Tuesday 2 November 2021

अस्तित्व -- या तो परमात्मा का ही हो सकता है, या सिर्फ मेरा; दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते ---

अस्तित्व -- या तो परमात्मा का ही हो सकता है, या सिर्फ मेरा। दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। यह द्वैत बड़ा ही कष्टप्रद है। पहले मैं सोचता था कि मैं इस जीवन में कुछ प्राप्त करना चाहता हूँ, या कुछ होना चाहता हूँ। समय के साथ-साथ जैसे-जैसे परिपक्वता बढ़ी है, अब यह स्पष्ट हो गया है कि जो कुछ भी बना जा सकता है, या प्राप्त किया जा सकता है, वह तो मैं स्वयं हूँ।

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एक अज्ञात/अदृश्य शक्ति है जो मेरे माध्यम से स्वयम् को व्यक्त करना चाहती है। मैं उसे सिर्फ अवसर दे सकता हूँ, और कुछ नहीं कर सकता। उसे अवसर देने का अर्थ है स्वयं को मिटाना। वास्तव में सत्य तो यह है कि मेरा कुछ होना ही सारे अनर्थों का मूल है। कुछ होने की भावना ही सारा भटकाव है। स्वयं को मिटाना ही पड़ेगा। एक प्रवाह है, जो मेरे माध्यम से प्रवाहित होना चाहता है। उसे प्रवाहित होने का अवसर मुझे देना ही पड़ेगा। यही नहीं मुझे मेरी पृथकता के बोध और स्वयं को भी उस प्रवाह में समर्पित कर विसर्जित होना ही पड़ेगा। कोई विकल्प शेष नहीं रहा है।
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पिछले कुछ दिनों से यह सोचकर मुझे बड़ी पीड़ा हो रही थी कि पता नहीं पिछले जन्मों में ऐसी क्या भूलचूक और ऐसे क्या खराब कर्म हुए थे कि यह जन्म बड़ा ही कष्टों से भरा हुआ और अभाव ग्रस्त मिला? लेकिन अब यह जानकार बड़ा हर्ष हो रहा है कि मैं तो निमित्त मात्र था, मुझे माध्यम बना कर भगवान ही स्वयं को व्यक्त कर रहे थे। भगवान ने तो मुझे अपना पूर्ण प्रेम, और अपने स्वयं के हृदय में स्थान दे रखा है। मेरा अस्तित्व -- परमात्मा का अस्तित्व है। मैं कुछ भी नहीं हूँ, जो कुछ भी है, वे तो भगवान स्वयं हैं। वे कभी गलत नहीं हो सकते।
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वे स्वयं को पूर्ण रूप से व्यक्त करें, और एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का रहे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२ नवंबर २०२१

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