पुरुषोत्तम ---
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उपनिषदों का सार श्रीमद्भगवद्गीता है, तो श्रीमद्भगवद्गीता का सार उसका १५वाँ अध्याय (पुरुषोत्तम योग) है। १५ वें अध्याय का भी सार उसका १५ वाँ श्लोक है। दूसरे शब्दों में गीता का सार उसके १५ वें अध्याय का १५ वाँ श्लोक है --
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
अर्थात् - मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ॥
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गीता के स्वाध्याय और परमात्मा के ध्यान की आदत पड़ गई है, जिनके बिना जीवन सूना सूना और व्यर्थ लगता है। परमात्मा से प्रेम और उनकी ध्यान-साधना के बिना तो एक दिन भी जीवित रहने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। आज यदि मैं जीवित हूँ तो परमात्मा से प्रेम के कारण ही जीवित हूँ, अन्यथा एक दिन भी जीने की इच्छा नहीं है। वास्तव में भगवान स्वयं ही मेरे माध्यम से यह जीवन जी रहे हैं।
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योगी लोग कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान करते हैं। मेरे जैसे अकिंचन साधकों की भी यही उपासना है। ये पुरुषोत्तम ही मेरे जीवन हैं। ये ही परमशिव हैं, ये ही विष्णु हैं, और ये ही वेदान्त के ब्रह्म हैं। ध्यान में मैं उनके साथ एक हूँ। भगवान पुरुषोत्तम को ही यह जीवन समर्पित है, जिन्हें मैं परमशिव कहता हूँ।
(इससे पूर्व भगवान यह समझा चुके हैं कि गुणातीत होकर अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति द्वारा ही हम उन्हें प्राप्त हो सकते हैं)
ॐ गुरुभ्यो नमः !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
३० जनवरी २०२३
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