दिव्य प्रेम कोई क्रिया नहीं है, यह तो हमारा अस्तित्व है ....
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(यह मेरा निजी विचार है, कोई आवश्यक नहीं है कि आप इससे सहमत हों)
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मेरा निज अनुभव तो यही कहता है कि हम किसी को भी प्रेम नहीं कर सकते, पर स्वयं प्रेममय हो सकते हैं| स्वयं प्रेममय होना ही प्रेम की अंतिम परिणिति है| यही परमात्मा के प्रति अहैतुकी प्रेम है| यहाँ कोई माँग नहीं है, सिर्फ अपने परम प्रेम को व्यक्त करना है|
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जब हम कहते हैं कि मैं किसी को प्रेम करता हूँ तो यहाँ अहंकार आ जाता है| मैं कौन हूँ करने वाला ? मैं कौन हूँ कर्ता? कर्ता तो सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही है| "मैं" शब्द में अहंकार और अपेक्षा आ जाती है|
अपने अंतर की गहराइयों में सीमित होकर हम किसी को प्रेम नहीं कर सकते, और न ही अपनी सीमितता में कोई अन्य हमें प्रेम कर सकता है|
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हम स्वयं प्रेममय यानि साक्षात "प्रेम" बन कर परमात्मा के सचेतन अंश बन जाते हैं क्योंकि भगवान स्वयं अनिर्वचनीय परम प्रेम हैं| फिर हमारे प्रेम में सम्पूर्ण समष्टि समाहित हो जाती है| जैसे भगवान भुवन-भास्कर मार्तंड आदित्य अपना प्रकाश बिना किसी शर्त के सब को देते हैं वैसे ही हमारा प्रेम पूरी समष्टि को प्राप्त होता है| फिर पूरी सृष्टि ही हमें प्रेम करने लगती है क्योंकि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रया होती है| हम स्वयं ही परमात्मा के प्रेम हैं जो अपनी सर्वव्यापकता में सर्वत्र समस्त सृष्टि में सब रूपों में व्यक्त हो रहे हैं|
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आप तो स्वयं ज्योतिषांज्योति हो, सारे सूर्यों के सूर्य हो, प्रकाशों के प्रकाश हो|
जैसे भगवान भुवन-भास्कर के समक्ष अन्धकार टिक नहीं सकता वैसे ही आपके परम प्रेम रूपी प्रकाश के समक्ष अज्ञान, असत्य और अन्धकार की शक्तियां नहीं टिक सकतीं| आप अपनी पूर्णता को प्रकट करो| आपका प्रेम ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है| आपकी पूर्णता ही सच्चिदानंद है, आपकी पूर्णता ही परमेश्वर है और अपनी पूर्णता में आप स्वयं ही परमात्मा हो| आप जीव नहीं अपितु साक्षात परमशिव हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ तत् त्वं असि | ॐ सोsहं || ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
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(यह मेरा निजी विचार है, कोई आवश्यक नहीं है कि आप इससे सहमत हों)
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मेरा निज अनुभव तो यही कहता है कि हम किसी को भी प्रेम नहीं कर सकते, पर स्वयं प्रेममय हो सकते हैं| स्वयं प्रेममय होना ही प्रेम की अंतिम परिणिति है| यही परमात्मा के प्रति अहैतुकी प्रेम है| यहाँ कोई माँग नहीं है, सिर्फ अपने परम प्रेम को व्यक्त करना है|
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जब हम कहते हैं कि मैं किसी को प्रेम करता हूँ तो यहाँ अहंकार आ जाता है| मैं कौन हूँ करने वाला ? मैं कौन हूँ कर्ता? कर्ता तो सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही है| "मैं" शब्द में अहंकार और अपेक्षा आ जाती है|
अपने अंतर की गहराइयों में सीमित होकर हम किसी को प्रेम नहीं कर सकते, और न ही अपनी सीमितता में कोई अन्य हमें प्रेम कर सकता है|
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हम स्वयं प्रेममय यानि साक्षात "प्रेम" बन कर परमात्मा के सचेतन अंश बन जाते हैं क्योंकि भगवान स्वयं अनिर्वचनीय परम प्रेम हैं| फिर हमारे प्रेम में सम्पूर्ण समष्टि समाहित हो जाती है| जैसे भगवान भुवन-भास्कर मार्तंड आदित्य अपना प्रकाश बिना किसी शर्त के सब को देते हैं वैसे ही हमारा प्रेम पूरी समष्टि को प्राप्त होता है| फिर पूरी सृष्टि ही हमें प्रेम करने लगती है क्योंकि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रया होती है| हम स्वयं ही परमात्मा के प्रेम हैं जो अपनी सर्वव्यापकता में सर्वत्र समस्त सृष्टि में सब रूपों में व्यक्त हो रहे हैं|
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आप तो स्वयं ज्योतिषांज्योति हो, सारे सूर्यों के सूर्य हो, प्रकाशों के प्रकाश हो|
जैसे भगवान भुवन-भास्कर के समक्ष अन्धकार टिक नहीं सकता वैसे ही आपके परम प्रेम रूपी प्रकाश के समक्ष अज्ञान, असत्य और अन्धकार की शक्तियां नहीं टिक सकतीं| आप अपनी पूर्णता को प्रकट करो| आपका प्रेम ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है| आपकी पूर्णता ही सच्चिदानंद है, आपकी पूर्णता ही परमेश्वर है और अपनी पूर्णता में आप स्वयं ही परमात्मा हो| आप जीव नहीं अपितु साक्षात परमशिव हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ तत् त्वं असि | ॐ सोsहं || ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
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