Tuesday, 31 January 2017

मदर टरेसा को संत की उपाधि दी किस आधार पर ? .....

मदर टरेसा को संत की उपाधि दी किस आधार पर ? .....
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आधार ये है की मदर टरेसा ने एक बार किसी महिला के शरीर पर हाथ रखा और उस महिला का गर्भाशय का कैंसर ठीक हो गया तो POP का कहना था की मदर टरेसा मे चमत्कारिक शक्ति है
इसलिए वो संत होने के लायक है !

अब आप ही बताए क्या ये scientific है ???
की उन्होने ने किसी महिला पर हाथ रखा और उसका गर्भाशय का कैंसर ठीक हो गया ?
इस लिए मदर टरेसा संत होने के लायक है !

ये 100% superstition है अंध विश्वास है ! लेकिन भारत सरकार ने इसके खिलाफ कुछ नहीं किया !
अब अगर भारत के कोई साधू -संत ऐसा करे तो वो जेल के अंदर ! क्योंकि वो अंध विश्वास फैला रहे है !!

अब आप ही बताएं मदर टरेसा से बड़ा अंध विश्वास फैलाने वाला कौन होगा ??
अगर उसमे चमत्कारिक शक्ति होती तो उसने pop john paul के ऊपर हाथ क्यों नहीं रखा ???
अजीब बात ये है कि pop john paul को खुद parkinson नाम की बीमारी थी ! और 20 साल से थी !
(इस बीमारी मे व्यकित के हाथ पैर कांपते रहते हैं ! )
तो उस पर हाथ रख मदर टरेसा ने उसको ठीक क्यों नहीं किया ??

मदर टरेसा का एक मात्र उदेश्य सेवा के नाम पर भारत को ईसाई बनाना था !!

अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति कैसे मिले ????? .......

अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति कैसे मिले ????? .......
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मैं कुछ बातें प्रबुद्ध पाठकों से जानना चाहता हूँ| यदि हो सके तो कृपया मुझे इसकी जानकारी दें| यह मैं मात्र अपनी जानकारी के लिए पूछ रहा हूँ, किसी के प्रति द्वेष की भावना मेरे में नहीं है| मैं यही जानना चाहता हूँ की अल्पसंख्यकवाद का वैधानिक आधार क्या है जिसे मैं अपनी अल्प और सीमित बुद्धि से समझ नहीं पाया हूँ|
(1) विश्व के किस देश में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक का आधिकारिक व संवेधानिक दर्जा प्राप्त है, और उन्हें अल्पसंख्यक के नाम पर क्या सुविधा मिलती है ? क्या भारत के भी किसी प्रांत में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है ?
(2) भारत में जब धर्म के नाम पर अल्पसंख्यकों को विशेष सुविधा प्राप्त है तो यह सुविधा यहूदी व पारसी धर्म के अनुयायियों को क्यों नहीं है ? अल्पसंख्यक आयोग में एक भी यहूदी नहीं है|
(3) जब धर्म के नाम पर कुछ अल्पसंख्यकों को भारत में विशेष सुविधाएं प्राप्त हैं तो ये सुविधाएँ उन लोगों को क्यों नहीं है जो स्वतंत्र विचारक हैं और किसी भी धर्म में आस्था नहीं रखते ? वे भी तो धार्मिक अल्पसंख्यक है|
(4) भारत सरकार ने जैन मतावलंबियों को अल्पसंख्यक घोषित किया है| यहाँ मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ| श्रमण परम्परा में भगवान महावीर स्वामी तो जन्मजात वर्ण व्यवस्था के घोर विरुद्ध थे| उनका कथन था कि बिना कैवल्य पद को प्राप्त किये कोई सत्य का बोध नहीं कर सकता| जैन धर्म का लक्ष्य ही 'वीतरागता' है, और जैन वह है जो जितेन्द्रिय है| अतः 'जैन' कोई जाति नहीं हो सकती, अपितु एक मत है| जैन धर्म का पालन करने के लिए जैन परिवार में जन्म लेना अनिवार्य नहीं है, कोई भी जैन धर्म का पालन कर सकता है और नहीं भी कर सकता| अतः जैन मतावलम्बी किस आधार से अल्पसंख्यक हुए यह मेरी समझ से परे है| मेरा निवेदन है की कोई इस पर प्रकाश डाले|
(5) कई वर्षों पूर्व 'रामकृष्ण मिशन' और 'आर्य समाज' ने स्वयं को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित किये जाने का अनुरोध किया था जिसे ठुकरा दिया दिया गया था| जिस आधार पर वह ठुकराया गया था वह भी मेरी समझ से परे है| मेरा अनुरोध है कि कोई मुझे समझाये|
(6) इस प्रकार से तो सनातन वैदिक धर्म को मानने वाले भी भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक हैं|
उन को भी अल्पसंख्यक की श्रेणी में सम्मिलित किये जाने के लिए आन्दोलन करना चाहिए|
इतना ही नहीं जितने भी सम्प्रदाय और मत-मतान्तर भारत में हैं उन सब को अपने आप को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित करवाने के लिए आन्दोलन करना चाहिए|
(7)जब सभी अपने आप को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की चेष्टा करेंगे तभी भारत को अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति मिलेगी| अन्य कोई मार्ग नहीं है| भारत में सभी लोग धार्मिक अल्पसंख्यक हैं क्योंकि यह स्पष्ट नहीं है कि अल्पसंख्यक होने का मापदंड क्या है|
मेरा अनुरोध है की इस विषय पर एक राष्ट्रीय बहस छेड़ी जाए क्योंकि यह एक राष्ट्रीय महत्त्व का मुद्दा है| धन्यवाद|
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सब का कल्याण हो| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय|
शिवोहं शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.७ वि.स.२०७२, 31 जनवरी 2016

प्रत्यभिज्ञा हृदय :---

प्रत्यभिज्ञा हृदय :---

प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है पूर्वज्ञात विषय को पुनश्चः यानि दुबारा जानना|

जब से मेरे हृदय में मेरे परम प्रिय परमात्मा भगवान परमशिवआये हैं, मेरा हृदय उन्हीं का हो गया है| अब तो वे ही मेरे हृदय भी हो गए हैं|

सारे साकार और निराकार रूप वे ही हैं| सारा अस्तित्व भी वे ही हैं| वे ही परम सत्य हैं| वे ही अनिर्वचनीय परम प्रेम और वे ही सच्चिदानंद हैं|
 

मैं असम्बद्ध, निर्लिप्त और निःसंग हूँ| ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ |
 

ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||

हमरा वातावरण हमारी इच्छा शक्ति से अधिक शक्तिशाली है .....

वह परिवेश जिसमें हम रहते हैं यानि हमारे आसपास का वातावरण, हमारी इच्छा-शक्ति से भी अधिक प्रबल होता है| हमारे विचार भी हमारे चारों ओर एक सूक्ष्म वातावरण का निर्माण करते हैं|
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पूर्व जन्मों के अच्छे संस्कार मनुष्य की रक्षा करते हैं पर कुसंगति बुरे संस्कारों और बुरे कर्मों को जन्म देती है|
मनुष्य के मन में आया हर विचार व हर भाव उसका कर्म होता है|
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जो बुरे बिचार हमारे अवचेतन मन में छिपे हैं उनके प्रतिकार के लिए सतत परमात्मा का चिंतन और ध्यान अति आवश्यक है| एक समय में दो विचार नहीं आ सकते अतः परमात्मा का ध्यान और चिंतन हमारे अवचेतन मन में गहराई से बैठकर हमारा स्वभाव बन जाएगा|
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बाकी हम सब समझदार हैं, सब समझते हैं, अतः अधिक कहना व्यर्थ है|
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ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

अपने बच्चों को घर में खूब प्यार दें ....

सभी माता-पिताओं से मेरा हाथ जोड़ कर अनुरोध है कि अपने बच्चों को घर में खूब प्यार दें जिसके लिए वे घर से बाहर प्यार नहीं ढूंढें|
मनोवैज्ञानिक रूप से जिन बच्चों को (विशेष रूप से बालिकाओं को) घर में बाप का प्यार नहीं मिलता है, वे बड़े होकर वैवाहिक जीवन में पर पुरुषों में प्यार ढूंढते हैं|
जिन बच्चों को (विशेष रूप से बालकों को) माँ का प्यार नहीं मिलता है, वे बड़े होकर अपने वैवाहिक जीवन में पर स्त्रियों में प्यार ढूंढते हैं|
अतः माँ और बाप दोनों का प्यार बच्चों के विकास के लिए आवश्यक है|
हम सब समझदार हैं, अतः समझ गए होंगे| ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः :---
मैंने जीवन में जो देखा है और अनुभूत किया है वही कह रहा हूँ| मेरे साथ कुछ ऐसे सहकर्मी भी थे जो घर में सुन्दर पत्नी के होते हुए भी और घर में अपने समझदार वयस्क बच्चों के होते हुए भी बेशर्म होकर परस्त्रीगामी थे| गहराई से विचार करने पर मैनें पाया कि उनकी विकृति का कारण बचपन में उन को माँ से प्यार न मिलना था| ऐसे ही कुछ महिलाओं को भी देखा जो घर में अच्छे पति के होते हुए भी परपुरुषगामी थीं| वे भी अपने बाल्यकाल में पिता के प्रेम से वंचित थीं|
कुसंगति दूसरा कारण था|

कृपया अपने बच्चों को, विशेष रूप से अपनी लड़कियों को वामपंथी प्रभाव से बचाएँ ..

कृपया अपने बच्चों को, विशेष रूप से अपनी लड़कियों को वामपंथी प्रभाव से बचाएँ ..
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किसी पर भी वामपंथी प्रभाव गलत है| अपने बच्चों को मार्क्सवादी वामपंथियों, नारीमुक्तिवादियों, नारीसमानतावादियों और सेकुलरों से बचाएं| ये स्त्रियों को समान अधिकार दिलाने की बातें कर के के अपने संपर्क में आई लड़कियों को इतना खराब कर देते हैं कि वे लडकियाँ घर-गृहस्थी के योग्य नहीं रहतीं| जिस भी घर में ये विवाह कर के जाती हैं वह घर बर्बाद हो जाता है| मैनें कई घरों को बर्बाद होते हुए देखा है|
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ये वामपंथी और सामानाधिकारवादी पहले तो लड़की से दोस्ती करते हैं, फिर उसे मुफ्त में घुमाते-फिराते हैं, उपहार देते हैं, सिगरेट और शराब पीना सिखाते हैं| फिर उसे यह ज्ञान देते हैं कि स्त्री-पुरुष में कोई भेद नहीं होता है| स्त्री को वह सब करना चाहिए जो पुरुष करता आया है| पुरुष यदि अनेक स्त्रियों से सम्बन्ध रखता है तो स्त्री को भी अनेक पुरुषों से सम्बन्ध रखना चाहिए| उनके प्रभाव से लडकियाँ बराबरी करने पर उतारू हो जाते हैं|
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लडकियों के दिमाग में यह बात बैठा दी जाती है कि समाज ने तुम्हारे साथ सदा भेदभाव किया है, घरो में कैद करके रखा है .....आदि आदि| फिर उसे सिखाया जाता है कि जैसे पुरुषों ने स्त्रियों को भोगा है वैसे ही तुम भी पुरुषों को भोगो और उनका शोषण करो|
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आगे की बातें लिखना मैं अपनी मर्यादा के विरुद्ध समझता हूँ अतः आप कल्पना कर सकते हैं|
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जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में कई वर्ष पूर्व वामपंथी महिलाओ ने "Feel the freedom, Throw Bra" नाम का एक आन्दोलन चलाया था, जिसमें लडकियाँ बिना ब्रा पहिने घूमने लगी थीं| उनको सिखाया गया था की ब्रा पहिनना एक बंधन है जिसे तोड़ देना चाहिए| अभी कुछ महीनों पूर्व दिल्ली में खुले आम सार्वजनिक रूप से चुम्बन और आलिंगन करने की स्वतंत्रता का आन्दोलन चला था|
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ये सब समाज को और विवाह की संस्था को नष्ट करने का कार्य है| ये लडकियाँ किसी संपन्न घर के लडके को फंसा कर उससे विवाह कर लेती है, फिर उसका जीवन नरक बना देती है, झूठे महिला अत्याचार और दहेज़ प्रताड़ना के मुकदमें अपनी ससुराल वालों पर कर देती हैं| | लडका दुःखी होकर तलाक़ का मुक़दमा करता है और हिन्दुओं के लिए बने भारत के वर्तमान सारे कानून लडकियों के पक्ष में हैं, लड़कों की कहीं भी सुनवाई नहीं होती| न्यायालय उस लड़की को या तो लड़के की आधी संपत्ति दिला देती है या भरण-पोषण (maintenance) के नाम पर एक बहुत बड़ी रकम की देनदारी कर देती है| कई लडके तो आत्म-ह्त्या कर लेते हैं, उनके माँ-बाप भी असमय मर जाते हैं| लड़की की दृष्टी तो धन पर ही होती है जो उसे मिल जाता है| फिर उसे उन्मुक्तता का पूरा अवसर मिल जाता है|
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अब हिन्दुओं में विवाह की संस्था तो धीरे धीरे समाप्त हो ही रही है (मुसलमानों में अच्छा है .... तीन बार तलाक़ तलाक़ तलाक़ कह कर छुट्टी पा लेते हैं) अतः हिन्दू लडकों को चाहिए कि चाहे वे सारी जिन्दगी कुंआरे रह जाएँ पर भूल से भी विवाह अनजान परिवारों में न करें| अगर भूल से भी कोई वामपंथी या नारी-स्वतान्त्रतावादी लड़की घर में बहु बनकर आ गयी तो उस घर का विनाश निश्चित है|
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सभी माता-पिताओं से मेरा हाथ जोड़ कर अनुरोध है कि अपनी बच्चियों को घर में प्यार दें जिसके लिए वे घर से बाहर प्यार नहीं ढूंढें| मनोवैज्ञानिक रूप से जिन बच्चों को घर में बाप का प्यार नहीं मिलता वे पर पुरुषों में प्यार ढूंढते हैं| जिन बच्चों को माँ का प्यार नहीं मिलता वे दूसरी महिलाओं में प्यार ढूंढते हैं| अतः माँ और बाप दोनों का प्यार बच्चों के विकास के लिए आवश्यक है|
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जय जननी, जय भारत ! जय सनातन वैदिकी संस्कृति | जय श्रीराम !
ॐ ॐ ॐ ||

हर पल एक भागवत मुहूर्त है .......

हर पल एक भागवत मुहूर्त है .......
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प्रिय निजात्मन, आप सब में स्थित परमात्मा को सादर नमन!
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आज का दिवस आप सब के लिए अब तक के जीवन का सर्वश्रेष्ठ दिवस है| आज के दिन हम परमात्मा का ध्यान बीते हुए कल की अपेक्षा अधिक गहराई से व अधिक समय तक के लिए करेंगे| कल का दिन इससे भी शुभ और अच्छा होगा| आने वाला हर दिन पिछले विगत दिन से अच्छा होगा|
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प्रत्येक दिन प्रभु कृपा से मिला एक वरदान है| कल का क्या भरोसा! कल आये या ना आये कुछ कह नहीं सकते| जीवन में जो भी शुभ कार्य करने योग्य है वह आज ही इसी पल जितना हो सकता है उतना पूरा कर लें| हर एक दिन को, हर एक पल को एक जीवन के बराबर जीयें| क्या पता जो साँस हम छोड़ रहे हैं वह आखिरी साँस हो, फिर आये या ना आये| यह कोई नकारात्मक बात नहीं अपितु एक वास्तविकता है|
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हर क्षण, हर पल एक भागवत मुहूर्त है| इस मुहूर्त में जो भी किया जाएगा वह शुभ ही होगा| अशुभ से बचें और जो भी शुभ है वह इसी क्षण इसी पल पूरा करने का प्रयास करें|
अब तक जो जीवन मिला है उस के लिए भगवान के प्रति कृतज्ञ रहें और किसी का जो भी ऋण है उससे उऋण हो जाएँ| अन्यथा फिर पता नहीं कब अवसर मिले|
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जीवन में किया हर संकल्प पूर्ण होता है| कोई कुछ भी ठान ले तो उसे कोई भी रोक नहीं सकता| जीवन एक कृतज्ञता है, प्रभु के प्रति कृतज्ञता| कृतघ्नता सबसे बड़ा पाप है|
मुझे क्या मिलेगा यह कभी ना सोचें, पर मेरे हर क्षण से समष्टि को क्या मिलेगा बस यही महत्वपूर्ण है|
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परमात्मा को आप हर पल याद रखें व हर पल आप उसके उपकरण बने रहें इसी शुभ कामना के साथ आप के ह्रदय में हर पल धड़क रहे भगवन नारायण को पुनश्चः सप्रेम सादर नमन|
सब का कल्याण हो| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय|
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शिवोहं शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.६ वि.स.२०७२, ३०, जनवरी 2016

हिंदुत्व की मेरी अवधारणा :---

हिंदुत्व की मेरी अवधारणा :---
हिंदुत्व हमारे लिए हमारे परम आदर्श भगवान श्रीराम के जीवन का अनुकरण है| हिंदुत्व निगमागम ग्रंथों व भगवत गीता का सारतत्व है| हिंदुत्व प्रभु श्री हनुमान जी की निस्वार्थ भक्ति, सेवा और साधना है| हिंदुत्व आचार्य चाणक्य की राष्ट्र साधना है| हिंदुत्व महाराणा प्रताप, महाराजा शिवाजी, महाराजा रणजीतसिंह व अन्य सहस्त्रों शूरवीरों का शौर्य और त्याग है| हिंदुत्व स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविन्द व अन्य अनेकानेक संतों की राष्ट्रभक्ति है| हिंदुत्व महारानी पद्मिनी जैसी लाखों सतियों का सतीत्व है| हिंदुत्व खंड खंड में बंटे इस राष्ट्र को एकात्म करने का सूत्र और इस धर्म, राष्ट्र व संस्कृति का सृजनकर्ता है| हिंदुत्व हमारा प्राण. हमारी सांस और हमारा अस्तित्व है|
ॐ ॐ ॐ ||

ह्रदय की घनीभूत पीड़ा व उसका समाधान ...... जीवन का ध्रुव ........

ह्रदय की घनीभूत पीड़ा व उसका समाधान ...... जीवन का ध्रुव ........
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वर्षों पहिले युवावस्था में जय शंकर प्रसाद का 'कामायनी' महाकाव्य पढ़ा था जिसकी अनेक पंक्तियाँ आज भी याद हैं| उसका आरम्भ कुछ इस प्रकार होता है ....
"हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह,
एक व्यक्ति भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय अथाह |"
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जीवन में जब अपनी आस्थाओं पर और मान्यताओं पर मर्मान्तक प्रहारों को होते हुए देखता हूँ तो बड़ी पीड़ा होती है और कई बार तो ऐसा लगता है कि हम भी उस असहाय व्यक्ति की ही तरह इस अथाह प्रलय को देख रहे हैं, और कुछ भी नहीं कर सकते| पर अगले ही क्षण निज विवेक कहता है ........ "नहीं", तुम असहाय नहीं हो, तुम दीन-हीन नहीं हो ........ |
निज विवेक कहता है ....... तुम बहुत कुछ कर सकते हो .......|
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जब स्वयं में अनेक कमियों को देखता हूँ तो निराश हो जाता हूँ| पर शीघ्र ही निज विवेक फिर कहता है ...... तुम, ये कमियाँ नहीं हो...... परमात्मा की शक्तियाँ तुम्हारे साथ हैं.....|
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इसी उधेड़बुन में जीवन निकल गया है, सोचकर फिर निराश हो जाता हूँ| तब फिर कोई छिपा हुआ विवेक ह्रदय के भीतर से कहता है ....... जीवन शाश्वत और अनंत है, अपने सपनों को साकार कर सकते हो ..... अपने संकल्पों को पूर्ण कर सकते हो........ |
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निश्चित रूप से अपने सपनों को साकार करेंगे| आने वाली हर बाधा से दूर से ही निकल जाएँगे, किसी भी बाधा को मार्ग में नहीं आने देंगे|
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अनंत शक्तियाँ साथ में हैं| एक पथ प्रदर्शक जीवन का ध्रुव बन गया है जिसकी कृपा से इस घनी अँधेरी रात्रि में भी मार्ग दिखाई दे रहा है|
जो भी होगा, अच्छा ही होगा| परमात्मा की इस सृष्टि में कुछ भी गलत नहीं हो सकता|
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उपरोक्त कवि के ही शब्दों में ....

"जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल |
ईश का वह रहस्य वरदान, जिसे तुम कभी न जाना भूल ||"
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|| ॐ ॐ ॐ || जब सृष्टि के स्वामी साथ में हैं तो अब कुछ भी असाध्य नहीं है|
I have made Thee polestar of my life
Though my sea is dark and my stars are gone
Still I see the path through Thy mercy ......... (P.Y.)
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शिवोहं शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.५ वि.स.२०७२, 29 जनवरी 2016

कोकाकोला, कोलगेट से लाभ, व अन्य कुछ .....

कोकाकोला हर घर में रखनी चाहिए| इससे होने वाले 16 बहुत बड़े लाभ हैं जो इसकी हर कमी को दूर कर देते हैं| यह पोस्ट खूब शेयर करें ताकि कोकाकोला के बारे में दुर्भावना दूर हो| इसकी एक बोतल हर समय घर में रहनी चाहिए|
(1) चीनी मिटटी के बर्तनों पर लगे हर धब्बे को
दूर करता है|

(2) घर में गलीचे पर लगे हर धब्बे को दूर करता है|

(3) खाने के बर्तनों पर हुए जलने के हर निशान को दूर करता है|

(4) कपड़ों पर लगी चिकनाई जो साबुन से दूर नहीं होती को मिटा देता है|

(5) बालो पर लगे रंग को तुरंत उतार देता है|

(6) किसी भी धातु पर लगे पेंट के धब्बों को तुरंत मिटा देता है|

(7) कार बैटरी और इन्वर्टर की बैटरी के टर्मिनलों पर जरने यानि जंग को तुरंत दूर कर देता है|

(8) सबसे बढ़िया कीटनाशक का काम करता है|

(9) टाइलों पर लगे धब्बों को तुरंत दूर कर देता है|

(10) टॉयलेट की सफाई सबसे बढ़िया करता है|

(11) पुराने सिक्कों में चमक ला देता है|

(12) अल्युमिनियम फॉयल को साफ़ कर देता है|

(13) च्युइंग गम के निशानों को दूर कर देता है|

(14) कपड़ों पर लगे खून के धब्बों को तुरंत साफ़ कर देता है|

(15) गंदे बालों की सफाई बहुत अच्छी तरह कर देता है|

(16) घर में इसको पानी में मिलाकर पोचा बहुत अच्छा लगता है| घर को कीटाणु रहित कर देता है|

एक लाभ और है उनकेलिए जो शीघ्र मरना चाहते हैं, वे इसका नियमित सेवन करें| आंतें खराब हो जायेंगी और इस नश्वर देह से मुक्ति व यमराज से शीघ्र भेंट हो जायेगी| इससे लाभ ही लाभ है| अतः हर घर में यह अवश्य रखना चाहिए|
धन्यवाद|

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कुछ दिनों पूर्व कोकाकोला से होने वाले बहुत सारे लाभ लिखे थे जिनको पाठकों ने बहुत पसंद किया था| उन्हें कमेंट बॉक्स में दुबारा दे रहा हूँ| आज कोलगेट टूथपेस्ट का लाभ भी लिख रहा हूँ, और इसका सर्वश्रेष्ठ विकल्प भी बता रहा हूँ| कोल्ड क्रीम और शेविंग क्रीम का विकल्प भी वता रहा हूँ|
कोलगेट से होने वाला लाभ .....
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कोलगेट टूथपेस्ट का एक बहुत बड़ा लाभ है जिसका पता बाबा रामदेव को भी सम्भवतः नहीं है| कोलगेट टूथपेस्ट आपके रसोईघर के फर्स्ट-ऐड बॉक्स में अवश्य होना चाहिए| शरीर का कोई भी भाग दुर्घटनावश यदि थोड़ा जल जाए तो वहाँ तुरंत कोलगेट टूथपेस्ट लगा लो| इससे फफोले नहीं पड़ेंगे और त्वचा शीघ्र ही सामान्य हो जायेगी|
जो तकनीशियन इलेक्ट्रॉनिक सर्किट्स पर सोल्डरिंग करते हैं, यदि सोल्डरिंग आयरन से उनकी अंगुली या अंगूठा जल जाए तो तुरंत कोलगेट टूथपेस्ट लगा लो| त्वचा शीघ्र ही स्वस्थ हो जायेगी| कोलगेट टूथपेस्ट का अन्य कोई लाभ नहीं है|
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दांत साफ़ करने के लिए .......
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शुद्ध नारियल के तेल से दांतों पर नरम ब्रश कीजिये| यह अनुभूत प्रयोग है| बाईं हथेली पर पाँच-छः बूँद नारियल के तेल की लीजिये और उसमें अपनी टूथ ब्रश को तर कर लीजिये और दांतों पर हलके से ब्रश कीजिये| यह किसी भी टूथपेस्ट से अधिक प्रभावशाली है| आजकल सर्दियों में नारियल का तेल जम जाता है| अतः अंगुली से थोड़ा जमा हुआ नारियल का तेल पेस्ट की तरह ब्रश पर लगाइए और ब्रश कीजिये| आप के दांत स्वस्थ रहेंगे|
यदि आप ब्रश की जगह अंगुली से दांत साफ़ करते हैं तो नारियल के तेल की जगह सरसों के तेल का प्रयोग कीजिये| पांच-छः बूंद सरसों के तेल की और एक चुटकी भर नमक लेकर मध्यमा अंगुली से दांत साफ़ कीजिये| यह भी किसी भी टूथ पाउडर से अच्छा है|
आपके स्नानघर से कोलगेट टूथपेस्ट को हटाकर उसे आज ही रसोईघर के फर्स्ट-ऐड बॉक्स में डाल दीजिये|
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कुछ अन्य .......
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चेहरे पर भी कोल्ड क्रीम की जगह दो-चार बूँद नारियल के तेल की हथेली से रगड़कर लगाएं| त्वचा नरम रहेगी| किसी भी कोल्ड क्रीम से अधिक लाभदायक है यह विधि|

शेविंग क्रीम के स्थान पर गालों पर थोड़ा सा दूध हथेली पर लेकर रगड़ें और फिर शेव कीजिये| फर्क दिखाई देगा, ज्यादा अच्छी शेव बनेगी|
स्नान करते समय पैरों के तलुओं को अच्छी तरह साफ करें| जितने साफ़ आपके पैर रहेंगे, उसी अनुपात में आपका चेहरा चमकेगा|
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ये सब अनुभूत प्रयोग हैं| आप प्रयोग करके देखिये और फिर विश्वास कीजिये|
धन्यवाद|
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अवचेतन मन को संस्कारित करने के लिए आध्यात्मिक साधनाओं की आवश्यकता :---

अवचेतन मन को संस्कारित करने के लिए
आध्यात्मिक साधनाओं की आवश्यकता :---
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यह विषय अति गूढ़ है जिसे समझना एक आध्यात्मिक साधक के लिए अति आवश्यक है| साधना करते करते साधक के मन में एक अहंकार सा आ जाता है जिसके कारण वह साधना मार्ग से विमुख हो जाता है| इसका कारण और निवारण हमें समझना पड़ेगा तभी हम साधना में विक्षेप से अपनी रक्षा कर सकेंगे व आगे प्रगति कर पायेंगे| मैं कम से कम शब्दों में इसे व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ|
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हमारा अवचेतन मन ही हमारे विचारों और भावों को घनीभूत रूप से व्यक्त करता है| अवचेतन मन एक कंप्यूटर की तरह है जिसमें हम चेतन मन से जो भी प्रोग्राम फीड करते हैं, अवचेतन मन हमें उसी रूप में संचालित करता है| हमें बचपन से अब तक बार बार जो भी बताया गया है, या जो भी सुझाव हमने स्वयं को दिए हैं, उसी कंडीशनिंग के उत्पाद हम हैं|
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कल्पना शक्ति का प्रभाव भी अवचेतन मन पर बहुत गहरा पड़ता है| इतना ही नहीं हम जिस वातावरण में रहते हैं, जैसे लोगों के साथ रहते हैं, जैसा सोचते हैं, जैसा पढ़ते हैं, वह सब हमारे अवचेतन मन में प्रवेशित हो जाता है| सूक्ष्म जगत की भी अनेक अच्छी-बुरी शक्तियाँ हमारे अवचेतन मन पर प्रभाव डालती हैं|
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अवचेतन मन ही हमारे उत्थान और पतन का कारण है| हमारे जीवन की प्रगति और अवनति का नियंत्रण व संचालन अवचेतन मन से ही होता है| अवचेतन मन को संस्कारित किये बिना हम भगवान की भक्ति, धारणा, ध्यान, समर्पण आदि नहीं कर सकते| यदि हम अवचेतन मन को प्रशिक्षित किये बिना ऐसा करने का प्रयास करेंगे तो विक्षेप आ जाएगा या उच्चाटन हो जाएगा| कोई श्रद्धा-विश्वास भी हमारे में जागृत नहीं होगा|
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अवचेतन मन एक कामधेनु या कल्पवृक्ष से कम नहीं है| आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा हम अपने अवचेतन मन को संस्कारित भी करते हैं| बार बार हम परमात्मा से अहैतुकी प्रेम का चिंतन करेंगे तो वह अवचेतन मन में गहराई से बैठकर हमारा स्वभाव बन जाएगा| ऐसे ही धारणा, जप व कीर्तन आदि के द्वारा हम यही करते हैं|

यह विषय बहुत लंबा है अतः इसे यहीं विराम दे रहा हूँ|जो बात मैं व्यक्त करना चाहता था वह हो गयी है| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा एक श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा और अनुभूति है .....

परमात्मा एक श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा और अनुभूति है .....
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इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई सूर्योदय में विश्वास करता है या नहीं, सूर्योदय तो होगा ही| वैसे ही परमात्मा का अस्तित्व किसी के विश्वास/अविश्वास पर निर्भर नहीं हैं|

परमात्मा अपरिभाष्य हैं| परमात्मा को किसी परिभाषा में नहीं बाँध सकते| परमात्मा को परिभाषित करने का प्रयास वैसे ही है जैसे कनक कसौटी पर हीरे को कसने का प्रयास|

परमात्मा हमारा अस्तित्व है, जिसे जाने बिना जीवन में हम अतृप्त रह जाते हैं| उसे जानने का प्रयास स्वयं को जानने का प्रयास है|

वर्तमान क्षण अति अति गहन और विराट है| यह रहस्यों का रहस्य है|
देशकाल से परे शाश्वतता में स्थिर पूर्णता ही हमारा जीवन है|
मैं शाश्वत अनन्त असीम हूँ|
ॐ ॐ ॐ |  ॐ ॐ ॐ ||

Monday, 30 January 2017

गाँधी जी की पुण्य तिथि .....

मोहनदास करमचंद गाँधी जी (जिन्हें लोग महात्मा गाँधी कहते हैं) की आज पुण्य तिथि है| गाँधी जी का मैं पूर्ण सम्मान करता हूँ| इस तरह के युग पुरुष पृथ्वी पर बहुत कम जन्म लेते हैं|
उनके प्रति पूर्ण सम्मान के साथ इतने वर्षों के बाद कुछ प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं....
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(१) क्या अंग्रेजों को पता था कि गाँधी की ह्त्या होने वाली है?
१५ अगस्त १९४७ के बाद भी अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों का ही राज था| गाँधी की सुरक्षा व्यवस्था क्यों हटा ली गयी थी? क्या इसीलिए कि वे उस समय अंग्रेजों के लिए किसी काम के नहीं रह गए थे?
जिस पिस्तौल से गाँधी की ह्त्या हुई वह किसकी थी और गोडसे को किसने दी?
क्या उसी पिस्तौल से चली गोली से ह्त्या हुई थी या किसी अन्य से?
अनेक प्रबुद्ध लोगों का मानना है कि गाँधी की ह्त्या गोडसे ने नहीं की| गोडसे को तो मात्र मोहरा बनाया गया था, असली हत्यारा कोई और था| हिन्दुओं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा को बदनाम करने और इन्हें आपस में लड़ाने हेतु गाँधी के विरुद्ध गोडसे जैसे कुछ युवकों को भड़काया गया और उनके हाथ में पिस्तौल दे दी गयी| उनसे गोली नहीं चली अतः किसी अंग्रेज पुलिस ऑफिसर ने ही वह गोली चलाई थी जिससे गांधीजी मरे थे| यह उच्चतम स्तर पर किया गया एक बहुत बड़ा षड्यंत्र था|
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(२) गाँधी की ह्त्या के तुरंत बाद पुणे में हज़ारों ब्राह्मणों की ह्त्या क्यों की गयी? क्या इसीलिए कि नाथूराम गोडसे एक ब्राह्मण था? उस जमाने में न तो मोबाइल फोन थे और न बढ़िया टेलीफोन व्यवस्था| गाँधी वध ३० जनवरी को हुआ और ३१ जनवरी की रात को ही पुणे की गलियों में चारपाई डालकर सो रहे ब्राह्मणों पर किरोसिन तेल डालकर उन्हें जीवित जला दिया गया| ३१ जनवरी की रात को ही पुणे में ब्रहामणों को घरों से निकाल निकाल कर सड़कों पर घसीट कर उनकी सामूहिक हत्याएं की गयी जिसमें लगभग छः हज़ार निर्दोष ब्राह्मण मारे गए|
उस घटना की कोई जाँच नहीं हुई और घटना को दबा दिया गया| ऐसा इतने संगठित रूप से कैसे किसने व क्यों किया?
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(३) गाँधी की नीतियों व विचारों से महर्षि श्रीअरविन्द बिलकुल भी सहमत नहीं थे| उन्होंने गाँधी के बारे में लिखा था कि गाँधी की नीतियाँ एक बहुत बड़े भ्रम और विनाश को जन्म देंगी, जो सत्य सिद्ध हुआ| महर्षि श्रीअरविद के वे लेख नेट पर उपलब्ध हैं| कृपया उन्हें पढ़ें|

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(४) गाँधी द्वारा आरम्भ खिलाफत आन्दोलन जो तुर्की के खलीफा को बापस गद्दीनशीन करने के लिए था, का क्या औचित्य था? क्या यह तुष्टिकरण की पराकाष्ठा नहीं थी? क्या इससे पकिस्तान की नींव नहीं पडी?
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(५) राजनितिक व सामाजिक रूप से गांधीजी का पुनर्मूल्यांकन क्या आवश्यक नहीं है?
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(६) श्रद्धांजली |

वन्दे मातरं | भारत माता की जय |

Sunday, 29 January 2017

आध्यात्मिक प्रगति का मापदंड .....

आध्यात्मिक प्रगति का मापदंड .....
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क्या हम बीते हुए कल से आज अधिक आनन्दमय और प्रसन्न हैं ?
यदि उत्तर हाँ में है तो हम उन्नति कर रहे हैं, अन्यथा अवनति कर रहे हैं|
 

 ध्यान में हमें जितनी अधिक शांति अनुभूत होती है उतने ही हम परमात्मा के समीप हैं|

 वर्तमान क्षण अति अति गहन और विराट है| यह रहस्यों का रहस्य है|
देशकाल से परे शाश्वतता में स्थिर पूर्णता ही हमारा जीवन है|
मैं शाश्वत अनन्त असीम हूँ|

ॐ ॐ ॐ ||

Thursday, 26 January 2017

हमारा संकल्प -------

January 27, 2016 ·
हमारा संकल्प -------
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मुट्ठी भर संकल्पवान लोग जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ़ आस्था है , इतिहास की धारा को बदल सकते हैं|
मोक्ष की हमें व्यक्तिगत रूप से कोई आवश्यकता नहीं है| आत्मा तो नित्य मुक्त है, बंधन केवल भ्रम मात्र हैं|
जब धर्म और राष्ट्र की अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं तब व्यक्तिगत मोक्ष और कल्याण की कामना धर्म नहीं हो सकती|

एक दृढ़ संकल्पवान व्यक्ति का संकल्प पूरे विश्व को बदल सकता है|
आप का दृढ़ संकल्प भी भारत के अतीत के गौरव और सम्पूर्ण विश्व में सनातन हिन्दू धर्म को पुनर्प्रतिष्ठित कर सकता है|
भारत माँ अपने पूर्ण वैभव के साथ पुनश्चः अखण्डता के सिंहासन पर निश्चित रूप से बिराजमान होगी| भारत के घर घर में वेदमंत्रों की ध्वनियाँ गूंजेगीं| पूरा भारत पुनः अखंड हिन्दू राष्ट्र होगा|
एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति भारतवर्ष का अभ्युदय करेगी|
कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं होगा| राम राज्य फिर से स्थापित होगा|
वह दिन देखने को हम जीवित रहें या ना रहें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता| अनेक बार जन्म लेना पड़े तो भी यह कार्य संपादित होते हुए ही हम देखेंगे| इसमें मुझे कोई भी संदेह नहीं है|
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अब आवश्यकता है सिर्फ अपन सब के विचारपूर्वक किये हुए सतत संकल्प और प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण की|
यह कार्य हम स्वयं के लिए नहीं अपितु भगवान के लिए कर रहे हैं| मोक्ष की हमें व्यक्तिगत रूप से कोई आवश्यकता नहीं है| आत्मा तो नित्य मुक्त है, बंधन केवल भ्रम मात्र हैं| ज्ञान की गति के साथ साथ हमें भारत की आत्मा का भी विस्तार करना होगा| यह परिवर्तन बाहर से नहीं भीतर से करना होगा|
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भारत की सभी समस्याओं का निदान हमारे भीतर है|
हम स्वयं परमात्मा की उपलब्धि कर के, उस उपलब्धि के द्वारा बाहर के विश्व को एक नए साँचे में ढाल सकते हैं| सर्वप्रथम हमें स्वयं को परमात्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित होना होगा|
फिर हमारा किया हुआ हर संकल्प पूरा होगा| तब प्रकृति की हरेक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य होगी|
जिस प्रकार एक इंजन अपने ड्राइवर के हाथों में सब कुछ सौंप देता है, एक विमान अपने पायलट के हाथों में सब कुछ सौंप देता है वैसे ही हमें अपनी सम्पूर्ण सत्ता परमात्मा के हाथों में सौंप देनी चाहिए|
अपने लिए कुछ भी बचाकर नहीं रखना चाहिये, जिससे परमात्मा हमारे माध्यम से कार्य कर सकें| उन्हें अपने भीतर प्रवाहित होने दें| सारे अवरोध नष्ट कर दें|
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जो लोग भगवन से कुछ माँगते हैं, भगवान उन्हें वो ही चीज देते हैं जिसे वे माँगते हैं| परन्तु जो लोग अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं माँगते, उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं, उस व्यक्ति का हर संकल्प पूरा होता है|
सारी सृष्टि का भविष्य इस पृथ्वी पर निर्भर है, इस पृथ्वी का भविष्य भारतवर्ष पर निर्भर है, और भारतवर्ष का भविष्य सनातन हिन्दू धर्म पर निर्भर है, सनातन हिन्दू धर्म का भविष्य आप के संकल्प पर निर्भर है|
और भी स्पष्ट शब्दों में आप पर ही पूरी सृष्टि का भविष्य निर्भर है|
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धर्मविहीन राष्ट्र और समाज से इस सृष्टि का ही विनाश निश्चित है|
परमात्मा की सबसे अधिक अभिव्यक्ति भारतवर्ष में ही है| भारत से सनातन हिन्दू धर्म नष्ट हुआ तो इस विश्व का विनाश भी निश्चित है| वर्त्तमान अन्धकार का युग समाप्त हो चुका है| बाकि बचा खुचा अन्धकार भी शीघ्र दूर हो जाएगा|
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अतीत के कालखंडों में अनेक बार इस प्रकार का अन्धकार छाया है पर विजय सदा सत्य की ही रही है|
परमात्मा के एक संकल्प से यह सृष्टि बनी है| आप भी एक शाश्वत आत्मा हैं| आप भी परमात्मा के एक दिव्य अमृत पुत्र हैं| जो कुछ भी परमात्मा का है वह आपका ही है| आप कोई भिखारी नहीं हैं| परमात्मा को पाना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है| आप उसके अमृत पुत्र हैं|
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जब परमात्मा के एक संकल्प से इस विराट सृष्टि का उद्भव और स्थिति है तो आपका संकल्प भी भारतवर्ष का अभ्युदय कर सकता है क्योंकि आप स्वयं परमात्मा के अमृतपुत्र हैं| जो भगवान् का है वह आप का ही है| आपके विशुद्ध अस्तित्व और प्रभु में कोई भेद नहीं है| आप स्वयं ही परमात्मा हैं जिसके संकल्प से धर्म और राष्ट्र का उत्कर्ष हो रहा है| आपका संकल्प ही परमात्मा का संकल्प है|
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वर्तमान में जब धर्म और राष्ट्र के अस्तित्व पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे है तब व्यक्तिगत कामना और व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु साधना उचित नहीं है|
जो साधना एक व्यक्ति अपने मोक्ष के लिए करता है वो ही साधना यदि वो धर्म और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए करे तो निश्चित रूप से उसका भी कल्याण होगा| धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है| हमारा सर्वोपरि कर्त्तव्य है धर्म और राष्ट्र की रक्षा|
आप धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म भी आप की रक्षा करेगा| धर्म की रक्षा आप का सर्वोपरि कर्तव्य है
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एक छोटा सा संकल्प रूपी योगदान आप कर सकते हैं| जब भी समय मिले शांत होकर बैठिये| दृष्टि भ्रूमध्य में स्थिर कीजिये| अपनी चेतना को सम्पूर्ण भारतवर्ष से जोड़ दीजिये| यह भाव कीजिये कि आप यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष हैं| एक दिव्य अनंत प्रकाश की कल्पना कीजिये जो आपका अपना ही प्रकाश है|आप स्वयं ही वह प्रकाश हैं| वह प्रकाश ही सम्पूर्ण भारतवर्ष है| उस प्रकाश को और भी गहन से गहनतम बनाइये| अब यह भाव रखिये कि आपकी हर श्वास के साथ वह प्रकाश और भी अधिक तीब्र और गहन हो रहा है और सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्माण्ड और सृष्टि को आलोकित कर रहा है| आप में यानि भारतवर्ष में कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं है| यह भारतवर्ष का ही आलोक है जो सम्पूर्ण सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रहा है| इस भावना को दृढ़ से दृढ़ बनाइये| नित्य इसकी साधना कीजिये|
पृष्ठभूमि में ओंकार का जाप भी करते रहिये| आपको धीरे धीरे स्पष्ट रूप से प्रकाश भी दिखने लगेगा और ओंकार की ध्वनी भी सुनने लगेगी|
सदा यह भाव रखें की आप ही सम्पूर्ण भारतवर्ष हैं और आप निरंतर ज्योतिर्मय हो रहे हैं|
कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं है|
आप की रक्षा होगी| भगवन आपके साथ है|
ॐ तत्सत्|

महाराष्ट्र का शिंगणापुर शनि मंदिर और वामपंथी सेकुलर नास्तिक महिलाओं का आन्दोलन ......

January 27, 2016 at 11:49pm ·
 
महाराष्ट्र का शिंगणापुर शनि मंदिर और
वामपंथी सेकुलर नास्तिक महिलाओं का आन्दोलन ......
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महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर के मामले में जो नास्तिक वामपंथी ध्रर्म-निरपेक्ष सेकुलर औरतें आंदोलनरत हैं और सैंकड़ों महिलाओं को एकत्र करके बसों में भरकर ला रही हैं, मुझे नहीं लगता कि वे किसी मंदिर में श्रद्धा के साथ कभी गयी होंगी| एक हेलिकोप्टर भी किराए पर लेकर वहां के चबूतरे पर उतरने की धमकी दे रही हैं|
उस मंदिर की परंपरा है कि वहाँ पिछले चारसौ वर्षों से किसी स्त्री को प्रवेश की अनुमति नहीं है|
इस बारे में मैं अपने विचार व्यक्त करना चाहता हूँ|
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जहाँ तक मेरी जानकारी है ग्रहों के पूजन की शास्त्रोक्त परम्परा सनातन धर्म में नहीं है| ग्रहों की प्राण-प्रतिष्ठा भी नहीं की जाती| उनका आवाहन करते ही उन्हें आहुति देनी पडती है| उनका स्मरण करते ही उनका प्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है जो गलत है| उनकी जगह उनका प्रभाव दूर करने के लिए शिव का स्मरण निरंतर करना चाहिए|
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टीवी पर अनेक सड़क छाप ज्योतिषी शनि महिमा का बखान करते हैं| फेसबुक पर भी अनेक लोग शनि की महिमा के पोस्ट डालते हैं| शनि के सम्मुख तो परम विद्वान् रावण भी नहीं जाना चाहता था| जो भी ज्योतिषी आपको शनि मंदिर में जाने को कहे वह गलत है| शनि की पीड़ा के निवारण के लिए हनुमान जी की साधना की जाती है, शनि मंदिर में नहीं जाया जाता|
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जो लोग शनि की पूजा करते हैं वे कोई धार्मिक या आध्यात्मिक लोग नहीं हैं, माँगना ही उनका मुख्य पेशा है| महाराष्ट्र में जहाँ शिंगणापुर में यह शनि मंदिर है वहाँ इतनी गरीबी है की लोगों को अपने घरों में ताले लगाने की आवश्यकता नहीं पडती| चोरी होने लायक वहां के लोगों के पास कुछ है ही नहीं|
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अतः जो औरतें वहाँ जाना चाहती हैं उन्हें जाने देना चाहिए बशर्ते की वे वहां जाकर शनि की पूजा करें, कोई तमाशा न करें|
उन पर शनि की दशा लगना भी निश्चित है और उनका विनाश भी निश्चित है| अतः उन्हें शनि की कुदृष्टि लगे इसलिए उन्हें जाकर वहां पूजा करने दी जाय |

ॐ नमः शिवाय | शिव शिव शिव शिव शिव | ॐ ॐ ॐ ||

शिव बनकर शिव की आराधना करो .....

श्रुति भगवती कहती हैं ...... ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ यानि शिव बनकर शिव की आराधना करो।
पर जीवन बहुत ही अल्प है, और करना बहुत शेष है ......... इस अल्प काल में अब कुछ भी करना संभव नहीं है, अतः सारा दायित्व, यहाँ तक कि 'साधना' व 'उपासना' का दायित्व भी बापस प्रेममयी जगन्माता को सौंप दिया है, जो उन्होंने स्वीकार भी कर लिया है| अब शिवरूप में साधक, साधना और साध्य सब कुछ वे ही बन गयी हैं|
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जो समस्त सृष्टि का संचालन कर रही हैं उनके लिए इस अकिंचन का समर्पण स्वीकार कर उसका भार उठा लेना उनकी महिमा ही है| यह अकिंचन तो उनका एक उपकरण मात्र रह गया है|
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जीवन का मूल उद्देश्य है ----- शिवत्व की प्राप्ति| हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर है --- कूटस्थ में ओंकार रूप में शिव का ध्यान| यह किसी कामना की पूर्ती के लिए नहीं है बल्कि कामनाओं के नाश के लिए है|
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आते जाते हर साँस के साथ उनका चिंतन-मनन और समर्पण ..... उनकी परम कृपा की प्राप्ति करा कर आगे का मार्ग प्रशस्त कराता है| जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है --- कामना और इच्छा की समाप्ति|
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"शिव" का अर्थ ----
शिवपुराण में उल्लेख है ..... जिससे जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में संव्याप्त है, वह वेद में शिव रूप कहे गये है |
जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, उन्हें ही शिव कहा जाता है |
अमरकोष के अनुसार 'शिव' शब्द का अर्थ मंगल एवं कल्याण होता है |
विश्वकोष में भी शिव शब्द का प्रयोग मोक्ष में, वेद में और सुख के प्रयोजन में किया गया है | अतः शिव का अर्थ हुआ आनन्द, परम मंगल और परम कल्याण| जिसे सब चाहते हैं और जो सबका कल्याण करने वाला है वही ‘शिव’ है |
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शिवोहं शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.३, ४, वि.स.२०७२, 27 जनवरी 2016

भगवान, भक्ति और भक्त ...

भगवान, भक्ति और भक्त ...
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(१) विष्णु पूराण के अनुसार "भगवान" शब्द का अर्थ है -----
"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णाम् भग इतीरणा।।" –विष्णुपुराण ६ । ५ । ७४
सम्पूर्ण ऐश्वर्य धर्म, यश, श्री, ज्ञान, तथा वैराग्य यह छः सम्यक् पूर्ण होने पर `भग` कहे जाते हैं और इन छः की जिसमें पूर्णता है, वह भगवान है।

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(२) भक्ति और भक्त का अर्थ ---
नारद भक्ति सूत्रों के अनुसार भगवान के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है| अर्थात जिसमें भगवान के प्रति परम प्रेम है वह ही भक्त है|
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आचार्य वल्लभ की भागवत पर सुबोधिनी टीका तथा नारायण भट्ट की भक्ति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है:
सवै पुंसां परो धर्मो यतो भक्ति रधोक्षजे। अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा संप्रसीदति।।
भगवान् में हेतुरहित, निष्काम एक निष्ठायुक्त, अनवरत प्रेम का नाम ही भक्ति है। यही पुरुषों का परम धर्म है। इसी से आत्मा प्रसन्न होती है।
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भगवान की भक्ति एक उपलब्धी है, कोई क्रिया नहीं|
भगवान की भक्ति अनेकानेक जन्मों के अत्यधिक शुभ कर्मों की परिणिति है जो प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है|
स्वाध्याय, सत्संग, साधना, सेवा और प्रभु चरणों में समर्पण का फल है --- भक्ति|

यह एक अवस्था है जो प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है|

सभी प्रभु प्रेमियों को मेरा प्रणाम और चरण वन्दन|
ॐ ॐ ॐ||

जगन्माता से प्रेम याचना ..........

जगन्माता से प्रेम याचना ..........
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माँ, प्रेम का एकमात्र स्त्रोत तो तुम परमात्मा का मातृरूप ही हो| तुम तो सदा करुणामयी और प्रेममयी हो| तुम्हीं ने मुझे सदा सन्मार्ग पर चलने की शक्ति और प्रेरणा दी है| तुम्हारी इस सृष्टि में मैं प्रेम की खोज में भटक रहा था जहाँ मुझे सिर्फ निराशा ही मिली है| यहाँ कोई मुझे प्रेम नहीं कर सकता, किसी को प्रेम करना आता भी नहीं है|
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इस लौकिक जीवन में गर्भस्थ होने से अब तक का सारा प्रेम तुमने ही मुझे माता-पिता, भाई-बहिन, सम्बन्धियों और मित्रों के रूप में दिया है|
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हे जगन्माता, मैं अपना समस्त प्रेम बिना कुछ चाहे बापस तुम्हें अर्पित करता हूँ और तुम मुझे अपने प्रेम में ही लीन कर दो| इसके अतिरिक्त मुझे अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| सभी रूपों में तो तुम ही हो| मेरे पास तुम्हें देने के लिए प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ है भी तो नहीं, सब कुछ तो तुम्हारा ही है|
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इस प्रेम को ही नहीं, इस पृथकता के बोध और इस अस्तित्व को भी स्वीकार करो| सब कुछ तुम्हें समर्पित है|
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ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.२ वि.स.२०७२, 26 जनवरी 2016
स्वयं को सीमित या परिभाषित ना करें  .....
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जीवन एक ऊर्ध्वगामी और सतत विस्तृत प्रवाह है कोई जड़ बंधन नहीं|
स्वयं को किसी भी प्रकार के बंधन में ना बाँधें| इसे प्रवाहित ही होते रहने दें| अपने व्यवहार, आचरण और सोच में कोई जड़ता ना लायें| अपने अहंकार को किनारे पर छोड़ दें और प्रभु चैतन्य के आनंद में स्वयं को प्रवाहित होने दें| सारी अनन्तता और प्रचूरता आपकी ही है|

आप ना तो स्त्री हैं और ना पुरुष| आप एक शाश्वत आत्मा हैं|
आप कर्ता नहीं हैं| कर्ता तो परमात्मा है| आप तो उसके उपकरण मात्र हैं|
आप ना तो पापी हैं और ना पुण्यात्मा| आप परमात्मा की छवि मात्र हैं|

आपकी मनुष्य देह आपका वाहन मात्र है| आप यह देह नहीं हैं| आप का स्तर तो देवताओं से भी ऊपर है| अपने देवत्व से भी उपर उठो|

किसी भी विचारधारा या मत-मतान्तर में स्वयं को सीमित ना करें| आप सबसे उपर हैं| ये सब आपके हैं, आप उनके नहीं|

आप सिर्फ और सिर्फ भगवान के हैं, अन्य किसी के नहीं| उनकी सारी सृष्टि आपकी है, आप अन्य किसी के नहीं हैं और कोई आपका नहीं है| अपने समस्त बंधन और सीमितताएँ उन्हें पुनर्समर्पित कर उनके साथ ही जुड़ जाओ|
आप शिव है, जीव नहीं| अपने शिवत्व को व्यक्त करो|

शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि||

परमात्मा की मात्र चर्चा निरर्थक है .....

परमात्मा की मात्र चर्चा निरर्थक है .....
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हम लोग दिन-रात परमात्मा के बारे में तरह तरह के सिद्धांतों पर चर्चा करते हैं| वह निरर्थक है| परमात्मा तो हमारे समक्ष ही है| उसी को खाओ, उसी को पीओ, उसी में डूब जाओ, उसी का आनंद लो, और उसी में स्वयं को लीन कर दो|
हमारे समक्ष कोई मिठाई रखी हो या कोई फल रखा हो, तो बुद्धिमानी उसको खाने में है, न कि उसकी विवेचना करने में| उसी तरह परमात्मा का भक्षण करो, उसका पान करो, उससे साँस लो और उसी में रहो|
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कौन क्या सोचता है यह उसकी समस्या है| परमात्मा का जो भी प्रियतम रूप है उसी के साथ तादात्म्य स्थापित कर लो| अपना लक्ष्य परमात्मा है कोई सिद्धांत नहीं| एक साधे सब सधै, सब साधे सब खोय| वाद-विवाद में समय नष्ट न करो| कुसंग का सर्वदा त्याग करो और जो भी समय मिलता है उसमें प्रभु की उपासना करो|
ॐ ॐ ॐ ||

गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाएँ .....

गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाएँ .....
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जिस देश में गंगा, गोमति, गोदावरी, सिन्धु, सरस्वती, सतलज, यमुना, नर्मदा, कावेरी, कृष्णा व ब्रह्मपुत्र जैसी पवित्र नदियाँ बहती हैं; जहाँ हिमालय जैसे अति विस्तृत और उत्तुंग पर्वत शिखर और अनेक पावन पर्वतमालाएँ; सप्त पुरियाँ, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बावन शक्तिपीठ; अनगिनत पवित्र तीर्थ, वन, गुफाएँ, वैदिक संस्कृति, सनातन धर्म की परम्परा, अनेक ऊर्ध्वगामी मत-मतान्तर, तपस्वी संत-महात्मा व ऐसे अनगिनत लोग भी हैं जो दिन-रात निरंतर परमात्मा का चिन्तन करते हैं और परमात्मा का ही स्वप्न देखते हैं| हम सब धन्य हैं जिन्होनें इस पावन भूमि में जन्म लिया है|
मैं उन सब का सेवक हूँ जिन के ह्रदय में परमात्मा को पाने की एक प्रचंड अभीप्सा और अग्नि जल रही है, जो निरंतर प्रभु प्रेम में मग्न हैं| उन के श्रीचरणों की धूल मेरे माथे की शोभा है|
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हर चौबीस हज़ार वर्षों के कालखंड में चौबीस सौ वर्षों का एक ऐसा समय आता है जब इस भूमि पर अन्धकार व असत्य की शक्तियाँ हावी होने लगती हैं| वह समय अब व्यतीत हो चुका है| ऐसी शक्तियाँ अब पराभूत हो रही हैं| आने वाला समय सतत प्रगति का है| कोई चाहे या न चाहे अब हमारी चेतना को ऊर्ध्वगामी होने से कोई नहीं रोक सकता| भारतवर्ष निश्चित रूप से एक आध्यात्मिक राष्ट्र होगा और अपने परम वैभव को प्राप्त करेगा, अतः चिंता की कोई बात नहीं है| अपना दृष्टिकोण बदल कर अपना अहैतुकी परम प्रेम परमात्मा को दें| अपने जीवन का केंद्रबिंदु परमात्मा को बनायें| जीवन में अपना सर्वश्रेष्ठ करते रहें| सब अच्छा ही अच्छा होगा|
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गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाएँ | ॐ ॐ ॐ ||

"उत्तरा सुषुम्ना", "कूटस्थ चैतन्य" और परमात्मा के मेरे सर्वप्रिय साकार रूप .....

"उत्तरा सुषुम्ना", "कूटस्थ चैतन्य" और परमात्मा के मेरे सर्वप्रिय साकार रूप .....
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यह मेरे सर्वप्रिय विषयों में से एक है जिसे व्यक्त करने में बहुत अधिक समय, विस्तार और स्थान चाहिए| पर मैं कम से कम शब्दों में और कम से कम समय में इस अति गूढ़ विषय को व्यक्त करूंगा| जिस पर भी मेरे परम प्रिय प्रभु की कृपा होगी वह इसे निश्चित रूप से समझ जाएगा|
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(1) उत्तरा सुषुम्ना ....
आज्ञाचक्र से सहस्त्रार में प्रवेश के दो मार्ग हैं| एक तो भ्रूमध्य से है जो गुरुप्रदत्त उपासना/साधना से खुलता है| यह परा सुषुम्ना का मार्ग है| दूसरा एक सीधा मार्ग है जो आज्ञाचक्र के ऊपर से सीधा सहस्त्रार में चला जाता है| यह उत्तरा सुषुम्ना का मार्ग है जो या तो सिद्ध गुरु की विशेष कृपा से खुलता है, या मृत्यु के समय जब जीवात्मा इस में से निकल कर ब्रह्मरंध्र को भेदती हुई कर्मानुसार अज्ञात में चली जाती है| जीवित रहते हुए इसमें केवल गुरु कृपा से ही प्रवेश मिलता है| सभी सिद्धियाँ और सभी निधियाँ भी यहीं निवास करती हैं|
यदि गुरुकृपा से घनीभूत प्राण चेतना (कुण्डलिनी) जागृत है तो यह उत्तरा सुषुम्ना ही ध्यान के समय हमारा निवास, आश्रय और प्रियतम परमात्मा का मंदिर होना चाहिए|

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(2) कूटस्थ चैतन्य ....
कूटस्थ का अर्थ है जिसका कभी नाश व परिवर्तन नहीं होता| शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीपतम लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहें| साधना करते करते गुरु कृपा से एक दिन विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय अक्षर ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं में से है|
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(3) परमात्मा के मेरे सर्वप्रिय साकार रूप ...
भगवान नारायण का साकार रूप सर्वाधिक सम्मोहक है| पूरी सृष्टि उन्हीं में है और वे ही समस्त सृष्टि में व्याप्त है| ध्यान में वे एक विराट श्वेत ज्योति में परिवर्तित हो जाते हैं जिसमें समस्त सृष्टि और उससे भी परे जो कुछ भी है वह सब व्याप्त है| एक नीला और स्वर्णिम आवरण भी उन्हें घेरे रहता है|
वे ही परमशिव हैं और वे ही सर्वव्यापी परम चैतन्य हैं| सहस्त्रार से ऊपर समस्त सृष्टि में वे व्याप्त हैं| उन परम शिव की जटाओं से उनकी प्रेममयी कृपा और ज्ञानरूपी गंगा की निरंतर मुझ पर वर्षा होती रहती है|
दोनों के ही ध्यान में अक्षर ब्रह्म ओंकार की ध्वनी बराबर सुनाई देती है| दोनों एक ही हैं, उनमें कोई अंतर नहीं है, सिर्फ अभिव्यक्तियाँ ही पृथक हैं| यह उनकी ही इच्छा है कि किस रूप में वे अपना ध्यान करवाते हैं| कभी इन में और कभी इन से भी परे|
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ॐ तत्सत् | ॐ गुरु | ॐ ॐ ॐ ||
"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||

यह संसार वास्तव में दुखों का एक सागर है .....

January 22 at 9:08pm ·
 यह संसार वास्तव में दुखों का एक सागर है .....
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कैसा भी वातावरण हो, कैसी भी परिस्थितियाँ हों, उनमें रहते रहते हम उन्हीं के अभ्यस्त हो जाते हैं| नर्क में भी रहते रहते नर्क अच्छा लगने लगता है| इस संसार में रहते रहते संसार से भी राग होना स्वाभाविक है| संसार में सुख एक मृगतृष्णा मात्र ही है|

आज इसकी गहन अनुभूति हुई| सम्बन्ध में हमारी एक भाभीजी (हमारे ताऊजी की पुत्रवधू) का आज 87 वर्ष की आयु में निधन हो गया| मेरा जन्म उनके विवाह के पश्चात हुआ था| हमारी विशाल पारिवारिक हवेली जहाँ मेरा जन्म, पालन-पोषण, पढाई लिखाई और विवाह हुआ था, वहीं जाना पड़ा| परिवार के सभी लोग एकत्र होकर वहाँ से दाह-संस्कार के लिए श्मसान में गए| बचपन और किशोरावस्था की सभी स्मृतियाँ ताजी हो गईं| इतना ही नहीं सभी उपस्थित और दिवंगत सम्बन्धियों के मन के विचार, भावनाएँ और पीड़ाएँ स्पष्ट अनुभूत हुईं| कौन कैसी पीड़ा में से निकला और कैसे कैसे संघर्ष किया, आदि सभी को स्पष्ट अनुभूत किया| श्मसान भूमि में दाह संस्कार के समय मैंने पंडित जी को बोलकर सबसे पुरुष-सूक्त का पाठ सस्वर जोर से बुलाकर करवाया|

चेतना में यह बिलकुल स्पष्ट हो गया कि वास्तव में यह संसार एक दुःख का सागर है जहाँ रहते रहते दुःख को ही हम सुख मानने लगते हैं| इस दुःख के सागर के पार जाने का प्रयास सभी को करते रहना चाहिए| सभी को सादर प्रणाम !
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव||
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Tuesday, 24 January 2017

कर्ता कौन है और भोक्ता कौन है ..........


कर्ता कौन है और भोक्ता कौन है ? ......

इस सारी सृष्टि का उद्भव परमात्मा के संकल्प से हुआ है| और वे ही है जो सब रूपों में स्वयं को व्यक्त कर रहे है| कर्ता भी वे है और भोक्ता भी वे ही है|
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वे स्वयं ही अपनी सृष्टि के उद्भव, स्थिति और संहार के कर्ता है| जीवों की रचना भी उन्हीं के संकल्प से हुई है| सारे कर्मों के कर्ता भी वे ही है और भोक्ता भी वे ही है| सृष्टि का उद्देष्य ही यह है कि आप अपनी सर्वश्रेष्ठ सम्भावना को व्यक्त कर पुनश्चः उन्हीं की चेतना में जा मिलें| यह उन्हीं की माया है जो अहंकार का सृजन कर आपको उन से पृथक कर रही है| ये संसार के सारे दु:ख और कष्ट भी इसी लिए हैं कि आप परमात्मा से अहंकारवश पृथक है और इनसे मुक्ति भी परमात्मा में पूर्ण समर्पण कर के ही मिल सकती है|

भगवान के पास सब कुछ है पर एक ऐसी भी चीज है जो आपके पास तो है पर उन के पास नहीं है क्योंकि उन्होंने वह चीज अपने पास रखे बिना सारी की सारी आप को ही दे रखी है| भगवान भी उसको बापस पाने के लिए तरसते हैं| उसके बिना भगवान भी दु:खी हैं| वह सिर्फ आप ही उन्हें दे सकते हैं, कोई अन्य नहीं| और वह है आपका अहैतुकी परम प्रेम|
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भगवान ने आपको सब कुछ दिया है, आप भगवान से सब कुछ माँगते हो| पर क्या आप भगवान को वह चीज नहीं दे सकते जो वे आपसे बापस चाहते हैं?????
भगवान भी उसके लिए तरस रहे हैं| वे भी सोचते हैं कि कभी तो कोई तो उनकी संतान उनको प्रेम करेगी| वे भी आपके प्रेम के बिना दु:खी हैं चाहे वे स्वयं सच्चिदानंद हों|
भगवन आपसे प्रसन्न तभी होंगे जब आप अपना पूर्ण अहैतुकी परम प्रेम उन्हें दे दोगे| अन्य कोई मार्ग नहीं है उन को प्रसन्न करने का|
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कृपया इस पर विचार करें| धन्यवाद|
ॐ तत्सत्|

आत्म राज्य .....हमारी स्वाधीनता और स्वतन्त्रता ......

आत्म राज्य .....हमारी स्वाधीनता और स्वतन्त्रता .......
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कभी हम भी एक चक्रवर्ती सम्राट थे, हमारी भी एक महान सत्ता थी और हम अपने विशाल साम्राज्य के स्वामी थे जिसको चुनौती देने वाला कोई नहीं था| यह सत्य है| वह राज्य था --- हमारा "आत्म राज्य"|
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पर अब हम अपना सब कुछ खो चुके हैं और "स्वाधीन" भी नहीं रहे हैं|
हमारा "स्वराज्य" भी नहीं रहा है|
क्या हम अपने खोये हुए राज्य को पुनश्चः प्राप्त कर सकेंगे?
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निश्चित रूप से -- "हाँ" | क्योंकि अब परमशिव परब्रह्म परमात्मा की इच्छा है कि हम अपने खोये हुए "महान साम्राज्य" को प्राप्त करें और पुनश्चः उसके "स्वामी" बनें| उनकी इच्छा हमें स्वीकार करनी ही पड़ेगी|
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वासनाओं व कामनाओं के कारण ही हम अपना "आत्म राज्य" और "स्वाधीनता" खो बैठे और "पराधीन" हो गए| अन्यथा हम भी "स्वतंत्र" थे| अपने "आत्म तत्व" को भूलकर हम अपने इस देह रुपी वाह्न की चेतना से जुड़कर यह भूल गये कि यह तो इस लोकयात्रा का एक साधन मात्र है|
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जिस आनंद को हम अब तक ढूँढ रहे थे वह आनंद तो हम स्वयं हैं| हम यह देह नहीं हैं|
पिता की संपत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है| हम परमात्मा के अमृतपुत्र हैं अतः परमशिव परब्रह्म परमात्मा के परम प्रेम और पूर्णता पर हमारा जन्मसिद्ध पूर्ण अधिकार है|
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परमात्मा की सर्वव्यापकता ही हमारा घर है, और उनका प्रेम ही है हमारा अस्तित्व| परमात्मा का ऐश्वर्य ही हमारा भी ऐश्वर्य है| उनका "शिवत्व" ही हमारा साम्राज्य है जिसके लिए हमें सभी कामनाओं और वासनाओं से मुक्त हो कर, परम प्रेममय होकर उसे प्राप्त करना ही होगा|
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इतना महान राज्य हमने एक क्षण में इस देह के नाम रूप मोह और वासनाओं के वशीभूत होकर त्याग दिया| यही हमारे तापों का कारण है|
उस खोए हुए महान साम्राज्य को हम उपलब्ध होंगे, निश्चित रूप से होंगे क्योंकि वही हमारा अस्तित्व है|
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अयमात्मा ब्रह्म | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.१ वि.स.२०७२, 25 जनवरी 2016

ठाकुर जी (भगवान श्रीकृष्ण) बाँके-बिहारी क्यों हैं ? .......

वंशी विभूषित करा नवनीर दाभात् पीताम्बरा दरुण बिंब फला धरोष्ठात्
पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादर बिंदु नेत्रात् कृष्णात परम किमपि तत्व महम नजानि...
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ठाकुर जी (भगवान श्रीकृष्ण) बाँके-बिहारी क्यों हैं ? .......
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आप में से अधिकाँश श्रद्धालु वृन्दावन तो गए ही होंगे, और वहाँ बाँके-बिहारी जी के दर्शन भी किये होंगे| अन्यत्र भी बिहारी जी के सभी मंदिरों में ऐसा ही विग्रह है| ठाकुर जी ने स्वयं की देह को तीन स्थानों से बाँका यानी आड़ा-टेढ़ा तिरछा कर रखा है| इसे त्रिभंग मुद्रा कहते हैं| कुछ लोग इसे त्रिभंग-मुरारी मुद्रा भी कहते हैं| इस त्रिभंग मुद्रा का बहुत गहरा आध्यात्मिक रहस्य है जिसे हर कोई नहीं समझ सकता| कुछ इस विषय पर एक अति लघु चर्चा करेंगे|
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भक्तों के लिए ठाकुर जी इतने सुन्दर हैं कि एक बार भी जो इनके दर्शन करता हैं उसका ह्रदय चोरी हो जाता है, यानि ठाकुर जी स्वयं उसका ह्रदय चुराकर उसमें बिराजमान हो जाते हैं| ठाकुर जी एक बार ह्रदय में आ गए तो बाँके हो जाते हैं ........ फिर कभी बाहर नहीं निकलते| भक्तों के लिए वे इसीलिए बाँके बिहारी हैं|
फिर तो उनके प्रेम का जादू ही सिर पर चढ़कर बोलता है|
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योगियों के लिए यह अज्ञान की तीन ग्रंथियों के भंग करने यानि भेदन करने के लिए है| एक अति उन्नत योगमार्ग के साधक द्वादशाक्षरी भागवत मन्त्र का जाप एक अति गोपनीय विधि से सुषुम्ना नाड़ी के षटचक्रों में और सहस्त्रार तक करते हैं| इस विधि में ब्रह्मग्रन्थी, विष्णुग्रंथी और रुद्रग्रंथी (क्रमशः मूलाधार, अनाहत और आज्ञाचक्र) पर प्रहार होता है जो इन अज्ञान ग्रंथियों के भेदन के लिए है|
हाथों में बांसुरी है जिसके छओं छिद्र सुषुम्ना के षटचक्र है और सातवाँ छिद्र जिससे फूँक मार रहे हैं वह सहस्त्रार है| इस बांसुरी से ओंकार की ध्वनी निकल रही है जिससे सृष्टि का सृजन हो रहा है| योगी साधक उस ओंकार पर ही ध्यान करते हैं और उसी में लय हो कर ब्रह्ममय हो जाते हैं| यह योगमार्ग की उच्चतम साधना है|
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सार की बात यह हैं कि यह भगवान श्रीकृष्ण का सुन्दरतम विग्रह है जो निरंतर ह्रदय में रहता है| योगमार्ग के साधकों के लिए उनका ह्रदय इस देह का भौतिक ह्रदय नहीं बल्कि कूटस्थ (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य दिखाई देने वाली ज्योति और नाद) होता है जहाँ उनकी चेतना घनीभूत हो जाती है| उस चेतना में रहना ही कूटस्थ चैतन्य है|
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बाँके बिहारी, तेरी छटा न्यारी| तुम्हारी जय हो| जब से तुम मेरे कूटस्थ ह्रदय में आये हो, यह ह्रदय तुम्हारा ही स्थायी निवास हो गया है| बस अब तुम ही तुम रहो| जय हो, जय हो, जय हो, तुम्हारी जय हो||
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अयमात्मा ब्रह्म | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.१ वि.स.२०७२, 25 जनवरी 2016

वह तो आप स्वयं ही हो .....

जिसे आप ढूँढ रहे हो, जिसके लिए आप व्याकुल हो, जिसे पाने के लिए आपके ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि जल रही है, जिसे पाने के लिए एक अतृप्त प्यास ने आपको व्याकुल कर रखा है, .............. वह तो आप स्वयं ही हो|
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उसे देखने के लिए, उसे अनुभूत करने के लिए और उसे जानने या समझने के लिए कुछ तो दूरी होनी चाहिए| पर वह तो निकटतम से भी निकट है, अतः उसका कुछ भी आभास नहीं हो रहा है| वह आप स्वयं ही हो|
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उस स्वयं को, उस आत्मतत्व को जानना ही परमात्मा को जानना है| ॐ ॐ ॐ ||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.१ वि.स.२०७२, 24 जनवरी 2016

Monday, 23 January 2017

क्या हम प्रभुकृपा के ऋण से कभी उऋण हो सकते हैं ????? ..........

क्या हम प्रभुकृपा के ऋण से कभी उऋण हो सकते हैं ????? ..........
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इसका उत्तर सदा "ना" में मिलेगा| पर मैं इसका उत्तर "हाँ" में दे रहा हूँ| हाँ, हम निश्चित रूप से प्रभु की कृपा से उऋण हो सकते हैं|
प्रभु की कृपा का निरंतर पात्र बने रहने का अनवरत प्रयास करते हुए अन्ततः प्रभु को पूर्ण समर्पित होने पर कोई ऋण नहीं रहता| इसके लिए भक्तिपथ पर चलना अनिवार्य है।
प्रभु की सबसे बड़ी कृपा है उनका प्रेम|
एकमात्र भेंट जो हम भगवान को दे सकते हैं वह है हमारा प्रेम| अन्य हम दे ही क्या सकते हैं? सब कुछ तो उन्हीं का है|
हमारे प्रेम को छोड़कर भगवान के पास सब कुछ है| उन्हें सिर्फ हमारा प्रेम चाहिए, अन्य कुछ भी नहीं|
जल की एक बूँद की सर्वोच्च उपलब्धी है --- महासागर में विलीन हो जाना|
जल की बूँद महासागर में विलीन होकर स्वयं महासागर बन जाती है| इसके लिए क्या वह महासागर की ऋणी है? नहीं, कभी नहीं| उसका उद्गम महासागर से हुआ और वह अन्ततः उसी में विलीन हो गयी| यही उसका नैसर्गिक धर्म था|
वैसे ही जीव की सर्वोच्च उपलब्धि है -- परम शिव से मिलन|
इसे आप भक्त का भगवान से और आत्मा का पररमात्मा से मिलन भी कह सकते हैं|
इसकी प्रथम सीढ़ी है ---- अपना मन प्रभु को समर्पित कर दें|
मन में उसके सिवा किसी अन्य का चिंतन क्या चोरी नहीं होगा?
जब मन समर्पित हो जाएगा तो बुद्धि भी समर्पित हो जायेगी| बुद्धि समर्पित होगी तो चित्त भी समर्पित हो जाएगा| चित्त समर्पित हुआ तो अहंकार भी समर्पित हो जाएगा|
फिर अपने पास अपना कहने को बचा ही क्या है? सब कुछ तो उन्हीं का हो गया| यहाँ आकर सारे ऋण, सारे कर्मफल तिरोहित हो जाते हैं|
यही हमारा सनातन स्वाभाविक धर्म है| यही सार है, बाकी सब इसी का विस्तार है|
हे प्रभु, इतनी कृपा करो करो कि मैं "मैं" ना रहूँ| सब कुछ "तुम" हो जाओ| बस, तुम्ही तुम रहो|
हमारी विषय-वासनाओं का नाश करो, अज्ञान की सब ग्रंथियों का नाश करो, अपने असीम कृपासिंधु से, अपनी करुणा से, अपने परम प्रेम से कभी पृथक ना करो| ॐ ॐ ॐ ||
ॐ श्रीगुरवे नमः |.ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव शिव शिव शिव शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
 23 जनवरी2016.

माघ का पवित्र महिना ......

माघ का पवित्र महिना ......
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माघ का महिना सबसे पवित्र माह माना जाता है और इस माह में सभी तिथियाँ पवित्र मानी जाती हैं| भगवान् की आराधना के लिए और साधना के लिए यह बहुत ही पवित्र माह है जिसका सभी लाभ उठाएँ|
"माघ मकरगत जब रवि होई। तीरथपतिहिं आव सबु कोई।।
देव दनुज किन्नर नर श्रेनी । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनी ।। "
इस माह में तीर्थराज प्रयाग की त्रिवेणी में स्नान करने का बड़ा महत्व है| पर आध्यात्मिक रूप से यह देह ही तीर्थ है और भ्रूमध्य ही त्रिवेणी संगम है| भ्रूमध्य में ध्यान करना त्रिवेणी संगम में स्नान करने के बराबर है|
माघ मास में सूर्योदय से पूर्व उठकर भगवान का कूटस्थ में खूब ध्यान करें जो बहुत अधिक पुण्यदायी है|
माघ के महीने में होने वाली वर्षा (मावठ) की एक एक बूँद अमृत की बूँद होती है| माघ के महीने में होने वाली वर्षा से भूमि तृप्त हो जाती है| इससे रवि की फसल बहुत अच्छी होती है|
सभी को शुभ कामनाएँ| ॐ ॐ ॐ ||

ह्रदय की बात .....

ह्रदय की बात .....
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वेदान्त दर्शन के कुछ ऐसे तथ्य हैं जो बुद्धिं से तो समझ में आते हैं पर ह्रदय को उनका बोध नहीं होता| बुद्धि तो वैसा ही कार्य करती है जैसे उसको कोई लिखित परीक्षा उतीर्ण करनी हो जहाँ रटंत विद्या ही काम आती है| पर जब तक ह्रदय को उनका बोध नहीं होता तब तक वे व्यवहारिक जीवन में नहीं उतरते|
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कुछ ऐसी ही बातें हैं जो जीवन में अब बहुत विलम्ब से ह्रदय को समझ में आ रही हैं| उन पर सार्वजनिक चर्चा का निषेध है| पर ह्रदय उन पर बहुत गहन चिंतन मनन माँग रहा है| ह्रदय की व्याकुलता को शांत करना ही होगा| कुछ पूर्वजन्मों के पुण्यों का उदय हो रहा है| अब साधना पक्ष को और अधिकाधिक गहन करना होगा|
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पर प्रिय निजात्मगण, मैं सदा आपके साथ रहूँगा| नई प्रस्तुतियाँ नहीं दे पाया तो पुरानी प्रस्तुतियों को ही पुनर्प्रेषित करता रहूँगा| आप मुझे सदा अपने ह्रदय में पाओगे| आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को प्रणाम !
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष पूर्णिमा वि.स.२०७२, 23 जनवरी 2016.

Saturday, 21 January 2017

सारा श्रेय परमात्मा को है .....

मेरे माध्यम से जो भी विचार व्यक्त होते हैं उनका श्रेय परमात्मा को, सद्गुरुओं और संतों को जाता है जिन की मुझ पर अपार कृपा है| इसमें मेरी कोई महिमा नहीं है| मेरे में न तो कोई लिखने की सामर्थ्य है न ही मुझे कुछ आता जाता है| ये मेरी कोई बौद्धिक सम्पदा नहीं हैं| सब परमात्मा के अनुग्रह का फल है| मुझे उनसे भी प्रसन्नता है जो इन्हें शेयर करते हैं, और उनसे भी प्रसन्नता है जो इन्हें कॉपी पेस्ट कर के अहंकारवश अपने नाम से पोस्ट करते हैं| मेरी ईश्वर लाभ के अतिरिक्त अन्य कोई कामना नहीं है पर यह एक संकल्प प्रभु ने मुझे अवश्य दिया है कि सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा हो, और भारत माँ अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान हो|
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मुझे मेरी वैदिक संस्कृति, सनातन धर्म व परम्परा, गंगादि नदियाँ, हिमालयादि पर्वत, वन और उन सब लोगों से प्रेम है जो निरंतर परमात्मा का चिन्तन करते हैं और परमात्मा का ही स्वप्न देखते हैं| यह मेरा ही नहीं अनेक मनीषियों का संकल्प है जिसे जगन्माता अवश्यमेव पूर्ण करेगी| मैं उन सब का सेवक हूँ जिन के ह्रदय में परमात्मा को पाने की एक प्रचंड अग्नि जल रही है, जो निरंतर प्रभु प्रेम में मग्न हैं| उन के श्रीचरणों की धूल मेरे माथे की शोभा है| अन्य मेरी कोई किसी से अपेक्षा नहीं है|
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सब के ह्रदय में प्रभुप्रेम जागृत हो और आपको जीवन में पूर्णता प्राप्त हो|
आप सबको शुभ कामनाएँ| सादर प्रणाम|
ॐ श्रीगुरवे नमः |.ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर

कूटस्थ चैतन्य व आत्मगुरुतत्व .....

कूटस्थ चैतन्य व आत्मगुरुतत्व .....
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कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर सार्वजनिक चर्चा नहीं की जाती है| यह विषय भी एक ऐसा ही विषय है जो दुधारी तलवार है| इससे साधक देवता भी बन सकता और इसके विपरीत भी| पर इसी काल में देश-विदेश में अनेक मनीषियों ने इस विषय पर खूब चर्चाएँ की हैं और इस विषय को बहुत लोकप्रिय बनाया है|
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वर्तमान विकट संक्रमण काल में जब हमारे सनातन धर्म व आस्थाओं पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं और राष्ट्र में कुछ आसुरी शक्तियों के शिकार लोग उनका उपकरण बनकर बहुत गन्दी राजनीति कर के हमारी आस्थाओं पर प्रहार कर रहे हैं, ऐसे समय में हम अपने धर्म का पालन कर के ही उसकी रक्षा कर सकते हैं| धर्म भी उन्हीं की रक्षा करेगा जो धर्म की रक्षा करेंगे|
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हमारी श्रुतियों में, गीता में, और योगदर्शन में ओंकार की महिमा भरी पड़ी है| मन्त्रों में प्रणव यानि "ॐ" (ओ३म्) सबसे बड़ा बीज मन्त्र है, अन्य सब मन्त्रों की उत्पत्ति इसी मन्त्र से हुई है| सृष्टि की उत्पत्ति भी इसी मंत्र से हुई है| तंत्रों में आत्मानुसंधान सबसे बड़ा तंत्र है, जिसकी साधना करते करते साधक 'ॐ' पर ही पहुँच जाता है| यह परमात्मा का सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ साकार रूप है|
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"ॐ" (ओ३म् ) और तारक मन्त्र "राम" दोनों एक ही हैं| दोनों का फल भी एक ही है| 'राम' पर ध्यान करते करते साधक ॐ पर पहुँच जाता है| वैसे तो ओंकार की चेतना में निरंतर रहें पर विधिवत् साधना में कुछ बातों का ध्यान रखना अति आवश्यक है ---
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(1) ओंकार का ध्यान करते समय कमर सीधी रहे यानि मेरु दंड उन्नत रहे|
(2) दृष्टी भ्रूमध्य में रहे| जो बहुत उन्नत साधक है उनकी दृष्टी भ्रूमध्य और सहस्त्रार पर एक साथ सहज रूप से चली जाती है|
(3) आसन ऊनी हो जिस पर एक रेशम का वस्त्र विछा हो|
(4) मुँह पूर्व या उत्तर दिशा में हो| वैसे उन्नत योगियों के लिए भ्रूमध्य पूर्व दिशा है और सहस्त्रार उत्तर दिशा है|
(5) जिनको खेचरी मुद्रा का अभ्यास है वे खेचरी मुद्रा में रहें, अन्य सब जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटा लें|
(6) जो दायें हाथ से लिखते हैं उनको दायें कान में व जो बाएँ हाथ से लिखते हैं उनको बाँयें कान में ओंकार की ध्वनी सुनेगी| कुछ समय पश्चात ओंकार की ध्वनी खोपड़ी के पीछे के भाग, शिखास्थान से नीचे, मेरुशीर्ष (medulla) जहां मस्तिष्क से मेरुदंड की नाड़ियाँ मिलती हैं, वहाँ सुननी आरम्भ हो जायेगी और उसका विस्तार सारे ब्रह्माण्ड में होने लगेगा| एक विराट ज्योति का प्रादुर्भाव भी यहीं से होगा जो भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होगी| यह मेरुशीर्ष यानि मस्तक ग्रंथि ही वास्तविक आज्ञाचक्र है| भ्रूमध्य तो दर्पण की तरह है जहाँ गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं|
(7) आरम्भ में लकड़ी के "T" के आकार के लकड़ी के एक हत्थे को सामने रखकर उस पर अपनी कोहनियाँ टिका दें, अंगूठों से कान बंद कर लें और जो भी ध्वनियाँ सुनती हैं उनमें से सबसे तीब्र ध्वनी को सुनें| साथ साथ मानसिक रूप से ओ३म् ओ३म् ओ३म् का जाप करते रहें|
"ॐ" .....यह लिखने में प्रतीकात्मक है, और "ओ३म्" ..... यह ध्वन्यात्मक है| इस की लिखावट पर कोई विवाद ना करें| महत्व उस का है जो सुनाई देता है, न कि कैसे लिखा गया है|
आरम्भ में जब कान बंद करेंगे तो कई प्रकार की ध्वनियाँ सुनेंगी| जो सबसे तीब्र है उसी पर ध्यान दें और मानसिक रूप से ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का जाप करते रहें|
(8) कुछ धर्मगुरुओं के अनुसार ॐ के जाप का अधिकार मात्र सन्यासियों को है, गृहस्थों को नहीं| वे कहते हैं कि गृहस्थ ॐ के साथ भगवान के अन्य किसी नाम का सम्पुट लगाएँ| एक बार एक धर्मगुरु ने तो यहाँ तक कहा कि गृहस्थों द्वारा ओंकार का जाप अधर्म है| पर मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता| क्योंकि इसका कोई प्रमाण नहीं है| सारे उपनिषद् और भगवद्गीता "ओंकार' की महिमा से भरे पड़े हैं| जो उपनिषदों में यानि वेदों में है वही प्रमाण है, वही मान्य है| जो वेदविरुद्ध है वह अमान्य है|
(9) भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन, और कानों से ओंकार की ध्वनी यानि नादब्रह्म को सुनते रहें व मन में ओंकार का जप करते रहें| किसी भी तरह के वाद-विवाद में ना पड़ें| हमारा लक्ष्य परमात्मा है, ना कि कोई सिद्धांत या बौद्धिकता|
(10) उपरोक्त साधना की सफलता एक ही तथ्य पर निर्भर है की हमारे ह्रदय में कितनी भक्ति है| बिना भक्ति के कोई लाभ नहीं होगा और आप कुछ कर भी नहीं पाएँगे| जितनी गहरी भक्ति होगी उतनी ही अच्छी साधना होगी, उतना ही गहरा समर्पण होगा| कर्ताभाव ना आने दें| सब कुछ प्रभु के चरणों में समर्पित कर दें| कर्ता भी वे ही है और भोक्ता भी वे हैं| आप तो उनके एक उपकरण मात्र हैं|
अपना सब कुछ, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हें समर्पित कर दें| इसकी इतनी महिमा है कि उसे बताने की सामर्थ्य मेरी क्षमता से परे है|
(11) ज्योतिर्मय नाद ब्रह्म की सर्वव्यापक चेतना और उस में विलय होकर उससे एकाकार होना ही 'कूटस्थ चैतन्य' है और यह कूटस्थ ही आत्मगुरु है और यही गुरुतत्व है|
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इसकी महिमा अनंत है| मनुष्य की बुद्धि जितनी कल्पना कर सकती है उससे भी बहुत परे इसकी महिमा है|.
ॐ श्रीगुरवे नमः |.ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव शिव शिव शिव शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. १३ वि.सं.२०७२| 22 जनवरी2016.

परमात्मा ही हमारे हर प्रश्न का का उत्तर और हर समस्या का समाधान है ,,,,

जैसे महासागर से मिलने के पश्चात झीलों-तालाबों व नदी-नालों से मोह छूट जाता है, वैसे ही सच्चिदानंद की अनुभूति के पश्चात सब मत-मतान्तरों, सिद्धांतों, वाद-विवादों, राग-द्वेष व अहंकार रूपी पृथकता के बोध से चेतना हट कर परमात्मा के लिए तड़प उठती है| सारे प्रश्न भी तिरोहित हो जाते हैं| परमात्मा ही हमारे हर प्रश्न का का उत्तर और हर समस्या का समाधान है|
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हे प्रभु, जब आप ह्रदय में आकर आड़े हो ही गए हो तो बस अब सदा ऐसे ही रहना| अब कहीं भी मत जाना| आप मेरे ह्रदय में हो तो मेरी भी स्थायी स्थिति आपके ही ह्रदय में है| मेरा ह्रदय ही आपका भी ह्रदय है| ॐ ॐ ॐ ||
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||

मेरा धर्म क्या है ? .....

मेरा धर्म क्या है ? .....
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यह एक बड़ा ही गूढ़ प्रश्न है जिसने मुझे बहुत आंदोलित और उद्वेलित किया है| अब इस ढलती आयु में इस प्रश्न के उत्तर की कुछ कुछ झलक मिलती है| इस विषय पर मेरे विचार बड़े स्पष्ट हो गए हैं जिनसे मेरा अधिकाँश लोगों से मतभेद ही होगा|
विषय को लघु रखने के लिए मैं कम से कम शब्दों का प्रयोग करूंगा| विस्तृत व्याख्या में न जाकर सार की ही बात करूंगा|
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निज स्वभाव और धर्म इनमें बहुत अंतर है जबकि ये एक से प्रतीत होते हैं|
कुछ लोगों की भावनाओं को मेरी बातें आहत भी कर सकती हैं| पर मुझे जो भी कहना है उसे स्पष्ट कहूंगा|
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(१) मेरा स्वभाव ....... मेरे लिए अनिर्वचनीय, अनंत, सर्वव्यापी परम प्रेम ही मेरा स्वभाव है|
इसको वो ही समझ सकता है जिसने इसकी एक झलक की अनुभूति की हो|
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(२) मेरा धर्म .........
साधनाकाल में मेरा धर्म ....."प्राणायाम" ..... है| जिन साधना पद्धतियों में मैं दीक्षित हूँ वे सुक्ष्मदेह में मेरुदंडस्थ परा सुषुम्ना नाडी में, और सहस्त्रार में उत्तरा सुषुम्ना और उससे भी परे सूक्ष्म प्राणायाम पर आधारित हैं| मुझे सूक्ष्म जगत से मार्गदर्शन मिलता है अतः कोई शंका या संदेह नहीं है| इसलिए साधनाकाल में मेरा धर्म प्राणायाम ही है|
साधना की परावस्था में मेरा धर्म सच्चिदानंद भगवान को समर्पण करने का निरंतर प्रयास है| इससे आगे मैं कुछ नहीं जानता| यही मेरा धर्म है|
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(३) मेरी जाति कुल व गौत्र .....
जैसे विवाह के पश्चात नव विवाहिता की जाति, कुल व गौत्र अपने पति का ही हो जाता है, वैसे ही मेरी जाति भी वह ही है जो परमात्मा की है, मेरा कुल व गौत्र भी वही है जो परमात्मा का है| यह देह तो एक दिन नष्ट हो कर पंचभूतों में मिल जायेगी पर परमात्मा के साथ मेरा सम्बन्ध शाश्वत है|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव शिव शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. १२ वि.सं.२०७२| 21जनवरी2016.

Friday, 20 January 2017

इस समय राष्ट्र को ब्रह्मत्व की आवश्यकता है .....

इस समय राष्ट्र को ब्रह्मत्व की आवश्यकता है| स्वयं के शिवत्व को प्रकट करें| वर्तमान नकारात्मक घटना क्रमों की पृष्ठभूमि में आसुरी शक्तियाँ हैं| राक्षसों, असुरों और पिशाचों से मनुष्य अपने बल पर नहीं लड़ सकते| सिर्फ ईश्वर ही रक्षा कर सकते हैं| अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिये हमें भगवान् की शरण लेकर समर्पित होना ही होगा, अन्यथा नष्ट होने के लिये तैयार रहें|
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साधना ..... अपने आप को सम्पूर्ण ह्रदय और शक्ति के साथ भगवान के हाथों में सौंप देना है| कोई शर्त मत रखो, कोई चीज़ मत माँगो, यहाँ तक कि योग में सिद्धि भी मत माँगो| जो भी साधना या जो भी भक्तिभाव या जो भी पूजापाठ हम करते हैं वह हमारे लिये नहीं अपितु भगवान के लिये ही है| उसका उद्देश्य व्यक्तिगत मुक्ति नहीं है| उसका एकमात्र उद्देश्य है ---- "आत्म समर्पण"|
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भगवान का शाश्वत वचन है -- "मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि|"
यानी अपने आपको ह्रदय और मन से मुझे दे देने से तूँ समस्त कठिनाइयों और संकटों को मेरे प्रसाद से पार कर जाएगा| "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज | अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः|" समस्त धर्मों (सभी सिद्धांतों, नियमों व हर तरह के साधन विधानों का) परित्याग कर और एकमात्र मेरी शरण में आजा ; मैं तुम्हें समस्त पापों और दोषों से मुक्त कार दूंगा --- शोक मत कर|
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हम केवल उस यजमान की तरह हैं जो यज्ञ को संपन्न होते हुए देखता है; जिसकी उपस्थिति यज्ञ की प्रत्येक क्रिया के लिये आवश्यक है| सारे कर्म तो जगन्माता स्वयं करती हैं और यज्ञरूप में परमात्मा को अर्पित करती है| कर्ताभाव एक भ्रम है| जो लोग भगवान से कुछ माँगते हैं, उन्हें वे वही चीज़ देते हैं जो वे माँगते हैं| परन्तु जो अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं माँगते उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं| न केवल कर्ताभाव, कर्मफल आदि बल्कि कर्म तक को उन्हें समर्पित कर दो| साक्षीभाव या दृष्टाभाव तक उन्हें समर्पित कर दो| साध्य भी वे ही हैं, साधक भी वे ही हैं और साधना भी वे ही है| यहाँ तक कि दृष्य, दृष्टी और दृष्टा भी वे ही हैं|ॐ तत् सत्|
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. ११ वि.सं.२०७२| 20जनवरी2016.

चित्त की वृत्तियों का निरोध करना .....

चित्त की वृत्तियों का निरोध करना .....
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चित्त की वृत्ति दो रूपों --- श्वास-प्रश्वास और वासनाओं द्वारा व्यक्त होती हैं| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म होती हैं जो पकड़ में नहीं आतीं| अतः स्थूल रूप श्वास-प्रश्वास के माध्यम से प्राण तत्व की चंचलता को स्थिर किया जाता है| प्राण तत्व के स्थिर होने पर मन और चित्त की वृत्तियाँ भी स्थिर यानि नियंत्रित हो जाती हैं|
एक सूक्ष्म प्राणायाम है जो सुषुम्ना नाड़ी में किया जाता है| इस से प्राण तत्व की चंचलता कम होती है| यह चित्त की वृत्तियों के निरोध का एक अति प्रभावशाली साधन है|
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चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग बताया गया है| चित्त की वृत्तियाँ अधोमुखी होती हैं, उनका अधोगमन रोक कर उन्हें ऊर्ध्वमुखी बनाना ही उनका निरोध है| चंचल मन सबसे बड़ी बाधा है जिस पर विजय पाई जाती है चंचल प्राण को स्थिर कर| प्राण तत्व तक पहुँचने के लिए श्वास-प्रश्वास एक माध्यम है| अजपाजाप इसमें बहुत सहायक है| पर बिना भक्ति के कोई एक क़दम भी नहीं चल सकता योग मार्ग पर|
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योग है .... महाशक्ति कुण्डलिनी का परमशिव से मिलन|
योग मार्ग में यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) और नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) पर जोर इसी लिए दिया है कि बिना सदाचार के की गयी साधना साधक को या तो विक्षिप्त कर देती है या आसुरी जगत का उपकरण बनाकर असुर बना देती है| यह एक दुधारी तलवार है| सदाचार पूर्वक की गयी साधना दैवीय जगत से जोड़ती है|
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परमात्मा के प्रति अहैतुकी परमप्रेम एक ऐसी शक्ति है जो सब बाधाओं के पार पहुंचा देती है|
सभी को शुभ कामनाएँ| आप सब के ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम जागृत हो|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. ११ वि.सं.२०७२| 20जनवरी2016.

निज विवेक से अपने अनुभूतिजन्य विचारों पर दृढ़ रहें .....

निज विवेक से अपने अनुभूतिजन्य विचारों पर दृढ़ रहें .....
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मैं अब तक जीवन में जितने भी लोगों से मिला हूँ, उन में से अधिकाँश में एक बात सामान्य देखी है कि उनकी चिंतनधारा दूसरों के विचारों के इर्दगिर्द ही सीमित रहती थी या है| स्वतंत्र विचारक बहुत कम नाममात्र के ही मिले हैं जीवन में| अधिकाँश लोग दूसरों का ही जीवन जीते हैं, स्वयं का नहीं| हमें अपनी मौलिकता को खोज कर उस पर दृढ़ रहना चाहिए|
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अपना चिंतन स्वतंत्र रहे| सत्य की खोज में हम स्वयं लगे रहें और निजानुभव से जिस भी सत्य का आभास हो उस पर दृढ़ता से डटे रहें| बहुत पहले की बात है, स्वामी रामतीर्थ का साहित्य पढ़ते पढ़ते एक पंक्ति पर कुछ देर के लिए मैं अटक गया था जिसका भावार्थ था कि परमात्मा को खोजते खोजते हम स्वयं को ही पा लेते हैं| वे स्वयं को सदा परमात्मा से अभिन्न मानते थे| अपने इस विचार पर वे सदा दृढ़ रहे, उन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं कि अन्य लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं|
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जीवन में परम सत्य की खोज भी एक गहन अभीप्सा और तड़फ का परिणाम है जो सब में नहीं होती| धन्य हैं वे लोग जिनके हृदय में ऐसी प्रचंड अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही है या है| यह कई जन्मों के अच्छे कर्मों से प्राप्त होती है| इसे दूसरों पर थोपा नहीं जा सकता| थोपने का प्रयास भी ना करें| अपना स्वयं का जीवन जीयें और यदि हमारे में कोई अच्छाई होगी तो दूसरे भी उसका अनुसरण करेंगे| दूसरों को अपना अनुयायी बनाने का प्रयास ना करें| यह बहुत बड़ी हिंसा है|
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जब हम स्वयं को अति महत्वपूर्ण मान लेते हैं और सोचते हैं कि हम ही सही हैं और अन्य सब गलत, और अन्य सब हमारी ही बात मानें, तब हम जाने अनजाने में मायावी यानि नकारात्मक शक्तियों के उपकरण बन जाते हैं|
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यह दुनिया हमारे बिना भी चल रही थी और हमारे बिना भी चलती रहेगी| हर पल हज़ारों लोग काल के गाल में समा रहे हैं, फिर भी हम स्वयं को अमर मान रहे हैं|
हम उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जितना हम स्वयं को मानते हैं| अब तक पता नहीं कितने लोग आये और चले गए, उन सब के बिना भी दुनियाँ चल रही है|
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यह सृष्टि परमात्मा की है और उसे हमारे सुझावों की आवश्यकता नहीं है| वह अपनी सृष्टि चलाने में सक्षम है| एकमात्र अच्छा कार्य जो हम कर सकते हैं वह है अपनी सर्वश्रेष्ठता यानि अपनी यथासंभव पूर्णता को पाने का प्रयास करते रहें| उस परम सत्य परमात्मा को पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है उसे पाने का निरंतर प्रयास करना ही हमारा परम कर्तव्य और लक्ष्य हो सकता है|
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कुछ भी ना देखें, किसी ओर भी ना देखें, सिर्फ अपना लक्ष्य जो एकदम सामनें एक विराट ज्योति के रूप में परिलक्षित हो रहा है| उसी की ओर बढ़ते रहें| गिर भी जाएँ तो कोई बात नहीं, मर भी जाएँ तो कोई बात नहीं| न जाने कितनी बार मरे हैं, एक बार और सही| जीवन तो निरंतरता है, फिर मिल जाएगा| हार ना मानो, चलते रहो|
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इस बात का कोई महत्व नहीं है कि अपने साथ क्या होता है| महत्व सिर्फ और सिर्फ इसी बात का है कि हम अपने अनुभवों से क्या बनते हैं| इस तरह गिरते गिरते एक दिन हम पाएँगे की हम स्वयं परमात्मा के ह्रदय में हैं और उनके साथ एकाकार हैं|
उनको अपनी दृष्टी से कभी ओझल मत होने दो| बेशर्म होकर उनके पीछे पड़ जाओ|
एक दिन हम पायेंगे की वे स्वयं हमारे पीछे पीछे चल रहे हैं|
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संसार की दृष्टी में हम क्या हैं इसका कोई महत्व नहीं है| महत्व इसी बात का है कि हम परमात्मा की दृष्टी में क्या हैं|
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर

Wednesday, 18 January 2017

मेरे चरित्र में श्वेतकमल से भी अधिक पवित्रता हो .....

मेरे चरित्र में श्वेतकमल से भी अधिक पवित्रता हो, कहीं कोई दाग न रहे| कोई अभिलाषा, कोई कामना, कोई राग-द्वेष का अवशेष भी न रहे|
अनगिनत छिद्रों से भरी इस जीर्णशीर्ण नौका के कर्णधार हे गुरुरूप ब्रह्म, मुझे भुलावा देकर इस मायावी भवसागर से पार ले चलो जहाँ सिर्फ और सिर्फ सच्चिदानंद परमात्मा की ही परम चेतना हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ||

किसी अन्य पर दोषारोपण न करें .......

हम जहाँ भी हैं, जैसी भी स्थिति में हैं, चाहे किसी भी कारण से हैं, उसके लिए किसी अन्य पर दोषारोपण करने से, उसे बुरा-भला कहने से, कोई लाभ नहीं है| दूसरों पर ताने मारना, व्यंग्य करना, किसी को नीचा दिखाना, और गाली देना भी निरर्थक है|
पूरी स्थिति की समीक्षा कर के, निज विवेक से उसका समाधान स्वयं से ही करना चाहिए| दूसरों से कोई अपेक्षा न करें|
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दूसरों का सर काट कर हम बड़े नहीं बन सकते| हमें स्वयं ही ऊपर उठना होगा| पर्वत शिखर से यदि तालाब में पानी आता है तो इसमें दोष पर्वत शिखर का नहीं है| हमें स्वयं को पर्वत शिखर बनना होगा|
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भौतिक, मानसिक, बौद्धिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक हर दृष्टी से स्वयं को परोपकार के लिए सशक्त बनना होगा| जीवन का केंद्रबिंदु परमात्मा को बनायें| हम परमात्मा के एक उपकरण मात्र बन जाएँ| फिर सब सही होगा|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

धर्म की रक्षा .... स्वयं के द्वारा धर्म के पालन से ही होगी ....

धर्म की रक्षा .... स्वयं के द्वारा धर्म के पालन से ही होगी ......
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हमारी अस्मिता पर एक बहुत लम्बे समय से बड़े भयंकर मर्मान्तक प्रहार होते आ रहे हैं| साधू-संतों-भक्तों-वीर-वीरांगणाओं व सद् गृहस्थों के त्याग, संघर्ष और पुण्यों के प्रताप से हमारी अस्मिता अभी तक जीवित बची हुई है|
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वर्त्तमान में धर्मनिरपेक्षता, तथाकथित आधुनिकता, सहिष्णुता, वर्त्तमान शिक्षापद्धति और धार्मिक/आध्यात्मिक शिक्षा के अभाव के कारण हमारी आस्था कम होती जा रही है| कई विधर्मी धूर्ततापूर्वक मतांतरण द्वारा हमारी जड़ों पर प्रहार कर रहे हैं| वे स्वयं को मुक्तिदाता के प्रचारक बताकर गरीबों के गले में मानसिक दासता का फंदा डाल रहे हैं|
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इसका एकमात्र प्रतिकार यह है कि हम स्वयं अपने स्वधर्म का पालन करें और अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दें| निज विवेक से उन धूर्तों के चक्कर में न आयें जिन्हें आध्यात्म का प्राथमिकी ज्ञान भी नहीं है| कुछ लोग विदेशों से भारत की कानून व्यवस्था को धार्मिक स्वतंत्रता का उत्पीडक बताते हुए इसके विरूद्ध अमेरिका से हस्तक्षेप की मांग भी करते रहे हैं|
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स्वधर्म का पालन ही हमें मुक्ति के मार्ग पर ले जा सकता है| भगवान् की खूब भक्ति करें और स्वधर्म पर दृढ़ रहें| शुभ कामनाएँ और नमन|
ॐ ॐ ॐ ||

माया का सबसे बड़ा शस्त्र .....'प्रमाद' ..... यानि 'आलस्य' है .....

माया का सबसे बड़ा शस्त्र .....'प्रमाद' ..... यानि 'आलस्य' है .....
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ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय ......
भक्तिसुत्रों के आचार्य देवर्षि नारद के गुरु भगवान सनत्कुमार जो ब्रह्मविद्या के आचार्य भी हैं, के सनत्सुजातीय ग्रन्थ में लिखा है ..... "प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि", अर्थात् प्रमाद ही मृत्यु है|
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अपने " अच्युत स्वरूप " को भूलकर "च्युत" हो जाना ही प्रमाद है और इसी का नाम "मृत्यु" है| जहाँ अपने अच्युत भाव से च्युत हुए, बस वहीँ मृत्यु है|
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दुर्गा सप्तशती में 'महिषासुर' --- प्रमाद --- यानि आलस्य रूपी तमोगुण का ही प्रतीक है|
आलस्य यानि प्रमाद को समर्पित होने का अर्थ है -- 'महिषासुर' को अपनी सत्ता सौंपना|
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ओम् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
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ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभि र्व्यशेम देवहितं यदायुः
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स्वस्ति न इन्द्रो वॄद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
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दीर्घसूत्रता मेरा सबसे बड़ा दुर्गुण है .........

दीर्घसूत्रता मेरा सबसे बड़ा दुर्गुण है .........
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मैं अन्य किसी की आलोचना नहीं कर रहा हूँ, स्वयं की ही कर रहा हूँ| मैं अपने पूरे जीवन का सिंहावलोकन कर के विश्लेषण करता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे जीवन में, मेरे व्यक्तित्व में सबसे बड़ी कमी कोई है तो वह है ....... 'आत्मविस्मृति'......, जिसका एकमात्र कारण है .....'दीर्घसूत्रता'.....|
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आत्मविस्मृति दीर्घसूत्रता के कारण ही होती है| यह दीर्घसूत्रता सब से बड़ा दुर्गुण है जो हमें परमात्मा से दूर करता है| दीर्घसूत्रता का अर्थ है काम को आगे के लिए टालना| यह दीर्घसूत्रता ही प्रमाद यानि आलस्य का दूसरा नाम है| साधना में दीर्घसूत्रता यानि आगे टालने की प्रवृति साधक की सबसे बड़ी शत्रु है, ऐसा मेरा निजी प्रत्यक्ष अनुभव है|
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सबसे बड़ा शुभ कार्य है भगवान की भक्ति जिसे आगे के लिए नहीं टालना चाहिए| जो लोग कहते हैं कि अभी हमारा समय नहीं आया, उनका समय कभी भी नहीं आयेगा|
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जल के पात्र को साफ़ सुथरा रखने के लिए नित्य साफ़ करना आवश्यक है अन्यथा उस पर जंग लग जाती है| एक गेंद को सीढ़ियों पर गिराओ तो वह उछलती हुई क्रमशः नीचे की ओर ही जायेगी| वैसे ही मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ (जो वासनाओं के रूप में व्यक्त होती है) अधोगामी होती है, वे मनुष्य का क्रमशः निश्चित रूप से पतन करती हैं| उनके निरोध को ही 'योग' कहा गया है|
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नित्य नियमित साधना अत्यंत आवश्यक है| मन में इस भाव का आना कि .....'थोड़ी देर बाद करेंगे'....., हमारा सबसे बड़ा शत्रु है| यह 'थोड़ी देर बाद करेंगे' कह कर काम को टाल देते हैं वह ..... 'थोड़ी देर'..... फिर कभी नहीं आती| इस तरह कई दिन और वर्ष बीत जाते हैं| जीवन के अंत में पाते हैं की बहुमूल्य जीवन निरर्थक ही नष्ट हो गया|
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अतः मेरे अनुभव से यह दीर्घसूत्रता, प्रमाद और आलस्य सब एक ही हैं| यही सबसे बड़ा तमोगुण है| यही माया का सबसे बड़ा हथियार है| यह माया ही है जिसे कुछ लोग 'शैतान' या 'काल पुरुष' कहते हैं| सृष्टि के संचालन के लिए माया भी आवश्यक है पर इससे परे जाना ही हमारा प्राथमिक लक्ष्य है|
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जब ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार कहते हैं की --- "प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि" --- अर्थात् प्रमाद ही मृत्यु है तो उनकी बात पूर्ण सत्य है| भगवान सनत्कुमार ब्रह्मविद्या के आचार्य हैं और भक्तिसुत्रों के आचार्य देवर्षि नारद के गुरु हैं| उनका कथन मिथ्या नहीं हो सकता|
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सभी मनीषियों का साधुवाद और सब को मेरा सादर नमन|
"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. १० वि.सं.२०७२| 19जनवरी2016.

*********** उपदेश सार **********

*********** उपदेश सार **********
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"अलप तो अवधि
जीव तामें बहुत सोच पोच करिबे
को बहुत काह काह कीजिए|
पार न पुरानहु को
वेदहु को अन्त नाही
वाणी तो अनेक चित्त कहाँ कहाँ दीजिए।।१||
काव्य की कला अनन्त
छन्द को प्रबन्ध बहुत
राग तो रसीले रस कहाँ कहाँ पीजिए।
लाखन में एक बात
तुलसी बताए जात
जनम जो सुधारा चहो 'राम' नाम लीजिए।।२||"

कुछ उलझनें .....

कुछ उलझनें .....
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(१) चारों ओर इतना शोर है .......... क्या इस शोर में मौन संभव है ? .............
चारों ओर इतना अधिक वैचारिक और ध्वनि प्रदूषण है ... जाएँ तो जाएँ कहाँ ?
इतने शोर में मौन कैसे रहें ? ......... क्या बाहर का शोर भी परमात्मा की ही अभिव्यक्ति हैं?
बाहर के शोर से निरपेक्ष होकर कैसे आतंरिक मौन को उपलब्ध हों?
बाहर का शोर बाधा है या परमात्मा की एक अभिव्यक्ति?
बार बार मन में उठने वाले विचार भी भयंकर से भयंकर शोर से कम नहीं हैं| क्या ये भी परमात्मा के ही अनुग्रह है?
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(२) पतंग उड़ता है और चाहता है कि वह उड़ता ही रहे, व उड़ते उड़ते आसमान को छू ले| पर वह नहीं जानता कि वह एक डोर से बंधा हुआ है जो उसे खींच कर बापस भूमि पर ले आती है|
असहाय है बेचारा ! और कर भी क्या सकता है ?
वैसे ही जीव भी चाहता है शिवत्व को प्राप्त करना, यानि परमात्मा को समर्पित होना| उसके लिए शरणागत भी होता है और साधना भी करता है पर अवचेतन में छिपी कोई वासना अचानक प्रकट होती है और उसे चारों खाने चित गिरा देती है| पता ही नहीं चलता कि अवचेतन में क्या क्या कहाँ कहाँ छिपा है|
क्या कोई लघु मार्ग है जो इन वासनाओं से मुक्त कर दे ?
इस कर्मों कि डोर से इस अल्प काल में कैसे मुक्त हो सकते हैं ? सभी प्रकार के विक्षेपों और मिथ्या आवरणों से कैसे तुरंत प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं ?
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(३) हम विश्व यानि परमात्मा की सृष्टि के बारे में अनेक धारणाएँ बना लेते हैं .........
फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है ?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है ?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है ?
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(४) क्या यह संभव है कि पूरे मन को ही संसार के गुण-दोषों से हटा कर परमात्मा अर्थात प्रभु में लगा दिया जाए ? क्या इसका भी कोई लघुमार्ग है ?
बार बार मन को प्रभु में लगाते हैं पर यह मानता ही नहीं है? भाग कर बापस आ जाता है |
अब इसका क्या करें ? क्या यह भूल भगवान की ही है कि उसने ऐसी चीज बनाई ही क्यों ?
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
पौष शु. १० वि.सं.२०७२| 19जनवरी2016.

Tuesday, 17 January 2017

शरणागत की भगवान रक्षा करते हैं .....
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जिस समय कौरव और पाण्डवोंके सामने भरी सभामें दुःशासनने द्रौपदीके वस्त्र और बालोंको पकडकर खींचा, उस समय जिसका कोई दूसरा नाथ नहीं ऐसी द्रौपदीने रोकर पुकारा –
‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !'
श्रीकृष्ण विष्णो मधुकैटभारे भक्तानुकम्पिन् भगवन् मुरारे|
त्रायस्व माम् केशव लोकनाथ गोविंद दामोदर माधवेति||
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प्रभु को शरणागति द्वारा पूर्ण समर्पण ही हमारे जीवन का एकमात्र ध्येय है| माया की प्रबल शक्तियाँ जो आवरण और विक्षेप के रूप में प्रकट होती हैं इतनी प्रबल हैं कि बिना हरिकृपा के उनको पार नहीं कर सकते| उनकी कृपा भी तभी होती है जब हम उनको प्रेम करते हैं|
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प्रभु भक्ति का आनंद असीमित, अथाह और नित्य नवीन है| भगवान स्वयम् ही अपने भक्तों की रक्षा करते हैं| 


ॐ ॐ ॐ || ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || ॐ नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव ||

माता-पिता प्रथम देवी-देवता हैं .....

माता-पिता प्रथम देवी-देवता हैं .....
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जब तक इस देह रुपी वाहन में चेतना है तब तक माता-पिता मेरे ही नहीं सभी के प्रथम देवी-देवता हैं| वे साक्षात् महादेव व भगवती हैं| सर्वप्रथम प्रणाम उन्हीं को किया जाना चाहिए|
प्रातःकाल उठते ही सर्वप्रथम प्रणाम अपने दिवंगत माता-पिता को करता हूँ|
पिता को प्रणाम "ॐ ऐं" मन्त्र से और माता को प्रणाम "ॐ ह्रीं" मन्त्र से करता हूँ| दोनों को ऐक साथ प्रणाम "ॐ ऐं ह्रीं " इस मन्त्र से करना चाहिए| इससे प्रणाम तुरंत स्वीकार होता है और पितृगण भी प्रसन्न होते हैं|
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और भी सूक्ष्म रूप में भगवान शिव हमारे पिता हैं और माँ उमा भगवती हमारी माता हैं|
भगवान श्रीकृष्ण सब मित्रों के मित्र हमारे परम सखा हैं|
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और भी सूक्ष्मतर रूप में ॐकार रूप में साकार परमात्मा हमारे सर्वस्व हैं| जो ॐकार की परिकल्पना नहीं कर सकते उनके लिए "राम" ही सर्वस्व हैं|
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सूक्ष्मतम रूप में परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम और उससे प्राप्त आनंद ही परब्रह्म है| वही परमात्मा का निराकार रूप है|
निराकार में प्रवेश साकार के माध्यम से ही होता है| बिना साकार के कोई निराकार की अनुभूति नहीं कर सकता|
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प्रभु प्रेम में हम पाते हैं कि वास्तव में भगवान ही हमें प्रेम कर रहे हैं| हमारे में इतनी क्षमता ही कहाँ हैं कि हम उन्हें प्रेम कर सकें|
उनका प्रेम सिन्धु इतना विराट है की हमारी हिमालय सी भूलें भी उसमें मामूली से कंकर पत्थर से अधिक नहीं लगती हैं जो वहाँ भी शोभा दे रही हैं|
वे अनंत प्रेम हैं जो हमें भी प्रेममय बना रहे हैं| उस प्रेम से बड़ी कोई उपलब्धी नहीं है|
इस से आगे कहने को भी कुछ नहीं है| सब कुछ यहीं समाप्त हो जाता है| 


ॐ ॐ ॐ ||

निर्बल के बल राम, निर्धन के धन राम, और निराश्रय के आश्रय राम हैं ...

निर्बल के बल राम, निर्धन के धन राम, और निराश्रय के आश्रय राम हैं, फिर और क्या चाहिए? कुछ भी नहीं ....
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मेरे द्वारा परमात्मा का ध्यान सिर्फ इसीलिए होता है कि मुझे और कुछ भी आता-जाता नहीं है| कोई पूजा-पाठ, जप-तप, कोई मंत्र-स्तुति ...... कुछ भी मुझे नहीं आती| न तो मुझे श्रुतियों का और न आगम शास्त्रों का कोई ज्ञान है| इन्हें समझने की बुद्धि भी नहीं है|
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भगवान ने कूट कूट कर अपना परम प्रेम मुझे दिया है, और अन्य कुछ भी मेरे पास नहीं है| यही मेरी एकमात्र संपत्ति है| न तो मुझे किसी से कुछ चाहिए और न मेरे पास कुछ देने के लिए है|
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किसी भी देवी-देवता और ग्रह-नक्षत्र, में मेरी कोई आस्था नहीं है, क्योंकि इन सब को ऊर्जा और शक्ति परमात्मा से ही मिलती है| इनकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है|
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जो कुछ भी निज पुरुषार्थ से अर्जित किया जा सकता है, उसकी मुझे अब कोई चाह नहीं है| मुझे वो ही चाहिए जो सिर्फ और सिर्फ परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होता है|
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अतः उनकी कृपा ही मेरा आश्रय है| मुझे न तो उनकी विभूतियाँ चाहिए और न कुछ और| साक्षात सच्चिदानंद परमब्रह्म परमात्मा से कम कुछ भी नहीं चाहिए| यह पृथकता का बोध और माया का आवरण समाप्त हो| ॐ ॐ ॐ ||

ॐ ॐ ॐ ||

आपके ध्यान में स्थिति ही मेरा जीवन, और आपके ध्यान से विमुखता ही मेरी मृत्यु है....

ॐ ॐ ॐ || हे साक्षात परमब्रह्म सच्चिदानंद,

आपके ध्यान में स्थिति ही मेरा जीवन, और आपके ध्यान से विमुखता ही मेरी मृत्यु है| किसी भी परिस्थिति में मुझे अपने ध्यान से विमुख मत होने दो| मैं आपकी शरणागत हूँ| आप मेरी रक्षा करें| विधाता को भी शक्ति आप ही देते हैं| आपके होते हुए विधाता कैसे मुझे आपसे दूर कर सकता है? मुझ निरीह अकिंचन में कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं है, आप ही मेरी शक्ति हो| स्वयं को मुझमें व्यक्त करो| इस माया के आवरण और सभी विक्षेपों का अंत करो| ॐ ॐ ॐ ||

Sunday, 15 January 2017

गुरु महाराज का साथ हर क्षण निरंतर है ....

गुरु महाराज का साथ हर क्षण निरंतर है ....
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जीवन के दुःख-सुख में जिन्होनें कभी साथ मेरा साथ नहीं छोड़ा, मेरे द्वारा भुलाए जाने पर भी जिन्होनें कभी मुझे विस्मृत नहीं किया, जिन्होनें मेरे द्वारा की गयी हिमालय से भी बड़ी बड़ी अनेक भूलों को क्षमा कर दिया, जिन्होंने मुझे अपनी कृपा दृष्टी से कभी ओझल नहीं होने दिया; जिन्होनें मेरे चैतन्य में अचिन्त्य परमात्मा का प्रेम सदा जगाये रखा, जिनके स्मरण मात्र से वेदान्त के गूढ़तम रहस्य स्वतः ही अनावृत हो जाते हैं, ऐसे महान शाश्वत मित्र गुरु महाराज को मेरे ह्रदय का पूर्ण प्रेम समर्पित है| जय गुरु ! ॐ गुरु !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

ईश्वर ही मेरा विषय और मनोरंजन है ....

ईश्वर ही मेरा विषय और मनोरंजन है ....
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कई लोग मुझ से पूछते हैं कि मैं क्यों इतना समय लिखने में व्यतीत करता हूँ| इस पर मेरा एकमात्र और सही उत्तर यही है कि यह मेरा मनोरंजन मात्र ही है| मैं यह सब स्वयं को व्यक्त करने, अपने मन को लगाने और अपने स्वयं के कल्याण के लिये ही कर रहा हूँ| इसे मात्र मेरा मनोरंजन ही समझ लीजिये, पर मैं इससे पूर्ण संतुष्ट हूँ| मुझे कोई शिकायत नहीं है|
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मेरे मन , बुद्धि, चित्त और अहंकार को उस चोर-जार-शिखामणि, कुहुक-शिरोमणि और दुःख-तस्कर हरि ने अधिकाँश चुरा लिया है| उस तस्कर का आकर्षण इतना प्रबल है कि छोड़े से नहीं छूटता, और अब उससे मुझे प्रेम हो गया है| अब उस हरि ने एक अभीप्सा (एक ऐसी प्यास जो कभी नहीं बुझती), और ह्रदय में एक ऐसी अग्नि भी जला दी है जो कभी नहीं बुझती| अब मेरे सामने कोई दूसरा चारा नहीं है| उस तस्कर, चोर-जार-शिखामणि और कुहुक-शिरोमणि हरि से बस एक ही निवेदन है कि जो बचा खुचा है, वह भी ले ले| यह थोड़ा बहुत क्यों बाकी छोड़ दिया? इसे भी ले जाइए| अपने इस अल्प प्रेम को परम प्रेम में परिवर्तित कर दीजिये| उस को पूर्ण समर्पण का प्रयास ही अब एकमात्र मार्ग रह गया है, बाकि के सब मार्ग बंद हो गये हैं| अब ईश्वर ही मेरा सर्वाधिक प्रिय विषय है| उसके गुण ही मेरा अस्तित्व हैं| इति ||
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(उपरोक्त लेख में दिए कुछ शब्दों के अर्थ :-
(१) गोपाल सहस्त्रनाम में भगवान श्री कृष्ण को "चोर-जार-शिखामणि" यानि चोरों का सरदार कहा गया है, क्योंकी चोर तो सिर्फ वस्तुओं की चोरी करता है, पर भगवन श्रीकृष्ण तो चोरी करने की इच्छा को ही चुरा लेते हैं|
(२) कुहुक .... कोहरे को कहते हैं| भगवन सदा आपके साथ हैं, पर माया रुपी घने कोहरे के कारण वे पास होकर भी नहीं दिखाई देते, इसलिए कुछ शास्त्रकारों ने भगवान को 'कुहुक शिरोमणि" की संज्ञा दी है|
(३) वे भक्तों के सब तापों को हर लेते हैं इसलिए उनका एक नाम "हरि' भी है| हरि का शाब्दिक अर्थ है .... चोर|
(४) रुद्री में भगवान शिव को 'दुःख तस्कर' कहा है क्योंकी वे अपने भक्त के दुःखों को चुपचाप इस तरह चुरा लेते हैं कि भक्त को पता ही नहीं चलता| तस्कर का अर्थ भी चोर होता है|)
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थोड़ा बहुत जो इस माध्यम से व्यक्त हो जाता है वह उस बचे-खुचे अल्प प्रेम की ही अभिव्यक्ति है जो उसे ही समर्पित है| आप सब को शुभ कामनाएँ और नमन|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || ॐ नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव || ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर

Friday, 13 January 2017

लोहिड़ी / मकर संक्रान्ति / पोंगल की शुभ कामनाएँ ....

लोहिड़ी / मकर संक्रांति / पोंगल की शुभ कामनाएँ .....
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हमारा जीवन उत्तरायण बने, हम धर्मपरायण बनें और हमारे आदर्श भगवान श्रीराम बनें| मकर संक्रांति/पोंगल/लोहड़ी पर सभी को शुभ कामनाएँ| जय श्री राम !
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अपनी व्यक्तिगत साधना/उपासना में आज से एक नए संकल्प और नई ऊर्जा के साथ गहनता लायें | उपासना एक मानसिक क्रिया है| इस क्रिया में और अधिक गहनता लाने के लिए .....
> रात्रि को सोने से पूर्व भगवान का ध्यान कर के निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ|
> दिन का आरम्भ परमात्मा के प्रेम रूप पर ध्यान से करें|
>पूरे दिन परमात्मा की स्मृति रखें| यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः स्मरण करते रहें|
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आज का एक विशेष विचार >>>
ज्ञान संकलिनी तन्त्र के अनुसार इड़ा भगवती गंगा है, पिंगला यमुना नदी है और उनके मध्य में सुषुम्ना सरस्वती है| इस त्रिवेणी का संगम तीर्थराज है जहां स्नान करने से सर्व पापों से मुक्ति मिलती है|
> वह तीर्थराज त्रिवेणी प्रयाग का संगम कहाँ है ?
> >> वह स्थान ... तीर्थराज त्रिवेणी का संगम आपके भ्रूमध्य में है|
अपनी चेतना को भ्रूमध्य में और उससे ऊपर रखना ही त्रिवेणी संगम में स्नान करना है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
जय भारत, जय वैदिक संस्कृति ....

हम सोते ही न रह जाएँ ऐ शोरे-क़यामत .....

"हम सोते ही न रह जाएँ ऐ शोरे-क़यामत !
इस राह से निकलो तो हमको भी जगा देना !!"
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अब्राहमिक मतों के अनुसार जिस दिन क़यामत होगी, उस दिन पूर्व दिशा में बड़े जोर से एक नारसिंघे की आवाज़ गूंजेगी जिसे सुनकर सारे गड़े मुर्दे खड़े हो जायेंगे| सब की पेशी होगी, सब का इन्साफ होगा| बड़ा शोरगुल होगा|
पर कुछ आशिक़ ऐसे भी हैं जो अपनी मस्ती में सोये हुए हैं, जिन्हें क़यामत की फ़िक्र नहीं है| वे पहिले से ही उस शोरे-क़यामत से कह रहे हैं कि जब इधर से निकलो तब हमको भी जगा देना, कहीं हम सोते ही न रह जाएँ|
हम सोते ही न रह जाएँ ऐ शोरे-क़यामत !
इस राह से निकलो तो हमको भी जगा देना !!
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परमात्मा के इश्क़ में प्रसन्न गाफ़िल दीवाने लोगों के लिए परमात्मा से मिलने की कोई शीघ्रता नहीं होती| उनके लिए विरह का आनंद मिलने की खुशी से कहीं अधिक मस्ती भरा होता है| परमात्मा के प्यार में पागलपन का जो आनंद है वह अन्यत्र नहीं है| परमात्मा के विरह में भी एक खुशी है जो हो सकता है परमात्मा से मिलने के बाद न हो| अतः अब कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमात्मा मिले या न मिले|
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"वस्ल में जुदाई का गम, जुदाई में मिलने की ख़ुशी| कौन कहता है जुदाई से विसाल अच्छा है||"

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ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||

दिव्य प्रेम कोई क्रिया नहीं है, यह तो हमारा अस्तित्व है ....

दिव्य प्रेम कोई क्रिया नहीं है, यह तो हमारा अस्तित्व है ....
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(यह मेरा निजी विचार है, कोई आवश्यक नहीं है कि आप इससे सहमत हों)
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मेरा निज अनुभव तो यही कहता है कि हम किसी को भी प्रेम नहीं कर सकते, पर स्वयं प्रेममय हो सकते हैं| स्वयं प्रेममय होना ही प्रेम की अंतिम परिणिति है| यही परमात्मा के प्रति अहैतुकी प्रेम है| यहाँ कोई माँग नहीं है, सिर्फ अपने परम प्रेम को व्यक्त करना है|
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जब हम कहते हैं कि मैं किसी को प्रेम करता हूँ तो यहाँ अहंकार आ जाता है| मैं कौन हूँ करने वाला ? मैं कौन हूँ कर्ता? कर्ता तो सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही है| "मैं" शब्द में अहंकार और अपेक्षा आ जाती है|
अपने अंतर की गहराइयों में सीमित होकर हम किसी को प्रेम नहीं कर सकते, और न ही अपनी सीमितता में कोई अन्य हमें प्रेम कर सकता है|
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हम स्वयं प्रेममय यानि साक्षात "प्रेम" बन कर परमात्मा के सचेतन अंश बन जाते हैं क्योंकि भगवान स्वयं अनिर्वचनीय परम प्रेम हैं| फिर हमारे प्रेम में सम्पूर्ण समष्टि समाहित हो जाती है| जैसे भगवान भुवन-भास्कर मार्तंड आदित्य अपना प्रकाश बिना किसी शर्त के सब को देते हैं वैसे ही हमारा प्रेम पूरी समष्टि को प्राप्त होता है| फिर पूरी सृष्टि ही हमें प्रेम करने लगती है क्योंकि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रया होती है| हम स्वयं ही परमात्मा के प्रेम हैं जो अपनी सर्वव्यापकता में सर्वत्र समस्त सृष्टि में सब रूपों में व्यक्त हो रहे हैं|
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आप तो स्वयं ज्योतिषांज्योति हो, सारे सूर्यों के सूर्य हो, प्रकाशों के प्रकाश हो|
जैसे भगवान भुवन-भास्कर के समक्ष अन्धकार टिक नहीं सकता वैसे ही आपके परम प्रेम रूपी प्रकाश के समक्ष अज्ञान, असत्य और अन्धकार की शक्तियां नहीं टिक सकतीं| आप अपनी पूर्णता को प्रकट करो| आपका प्रेम ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है| आपकी पूर्णता ही सच्चिदानंद है, आपकी पूर्णता ही परमेश्वर है और अपनी पूर्णता में आप स्वयं ही परमात्मा हो| आप जीव नहीं अपितु साक्षात परमशिव हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ तत् त्वं असि | ॐ सोsहं || ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||