हमारे जीवन की सर्वप्रथम आवश्यकता "परमात्मा" हैं। सबसे पहिले हम परमात्मा को उपलब्ध हों, फिर उनकी चेतना में उन्हीं को कर्ता बनाकर, स्वयं निमित्तमात्र होकर जीवन के अन्य सारे कार्य करें।
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हिन्दुओं को एक षड्यंत्र के अंतर्गत अपनी स्वयं की धर्मशिक्षा से वंचित रखकर धर्मनिरपेक्षता (अधर्मसापेक्षता) की कुशिक्षा दी गयी कि -- "सर्वधर्म समभाव", "सब धर्मों में एक ही बात है", "जो गीता में लिखा है वही बाइबल और क़ुरान में लिखा है", "सब धर्मगुरु एक ही बात कहते हैं", "ईश्वर अल्ला तेरो नाम" आदि आदि। तुलनात्मक रूप से अध्ययन करने के बाद ही पता चलता है कि सत्य कुछ और है।
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कई बार कुछ बातें लिखते हुए डर भी लगता है। एक बार मैंने लिखा था कि प्रत्येक हिन्दू को रामायण और महाभारत के साथ साथ अपने जीवन में कम से कम एक बार Bible के सारे Testaments, और क़ुरान शरीफ का तुलनात्मक अध्ययन भी करना चाहिये। अन्यथा कैसे क्या लिखा है, इसका पता कैसे लगेगा?
यह लिखते ही मुझे गालियों की एक बौछार मिली। बाद में लोग मुझ से सहमत भी हुए। अपने दिमाग के खिड़की-दरवाजे खुले रखने चाहियें। ऐसे ही आध्यात्मिक साधनाओं के बारे में है। हरेक क्रिया के पीछे एक तर्क है जिसे समझना चाहिए। कोई भी साधना आप क्यों कर रहे हैं, इसका भी ज्ञान होना चाहिए।
इस विषय पर मैं अधिक नहीं लिखना चाहता क्योंकि मुमुक्षु का मिलना बहुत दुर्लभ होता है। कोई दो लाख में एक व्यक्ति होता है जिसे परमात्मा से वास्तविक प्रेम होता है।
कृपा शंकर
६ अक्तूबर २०२४
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