Sunday 22 December 2019

भगवान की भक्ति से बड़ी अन्य कोई दूसरी चीज नहीं है .....

भगवान की भक्ति से बड़ी अन्य कोई दूसरी चीज नहीं है| भक्ति का अर्थ होता है परमप्रेम| प्रेम में कोई मांग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है| भगवान को हम अपना पूरा अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार) समर्पित कर दें, यह सबसे बड़ी भक्ति है| खाते पीते सोते हर समय उनका ध्यान रहे, हम जो भी करें उनकी प्रसन्नता के लिए करें, उन्हें ही अपने माध्यम से कार्य करने दें| फिर भगवान कहीं दूर नहीं हैं| वे हमारी आँखों से देख रहे हैं, हमारे कानों से सुन रहे हैं, हमारे पैरों से चल रहे हैं, हमारे हृदय में धडक रहे हैं, हम तो हैं ही नहीं, वे ही वे हैं| हमारा सारा अस्तित्व वे ही हैं| इस देह के माध्यम से वे ही जी रहे हैं| भगवान एक प्रवाह हैं, जिन्हें हम स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दें| वे एक रस हैं जिसका आस्वादन हम निरंतर करते रहें|
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यह भाव जिनमें निरंतर बना रहता है, वे इस पृथ्वी पर चलते फिरते देवता हैं| यह पृथ्वी उनको पाकर सनाथ हो जाती है| जहाँ भी उनके पैर पड़ते हैं, वह भूमि धन्य हो जाती है| उनकी सात पीढ़ियाँ तर जाती हैं| देवता उन्हें देखकर नृत्य करते हैं| वह परिवार और कुल धन्य हो जाता है जहाँ ऐसी महान आत्माएँ जन्म लेती हैं|
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हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ नवंबर २०१९

3 comments:

  1. कोई भी नदी जब तक महासागर में नहीं मिलती तब तक चंचल और बेचैन रहती है, महासागर में मिलते ही नदी समुद्र के साथ एक हो जाती है| जैसे नदियों का धर्म महासागर में मिल जाना है, वैसे ही आत्मा का धर्म, परमात्मा में मिल जाना है| परमात्मा की ओर जो शक्ति हमें चलायमान करती है वह है 'भक्ति' जिसे 'परमप्रेम' भी कहते हैं| एक बार परमात्मा से परमप्रेम हो जाए तो आगे का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त हो जाता है|

    ॐ तत्सत् ! ॐ गुरु ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
    २० नवम्बर २०१९

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  2. "गोपी" शब्द का अर्थ .....

    गोपी किसी महिला का नाम नहीं है| जिन का प्रेम गोपनीय यानि किसी भी प्रकार के दिखावे से रहित स्वाभाविक होता है, और जो परमात्मा के प्रेम में स्वयं प्रेममय हो जाए वह "गोपी" है| हर समय निरंतर परमात्मा का चिंतन ध्यान करने वाले गोपी कहलाते हैं| ऐसी भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न आसक्त होता है, और न उसे विषय-भोगों में उत्साह होता है| नारद भक्ति सूत्रों के प्रथम अध्याय का इक्कीसवां सूत्र है ..... यथा व्रजगोपिकानाम् | नारद जी कहते हैं .... जैसी भक्ति व्रज के गोपिकाओं को प्राप्त हुई, वैसी ही भक्ति हम सब को प्राप्त हो|

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  3. भगवान से बड़ा छलिया और कोई नहीं है .....

    हमने भगवान के साथ बहुत अधिक छल किया होगा तभी तो वे भी हमारे साथ छल ही कर रहे हैं| उनसे बड़ा छलिया और कोई नहीं है| सर्वत्र होकर भी वे समक्ष नहीं हैं, इस से बड़ा छल और क्या हो सकता है?

    चलो, तुम्हारी मर्जी ! तुम चाहे जैसा करो, पर तुम्हारे बिना हम अब और नहीं रह सकते| इसी क्षण तुम्हें व्यक्त होना ही होगा| कोई अनुनय-विनय हम नहीं करेंगे क्योंकि तुम्हारे साथ एकरूपता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| तुम्हारे बिना बड़ी भयंकर पीड़ा हो रही है, यह बहुत बड़ी विपत्ती है| अब तो रक्षा करो| इतनी निष्ठुरता से स्वयं से विमुख क्यों कर रहे हो? तुम्हारे से विमुखता ही हमारे सब दुखों कष्टों का कारण है|

    ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ गुरु ! ॐ ॐ ॐ !!

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