Wednesday, 30 June 2021

हारिए न हिम्मत, बिसारिए न हरिः नाम ----

 हारिए न हिम्मत, बिसारिए न हरिः नाम ----

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लाख बाधाएँ आयें, पर हिम्मत मत हारो, लगे रहो| हम सभी का अन्तःकरण बार-बार भागकर अंधकार की ओर आकर्षित होता है जहाँ माया का साम्राज्य है| वहाँ सारे विकार, निराशा और धोखा ही धोखा है|
लेकिन साथ-साथ अंतर्रात्मा को एक शक्ति प्रकाश की ओर भी खींच रही है, जहाँ तृप्ति, आनंद और संतुष्टि है| हर व्यक्ति के चैतन्य में यह भयंकर द्वंद्व चल रहा है जो बड़ा दुःखदायी है|
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माया की दो शक्तियाँ हैं .... आवरण और विक्षेप| आवरण तो अज्ञान का पर्दा है जो सत्य को ढके रखता है| विक्षेप कहते हैं उस शक्ति को जो भगवान की ओर से ध्यान हटाकर संसार की ओर बलात् प्रवृत करती है| इस से मुक्त होना बड़ा कठिन है| दुर्गा सप्तशती में लिखा है ...
"ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा| बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति||"
बड़े बड़े ज्ञानियों को भी यह महामाया बलात् मोह में पटक देती है फिर सामान्य सांसारिक प्राणी तो हैं ही किस खेत की मूलीै?
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परब्रह्म परमात्मा की परम कृपा से ही हम माया से पार पा सकते हैं, निज बल से नहीं| इसके लिए पराभक्ति, सतत निरंतर अभ्यास और वैराग्य की आवश्यकता है| गीता में भगवान कहते हैं ...
"शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया| आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌||६:२५||
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌| ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌||६:२६||"
अर्थात् शनैः शनैः अभ्यास करता हुआ उपरति यानी वैराग्य/उदासीनता को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे|| यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस जिस विषय के लिए संसार में विचरता है, उस उस विषय से हटाकर इसे बार बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे|
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भगवान को पूर्ण रूप से हृदय में बैठाकर, प्रयास पूर्वक अन्य सब ओर से ध्यान हटाने का अभ्यास करें| किसी भी अन्य विचार को मन में आने ही न दें| पूर्ण रूप से मानसिक मौन का अभ्यास करें| स्वयं को ही देवता बनाना होगा, ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ ‘देवता होकर देवताका पूजन करे|’ परमात्मा को छोडकर अन्य सब प्रकार के चिंतन को रोकने का अभ्यास करना होगा| बाहरी उपायों में बाहरी व भीतरी पवित्रता का ध्यान रखना होगा, विशेषकर के भोजन सम्बन्धी| यह मार्ग "क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयोवदन्ति" वाला मार्ग है| अब जब इस तीक्ष्ण छुरे की धार वाले मार्ग का चयन कर ही लिया है तो पीछे नहीं हटना है| अनुद्विग्नमना, विगतस्पृह, वीतराग, और स्थितप्रज्ञ मुनि की तरह निर्भय होकर चलते ही रहना है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० जून २०२०

जो पूर्व जन्म में मेरे गुरु थे वे ही इस जन्म में भी मेरे गुरु हैं ----

 जो पूर्व जन्म में मेरे गुरु थे वे ही इस जन्म में भी मेरे गुरु हैं ---- (Dated ३० जून २०२१)

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चार दिन पश्चात् "गुरुपूर्णिमा" आ रही है| एक प्रबल आकर्षण गुरु-पादुका की पूजा और गुरु-चरणों पर निरंतर ध्यान करने का हो रहा है .....
"अनंत संसार समुद्र तार नौकायिताभ्यां गुरुभक्तिदाभ्याम् |
वैराग्य साम्राज्यद पूजनाभ्याम् नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम् ||"
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पूर्वजन्म की और इस जन्म की कुछ अलौकिक अति दिव्य स्पष्ट स्मृतियाँ और सूक्ष्म जगत के कुछ अनुभव हैं, जिन्होंने मुझे आध्यात्म पथ का पथिक बना दिया| उन पर किसी से चर्चा नहीं कर सकता| सार यह है कि गुरुलाभ पूर्वजन्म में हुआ था, लेकिन उसका फल इस जन्म में मिल रहा है| जो पूर्व जन्म में मेरे गुरु थे वे ही इस जन्म में भी मेरे गुरु हैं| सूक्ष्म जगत से वे निरंतर मार्गदर्शन और रक्षा कर रहे हैं| उनके बराबर हितैषी कोई अन्य नहीं है| अब तो मैं उनके प्रति समर्पित होकर उनके साथ एक हूँ| गुरुकृपा का फल यही मिला कि गुरु-चरणों में आश्रय मिल गया, अब कहीं कोई भेद नहीं रहा है|
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हे कूटस्थ गुरु-रूप ब्रह्म आपको नमन है| मैं आपके साथ एक हूँ| आप ही मुझमें व्यक्त हो रहे हो|
"गुशब्दस्त्वन्धकार: स्यात् रूशब्दस्तन्निरोधक:| अन्धकारनिरोधित्वाद् गुरूरित्यभिधीयते||"
"ऊँ सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्विना वधीतमस्तु, मा विद्विषावहै ||"
ऊँ शान्ति: शान्ति: शान्ति: || जय गुरु !!
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३० जून २०२०

Monday, 28 June 2021

शबद अनाहत बागा --- (संशोधित व पुनर्प्रेषित).

 

शबद अनाहत बागा ---    (संशोधित व पुनर्प्रेषित).
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जब राम नाम यानि प्रणव की अनाहत ध्वनी अंतर में सुनाई देना आरम्भ कर दे तब पूरी लय से उसी में तन्मय हो जाना चाहिए| सदा निरंतर उसी को पूरी भक्ति और लगन से सुनना चाहिए| भोर में मुर्गे की बाँग सुनकर हम जान जाते हैं कि अब सूर्योदय होने ही वाला है, वैसे ही जब अनाहत नाद अंतर में बांग मारना यानि सुनना आरम्भ कर दे तब सारे संशय दूर हो जाने चाहिएँ और जान लेना चाहिए कि परमात्मा तो अब मिल ही गए हैं| अवशिष्ट जीवन उन्हीं को केंद्र बिंदु बनाकर, पूर्ण भक्तिभाव से उन्हीं को समर्पित होकर व्यतीत करना चाहिए|
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कबीर दास जी के जिस पद की यह अंतिम पंक्ति है वह पूरा पद इस प्रकार है ---
"अवधूत गगन मंडल घर कीजै,
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नाल रस पीजै॥
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमनि यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भये पलीता, तहाँ जोगिनी जागी॥
मनवा जाइ दरीबै बैठा, मगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥"
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जब भी समय मिले एकांत में पवित्र स्थान में सीधे होकर बैठ जाएँ| दृष्टी भ्रूमध्य में हो, दोनों कानों को अंगूठे से बंद कर लें, छोटी अंगुलियाँ आँखों के कोणे पर और बाकि अंगुलियाँ ललाट पर| आरम्भ में अनेक ध्वनियाँ सुनाई देंगी| जो सबसे तीब्र ध्वनी है उसी को ध्यान देकर सुनते रहो| उसके साथ मन ही मन ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ या राम राम राम राम राम का मानसिक जाप करते रहो| ऐसी अनुभूति करते रहो कि मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि के मध्य में यानि केंद्र में स्नान कर रहे हो| धीरे धीरे एक ही ध्वनी बचेगी उसी पर ध्यान करो और साथ साथ ओम या राम का निरंतर मानसिक जाप करते रहो| दोनों का प्रभाव एक ही है| कोहनियों के नीचे कोई सहारा लगा लो| कानों को अंगूठे से बंद कर के नियमित अभ्यास करते करते कुछ महीनों में आपको खुले कानों से भी वह प्रणव की ध्वनी सुनने लगेगी| यही नादों का नाद अनाहत नाद है|
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इसकी महिमा का वर्णन करने में वाणी असमर्थ है| धीरे धीरे आगे के मार्ग खुलने लगेंगे| प्रणव परमात्मा का वाचक है| यही भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी की ध्वनि है जिससे समस्त सृष्टि संचालित हो रही है| इस साधना को वे ही कर पायेंगे जिन के ह्रदय में परमात्मा के प्रति परमप्रेम और सत्यनिष्ठा है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
२८ जून २०१३
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पुनश्च :---
शबद अनाहत बागा ..... लेख में कुछ शब्द क्लिष्ट हैं, उनका अर्थ लिख रहा हूँ .....
{{ गगन मंडल में घर करने का अर्थ है अपनी चेतना को समष्टि में विस्तृत कर दें| हम यह देह नहीं बल्कि परमात्मा की सर्वव्यापकता और पूर्णता हैं| जो इस चेतना में स्थित हैं वे अवधूत हैं| इसी भाव में स्थित होकर ध्यान करें|
खेचरी मुद्रा में सहस्त्रार से रस टपकता है जो अमृत है| उसका पान कर योगी की देह को अन्न जल की आवश्यकता नहीं होती|
बंक नाल सुषुम्ना नाड़ी है जिसमें जागृत होकर कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होती है|
मूलबंध .... गुदा और जननेन्द्रियों का संकुचन करना है|
सर गगन समाना अर्थात मेरुदंड को उन्नत रखकर ठुड्डी भूमि के समानांतर रखना|
सुखमणि ... आनंद की अनुभूति|
पलीता यानि बारूद में विस्फोट के लिए लगाई आग्नि| काम क्रोध जल कर भस्म हो गए हैं|
जोगिणी जागी अर्थात् कुण्डलिनी जागृत हुई|
दरीबा फारसी भाषा में उस स्थान को कहते थे जहाँ अनमोल मोती बिकते थे| पर कालान्तर में उसे पान खाकर गपशप करने वाले सार्वजनिक स्थान को कहा जाने लगा|
अनाहत शब्द बाँग दे रहा है अतः अब ईश्वर प्राप्ति में कोई संशय नहीं है| }}

Sunday, 27 June 2021

अध्यापक, शिक्षक, आचार्य, प्राचार्य, उपाध्याय और गुरु -- इन सब में क्या अंतर है? ---

 अध्यापक, शिक्षक, आचार्य, प्राचार्य, उपाध्याय और गुरु... इन सब में क्या अंतर है?.....

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सनातन परंपरा में उपरोक्त सब में बहुत अधिक अंतर है| अपनी सीमित व अत्यल्प बुद्धि से कुछ-कुछ प्रकाश इस विषय पर डाल रहा हूँ| जितना मुझे ज्ञान है उतना सब कुछ लिख रहा हूँ, जो नहीं लिखा है उसका मुझको ज्ञान नहीं है|
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(१) अध्यापक कौन है? :--- अध्यापक हमें सांसारिक विषयों का पुस्तकीय अध्ययन करवाता है, जिस से कोई प्रमाण-पत्र या डिग्री मिलती है| इसके बदले में वह नियोक्ता से वेतन लेता है, और गृह-शिक्षा (ट्यूशन) लेने वालों से शुल्क (ट्यूशन फीस) लेता है| इस पुस्तकीय ज्ञान से हमें कहीं नौकरी करने की या कुछ व्यवसाय करने की योग्यता आती है| इस से सांसारिक ज्ञान बढ़ता है और सांसारिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है| पुराने जमाने के अध्यापक अपने स्टूडेंट्स को जी-जान से पढ़ाते थे, और उनकी योग्यता बढ़ाने के लिए बहुत अधिक परिश्रम करते थे, आजकल यह देखने में नहीं आता|
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(२) शिक्षक कौन है? :--- शिक्षक वह है जो हमें जीवन में उपयोग में आने वाली व्यवहारिक चीजों की शिक्षा देता है| सबसे बड़े और प्रथम शिक्षक तो माँ-बाप होते हैं| सिखाने के बदले में शिक्षक कोई आर्थिक लाभ नहीं देखता, सिर्फ सम्मान की अपेक्षा रखता है|
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(३) आचार्य कौन है? :--- वास्तव में आचार्य एक स्थिति है| आचार्य अपने अति उच्च आचरण और अति उच्च चरित्र से अपने अर्जित ज्ञान की शिक्षा देता है| आचार्य के समीप जाते ही मन शांत हो जाता है और अपने आप ही कुछ न कुछ शिक्षा मिलने लगती है| उनके सत्संग से श्रद्धा उत्पन्न होती है|
आजकल तो आचार्य की डिग्री मिलती है जिसको पास करने वाले स्वयं को आचार्य लिखने लगते हैं| कॉलेजों के प्रोफेसरों को भी आचार्य कहा जाने लगा है|
ब्राह्मणों में जो श्रावणी-कर्म करवाते हैं, व यज्ञोपवीत आदि संस्कार करवाते हैं, उन्हें भी आचार्य कहा जाता है| यहाँ आचार्य एक पद और सम्मान होता है| यज्ञादि अनुष्ठानों को करवाने वाले ब्राह्मणों में जो प्रमुख होता है, उसे भी आचार्य कह कर संबोधित करते हैं| यह भी एक पद और सम्मान होता है|
जो मृतकों के कर्म करवाते हैं उन ब्राह्मणों में कोई हीन भावना न आए इसलिए उनको महाब्राह्मण, महापात्र या आचार्य-ब्राह्मण कहा जाता है| यह भी एक सम्मान है|
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(४) प्राचार्य कौन हैं? :--- वास्तव में प्राचार्य उस आचार्य को कहते हैं जो यह सुनिश्चित करता है कि जिसे वह ज्ञान दे रहा है, वह उसे अपने आचरण में ला रहा है| आजकल तो कॉलेजों के प्रिंसिपलों को प्राचार्य कहा जाता है|
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(५) उपाध्याय कौन हैं? :--- जो शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त की शिक्षा देते हैं, उन्हें उपाध्याय कहा जाता है| वे बदले में कोई धन नहीं मांगते पर शिक्षार्थी का दायित्व है कि वह उन्हें यथोचित यथासंभव धन, दक्षिणा के रूप में दे|
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(६) गुरु कौन है? :--- जो हमें आत्मज्ञान यानि आध्यात्मिक ज्ञान देकर हमारे चैतन्य में छाए अंधकार को दूर करता है, वह गुरु होता है| जीवन में गुरु का प्रादुर्भाव तभी होता है जब हम में शिष्यत्व की पात्रता आती है| यथार्थ में गुरु एक तत्व होता है जो एक बार तो हाड़-मांस की देह में आता है, पर वह हाड़-मांस की देह नहीं होता| गुरु के आचरण व वचनों में कोई अंतर नहीं होता, यानि उनकी कथनी-करनी में कोई विरोधाभास नहीं होता| गुरु असत्यवादी नहीं होता| गुरु में कोई लोभ-लालच या अहंकार नहीं होता| गुरु की दृष्टि चेलों के धन पर नहीं होती| चेलों से वह कभी नहीं पूछता कि उनके पास कितना धन है| गुरु की दृष्टि चेलों की आध्यात्मिक प्रगति पर ही रहती है|
गुरु के उपदेशों का पालन ही गुरु-सेवा है| गुरु यदि शरीर में हैं, तो उनको किसी तरह का अभाव और पीड़ा न हो, इसका ध्यान तो रखना ही चाहिए| आजकल लोग गुरु के देह की या उनके चित्र या मूर्ति की पूजा करते हैं जो मेरे विचार से गलत है| पूजा गुरु-पादुका की होती है| गुरु-पादुका ....एक प्रतीक है गुरु के आचरण को अपने अन्दर में उतारने की| गुरु के शरीर-अवयव को पूजना गुरु के विचारों को मिटटी में मिलाना है|
"ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्|
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं, भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि||"
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२७ जून २०२०

Friday, 25 June 2021

"चित्तवृत्तिनिरोध" क्या होता है?

 

"चित्तवृत्तिनिरोध" क्या होता है?
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मनुष्य की निम्न प्रकृति और उच्च प्रकृति ..... दोनों जब विपरीतगामी होती हैं, तब बड़ी पीड़ादायक स्थिति उत्पन्न हो जाती है|आत्मा की अभीप्सा परमात्मा के लिए होती है, यह उच्च प्रकृति है जो परमात्मा की ओर खींचती है|
निम्न प्रकृति वासनाओं की ओर खींचती है| वासनायें चित्त का धर्म हैं| ये मनुष्य को परमात्मा से दूर ले जाती हैं| 

वासनाओं की ओर आकर्षण चित्त की स्वाभाविक वृत्ति है, जिस का निरोध कर उसे परमात्मा की ओर उन्मुख करने की साधना योगसाधना है| तभी इसे "चित्त वृत्ति निरोध:" कहते है|
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
२५ जून २०२०

Wednesday, 23 June 2021

श्रद्धा और विश्वास हो तो तभी हमारे पर भगवान की कृपा होती है ---

 

एक सत्य जो प्रत्यक्ष और व्यवहारिक रूप से मुझे बहुत देरी से समझ में आया, अब तो वह स्पष्ट हो गया है कि .....
हमें जो कुछ भी जीवन में मिलता है, (चाहे वह परमात्मा की कृपा ही क्यों न हो) ..... स्वयं की "श्रद्धा और विश्वास" से ही मिलता है, न कि किसी अन्य माध्यम से| श्रद्धा और विश्वास हो तो तभी हमारे पर भगवान की कृपा होती है| बाकी अन्य सब जैसे पीर-फकीर, कब्र-मकबरे, व महात्माओं के आशीर्वाद ... बहाने मात्र हैं| उनसे कुछ नहीं मिलता| श्रद्धा, विश्वास और समर्पण ... हमारी पात्रता के मापदंड हैं|
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रामचरितमानस के मंगलाचरण में ही लिखा है ...
"भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ| याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्||"
जिस श्रद्धा एवं विश्वास के बिना सिद्ध पुरुष भी अपने हृदय में स्थित ईश्वर के दर्शन नही कर पाते उन श्रद्धा रूपी पार्वती जी तथा विश्वास रूपी शंकर जी को प्रणाम करता हूँ|
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गीता में भगवान कहते हैं ....
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः| ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति||४:३९||"
अर्थात श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है| ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है||
ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२४ जून २०२०

भगवान को पाने का एकमात्र मार्ग "भक्ति" है ---

 

भगवान को पाने का एकमात्र मार्ग "भक्ति" है ---
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गीता में भगवान कहते हैं ...
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः| ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्||१८:५५||"
अर्थात् (उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ| (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है||
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आचार्य शंकर व स्वनामधन्य अन्य अनेक आचार्यों ने उपरोक्त श्लोक पर बड़ी बड़ी टीकायें की हैं| गीता में कर्म, भक्ति व ज्ञान ... इन तीनों विषयों को बहुत अच्छी तरह समझाया गया है| मैं उन सभी आचार्यों की वंदना करता हूँ जिन्होनें गीता का संदेश जनमानस को समझाया|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
२४ जून २०२०

अहंकार व ब्रह्मभाव में क्या अंतर है?

 अहंकार व ब्रह्मभाव में क्या अंतर है?

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स्वयं को यह देह, मन, और बुद्धि समझ लेना अहंकार है| शरीर के धर्म हैं ..... भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि| मन का धर्म है राग-द्वेष, मद यानि घमंड आदि| चित्त का धर्म है वासनाएँ| प्राणों का धर्म है शक्ति और बल| इन सब को अपना समझना अहंकार है|
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ब्रह्मभाव एक अनुभूति का विषय है जिसे सिर्फ सात्विक बुद्धि से ही समझा जा सकता है| परमात्मा सर्वव्यापक हैं| उनकी सर्वव्यापकता के साथ एक होने का बोध ..... ब्रह्मभाव है| यह अनुभूति गहन ध्यान में सभी साधकों को होती है|
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आत्मा का धर्म है ... परमात्मा के प्रति अभीप्सा और परम प्रेम (भक्ति)| यही हमारा सही धर्म है| जब परमात्मा के प्रति भक्ति जागृत होती है, तब अभीप्सा का जन्म होता है| यहीं से आध्यात्मिक यात्रा का आरंभ होता है| भगवान तब गुरु रूप में मार्गदर्शन भी करते हैं, और अनुभूतियों के द्वारा हमें प्रोत्साहित भी करते हैं| उन अनुभूतियों के पश्चात ही हम ..... शिवोंहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि ..... कह सकते हैं| यह कोई अहंकार की यात्रा (Ego trip) नहीं बल्कि हमारा वास्तविक अंतर्भाव होता है| अहं ब्रह्मास्मि यानि मैं ब्रह्म हूँ यह कहना अहंकार नहीं है| ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२३ जून २०२०

Monday, 21 June 2021

समय का सबसे बढ़िया उपयोग क्या हो सकता है? ---

 समय का सबसे बढ़िया उपयोग क्या हो सकता है? ---

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कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है| मन में हर समय निरर्थक विचार आते रहते हैं, यह अवसाद-ग्रस्तता का मुख्य कारण है| इस मामले में मैंने देखा है कि जो लोग आस्तिक और भक्त हैं उन्हें यह टाइम-पास वाली समस्या नहीं है, वे स्वयं को अपने मानसिक जप से इतना अधिक व्यस्त रखते हैं कि उनके मन में कोई फालतू विचार ही नहीं आता| मुझे जीवन में कुछ ऐसे भक्त भी मिले हैं जो अपने इष्ट देवी/देवता के बीज-मंत्र की जब तक एक-सौ मालायें नहीं फेर लेते तब तक स्वयं को कोई भोजन नहीं देते| कुछ संप्रदायों में उनके बहुत लंबे गुरु-मंत्र की सौलह मालायें एक दिन में फेरना अनिवार्य हैं| अतः वे दिन-रात इसी में लगे ही रहते हैं|
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जो सत्यनिष्ठ भक्त होते हैं वे तो अपने मन को कभी खाली रहने नहीं देते, हर समय अपने इष्ट देवी/देवता के मंत्र का मानसिक जप करते ही रहते हैं| सोते-जागते हर समय मानसिक रूप से उनके अपने गुरुमंत्र का जाप चलता ही रहता है| ऐसे लोग कभी अवसाद-ग्रस्त नहीं होते और आत्म-हत्या जैसा घटिया विचार तो उनके दिमाग में आता ही नहीं है| भगवान का भक्त कभी आत्म-हत्या नहीं करता| कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपनी आस्था से सारे दुःख-कष्ट-पीड़ाएँ सहन कर लेता है|
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||"
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भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को यज्ञों में जप-यज्ञ बताया है| अतः हर समय निरंतर सांसारिक काम के साथ-साथ यह जप-यज्ञ चलता रहे| इस से मन को बड़ा आनंद मिलेगा| कहा जाता है कि जप यज्ञ अत्यन्त कठिन एवं गुरूमुखगम्य है| पर श्रद्धा और विश्वास हो तो हम निष्काम भाव से मंत्र जप कर सकते हैं| भगवान श्रीकृष्ण से बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| अतः सिर्फ उन की ही सुनेंगे|
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्| यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः||१०:२५||"
अर्थात् -- महर्षियोंमें भृगु और वाणियों-(शब्दों-) में एक अक्षर अर्थात् प्रणव मैं हूँ| सम्पूर्ण यज्ञोंमें जपयज्ञ और स्थिर रहनेवालोंमें हिमालय मैं हूँ|
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सभी को शुभ कामनायें और नमन !! हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ जून २०२०

Friday, 18 June 2021

जब भी भगवान का स्मरण होता है ---

जब भी भगवान का स्मरण होता है, तब स्वतः ही मन इतना अधिक शांत, प्रेममय व आनंदमय हो जाता है कि उस स्थिति से बाहर आने का मन ही नहीं करता| लेकिन भगवान की माया अति प्रबल है जो विक्षेप उत्पन्न कर ही देती है|

एक न एक दिन तो करुणावश भगवान भी अपना अनुग्रह कर के अपनी माया के आवरण व विक्षेप से मुक्त कर ही देंगे| आज नहीं तो कल यह होना ही है, अतः कोई चिंता नहीं है| भगवान का काम ही है अनुग्रह करना| वे नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? अन्य कोई विकल्प भी नहीं है| सारे तो वे ही हैं, और सब कुछ भी वे ही हैं|
भक्ति और श्रद्धा-विश्वास से सत्यनिष्ठापूर्वक भगवान के ध्यान से शरणागति व समर्पण का भाव उत्पन्न होता है, और चित्त समभाव में अधिष्ठित होने लगता है| उस समय इतनी अधिक शांति मिलती है कि किसी भी तरह की शब्द रचना बड़ी दुरूह हो जाती है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जून २०२०

Monday, 14 June 2021

फेसबुक के अनुभव ---

 फेसबुक के अनुभव .....

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फेसबुक पर आज से दो-चार वर्ष पहिले बहुत अच्छे-अच्छे गंभीर लेखक और पाठक हुआ करते थे| अब तो नगण्य हैं| मैं जुलाई २०११ में फेसबुक पर आया तब हिन्दी में लिखने का बिल्कुल भी अभ्यास नहीं था| फेसबुक पर ही कुछ साधु-संतों ने मुझे हिन्दी में लेख लिखने की प्रेरणा दी और खूब प्रोत्साहन दिया| उस समय मुझे हिन्दी के अधिक शब्दों का ज्ञान नहीं था| मैंने अपने हिन्दी के शब्दकोष को बढ़ाया और हिन्दी में लिखना आरंभ किया तो इतना मजा आया कि फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा| बहुत गंभीर आध्यात्मिक विषयों पर भी सहज रूप से लिखने लगा| शुरू-शुरू में कुछ भूलें हुईं पर किसी ने बुरा नहीं माना और खूब प्रोत्साहन दिया|
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सबसे अच्छी बात तो यह हुई कि फेसबुक पर ही देश के अनेक विद्वानों, संतों और भक्तों से परिचय हुआ, जो अन्यथा नहीं हो सकता था| कुछ समूहों में धर्म और ज्ञान-विज्ञान पर खूब चर्चाएँ हुआ करती थीं, जिनसे बहुत कुछ सीखा| मैं सभी के नाम तो नहीं लिख सकता, पर दो-तीन नाम अवश्य लिखूँगा जिनसे परिचय फेसबुक पर ही हुआ था|
सबसे पहिला परिचय आचार्य सियारामदास नैयायिक से हुआ| उन्होने मुझे हिन्दी में लिखने की प्रेरणा दी और उनके व कुछ अन्य संतों के आशीर्वाद से मुझे लिखने में कभी कोई कठिनाई नहीं हुई| वे रामानंदी वैष्णव संप्रदाय के बहुत बड़े आचार्य हैं|
दंडी स्वामी मृगेंद्र सरस्वती (सर्वज्ञ शंकरेंद्र) के आशीर्वाद से मुझे वेदान्त का व्यवहारिक ज्ञान हुआ| वेदान्त पर साहित्य तो खूब पढ़ा था पर कभी कोई प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं हुई थी| कई अनुत्तरित प्रश्न थे| उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और उनकी उपस्थिति मात्र से ही मुझे कई दिव्य अनुभूतियाँ हुईं जिनसे वेदान्त का व्यवहारिक ज्ञान हुआ और सारे संशय दूर हुए| वे एक सिद्ध पुरुष हैं|
भुवनेश्वर के श्री अरुण उपाध्याय जैसे अलौकिक विलक्षण परम विद्वान से परिचय तो फेसबुक पर ही हुआ था और दो बार उनसे मिलने का सौभाग्य भी मिला| वे चलते-फिरते ज्ञान के भंडार हैं| उनके जैसा कोई अन्य विद्वान मुझे आज तक नहीं मिला| वे पूर्व जन्म के कोई सिद्ध पुरुष हैं जिनका ज्ञान कई जन्मों का है|
भक्तों में इंदौर के स्वर्गीय श्री हेमंत मिश्र उच्च कोटि के शिवभक्त थे| वे समय समय पर बड़े-बड़े विशाल यज्ञ करवाया करते थे जिन में करोड़ों रुपयों का खर्च हुआ करता था| दो बार उनके साथ हवन करने का अवसर मुझे भी मिला है|
इंदौर के ही डॉ. सुमित शुक्ल और उनकी धर्मपत्नी डॉ.(श्रीमती) सुधि शुक्ल दोनों ही विलक्षण व्यक्तित्व के धनी और परम भक्त हैं| उनसे मेरा बहुत अच्छा प्रेम है|
और भी अनेक दिव्य विभूतियाँ हैं जिनसे परिचय फेसबुक पर ही हुया था| कुछ से मिलना भी हुआ और कुछ से नहीं| वे सब मेरे हृदय में हैं और उन्हें मेरे हृदय का पूर्ण प्रेम समर्पित है|
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क्रिया और वेदान्त की साधना से मुझे अनेक लाभ हुए हैं| अपनी कमियों का पता चला है जिनमें से कुछ तो दूर हुई हैं, और बाकी बची हुई भी दूर हो जाएंगी| सबसे बड़ी उपलब्धि तो यह हुई है कि कोई भी मुझसे दूर नहीं है| मैं अब किसी के अभाव को अनुभूत नहीं करता| परमात्मा में सभी मेरे साथ एक हैं| सारा ब्रह्मांड मेरा घर है और सारी सृष्टि मेरा परिवार| मैं सभी के साथ एक हूँ| कोई भी मुझसे पृथक नहीं है| क्रियायोग की साधना से प्राण-तत्व व आकाश-तत्व का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, और कूटस्थ-चैतन्य में स्थिति होती है| परमशिव का बोध भी बुद्धि से नहीं, ध्यान की अनुभूतियों से ही होता है|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन| ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१५ जून २०२०
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पुनश्च :--- प्रयागराज के स्वर्गीय पं. मिथिलेश द्विवेदी जी को भी मैं कभी नहीं भूल सकता| वे बड़ी प्रेरणात्मक बातें कहते थे और कभी निराश नहीं होने दिया| एक ही अफसोस रहा कि कभी उनसे मिलने का संयोग नहीं हुआ| उन्होंने अपनी हिन्दी भाषा में लिखी एक पुस्तक मुझे भेंट में दी थीं जो उच्च कोटि की साहित्यिक कृति है| वे एक भक्त और साहित्यकार थे| उर्दू भाषा पर भी उनका बहुत अच्छा अधिकार था| देवनागरी लिपि में लिखा उर्दू का एक लेख भी उन्होनें मुझे नेट पर ही भेजा था जिस से पता चला कि वे उर्दू के भी विद्वान थे| वे चाहे भौतिक देह में न हों पर मेरे हृदय में हैं|
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ओड़ीशा के ही भक्त श्री सोमदत्त शर्मा है जिनसे कई बार चलभाष पर ही सत्संग होता है|

शरणागति और समर्पण का मार्ग ही श्रेष्ठतम है ---

 शरणागति और समर्पण का मार्ग ही श्रेष्ठतम है .....

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वर्तमान काल में आध्यात्मिक योग-साधना के लिए भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताया हुआ शरणागति व समर्पण का मार्ग ही सर्वसुलभ और सर्वश्रेष्ठ है| इसमें कर्म, भक्ति और ज्ञान .... तीनों ही आ जाते है| यदि प्रबल बौद्धिक जिज्ञासा और समझने की क्षमता है तो उपनिषदों का स्वाध्याय कीजिये| जहाँ परमप्रेम और स्वभाविक अभीप्सा हैं, वहीं शरणागति द्वारा समर्पण की संभावना है| किसी भी तरह की आकांक्षा, कामना या अपेक्षा तुरंत भटका देगी|
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वर्तमान समय में पातंजलि ऋषि के नाम पर हठयोग के जो आसन-प्राणायाम आदि सिखाये जाते हैं, वे हठयोग के हैं, जिनका वर्णन पातंजलि योग-दर्शन में कहीं भी नहीं है| अतः उनके लिए पातंजलि ऋषि का नाम लेना असत्य का प्रचार और गलत बात है| हठयोग के आचार्य तो गुरु गोरखनाथ और घेरण्ड मुनि हैं|
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हठयोग के तीन ग्रंथ हैं .... (१) शिव संहिता, (२) घेरण्ड संहिता (३) हठयोग प्रदीपिका|
शिव-संहिता और हठयोग-प्रदीपिका ..... नाथ संप्रदाय के ग्रंथ हैं| शिव-संहिता के रचयिता गुरु मत्स्येंद्रनाथ को माना जाता है जो गोरखनाथ के गुरु थे| हठयोगप्रदीपिका के रचयिता गुरु गोरखनाथ के शिष्य स्वात्मारामनाथ को माना जाता है|
घेरंड-संहिता के रचयिता घेरंड मुनि हैं| यह ज्ञान उन्होने अपने शिष्य चंड कपाली को दिया था|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार योग का अर्थ है ....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
अर्थात् हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो| यह समभाव ही योग कहलाता है||
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आचार्य शंकर के अनुसार हमें जीवन का हर कार्य केवल ईश्वर के लिये करना चाहिए| यह भावना भी नहीं होनी चाहिए कि "ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों"| इस आशारूप आसक्ति को भी छोड़ कर, फलतृष्णारहित कर्म किये जाने पर अन्तःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होने वाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है, और उससे विपरीत (ज्ञानप्राप्ति का न होना) असिद्धि है| ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर, अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म करना चाहिए| यही जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व है इसीको योग कहते हैं।
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तंत्र शास्त्रों के अनुसार योग साधना का उद्देश्य परम शिवभाव को प्राप्त करना है|
भगवान वासुदेव को नमन !!
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"वसुदेव सुतं देवं, कंस चाणूर मर्दनं| देवकी परमानन्दं, कृष्णं वन्दे जगत्गुरुम्||"
"वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् | पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् || पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् | कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जून २०२०

Sunday, 13 June 2021

सत्य सनातन धर्म और भारतवर्ष की सदा विजय हो ---

 सत्य सनातन धर्म और भारतवर्ष की सदा विजय हो ---

परमात्मा की सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारत भूमि में हुई है, इसलिए सत्य सनातन हिन्दू धर्म -- भारत की अस्मिता है। परमात्मा को स्वयं में व्यक्त करने की अभीप्सा, और तदानुरूप सदाचरण -- सनातन हिन्दू धर्म है.
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जो भी व्यक्ति -- आत्मा की शाश्वतता, कर्मफल और पुनर्जन्म को मानता हो, व भगवान से अहैतुकी पूर्ण प्रेम करता हो, वह हिन्दू है; चाहे वह विश्व के किसी भी कोने में रहता हो, या कहीं भी किसी भी परिवार में उसने जन्म लिया हो. हिन्दू कभी पतित नहीं हो सकता.
🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹

प्रश्न (१): भारत की एकमात्र समस्या और समाधान क्या है? प्रश्न (२): हमें भगवान की प्राप्ति क्यों नहीं होती? .

 प्रश्न (१): भारत की एकमात्र समस्या और समाधान क्या है? प्रश्न (२): हमें भगवान की प्राप्ति क्यों नहीं होती?

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उत्तर (१): मेरी दृष्टि में भारत की एकमात्र और वास्तविक समस्या -- "राष्ट्रीय चरित्र" का अभाव है। अन्य सारी समस्याएँ सतही हैं, उनमें गहराई नहीं है। "राष्ट्रीय चरित्र" तभी आयेगा जब हमारे में सत्य के प्रति निष्ठा और समर्पण होगा। तभी हम चरित्रवान होंगे। इस के लिये दोष किसको दें? -- इसके लिए "धर्म-निरपेक्षता" की आड़ में बनाई हुई हमारी गलत शिक्षा-पद्धति और संस्कारहीन परिवारों से मिले गलत संस्कार ही उत्तरदायी हैं। देश की असली संपत्ति और गौरव उसके चरित्रवान सत्यनिष्ठ नागरिक हैं, जिनका निर्माण नहीं हो पा रहा है। कठोर प्रयासपूर्वक हमें भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था पुनर्स्थापित करनी होगी। यही एकमात्र उपाय है। मेरी दृष्टि में अन्य कोई उपाय नहीं है।
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उत्तर (२). हमें भगवान की प्राप्ति नहीं होती, और आध्यात्मिक मार्ग पर हम सफल नहीं होते। इसका एकमात्र कारण --- "सत्यनिष्ठा का अभाव" (Lack of Integrity and Sincerity) है। अन्य कोई कारण नहीं है। बाकी सब झूठे बहाने हैं। हम झूठ बोल कर स्वयं को ही धोखा देते हैं। परमात्मा "सत्य" यानि सत्यनारायण हैं। असत्य बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है, और दग्ध वाणी से किये हुए मंत्रजाप व प्रार्थनाएँ निष्फल होती हैं। वास्तव में हमने भगवान को कभी चाहा ही नहीं। चाहते तो "मन्त्र वा साधयामि शरीरं वा पातयामि" यानि या तो मुझे भगवान ही मिलेंगे या प्राण ही जाएँगे; इस भाव से साधना करके अब तक भगवान को पा लिया होता। हमने कभी सत्यनिष्ठा से प्रयास ही नहीं किया। ज्ञान और अनन्य भक्ति की बातें वे ही समझ सकते हैं, जिनमें सतोगुण प्रधान है। जिनमें रजोगुण प्रधान है, उन्हें कर्मयोग ही समझ में आ सकता है, उस से अधिक कुछ नहीं। जिनमें तमोगुण प्रधान है, वे सकाम भक्ति से अधिक और कुछ नहीं समझ सकते। उनके लिये भगवान एक साधन, और संसार साध्य है। इन तीनों गुणों से परे तो दो लाख में कोई एक महान आत्मा होती है। हमें सदा निरंतर इस तरह के प्रयास करते रहने चाहियें कि हम तमोगुण से ऊपर उठ कर रजोगुण को प्राप्त हों, और रजोगुण से भी ऊपर उठकर सतोगुण को प्राप्त हों। दीर्घ साधना के पश्चात हम गुणातीत होने में भी सफल होंगे।
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अब और कुछ लिखने को रहा ही नहीं है। आप सब बुद्धिमान हैं। मेरे जैसे अनाड़ी की बातों को पढ़ा, इसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ।
आप सब को सादर नमन !! ॐ तत्सत् !! 🔥🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹🔥
कृपा शंकर
१४ जून २०२१

आध्यात्मिक मार्ग पर हमारी विफलताओं का एकमात्र कारण .... "सत्यनिष्ठा का अभाव" (Lack of Integrity and Sincerity) है|

 आध्यात्मिक मार्ग पर हमारी विफलताओं का एकमात्र कारण .... "सत्यनिष्ठा का अभाव" (Lack of Integrity and Sincerity) है|

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अन्य कोई कारण नहीं है| बाकी सब झूठे बहाने हैं| हम झूठ बोल कर स्वयं को ही धोखा देते हैं| परमात्मा "सत्य" यानि सत्यनारायण हैं| असत्य बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है, और दग्ध वाणी से किये हुए मंत्रजाप व प्रार्थनाएँ निष्फल होती हैं|
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वास्तव में हमने भगवान को कभी चाहा ही नहीं| चाहते तो "मन्त्र वा साधयामि शरीरं वा पातयामि" यानि या तो मुझे भगवान ही मिलेंगे या प्राण ही जाएँगे, इस भाव से साधना करके अब तक भगवान को पा लिया होता| हमने कभी सत्यनिष्ठा से प्रयास ही नहीं किया|
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सत्यनिष्ठा को ही भगवान श्रीकृष्ण ने "अव्यभिचारिणी भक्ति" कहा है| उन्होने "अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति", "एकांतवास" और "कुसङ्गत्याग" पर ज़ोर दिया है....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
अर्थात अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि ||
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अब और कुछ लिखने को रहा ही नहीं है| आप सब बुद्धिमान हैं| मेरे जैसे अनाड़ी की बातों को पढ़ा इसके लिए आभारी हूँ| आप सब को सादर नमन| ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
१४ जून २०२०

जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै ---

 जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै ---

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सूरदास जी के एक भजन की पंक्ति है -- "मेरो मन अनत कहां सुख पावै, जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै।"
कई बार महासागरों में चलने वाले बड़े-बड़े जलयानों पर कोई पक्षी आकर बैठ जाता है। जहाज के चलने के कुछ देर पश्चात वह बापस भूमि पर जाने के लिए उड़ान भरता है, लेकिन जाये तो जाये कहाँ? चारो ओर विराट जलराशि ही जलराशि को देखकर वह बापस जलयान पर ही आ जाता है।
वैसे ही हमारा मन है जो एक बार भगवान को समर्पित हो गया तो अन्यत्र कहीं भी सुख नहीं पाता। माया के आवरण और विक्षेप उसे बहुत अधिक मिथ्या प्रलोभन देकर भटकाते हैं, लेकिन कहीं भी उसे संतुष्टि नहीं मिलती, और भगवान श्रीहरिः के चरण कमलों में लौटने के लिए वह तड़प उठता है। उसे बापस आना ही पड़ता है।
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यह मेरी ही नहीं उन सभी की कहानी है जो आध्यात्म मार्ग के पथिक हैं। वेदान्त-वासना जब एक बार जब हृदय में जागृत हो जाये तो वह अन्य किसी भी लौकिक वासना को अपने आसपास भी नहीं टिकने देती। अतः प्रातः उठते ही पूर्ण भक्ति पूर्वक ध्यान के आसन पर बैठकर गुरु-चरणों का ध्यान करो --
"रात गई, भोर है भई
जागो मेरे बच्चो जागो
बैठ ध्यान के आसन पर
ध्याओ गुरु चरण कमल तुम॥" (गुरु महाराज द्वारा रचित भजन का हिन्दी अनुवाद)
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सहस्त्रार में दिखाई दे रही ज्योति ही गुरु महाराज के चरण-कमल है। कमर सीधी कर के पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर के बैठ जाओ। दो तीन बार प्राणायाम कर के शरीर को शिथिल छोड़ दो, और कूटस्थ में गुरु-चरणों का ध्यान करते हुये गुरु-प्रदत्त बीजमंत्र का खूब श्रवण, और हंसःयोग (अजपा-जप) का कुछ मिनटों तक अभ्यास करो। फिर नित्य की दैनिक दिनचर्या से निवृत होकर पुनश्च: उपासना करो। अपने बीजमंत्र को कभी न भूलो और निरंतर उसका मानसिक जप करते रहो। यह बीजमंत्र ही हमारा कवच है, जो हर प्रतिकूल परिस्थिति में हमारी रक्षा करेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ गुरु !! जय गुरु !!
कृपा शंकर
१३ जून २०२१
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सूरदास जी का भजन :---
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"मेरो मन अनत कहां सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥
कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।
परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै॥
जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल खावै।
सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥"

धर्म-अधर्म, कर्म, भक्ति, और ज्ञान ---

 धर्म-अधर्म, कर्म, भक्ति, और ज्ञान .....

जिससे हमारा सर्वतोमुखी सम्पूर्ण विकास हो, और सब तरह के दुःखों से मुक्ति मिले, वही धर्म है| जो इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता वह धर्म नहीं, अधर्म है| धर्म ही "अभ्यूदय और निःश्रेयस की सिद्धि" है|
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मेरा सौभाग्य है कि मेरा जन्म भारत में हुआ| जो कुछ भी मैं लिख पा रहा हूँ वह तभी संभव हुआ है क्योंकि मैं भारत में जन्मा हूँ| भारत पर भगवान की बड़ी कृपा है| इस भूमि पर अनेक महान आत्माओं ने समय समय पर जन्म लिया है और श्रुतियों, स्मृतियों, व आगम शास्त्रों के माध्यम से धर्म के तत्व को समझाया है| भारत से बाहर या अन्य किसी संस्कृति में यह नहीं हो सकता था|
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रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने रामकथा के माध्यम से जन सामान्य को धर्म की शिक्षा दे दी| रामकथा को ही पढ़ते या सुनते रहने से भक्ति जागृत हो जाती है और एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी समझ जाता है कि धर्म और अधर्म क्या है| उनका समय अति विकट था, भारत में सनातन धर्म पर अधर्मियों द्वारा बड़े भयावह भीषण आक्रमण, अत्याचार व जन-संहार हो रहे थे, और जन-सामान्य की आस्था डिग रही थी| उस अति विकट समय में धर्म-रक्षा हेतु इस महान ग्रंथ की रचना कर के उन्होने हम सब पर बड़े से बड़ा उपकार किया और धर्म की रक्षा की| इस ग्रंथ ने देश में उस समय एक प्रचंड ऊर्जा, साहस और प्राणों का संचार किया था|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने सिर्फ तीन विषयों .... कर्म, भक्ति और ज्ञान, की चर्चा की है, कोई अन्य विषय नहीं छेड़ा है| इन तीन विषयों की चर्चा में ही धर्म के सारे तत्व को लपेट लिया है, कुछ भी बाहर नहीं छोड़ा है| लेकिन साथ साथ सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण की बात भी कह दी है कि जिस व्यक्ति में जैसा गुण प्रधान है उसे वैसा ही समझ में आयेगा| अंततः वे शरणागति व समर्पण द्वारा तीनों गुणों व धर्म-अधर्म से भी परे जाने का उपदेश देते हैं| यही गीता का सार है|
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अब अंत में थोड़ी सी अति अति लघु चर्चा तंत्र और योग पर करूँगा क्योंकि दोनों का लक्ष्य एक ही है, और वह है ..... "आत्मानुसंधान"| यथार्थ में आत्मानुसंधान यानि आत्मज्ञान ही सनातन धर्म है|
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तंत्र मूल रूप से शिव और शक्ति के मध्य के पारस्परिक संवाद हैं| जैसे श्रीराधा और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं, वैसे ही शिव और शक्ति में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं| शक्ति, शिव से ही प्रकट होती है और शिव से प्रश्न करती है| शिव, शक्ति को उत्तर देते हैं और शक्ति जब शिव के उत्तरों से संतुष्ट हो जाती है तब प्रसन्न होकर बापस शिव में ही विलीन हो जाती है|
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वैसे तत्व रूप में शिव और विष्णु में भी कोई भेद नहीं है| दोनों एक ही हैं| जो भेद दिखाई देता है वह हमारी अज्ञानता के कारण है|
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जैसा मुझे समझ में आया है उसके अनुसार तंत्र शास्त्रों का सार है कि मनुष्य की सूक्ष्म देह में अज्ञान की तीन ग्रंथियाँ हैं ... ब्रह्मग्रंथि (मूलाधारचक्र में), विष्णुग्रंथि (अनाहतचक्र में) और रुद्रग्रन्थि (आज्ञाचक्र में)| जब तक इन ग्रंथियों का भेदन नहीं होता तब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती| इन ग्रंथियों के भेदन और अपने परम लक्ष्य आत्मज्ञान को प्राप्त करने की विधि ही योगशास्त्र है| इस से अधिक लिखने की क्षमता मुझमें इस समय नहीं है|
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अब किसी भी तरह के कोई उपदेश अच्छे नहीं लगते, उनमें रुचि अब और नहीं रही है| परमात्मा की परमकृपा से तत्व की बात जब समझ में आने लगती है तब और कुछ भी अच्छा नहीं लगता, सारे भेद भी समाप्त होने लगते हैं| भगवान का साकार या निराकार जो भी रूप है वह जब हृदय में प्रतिष्ठित हो जाता है तब वही सब कुछ बन जाता है|
आप सब को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जून २०२०

Friday, 11 June 2021

संक्षेप में ब्राह्मण धर्म ---

 संक्षेप में ब्राह्मण धर्म .....

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हर ब्राह्मण को अपने ऋषिगौत्र, प्रवर, वेद, उपवेद व उसकी शाखा का, और गायत्री, प्राणायाम, संध्या आदि का ज्ञान अवश्य होना चाहिए| यदि नहीं है तो अपने पारिवारिक आचार्य से शीघ्रातिशीघ्र सीख लें|
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पूरे भारत में अधिकाँश ब्राह्मणों की शुक्ल-यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता की माध्यन्दिन शाखा है| इस का विधि भाग शतपथब्राह्मण है, जिसके रचयिता वाजसनेय याज्ञवल्क्य हैं| शतपथब्राह्मण में यज्ञ सम्बन्धी सभी अनुष्ठानों का विस्तृत वर्णन है| जो समझ सकते हैं उन ब्राह्मणों को अपने अपने वेद आदि का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए| आजकल के इतने भयंकर मायावी आकर्षणों और गलत औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के पश्चात भी शास्त्रोक्त कर्मों को नहीं भूलना चाहिए|
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मनुस्मृति ने ब्राह्मण के तीन कर्म बताए हैं ... "वेदाभ्यासे शमे चैव आत्मज्ञाने च यत्नवान्|"
अर्थात वेदाभ्यास, शम और आत्मज्ञान के लिए निरंतर यत्न करना ब्राह्मण के कर्म हैं| इन्द्रियों के शमन को 'शम' कहते हैं| चित्त वृत्तियों का निरोध कर उसे आत्म-तत्व की ओर निरंतर लगाए रखना भी 'शम' है| धर्म पालन के मार्ग में आने वाले हर कष्ट को सहन करना 'तप' है| यह भी ब्राह्मण का एक कर्त्तव्य है| जब परमात्मा से प्रेम होता है और उन्हें पाने की एक अभीप्सा जागृत होती है तब गुरुलाभ होता है| धीरे धीरे मुमुक्षुत्व और आत्मज्ञान की तड़प पैदा होती है| उस आत्मज्ञान को प्राप्त करने की निरंतर चेष्टा करना ब्राह्मण का परम धर्म है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण के नौ कर्म बताए हैं .....
"शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||१८:४२||
अर्थात् शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान, और आस्तिक्य ये ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं||
और भी सरल शब्दों में ..... मनका निग्रह करना, इन्द्रियोंको वशमें करना; धर्मपालनके लिये कष्ट सहना; बाहर-भीतरसे शुद्ध रहना; दूसरोंके अपराध को क्षमा करना; शरीर, मन आदिमें सरलता रखना; वेद, शास्त्र आदिका ज्ञान होना; यज्ञविधिको अनुभवमें लाना; और परमात्मा, वेद आदिमें आस्तिक भाव रखना -- ये सब-के-सब ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्म हैं।
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इनके अतिरिक्त ब्राह्मण के षटकर्म भी हैं, जो उसकी आजीविका के लिए हैं|
अन्य भी अनेक स्वनामधान्य आदरणीय आचार्यों ने बहुत कुछ लिखा है जिसे यहाँ इस संक्षिप्त लेख में लिखना संभव नहीं है|
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ब्राह्मण के लिए एक दिन में १० आवृति (संख्या) गायत्री मंत्र की अनिवार्य हैं| जो दिन में गायत्री मंत्र की एक आवृति भी नहीं करता वह ब्राहमणत्व से च्युत हो जाता है, और उसे प्रायश्चित करना पड़ता है|
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इस लघु लेख में इस से अधिक लिखना मेरे लिए संभव नहीं है| आप सब को नमन! इति|
ॐ तत्सत्|
१२ जून २०२०