संत ज्ञानेश्वर और भगवान श्रीकृष्ण का विट्ठल विग्रह ---
.आज प्रातः संत ज्ञानेश्वर का एक चित्र देखा जिसमें वे एक वृक्ष के नीचे पद्मासन में बैठकर भगवान श्रीकृष्ण के विट्ठल विग्रह का ध्यान कर रहे हैं। वह विग्रह मुझे बहुत अच्छा लगा। उसको देखते देखते विट्ठल के ध्यान में मैं भी आनंदमय हो गया। महाराष्ट्र में भगवान श्रीकृष्ण की उपासना इसी रूप में होती है। वे एक ईंट पर सावधान की मुद्रा में खड़े हैं, और हाथ कमर पर रखे हुए हैं।
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कथा है कि छठी शताब्दी में पुंडलिक नामक एक भक्त पंढरपुर, महाराष्ट्र में जन्मे। पुंडलिक जी का अपने माता-पिता एवं अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण में अनन्य भाव था, जो भगवान को अति पसंद था। रुक्मणी जी के साथ एक दिन भगवान उस भक्त के द्वार पर प्रकट हुए और बोले, “पुंडलिक!, देखो बालक, हम रुक्मिणी जी के साथ तुम्हें दर्शन देने आए हैं।” उस वक़्त पुंडलिक अपने पिता के पैर दबा रहे थे तथा वे भगवान से बोले, “हे नाथ! मैं अभी अपने पिताजी की सेवा में लगा हूँ, आपको थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी; तब तक आप इस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा करें।” भगवान ने वैसा ही किया, और वे कमर पर दोनों हाथ रखकर, एक ईंट पर खड़े हो गए। रुक्मिणी जी भी एक दूसरी ईंट पर ही खड़े होकर प्रतीक्षा करने लगीं। पिताजी की सेवा से निवृत्त होकर पुंडलीक ने पीछे की ओर देखा तो पाया कि भगवान तो विग्रह का रूप ले चुके हैं। पुंडलिक ने उस विग्रह को अपने घर में स्थापित कर उसकी सेवा करना आरंभ कर दिया। ईंट को मराठी में विट कहते हैं तो ईंट ओर खड़े होने के कारण प्रभु का नाम विट्ठल पड़ गया।
३० नवंबर २०२३
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