Sunday, 19 January 2025

मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि "स्थितप्रज्ञता" है ---

 मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि "स्थितप्रज्ञता" है ---

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गीता में भगवान श्रीकृष्ण हमें स्थितप्रज्ञ होने को कहते हैं। जहाँ तक मेरी समझ है, अपने आत्म-स्वरूप में स्थित हो जाना ही स्थितप्रज्ञता है। यही भवसागर को पार करना है। भवसागर एक मृगतृष्णा मात्र है। जब हमें परमात्मा से परमप्रेम और आनंद की अनुभूति होने लगे, तब समझना चाहिए कि परमात्मा की कृपा हो रही है, और सारे भेद समाप्त हो रहे हैं।
स्थितप्रज्ञता बहुत बड़ी उपलब्धि है। स्थितप्रज्ञ कौन है? भगवान कहते हैं --
"प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२:५५॥"
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
"यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५७॥"
"यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५८॥"
अर्थात् - हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है, और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है, उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥
दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥
जो सर्वत्र अति स्नेह से रहित हुआ उन शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त कर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित (स्थिर) है॥
कछुवा अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से परावृत्त कर लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है॥
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मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धियों को क्रमशः हम कैसे प्राप्त करें? गीता में भगवान ने यह बहुत अच्छी तरह से समझाया है। वे परमात्मा हमारे अन्तःकरण को स्वीकार करें। अब तक उन्होने सदा हमारी रक्षा की है, आगे भी करते रहेंगे।
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० जनवरी २०२४

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