लक्ष्य दूर नहीं, अति समीप है ---
.
मायावी झंझावातों और अपनी स्वयं की उदासीनता के कारण इस रथ रूपी वाहन की गति मंद पड़ गई थी, व एक अस्थायी भटकाव आ गया था। अपनी स्थिति और दिशा का अब मुझे सही बोध है। पुनश्च: योगारूढ़ होकर अपने लक्ष्य परमशिव की ओर तीव्र गति से अग्रसर हूँ। स्वयं भगवान वासुदेव ने अपने हाथों से इस रथ की बागडोर संभाल ली है, अतः निश्चिंत हूँ। लक्ष्य मेरे समक्ष है, कहीं कोई अवरोध नहीं है।
.
स्कन्द पुराण के अनुसार --
अर्थात् जो दोलायमान गोविन्द, और मञ्चस्थ मधुसूदन को, तथा रथ में स्थित वामन को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
सरलतम शब्दों में -- इस शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
मेरे मित्र जो इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं, उनसे मेरा करवद्ध निवेदन है कि वे कभी भी समय निकाल कर भगवान वासुदेव का ध्यान करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय का स्वाध्याय तब तक करें, जब तक वह उनके निज जीवन का एक भाग ही न बन जाए। उनके जीवन की धारा ही बदल जाएगी। यह भगवान का आश्वासन है।
.
मेरी कोई आकांक्षा नहीं है। इसलिए मेरा कोई भरोसा नहीं है कि मैं इस मंच पर या अन्य कहीं भी फिर कभी दिखाई दूँ या न दूँ। मेरा समर्पण पूर्ण हो। भगवान श्रीहरिः जैसा भी चाहते हैं, वही हो। निज चेतना में मैं उनके साथ एक हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० फरवरी २०२३
No comments:
Post a Comment