Monday, 3 February 2025

मेरा कुछ साधना/उपासना करने का भाव मिथ्या है ---

 मेरा कुछ साधना/उपासना करने का भाव मिथ्या है। मैं न तो किसी तरह की कोई साधना, उपासना या भक्ति करता हूँ, और न कुछ अन्य भला कार्य। मैंने यदि कभी इस तरह का कोई दावा भी किया है तो वह असत्य था। असत्य वचन के लिए मैं क्षमायाचना करता हूँ।

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यहाँ तो भगवान वासुदेव स्वयं शांभवी मुद्रा में बैठे हैं, और अपने परमशिव (परम कल्याणकारक) रूप का ध्यान स्वयं कर रहे हैं। वे ही एकमात्र कर्ता हैं। मैं तो एक साक्षी या निमित्त मात्र ही हूँ, कोई साधक नहीं। भगवान कहते हैं --
"मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२:२॥"
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२"४॥"
"ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥१२:६॥"
"तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥१२:७॥"
अर्थात् -- मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं॥ परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥ इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥ परन्तु जो भक्तजन मुझे ही परम लक्ष्य समझते हुए सब कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्ययोग के द्वारा मेरा (सगुण का) ही ध्यान करते हैं॥ हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ॥
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भगवान को कौन प्रिय है? इसका उत्तर उन्होंने गीता के १२वें अध्याय में दिया है। उसका स्वाध्याय कर के हम तदानुरूप ही बनें। लेकिन भगवान ने बहुत अधिक विलंब कर दिया है। इतना विलंब उन्हें नहीं करना चाहिए।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ फरवरी २०२३

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