जब प्यास लगती है तब स्वयं को ही पानी पीना पड़ेगा। दूसरों का पीया हुआ पानी हमारी प्यास नहीं बुझा सकता। भगवान को पाने की प्यास लगती है तब स्वयं को ही भक्ति करनी होगी। दूसरों की भक्ति हमें सिर्फ प्रेरणा दे सकती है, और कुछ नहीं। भगवान की भक्ति हम अपनी अंतरात्मा से करेंगे तो उनसे कोई वियोग नहीं हो सकता।
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सिर्फ कल्पनाओं, सुनी-सुनाई बातों और दूसरों के अनुभवों में कुछ नहीं रखा है। स्वयं अपने परिश्रम से साधना के शिखर पर चढ़ कर भगवान की अनुभूतियाँ प्राप्त करनी होंगी। जितना परिश्रम करेंगे, उतना ही अधिक पारिश्रमिक मिलेगा। बिना परिश्रम के कुछ भी नहीं मिलता। भगवान भी अपना अनुग्रह उसी पर करते हैं जो परमप्रेममय होकर उनके लिए परिश्रम करता है। पर्वतों पर चढ़ाई करने वालों को ही पर्वतों से आगे के दृश्य दिखाई देते हैं।
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"तुलसी विलम्ब न कीजिए भजिये नाम सुजान।
जगत मजूरी देत है क्यों राखे भगवान्॥"
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