भगवान बाँके-बिहारी ---
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भगवान श्रीकृष्ण की हाथ में बांसुरी बजाते हुए, दाहिने पैर पर भार डालकर बायाँ पैर आगे टिका कर, देह को तीन स्थानों से मोड़ कर खड़े होने की जो मुद्रा है वह त्रिभंग मुद्रा है। ऐसी मुद्रा में भगवान जैसे खड़े हैं, उन्हें "बाँके-बिहारी" कहते हैं। वृंदावन में मुख्य मंदिर ही भगवान बाँके-बिहारी का है।
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यह मुद्रा -- योग साधना द्वारा ब्रह्मग्रंथि (आज्ञाचक्र), विष्णुग्रंथि (अनाहतचक्र) और रूद्रग्रंथि (मूलाधारचक्र) -- इन तीनों अज्ञान ग्रंथियों के भेदन का प्रतीक है, जो कुंडलिनी-जागरण और आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।
श्रीमद्भागवत (१/२/२१) और मुन्डकोपनिषद (२/२/८) में इसकी चर्चा है।
"भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥" (मुन्डकोपनिषद : २/२/८)
विष्णु ग्रंथि का भेदन होने से सब संशय दूर हो जाते हैं।
दुर्गापूजा में असुर वध के माध्यम से उसी हृदय ग्रंथि भेद की क्रिया को ही रूपक द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
इसी प्रकार रूद्रग्रंथि और ब्रह्मग्रन्थी भेदन की महिमा शास्त्रों में भरी पडी है। यह अत्यंत दुष्कर कार्य है, इससे पशुवृत्ति पर नियंत्रण होता है। ज्ञानसंकलिनी तंत्र के अनुसार ऐसा साधक ऊर्ध्वरेता बनता है।
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यह विधि एक गुरु प्रदत्त विद्या है जो गुरु द्वारा ही शिष्य को प्रदान की जा सकती है। इसे गोपनीय इसलिए रखा गया है क्योंकि इसकी साधना करने से सूक्ष्म शक्तियों का जागरण होता है जो पलटवार कर के साधक को विक्षिप्त भी बना सकती हैं। यम-नियमों का पालन इसमें आवश्यक है, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि होने की संभावना अधिक है।
आप सब के ह्रदय में स्थित भगवान वासुदेव को नमन !!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ नवंबर २०२४
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