य की तरह तेजोद्दीप्त है| इसमें तीनों देवों की शक्तियां निहित हैं|
जब कुण्डलिनी महाशक्ति जागृत होकर गुरुकृपा से आज्ञाचक्र को भेद कर सीधे सहस्त्रार में प्रवेश करती है तब वह मार्ग उत्तरा सुषुम्ना कहलाता है| उत्तरा सुषुम्ना के मार्ग में यह "परमकुंडली" कहलाती है| महादेव 'भ'कार द्वारा उस महामोक्षदायी परमकुण्डली की ओर संकेत करते हुए ज्ञानी साधकों की दृष्टि आकर्षित करते हुए उन्हें कुंडली जागृत कर के उत्तरा सुषुम्ना की ओर बढने की प्रेरणा देते हैं कि वे शिवमय हो जाएँ| इसलिए प्रयासपूर्वक अपनी चेतना को हर समय उत्तरा सुषुम्ना में रखना चाहिए|
शिवमस्तु ! ॐ स्वस्ति ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर

चाय क्या सचमुच हमें सर्दी से बचाती है? ....

चाय क्या सचमुच हमें सर्दी से बचाती है?
(१) चाय की पत्तियों में एक तो बहुत भारी मात्रा में कीट नाशक रसायन मिलाये हुए होते हैं, जिससे चाय की पत्तियों में कीड़े नहीं पड़ते|
(२) फिर चाय की पत्तियों को मुरझाये जाने से बचाने के लिए किसी गुप्त रसायन से शोधित किया जाता है| जिस रसायन से चाय की पत्तियों को मुरझाये जाने से बचाने और कड़क रखने के लिए शोधित किया जाता है उसके फार्मूले अर्थात घटक व विधि को अत्यधिक गुप्त रखा जाता है क्योंकि उसमें पशुओं का रक्त भी मिला हो सकता है| आप किसी भी पेड़-पौधे की पत्तियों को लीजिये, सूखने के बाद मसलने पर उनका चूर्ण बन जाता है पर चाय की पत्तियाँ चाय बनाने से पहिले भी और बनाने के बाद भी कड़क रहती हैं|
अतः चाय के साथ साथ आप कीटनाशक और एक अज्ञात रसायन का सेवन करने के लिए भी बाध्य हो जाते हैं|
(३) चाय में होने वाला निकोटिन भी हानिप्रद है|
(४) अतः चाय क्या सचमुच ही निरापद है? इसका विकल्प क्या हो सकता है?

Wednesday, 8 January 2020

साधना में तीन सबसे बड़ी बाधायें हैं .....

♦️साधना में तीन सबसे बड़ी बाधायें हैं .....

🔹(१) यश यानि प्रसिद्धि की चाह,
🔹(२) दीर्घसूत्रता यानि कार्य को आगे के लिए टालने की प्रवृत्ति, और
🔹(३) उत्साह का अभाव|

♥️सभी बाधाओं को दूर करने के लिए दो ही उपाय हैं .....
♦️ (१) सात्विक आहार व शास्त्रोक्त विधि से भोजन,
♦️(२)कुसंग का त्याग व निरंतर सत्संग|

🔹भोजन पूरी तरह से सात्विक होना चाहिए| हर किसी के हाथ का बना हुआ, या हर किसी के साथ बैठकर भोजन नहीं करना चाहिए| भोजन करने की शास्त्रोक्त विधि है उसका पालन करना चाहिए|

♦️किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग अनिवार्य है| कोई भी व्यक्ति या परिस्थिति जो हमें हरिः से विमुख करती है, उसका दृढ़ निश्चय से अविलंब त्याग करना होगा| साथ उन्हीं का करें जो आध्यात्मिक साधना में सहायक हैं, अन्यथा चाहे अकेले ही रहना पड़े| निरंतर हरिःस्मरण हमारा स्वभाव हो|

👏हरिः ॐ तत्सत् | 👏ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
८ जनवरी २०२०

जिन्होंने इस पूरी सृष्ट का भार उठा रखा है, जब वे हमारा भी भार उठा लें तो हमें और क्या चाहिए?

जिन्होंने इस पूरी सृष्ट का भार उठा रखा है, जब वे हमारा भी भार उठा लें तो हमें और क्या चाहिए?
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आजकल शीत ऋतु परमात्मा पर ध्यान के लिए सर्वश्रेष्ठ है| प्रकृति भी शांत है, न तो पंखा चलाना पड़ता है ओर न कूलर, अतः उनकी आवाज़ नहीं होती| कोई व्यवधान नहीं है| प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठते ही प्रकृति में जो भी सन्नाटे की आवाज सुनती है उसी को आधार बनाकर गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र या प्रणव की ध्वनि को सुनते रहो|
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जैसे एक अबोध बालक अपनी माँ की गोद में बैठकर स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है, वैसे ही अपने भाव-जगत में, जगन्माता की गोद में बैठकर साधना करें| हमें तो कुछ भी नहीं करना है, जो कर रहे हैं, वह जगन्माता ही कर रही है| रात्री को माँ की गोद में ही सोएँ और प्रातःकाल उन्हीं की गोद से उठें| सारे दिन यही भाव रखें कि सारा कार्य हमारे माध्यम से भगवती जगन्माता ही कर रही हैं| इन आँखों से वे ही देख रही हैं, कानों से वे ही सुन रही हैं, इन हाथों से वे ही कार्य कर रही हैं, और इन पैरों से वे ही चल रही हैं| इस हृदय में वे ही धड़क रही हैं और इन नासिकाओं से वे ही सांसें ले रही हैं| जो जगन्माता सारी प्रकृति का संचालन कर रही है, उसने जब स्वयं हमारा भार उठा लिया है तब हमें और क्या चाहिए?
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ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
७ जनवरी २०२०

परमात्मा से प्रेम हमारा स्वभाव है .....

परमात्मा से प्रेम हमारा स्वभाव है .....
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हम परमात्मा से प्रेम करते हैं क्योंकि यह हमारा स्वभाव है| हम कुछ मांगने के लिए ऐसा नहीं करते हैं| हमें कुछ चाहिए भी नहीं, जो चाहिए वह तो हम स्वयं ही हैं| हम कोई मंगते-भिखारी नहीं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं| जो कुछ भी परमात्मा का है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| स्वयं परमात्मा पर भी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है|
सरिता प्रवाहित होती है, किसी के लिए नहीं| प्रवाहित होना उसका स्वभाव है| व्यक्ति .. स्वयं को व्यक्त करना चाहता है, यह उसका स्वभाव है| परमात्मा को हम व्यक्त करते है क्योंकि यह हमारा स्वभाव है|
जो लोग सर्वस्व यानि समष्टि की उपेक्षा करते हुए स्वहित की ही सोचते हैं, प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करती | वे सब दंड के भागी होंगे| समस्त सृष्टि ही अपना परिवार है और समस्त ब्रह्माण्ड ही अपना घर| यह देह और यह पृथ्वी भी बहुत छोटी है अपने निवास के लिए| अपना प्रेम सर्वस्व में पूर्णता से व्यक्त हो|
हम सब अपनी पूर्णता को उपलब्ध हों| ॐ तत् सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ जनवरी २०२०

पूरा भारत ही शिव-शक्ति का रूप है ....

पूरा भारत ही शिव-शक्ति का रूप है जहाँ ५२ शक्तिपीठ और १२ ज्योतिर्लिंग हैं| भारत विश्वगुरु है क्योंकि परमात्मा की सर्वाधिक व सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ भारतवर्ष में ही हुई हैं| यहाँ महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज, हरिहर राय और बुक्क राय जैसे अनगिनत लाखों वीरों ने जन्म लिया है| वैसे वीर विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं जन्मे हैं| आध्यात्मिक रूप से भारत को ऐकात्मकता के सूत्र में बांधने का काम सबसे अधिक आचार्य शंकर, गुरु गोरखनाथ और गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज जैसे महापुरुषों ने किया है| सिखों के १० गुरुओं में से ७ तो भगवान् राम के बड़े पुत्र कुश के वंशज थे तथा बाकी ३ छोटे पुत्र लव के वंशज थे| गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज ने जैसा त्याग और वीरता का उदाहरण प्रस्तुत किया है वैसा विश्व के इतिहास में कहीं भी नहीं है| मैं भारत माँ को नमन करता हूँ| माँ, ऐसे और अनेक वीरों को जन्म दे| भारत माता की जय | वंदे मातरं | ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर

६ जनवरी २०२० 

गुरु-रूप-ब्रह्म ने उतारा पार भवसागर के .....

गुरु-रूप-ब्रह्म ने उतारा पार भवसागर के .....
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सदा ही प्रार्थना करता था ..... "गुरु रूप ब्रह्म उतारो पार भव सागर के"| एक दिन अचानक ही देखा कि झंझावातों से भरा, अज्ञात अनंत गहराइयों वाला अथाह भवसागर तो कभी का पार हो गया है| कब हुआ इसका पता ही नहीं चला| सामने सिर्फ ज्योतिर्मय ब्रह्मरूप गुरु महाराज थे, और कोई नहीं| जरा और ध्यान से देखा तो "मैं" भी नहीं था, सिर्फ गुरु महाराज ही थे, दूर दूर तक अन्य कोई नहीं दिखा| उस निःस्तब्धता में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई क्योंकि मैं तो था ही नहीं, प्रतिक्रिया करता भी कौन? दृष्टि, दृश्य और दृष्टा सब कुछ तो वे ही हो गए थे|
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गुरु महाराज मुस्कराये और मुझे अकेला छोड़, अज्ञात अनंत में विलीन हो गए| कोई शब्द नहीं, उन की उस मुस्कराहट ने ही तृप्त कर दिया| उन की वह परम ज्योति सदा ही समक्ष रहती है| उस ज्योति को ही अपना सर्वस्व समर्पित है| वह ज्योति ही परमशिव है, वही भगवान वासुदेव है, वही विष्णु है और वही परमब्रह्म है| भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ वही है|
उन्हीं से प्रार्थना है कि अंगुली पकड़ कर अपने साथ उस अथाह अनंत में ले चलो जहाँ अन्य कोई न हो| बहुत हो गया, अब और कुछ भी नहीं चाहिए|
गुरुरूप ब्रह्म को नमन:-----
"ब्रह्मानन्दं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्, भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरूं तं नमामि ||"
"कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे |
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ||
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ||
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं-सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
ॐ तत्सत्! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जनवरी २०२०
"दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्| मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रय:||"

हृदय में भक्ति का स्थान सर्वोपरी है .....

हृदय में भक्ति का स्थान सर्वोपरी है| किसी भी तरह के कर्मकांड से भक्ति अधिक महत्वपूर्ण है| भक्ति है परमात्मा के प्रति परमप्रेम| भक्ति को समझने के लिए देवर्षि नारद व ऋषि शांडिल्य द्वारा लिखे भक्ति सूत्रों का अध्ययन करें| हिन्दी में रामचरितमानस व संस्कृत में भागवत भी भक्ति के ही ग्रंथ हैं| बिना भक्ति के की गई कोई किसी भी तरह की साधना सफल नहीं हो सकती| ये सारे ग्रंथ किसी भी बड़ी धार्मिक पुस्तकों की दुकान पर मिल जाएँगे| गीता का भक्ति योग भी तभी समझ में आयेगा जब हमारे हृदय और आचरण में भक्ति होगी, अन्यथा नहीं| हृदय में भक्ति होगी तभी भगवान से भी मार्गदर्शन और उनकी कृपा प्राप्त होगी| गीता में व उपनिषदों में पूरा मार्गदर्शन है, कहीं भी अन्यत्र इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं है|
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भक्ति में किसी भी तरह का कोई दिखावा न करें| यह हमारे और परमात्मा के मध्य का निजी मामला है, किसी अन्य का इस से कोई संबंध नहीं है| यदि संस्कृत भाषा का ज्ञान है तो पुरुष-सूक्त, श्री-सूक्त आदि का पाठ भी करें| यदि संस्कृत में शुद्ध उच्चारण नहीं है तो रहने दें| भाषा के गलत उच्चारण से बचें| जिस भी भाषा का ज्ञान है उसमें ग्रन्थों के अनुवाद ही पढ़ें|
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भगवान से जैसी भी प्रेरणा मिलती है वैसी ही साधना करें| ध्यान साधना उन्नत साधकों के लिए है| जो इस मार्ग में उन्नत हैं वे ही ध्यान करें अन्यथा नहीं| हम गलत कर रहें हैं या सही कर रहे हैं, इसका मापदंड एक ही है और वह है .... भगवान की अनुभूति| किसी भी साधना से यदि भगवान की उपस्थिती का आभास होता है तब तो वह साधना सही है, अन्यथा कहीं न कहीं कोई बड़ी समस्या है| भगवान को ठगने का प्रयास न करें अन्यथा कोई ठग आकर आपका सब कुछ ठग ले जाएगा| हृदय में अच्छी निष्ठा होगी तो सच्चे निष्ठावान लोग मिलेंगे, अन्यथा अपनी अपनी भावनानुसार ही लोग मिलेंगे|
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जिस महात्मा के सत्संग से परमात्मा की उपस्थिती अनुभूत होती है, हृदय में भक्ति जागृत होती है, और हमारा आचरण सुधरता है, उसी महात्मा का सत्संग करें| अन्य किसी के पीछे पीछे किसी अपेक्षा से भागना समय की बर्बादी है| जो मिलना है वह स्वयं में हृदयस्थ भगवान से ही मिलेगा, किसी अन्य से नहीं|
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घर के एक कोने को अपने लिए आरक्षित रखें जहाँ बैठकर भगवान की भक्ति कर सकें| उस स्थान का प्रयोग अन्य किसी कार्य के लिए न करें| जब भी हृदय अशांत हो, वहाँ जाकर बैठ जाएँ, शांति मिलेगी| जीवन का एकमात्र उद्देश्य भगवान की प्राप्ति है| कुतर्कियों से दूर रहें| आजकल कई स्वघोषित धार्मिक लोग दूसरों को भ्रमित कर के ही अपना अहंकार तृप्त करते हैं| ऐसे लोगों का विष की तरह त्याग कर दें|
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सभी को शुभ कामनाएँ और प्यार| ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
४ जनवरी २०२०

Tuesday, 7 January 2020

हमारी भक्ति अनन्य-अव्यभिचारिणी और अनपायनी हो .....

हमारी भक्ति अनन्य-अव्यभिचारिणी और अनपायनी हो .....
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मैंने एक बार लिखा था कि हमारे भगवान बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी हैं, वे हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं| जरा सी भी कमी हो तो विमुख हो जाते हैं| और प्यार भी वे ऐसा माँगते हैं जिसमें निरंतर वृद्धि होती रहे| जैसे एक छोटे बच्चे को मनाते हैं, वैसे ही उन्हें भी मनाना पड़ता है| अब एक ऐसे विषय पर लिखने को मुझे बैठा दिया है जिस की पात्रता मुझ में बिलकुल भी नहीं है| फिर भी अपनी सीमित और अति-अति-अति-अल्प बुद्धि से कुछ न कुछ तो लिखूँगा ही, इज्ज़त का सवाल है| अपयश, यश और सारी महिमा उन्हीं की है|
"दीनदयाल सुनी जबतें, तब तें हिय में कुछ ऐसी बसी है|
तेरो कहाय के जाऊँ कहाँ मैं, तेरे हित की पट खैंचि कसी है||
तेरोइ एक भरोसो मलूक को, तेरे समान न दूजो जसी है|
ए हो मुरारि पुकारि कहौं अब मेरी हँसी नहीं तेरी हँसी है||"
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इस लेख में जो गीता के श्लोक दिये हैं, उन का स्वाध्याय तो पाठक को स्वयं ही करना होगा| भगवान ने मुझे समझने की योग्यता तो दी है पर समझाने की नहीं| समझ भी भगवान की कृपा से ही आती है| उतना ही लिख पाऊँगा जितना लिखने की प्रेरणा मिल रही है|
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सबसे पहिले गीता की बात करते हैं, फिर मानस की करेंगे| गीता में भगवान कहते हैं .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी|
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
अनन्य का अर्थ है .... जहाँ अन्य कोई नहीं है, जहाँ हमारे में और प्रत्यगात्मा में कोई भेद नहीं है| भगवान कहते हैं .....
"ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च|
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च||१४:२७||
अर्थात् मैं अमृत, अव्यय, ब्रह्म, शाश्वत धर्म, और ऐकान्तिक अर्थात् पारमार्थिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ||
इसी भाव में स्थित होकर उनका ध्यान करना चाहिए| हम यह नश्वर देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं| उनमें समर्पित होने पर पृथक आत्मा का बोध भी नहीं रहता, वे ही वे रह जाते हैं और कर्ता भाव विलुप्त हो कर उपास्य, उपासना और उपासक वे स्वयं ही हो जाते हैं| ध्यान करते करते उपास्य के गुण उपासक में भी आ ही जाते हैं|
भक्ति में व्यभिचार वह है जहाँ भगवान के अलावा अन्य किसी से भी प्यार हो जाता है| भगवान हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं| हम जरा से भी इधर-उधर हो जाएँ तो वे चले जाते हैं| इसे समझना थोड़ा कठिन है| हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें| सारा जगत ब्रह्ममय हो| ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो| यह अव्यभिचारिणी भक्ति है|
भगवान कहते हैं.....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते|
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
इस स्थिति को हम ब्राह्मी स्थिति भी कह सकते हैं, जिसके बारे में भगवान कहते हैं .....
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः|
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति||२:७१||"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति|
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
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अब बात करेंगे "अनपायनी" भक्ति की| भक्ति अनपायनी हो, इसका अर्थ है कि उसमें "अपाय" न हो| अपाय का अर्थ .... कम होते होते नाश होना भी होता है, और श्वास भी होता है| हमारी भक्ति में निरंतर वृद्धि हो, कभी भी कोई कमी न हो| भगवान् के चरणों में हमारी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाये, कभी घटे नहीं|
"बार बार बर मागउं हरषि देहु श्रीरंग| पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग||"
प्रेम ऐसा होना चाहिए जो हर क्षण बढ़े, उसमें भी कोई कमी न आने पाये| यह अनपायिनी भक्ति है| यह भक्ति हर सांस के साथ बढ़ती है| यह परमप्रेम है जिसे ही भक्ति-सूत्रों में देवर्षि नारद ने "भक्ति" कहा है| भक्ति में हमें ..... धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष .... की भी कामना नहीं होनी चाहिए| हमें भगवान का सिर्फ और सिर्फ प्रेम चाहिए, अन्य कुछ भी नहीं| उनके प्रेम के अलावा कुछ भी कामना होने पर पतन प्रारम्भ हो जाता है|
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम|
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम||
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरवान|
जनम–जनम रति रामपद यह वरदान न आन||
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यह अनन्य-अव्यभिचारिणी-अनपायनी भक्ति .... अनंत चैतन्य का द्वार है| वह भक्ति जागृत होती है परमप्रेम और गुरुकृपा सेे| भगवान के प्रति परमप्रेम जागृत होते ही मेरुदंड उन्नत हो जाता है, दृष्टिपथ स्वतः ही भ्रूमध्य पथगामी हो जाता है, व चेतना उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र व सहस्त्रार के मध्य) में स्थिर हो जाती है| मेरुदंड में सुषुम्ना जागृत हो जाती है और वहाँ संचारित हो रहा प्राण-प्रवाह अनुभूत होने लगता है| कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म और अनाहत नाद भी अनुभूत होने लगते हैं|
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गुरु रूप में हे भगवान वासुदेव, आप की कृपा सदैव बनी रहे| मुझ अकिंचन के लाखों दोष व नगण्य गुण ..... सब आप को समर्पित हैं| आप से मेरी कहीं पर भी कोई पृथकता नहीं है| मेरा सर्वस्व आपका है, और मेरे सर्वस्व आप ही हैं| कभी कोई पृथकता का बोध न हो| आप ही मेरे योग-क्षेम हो| आपका यह वाक्य मुझे बहुत अधिक शक्ति देता है जिसमें आपने अनन्य भाव से उपासना करने को कहा है .....
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
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अनन्यभाव से युक्त होकर आपकी मैं आत्मरूप से निरन्तर निष्काम उपासना कर सकूँ| इतनी शक्ति अवश्य देना| मेरा सर्वस्व आपको समर्पित है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ जनवरी २०२०

भारत एक हिन्दू राष्ट्र है क्योंकि यहाँ की संस्कृति हिन्दू है ....

भारत एक हिन्दू राष्ट्र है क्योंकि यहाँ की संस्कृति हिन्दू है| संस्कृति वह होती है जिसका जन्म संस्कारों से होता है| भारत एक सांस्कृतिक इकाई है| "देश" और "राष्ट्र"..... इन दोनों में बहुत अधिक अन्तर है| "देश" एक भौगोलिक इकाई है, और "राष्ट्र" एक सांस्कृतिक इकाई| भारतीय संस्कृति कोई नाचने-गाने वालों की संस्कृति नहीं है, यह हर दृष्टि से महान व्यक्तियों की संस्कृति है|
(१) हिन्दू कौन है ? :----
जिस भी व्यक्ति के अन्तःकरण में परमात्मा के प्रति प्रेम और श्रद्धा-विश्वास है, जो आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म, कर्मफलों के सिद्धान्त, व ईश्वर के अवतारों में आस्था रखता है, वह हिन्दू है, चाहे वह विश्व के किसी भी भाग में रहता है, या उसकी राष्ट्रीयता कुछ भी है| हिन्दू माँ-बाप के घर जन्म लेने से ही कोई हिन्दू नहीं होता| हिन्दू होने के लिए किसी दीक्षा की आवश्यकता नहीं है| स्वयं के विचार ही हमें हिन्दू बनाते हैं|
आध्यात्मिक रूप से हिन्दू वह है जो हिंसा से दूर है| मनुष्य के लोभ और राग-द्वेष व अहंकार ही हिंसा के जनक हैं| लोभ, राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति .... परमधर्म "अहिंसा" है| जो इस हिंसा (राग-द्वेष, लोभ व अहंकार) से दूर है वह हिन्दू है|
(२) हिन्दू राष्ट्र क्या है :----
हिन्दू राष्ट्र एक विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प और निजी मान्यता है| हिन्दू राष्ट्र ऐसे व्यक्तियों का एक समूह है जो स्वयं को हिन्दू मानते हैं, जिन की चेतना ऊर्ध्वमुखी है, जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करना चाहते हैं, चाहे वे विश्व में कहीं भी रहते हों|
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ दिसंबर २०१९