Saturday 21 January 2017

कूटस्थ चैतन्य व आत्मगुरुतत्व .....

कूटस्थ चैतन्य व आत्मगुरुतत्व .....
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कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर सार्वजनिक चर्चा नहीं की जाती है| यह विषय भी एक ऐसा ही विषय है जो दुधारी तलवार है| इससे साधक देवता भी बन सकता और इसके विपरीत भी| पर इसी काल में देश-विदेश में अनेक मनीषियों ने इस विषय पर खूब चर्चाएँ की हैं और इस विषय को बहुत लोकप्रिय बनाया है|
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वर्तमान विकट संक्रमण काल में जब हमारे सनातन धर्म व आस्थाओं पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं और राष्ट्र में कुछ आसुरी शक्तियों के शिकार लोग उनका उपकरण बनकर बहुत गन्दी राजनीति कर के हमारी आस्थाओं पर प्रहार कर रहे हैं, ऐसे समय में हम अपने धर्म का पालन कर के ही उसकी रक्षा कर सकते हैं| धर्म भी उन्हीं की रक्षा करेगा जो धर्म की रक्षा करेंगे|
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हमारी श्रुतियों में, गीता में, और योगदर्शन में ओंकार की महिमा भरी पड़ी है| मन्त्रों में प्रणव यानि "ॐ" (ओ३म्) सबसे बड़ा बीज मन्त्र है, अन्य सब मन्त्रों की उत्पत्ति इसी मन्त्र से हुई है| सृष्टि की उत्पत्ति भी इसी मंत्र से हुई है| तंत्रों में आत्मानुसंधान सबसे बड़ा तंत्र है, जिसकी साधना करते करते साधक 'ॐ' पर ही पहुँच जाता है| यह परमात्मा का सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ साकार रूप है|
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"ॐ" (ओ३म् ) और तारक मन्त्र "राम" दोनों एक ही हैं| दोनों का फल भी एक ही है| 'राम' पर ध्यान करते करते साधक ॐ पर पहुँच जाता है| वैसे तो ओंकार की चेतना में निरंतर रहें पर विधिवत् साधना में कुछ बातों का ध्यान रखना अति आवश्यक है ---
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(1) ओंकार का ध्यान करते समय कमर सीधी रहे यानि मेरु दंड उन्नत रहे|
(2) दृष्टी भ्रूमध्य में रहे| जो बहुत उन्नत साधक है उनकी दृष्टी भ्रूमध्य और सहस्त्रार पर एक साथ सहज रूप से चली जाती है|
(3) आसन ऊनी हो जिस पर एक रेशम का वस्त्र विछा हो|
(4) मुँह पूर्व या उत्तर दिशा में हो| वैसे उन्नत योगियों के लिए भ्रूमध्य पूर्व दिशा है और सहस्त्रार उत्तर दिशा है|
(5) जिनको खेचरी मुद्रा का अभ्यास है वे खेचरी मुद्रा में रहें, अन्य सब जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटा लें|
(6) जो दायें हाथ से लिखते हैं उनको दायें कान में व जो बाएँ हाथ से लिखते हैं उनको बाँयें कान में ओंकार की ध्वनी सुनेगी| कुछ समय पश्चात ओंकार की ध्वनी खोपड़ी के पीछे के भाग, शिखास्थान से नीचे, मेरुशीर्ष (medulla) जहां मस्तिष्क से मेरुदंड की नाड़ियाँ मिलती हैं, वहाँ सुननी आरम्भ हो जायेगी और उसका विस्तार सारे ब्रह्माण्ड में होने लगेगा| एक विराट ज्योति का प्रादुर्भाव भी यहीं से होगा जो भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होगी| यह मेरुशीर्ष यानि मस्तक ग्रंथि ही वास्तविक आज्ञाचक्र है| भ्रूमध्य तो दर्पण की तरह है जहाँ गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं|
(7) आरम्भ में लकड़ी के "T" के आकार के लकड़ी के एक हत्थे को सामने रखकर उस पर अपनी कोहनियाँ टिका दें, अंगूठों से कान बंद कर लें और जो भी ध्वनियाँ सुनती हैं उनमें से सबसे तीब्र ध्वनी को सुनें| साथ साथ मानसिक रूप से ओ३म् ओ३म् ओ३म् का जाप करते रहें|
"ॐ" .....यह लिखने में प्रतीकात्मक है, और "ओ३म्" ..... यह ध्वन्यात्मक है| इस की लिखावट पर कोई विवाद ना करें| महत्व उस का है जो सुनाई देता है, न कि कैसे लिखा गया है|
आरम्भ में जब कान बंद करेंगे तो कई प्रकार की ध्वनियाँ सुनेंगी| जो सबसे तीब्र है उसी पर ध्यान दें और मानसिक रूप से ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का जाप करते रहें|
(8) कुछ धर्मगुरुओं के अनुसार ॐ के जाप का अधिकार मात्र सन्यासियों को है, गृहस्थों को नहीं| वे कहते हैं कि गृहस्थ ॐ के साथ भगवान के अन्य किसी नाम का सम्पुट लगाएँ| एक बार एक धर्मगुरु ने तो यहाँ तक कहा कि गृहस्थों द्वारा ओंकार का जाप अधर्म है| पर मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता| क्योंकि इसका कोई प्रमाण नहीं है| सारे उपनिषद् और भगवद्गीता "ओंकार' की महिमा से भरे पड़े हैं| जो उपनिषदों में यानि वेदों में है वही प्रमाण है, वही मान्य है| जो वेदविरुद्ध है वह अमान्य है|
(9) भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन, और कानों से ओंकार की ध्वनी यानि नादब्रह्म को सुनते रहें व मन में ओंकार का जप करते रहें| किसी भी तरह के वाद-विवाद में ना पड़ें| हमारा लक्ष्य परमात्मा है, ना कि कोई सिद्धांत या बौद्धिकता|
(10) उपरोक्त साधना की सफलता एक ही तथ्य पर निर्भर है की हमारे ह्रदय में कितनी भक्ति है| बिना भक्ति के कोई लाभ नहीं होगा और आप कुछ कर भी नहीं पाएँगे| जितनी गहरी भक्ति होगी उतनी ही अच्छी साधना होगी, उतना ही गहरा समर्पण होगा| कर्ताभाव ना आने दें| सब कुछ प्रभु के चरणों में समर्पित कर दें| कर्ता भी वे ही है और भोक्ता भी वे हैं| आप तो उनके एक उपकरण मात्र हैं|
अपना सब कुछ, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हें समर्पित कर दें| इसकी इतनी महिमा है कि उसे बताने की सामर्थ्य मेरी क्षमता से परे है|
(11) ज्योतिर्मय नाद ब्रह्म की सर्वव्यापक चेतना और उस में विलय होकर उससे एकाकार होना ही 'कूटस्थ चैतन्य' है और यह कूटस्थ ही आत्मगुरु है और यही गुरुतत्व है|
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इसकी महिमा अनंत है| मनुष्य की बुद्धि जितनी कल्पना कर सकती है उससे भी बहुत परे इसकी महिमा है|.
ॐ श्रीगुरवे नमः |.ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव शिव शिव शिव शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. १३ वि.सं.२०७२| 22 जनवरी2016.

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