महाभारत में अर्जुन तो एक बहाना है, श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश वास्तव में भगवान ने व्यक्तिगत रूप से हमें ही दिये हैं। इस शरीर में हमने जन्म लिया था तब तक हम भगवान के साथ थे। जब यह शरीर शांत हो जाएगा, तब फिर से भगवान के साथ ही रहेंगे। इस जन्म में भगवान ही माता-पिता, भाई-बहिन, सभी सगे-संबंधियों, और मित्रों के रूप में आये, व हमें अपना प्रेम दिया। हमारा एकमात्र संबंध भगवान के साथ है।
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हमें एक बहाना यानि निमित्त बनाकर हमारा सारा काम भगवान ही कर रहे हैं। वे ही सारी सांसें ले रहे हैं, इस हृदय में वे ही धडक रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, इस मन से वे ही सोच रहे हैं, इन हाथों से वे ही सारा काम कर रहे हैं, हमारी सारी इंद्रियों के कार्य भगवान स्वयं कर रहे हैं। वे ही सारी तन्मात्राएँ हैं। हम तो एक साक्षी मात्र हैं, वास्तव में साक्षी भी वे ही हैं, हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। दो साँसों के मध्य का संधिकाल वास्तविक संध्या है। उनमें भगवान का स्मरण रहे। जब कुंभक लग जाता है, वह कुंभक काल -- समाधि का प्रवेशद्वार है। बाहरी कुंभक की अवधि जितनी दीर्घ होगी उतना अच्छा है। हमारे सारे अवगुण और गुण भगवान के हैं। वे ही यह मैं बन गए हैं। अपनी पृथकता का बोध उन्हें समर्पित कर दें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ जनवरी २०२४
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