मेरा 'स्वधर्म' क्या है ?
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गीता में भगवान कहते हैं ....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:३५||
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते| स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत| अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्||४:७||"
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्| धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे||४:८||"
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सर्वप्रथम तो धर्म की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं| धर्म को अनेक मनीषियों ने परिभाषित किया है, पर वैशेषिक सूत्रों में दी हुई महर्षि कणाद की परिभाषा ही मुझे प्रभावित करती है .... "यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि:स धर्म:|" जिस माध्यम से हमारा सर्वांगीण विकास हो और सब प्रकार के दुःखों कष्टों से मुक्ति मिले वह धर्म है|
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अब प्रश्न यह उठता है कि हमारा स्वधर्म और परधर्म क्या है? जिसके कारण किसी भी विषय का अस्तित्व सिद्ध होता है वह उसका धर्म है| एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की भिन्नता उनके विचारों, गुणों, वासनाओं और स्वभाव पर निर्भर है| इन गुणों, वासनाओं और स्वभाव को ही हम स्वधर्म कह सकते हैं| हमें स्वयं की वासनाओं, गुणों और स्वभाव के अनुसार कार्य करने से संतुष्टि मिलती है, और दूसरों के स्वभाव, गुणों और वासनाओं की नक़ल करने से असंतोष और पीड़ा की अनुभूति होती है| अतः स्वयं के स्वभाव और वासनाओं के अनुसार कार्य करना हमारा स्वधर्म है, अन्यथा जो है वह परधर्म है| इसका किसी बाहरी मत-मतान्तर, पंथ या मज़हब से कोई सम्बन्ध नहीं है|
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गीता में अर्जुन के स्वभाव के अनुसार भगवान ने उसे युद्ध करने का उपदेश दिया था| अर्जुन चूँकि ब्राह्मण वेश में भी रहा था अतः उसे ब्राह्मणों का धर्म याद आ गया होगा, तभी उसने एकांत में बैठकर ध्यानाभ्यास करने की इच्छा व्यक्त की थी जो ब्राह्मणों का धर्म है, क्षत्रियों का नहीं| भगवान ने उसे उपदेश दिया कि स्वधर्म में कुछ कमी रहने पर भी स्वधर्म का पालन ही उसके लिए श्रेयष्कर है| देह का धर्म और आत्मा का धर्म अलग अलग होता है| यह देह जिससे मेरी चेतना जुड़ी हुई है, उसका धर्म अलग है| उसे भूख प्यास, सर्दी गर्मी आदि भी लगती है, यह और ज़रा, मृत्यु आदि उसका धर्म है| पर जब हमने यह देह धारण की है और समाज व राष्ट्र में रह रहे हैं, तो हमारा समाज और राष्ट्र के प्रति भी कुछ दायित्व बन जाता है जिसको निभाना हमारा राष्ट्र धर्म है| आत्मा का धर्म परमात्मा के प्रति आकर्षण और परमात्मा के प्रति परम प्रेम की अभिव्यक्ति है, अन्य कुछ भी नहीं| परमात्मा के प्रति आकर्षण और प्रेम, आत्मा का धर्म है| हम शाश्वत आत्मा हैं, यह देह नहीं, अतः आत्मा का धर्म ही हमारा स्वधर्म है|
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मनुष्य के लिए परमात्मा की खोज एक स्वाभाविक खोज है| लहर को शान्ति ही तब मिलेगी जब वह एक बार पुनः सागर में विलीन हो जाएगी| हर लहर उठती है केवल सागर में विलीन होने के लिए, यही उसका लक्ष्य है, यही उसका स्वभाव है और यही उसका धर्म भी है| सारी छटपटाहट अपने पूर्णत्व को पहचान लेने के निमित्त है| अंश वास्तव में अंश नहीं है, खण्ड वास्तव में खण्ड नहीं है, क्योंकि पूर्णता को खण्डित किया ही नहीं जा सकता| जहाँ तक मेरी अल्प व सीमित समझ है पूर्णता ही परमब्रह्म परमात्मा है| पूर्णता को हम स्वयं पूर्ण होकर ही जान सकते हैं| चेतना के इस रूप को जानने का मार्ग ही हमारा "स्वधर्म" है|
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जहाँ तक मेरी अल्प व सीमित समझ है, मेरी जाति, सम्प्रदाय व धर्म वही है जो परमात्मा का है| मेरा एकमात्र सम्बन्ध भी सिर्फ परमात्मा से ही है, जो सब प्रकार के बंधनों से परे हैं| सब चिंताओं को त्याग कर निरंतर परमात्मा का ही चिंतन ही मेरा स्वधर्म है, अन्य सब परधर्म| परमात्मा में स्थिर वृत्ति से ही मेरा जीवन कृतार्थ होगा, अतः परमात्मा को पूर्ण अहैतुकी परमप्रेम और समर्पण द्वारा स्वयं में व्यक्त करना ही मेरा स्वधर्म है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ मई २०१९