अनंत विस्तार ही जीवन है, और सीमितता है मृत्यु ---
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ध्यान करते-करते जिस क्षण अनंतता की अनुभूति हो, उसी क्षण से अनंतता में स्थित होकर, अनंतता से परे, स्वयं परमशिव होकर, परमशिव का ध्यान करें। वे ही विष्णु हैं, वे ही नारायण हैं, वे स्वयं ही अपना स्वयं का ध्यान कर रहे हैं। कहीं कोई पृथकता नहीं है। गुरु-रूप में वे स्वयं ही स्वयं का मार्गदर्शन करते हैं। कर्ता और भोक्ता वे ही हैं, हम नहीं। हम यह भौतिक देह नहीं, परमात्मा की पूर्णता हैं।
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"शिव" का अर्थ शिवपुराण के अनुसार -- जिन से जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में व्याप्त हैं, वे शिव हैं। जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, वे शिव हैं। अमरकोष के अनुसार -- 'शिव' शब्द का अर्थ मंगल एवं कल्याण होता है। विश्वकोष में -- शिव शब्द का प्रयोग मोक्ष में, वेद में, और सुख के प्रयोजन में, किया गया है। अतः शिव का अर्थ हुआ -- आनन्द, परम मंगल और परम कल्याण। जिन्हें सब चाहते हैं, और जो सबका कल्याण करने वाले हैं, वे ही ‘शिव’ हैं।
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जीवन का मूल उद्देश्य है -- शिवत्व की प्राप्ति। हम शिव कैसे बनें, एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर है -- ज्योतिर्मय अनंतता में शिव का ध्यान। यह किसी कामना की पूर्ती के लिए नहीं, बल्कि कामनाओं के नाश के लिए है। आते-जाते हर साँस के साथ, उनका चिंतन-मनन और समर्पण -- "हंसः योग" अजपा-जप कहलाता है, जो उनकी परम कृपा की प्राप्ति करा कर आगे का मार्ग प्रशस्त कराता है।
जब गुरुकृपा से ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है, और मेरुदंडस्थ सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित हो रहा प्राण-तत्व, अपनी परिक्रमा में बार-बार आज्ञाचक्र के बिन्दु का स्पर्श करता है (क्रियायोग), तब क्षुब्ध हुआ बिन्दु , नाद का रूप ले लेता है, और वहाँ ओंकार रूप प्रणव की ध्वनि सुनाई देने लगती है। उस ध्वनि में लीन होकर स्वयं का लय कर देना "लय-योग" है। तब कामनाओं व इच्छाओं की समाप्ति होने लगती है। यह मनुष्य जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। अपनी चेतना को सदा आज्ञाचक्र से ऊपर रखते हुए, परमज्योतिर्मय ब्रह्मरूप शिव को अपनी स्मृति में रखें।
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"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।"
(गीता १५:६).
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥"
(मुण्डकोपनिषद् , कठोपनिषद्).
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥" (वृहदारण्यकोपनिषद्).
"ॐ सहनाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥"
(श्वेताश्वतरोपनिषद्).
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि !!
कृपा शंकर
१३ अप्रेल २०२१
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