Monday 27 August 2018

परमात्मा को हम क्या दे सकते हैं ? ....

परमात्मा को हम क्या दे सकते हैं ?
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ये पंक्तियाँ मैं ईश्वरीय प्रेरणा से अपने पूर्ण हृदय से लिख रहा हूँ| अपने हृदय का पूर्ण प्रेम मैनें इन शब्दों में डाल दिया है| इन शब्दों को समझने के लिए सिर्फ प्रेम चाहिए, कोई विद्वता नहीं| मैं अपनी गुरु-परम्परा और परमात्मा की परम कृपा से ही इन शब्दों को लिख पा रहा हूँ, अन्यथा मुझ अकिंचन की कोई औकात नहीं है कि इन शब्दों को लिख सकूँ| जो भी इन शब्दों को समझेगा उसका निश्चित रूप से कल्याण होगा.

हम परमात्मा को "स्वयं" को ही दे सकते हैं, अन्य कुछ भी नहीं| अपने सम्पूर्ण अस्तित्व, अपने सम्पूर्ण अंतःकरण, यानि अपने मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार .... अपनी पृथकता का बोध, ..... सब कुछ हम परमात्मा को पूर्ण रूप से अर्पित कर दें| इसके अतिरिक्त हमारे पास है ही क्या? सब कुछ तो उसी का है|
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यह देह रूपी उपकरण जो परमात्मा ने हमें लोकयात्रा के लिए दिया है, उस उपकरण में अंतर्रात्मा यानी आत्म-तत्व के रूप में परमात्मा स्वयं बिराजमान हैं| वे ही इस देहरूपी विमान के चालक हैं, यह विमान भी वे स्वयं ही हैं, वे ही इस देह में सांस ले रहे हैं| इस देह के साथ साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड यानि सम्पूर्ण सृष्टि भी सांस ले रही है| हम यह देह नहीं, परमात्मा की परमप्रेममय अनंतता हैं| इस सांस रूपी यज्ञ में हर सांस के साथ-साथ हम अपने अहंकार रूपी शाकल्य की आहुति श्रुवा बन कर दे दें|
"यह आहुति ही है जो हम परमात्मा को दे सकते हैं, अन्य कुछ भी नहीं"|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||
अर्थात् .... अर्पण (अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है, और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है, ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
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परमात्मा द्वारा दी हुई अपनी इस अति सीमित व अति अल्प बुद्धि और क्षमता द्वारा इस से अधिक और कुछ भी लिखने में मैं असमर्थ हूँ|
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परमात्मा का आश्वासन है कि जिनमें भी उनके प्रति परमप्रेम और उन्हें पाने की अभीप्सा होगी, उन्हें वे निश्चित रूप से प्राप्त होंगे| उन्हें मार्गदर्शन भी मिलेगा| हम अपनी साधना में परमात्मा को सर्वत्र देखें, और सब में परमात्मा को देखें|
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गीता में ही भगवान कहते हैं .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति"||६:३०||
अर्थात् ..... जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता||
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को सप्रेम नमन ! आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियाँ हैं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अगस्त २०१८

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