मैं नमन करूँ तो किसको करूँ? कोई अन्य है ही नहीं ---
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मैं इस समय ध्यानमुद्रा -- अर्धखेचरी युक्त शांभवीमुद्रा में बैठा हूँ। मेरी सारी चेतना सहस्त्रारचक्र में है। भगवान परमशिव एक विराट ज्योति:पुंज के रूप में मेरे समक्ष हैं। उनकी ज्योति में सारी सृष्टि समाहित है। मैं उन से पृथक नहीं रह सकता, अतः स्वयं की सारी चेतना, और सारा अस्तित्व उन्हें समर्पित कर रहा हूँ। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। भगवान परमशिव अपनी साधना स्वयं कर रहे हैं।
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हम इस सृष्टि में कहीं पर भी हों --- सहस्त्रारचक्र उत्तर दिशा है, भ्रूमध्य पूर्व दिशा है, मेरुशीर्ष पश्चिम दिशा है, और मूलाधारचक्र दक्षिण दिशा है। जब हमारी चेतना सहस्त्रारचक्र में होती है उस समय हमारा मुँह स्वतः ही उत्तरदिशा में है। भगवान परमशिव जब हमें ज्ञान देते हैं, उस समय वे भगवान दक्षिणामूर्ति हैं। जब वे ध्यानस्थ है, उस समय वे पंचमुखी महादेव हैं। बाकी बातें उन्हीं से पूछिए, आपकी पात्रता होगी तो वे स्वयं ही आपको सब कुछ समझा देंगे। आवश्यकता हमें अपनी पात्रता विकसित करने की है।
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उनके भीतर से प्रणव का नाद स्वतः ही प्रस्फुटित हो रहा है। मैं उनकी दिव्य ज्योति और नाद के साथ एक हूँ। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। वे ही गुरु हैं, और वे ही शिष्य हैं। संसार के सारे संबंध वे ही हैं।
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मेरा इस समय साधनाकाल प्रारंभ हो गया है, अतः मैं उपलब्ध नहीं हूँ। उत्थान-पतन, हानि-लाभ, जीवन-मरण, ज्ञान-अज्ञान आदि सब कुछ परमशिव हैं। मेरा एकमात्र संबंध और व्यवहार परमशिव से है। कोई प्रश्न, कोई उत्तर नहीं है। कोई शंका और समाधान भी नहीं है। सारा प्रारब्ध, सारे संचित कर्म, और उनके फल भी वे ही हैं। सारा ज्ञान भक्ति और वैराग्य भी वे ही हैं। इस सृष्टि में जो कुछ भी त्यागने और पाने योग्य है, वह सब कुछ वे परमशिव ही हैं। कोई संकल्प-विकल्प नहीं है, सारे संकल्प-विकल्प वे ही हैं। सारी रुग्णता और उपचार भी वे ही हैं। यह शरीर रहे या न रहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, जीवन-मृत्यु आदि सब कुछ वे परमशिव ही हैं। सारा अस्तित्व ही परमशिवमय है। सारी कामनाएँ, आकांक्षाएँ, त्याग, समर्पण, साधना, उपासना, और अभीप्सा आदि सब कुछ वे ही हैं।
ॐ ॐ ॐ !!
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१० मार्च २०२३
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