इस बात का अब कोई महत्व नहीं रह गया है कि मेरी स्वयं से क्या अपेक्षाएँ हैं। महत्व केवल इसी बात का है कि भगवान क्या चाहते हैं। भगवान चाहते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
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पूरी बात समझने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना होगा। भगवान से मेरी एक ही प्रार्थना है कि मेरे अन्तःकरण में किसी कामना का जन्म ही न हो। आप स्वयं ही अपनी पूर्णता में व्यक्त हों। मेरा कोई पृथक अस्तित्व न रहे। सिर्फ आप ही आप रहें।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ जनवरी २०२४
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