जगन्माता से प्रेम .....
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जब अरुणिमा की एक झलक दूर से मिलती है तब यह भी सुनिश्चित है कि सूर्योदय में अधिक विलम्ब नहीं है| वैसे ही जगन्माता के प्रेम की एक झलक मिल जाए तो यह सुनिश्चित है कि जीवन में माँ का अवतरण होने ही वाला है|
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बंगाल में राम प्रसाद नाम के एक भक्त कवि हुए हैं जो नित्य जगन्माता का दर्शन माँ काली के रूप में करते , उनसे बात भी करते और भाव जगत में उनके बालक बनकर साथ साथ खेलते भी थे| उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद करवा कर मैनें कई वर्षों पूर्व अध्ययन किया था| उनसे जगन्माता कोई वरदान माँगने के लिए कहतीं तो वे माँ से सिर्फ उनका पूर्ण प्रेम ही माँगते| सदा माँ का उत्तर यही होता कि यदि मैं तुम्हें अपना पूर्ण प्रेम दे दूँगी तो मेरे पास कुछ भी नहीं बचेगा|
माँ से कुछ माँगना ही है तो सिर्फ प्रेम ही माँगना चाहिए फिर सब कुछ अपने आप ही मिल जाता है|
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हमें अपने 'कर्ता' होने के मिथ्या अभिमान को त्याग देना चाहिए| एकमात्र कर्ता तो माँ भगवती ही हैं| अपना सर्वस्व उनके श्री चरणों में समर्पित कर देना चाहिए|
'कर्ता' तो जगन्माता माँ भगवती स्वयं है जो यज्ञ रूप में हमारे कर्मफल परमात्मा को अर्पित करती है| वे 'कर्ता' ही नहीं 'दृष्टा' 'दृश्य' व 'दर्शन' भी हैं, 'साधक' 'साधना' व 'साध्य' भी हैं, और 'उपासना' ;उपासक' और 'उपास्य' भी हैं|
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भगवन श्रीकृष्ण का अभय वचन है .....
"मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यसि |"
अपना चित्त मुझे दे देने से तूँ समस्त कठिनाइयों और संकटों को मेरे प्रसाद से पार कर लेगा|
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भगवान श्रीराम का भी अभय वचनं है --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं ममः||"
एक बार भी जो मेरी शरण में आ जाता है उसको सब भूतों (यानि प्राणियों से) अभय प्रदान करना मेरा व्रत है|
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जब साकार परमात्मा के इतने बड़े वचन हैं तो शंका किस बात की? तुरंत कमर कस कर उनके प्रेम सागर में डुबकी लगा देनी चाहिए| मोती नहीं मिलते हैं तो दोष सागर का नहीं है, दोष डुबकी में ही है जिसमें पूर्णता लाओ|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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जब अरुणिमा की एक झलक दूर से मिलती है तब यह भी सुनिश्चित है कि सूर्योदय में अधिक विलम्ब नहीं है| वैसे ही जगन्माता के प्रेम की एक झलक मिल जाए तो यह सुनिश्चित है कि जीवन में माँ का अवतरण होने ही वाला है|
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बंगाल में राम प्रसाद नाम के एक भक्त कवि हुए हैं जो नित्य जगन्माता का दर्शन माँ काली के रूप में करते , उनसे बात भी करते और भाव जगत में उनके बालक बनकर साथ साथ खेलते भी थे| उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद करवा कर मैनें कई वर्षों पूर्व अध्ययन किया था| उनसे जगन्माता कोई वरदान माँगने के लिए कहतीं तो वे माँ से सिर्फ उनका पूर्ण प्रेम ही माँगते| सदा माँ का उत्तर यही होता कि यदि मैं तुम्हें अपना पूर्ण प्रेम दे दूँगी तो मेरे पास कुछ भी नहीं बचेगा|
माँ से कुछ माँगना ही है तो सिर्फ प्रेम ही माँगना चाहिए फिर सब कुछ अपने आप ही मिल जाता है|
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हमें अपने 'कर्ता' होने के मिथ्या अभिमान को त्याग देना चाहिए| एकमात्र कर्ता तो माँ भगवती ही हैं| अपना सर्वस्व उनके श्री चरणों में समर्पित कर देना चाहिए|
'कर्ता' तो जगन्माता माँ भगवती स्वयं है जो यज्ञ रूप में हमारे कर्मफल परमात्मा को अर्पित करती है| वे 'कर्ता' ही नहीं 'दृष्टा' 'दृश्य' व 'दर्शन' भी हैं, 'साधक' 'साधना' व 'साध्य' भी हैं, और 'उपासना' ;उपासक' और 'उपास्य' भी हैं|
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भगवन श्रीकृष्ण का अभय वचन है .....
"मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यसि |"
अपना चित्त मुझे दे देने से तूँ समस्त कठिनाइयों और संकटों को मेरे प्रसाद से पार कर लेगा|
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भगवान श्रीराम का भी अभय वचनं है --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं ममः||"
एक बार भी जो मेरी शरण में आ जाता है उसको सब भूतों (यानि प्राणियों से) अभय प्रदान करना मेरा व्रत है|
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जब साकार परमात्मा के इतने बड़े वचन हैं तो शंका किस बात की? तुरंत कमर कस कर उनके प्रेम सागर में डुबकी लगा देनी चाहिए| मोती नहीं मिलते हैं तो दोष सागर का नहीं है, दोष डुबकी में ही है जिसमें पूर्णता लाओ|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
मुक्ति भी तुम ही हो और बंधन भी तुम ही हो .....
ReplyDelete>
जब सब कुछ तुम हो, ..... मायावी बाधाएँ भी तुम हो और तुम्हें पाने की अभीप्सा भी तुम ही हो .... तो फिर कैसा बंधन?
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यह दृश्य, दृष्टी और दृष्टा भी सब कुछ तुम ही हो| तुम नित्य मुक्त हो तो यह आत्मा भी नित्य मुक्त है| बंधन एक भ्रम ही था और है| पूर्ण स्वतन्त्रता सिर्फ तुम्हारे में ही है|
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तुम्हारा रहस्य अब तुमने ही प्रकट कर दिया है| मेरे ऊपर तुम्हारी अपार कृपा है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||