Friday, 17 January 2025

हमारा समर्पण सिर्फ और सिर्फ भगवान की अनंत असीम समग्रता के प्रति है, न कि उनकी किसी अभिव्यक्ति पर ---

हमारा समर्पण सिर्फ और सिर्फ भगवान की अनंत असीम समग्रता के प्रति है, न कि उनकी किसी अभिव्यक्ति पर। जब तक हम स्वयं को यह शरीर मानते हैं, तब तक आध्यात्मिक साधना में कोई प्रगति नहीं कर सकते। हमारी प्रगति उसी क्षण से प्रारंभ होती है जिस क्षण यह लगे कि हम यह शरीर नहीं हैं, और साधक साध्य व साधना सिर्फ भगवान हैं। भगवान अपनी साधना स्वयं कर रहे हैं, हम तो एक निमित्त मात्र हैं। वे ही दृष्टा, दृश्य व दृष्टि हैं। यह भौतिक सूक्ष्म व कारण शरीर, अंतकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार), कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ, व उनकी तन्मात्राएं -- परमात्मा की सिर्फ अभिव्यक्तियाँ हैं।

यह भौतिक शरीर -- लोकयात्रा के लिए मिला हुआ एक वाहन मात्र है जैसे कोई मोटर साइकिल। जैसे मोटर साइकिल की देखभाल करते हैं, वैसे ही इस शरीर की भी करनी पड़ती है। संसार हमें इस मोटर साइकिल के रूप में ही जानता है। हमारे आत्म-तत्व को कोई अन्य नहीं जान सकता। सदा यह भाव रखें कि भगवान ही हमारे माध्यम से साँस ले रहे हैं, और वे ही सारे कार्य संपादित कर रहे हैं। हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। एकमात्र अस्तित्व भगवान का है।
वे ही यह मैं बन गए है, मेरे से अन्य कोई भी या कुछ भी नहीं है। इस सृष्टि का सम्पूर्ण अस्तित्व "मैं" हूँ। मेरे से अन्य कोई नहीं है। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
१८ जनवरी २०२४

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