Thursday 12 September 2024

भक्त या साधक होने का भाव एक अहंकार है ---

 हम निमित्त मात्र ही हो सकते हैं, कर्ता और भोक्ता केवल परमात्मा हैं।

गीता में भगवान कहते है --
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व, जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव, निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
भावार्थ -- इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥ (बायें हाथसे भी बाण चलानेका अभ्यास होनेके कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है।)
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मेरे पाठकों में सब प्रबुद्ध विद्वान मनीषी हैं जो वेदान्त-दर्शन और भक्ति को अच्छी तरह समझते हैं। अतः मुझे कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ अगस्त २०२४
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