आध्यात्म में भगवान से कोई मांग नहीं होती, केवल समर्पण ही होता है ---
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मेरे विचार अधिकांश श्रद्धालुओं से नहीं मिलते, इसलिए मुझे भीड़ से दूरी में ही आनंद मिलता है। जिन से मेरे विचार मिलते हैं, उनका थोड़ा-बहुत सत्संग आनंददायक होता है। मेरी मान्यता भगवान से कुछ मांगने की नहीं, बल्कि अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित करने की ही है। भगवान से कुछ मांगना मेरे लिए संभव नहीं है। यदि भगवान से कुछ मांगना ही है तो उनकी अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति ही मांगनी चाहिए, अन्य कुछ भी भगवान से मांगना, भगवान का अपमान है।
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शिवभक्ति के संस्कार पूर्व जन्म से ही हैं। शिव को मैं सीमित नहीं कर सकता। ध्यान-साधना में सहस्त्रार से ऊपर का भाग खुल जाता है, अतः ध्यान-साधना सूक्ष्म-जगत की अनंतता से भी परे के एक परम आलोकमय जगत में होती है, जहाँ स्वयं भगवान परमशिव हैं। कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन, और परमशिव का साक्षीभाव से ध्यान मेरी आध्यात्मिक साधना है। कुछ निषेधात्मक कारणों से कुंडलिनी महाशक्ति के बारे में सार्वजनिक मंचों पर चर्चा नहीं की जा सकती। इस विषय की चर्चा का अधिकार गुरु-परंपरा के भीतर ही है, बाहर नहीं।
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सारी प्रेरणा मुझे श्रीमद्भगवद्गीता से मिलती है। मेरे सारे संशयों का निवारण भी श्रीमद्भगवद्गीता से ही हुआ है। अतः गीता-पाठ और शिव पूजा -- साधना के भाग हैं। कर्ता के रूप में तो भगवान स्वयं है। वे ही साध्य, साधक और साधना हैं। भगवान से कुछ मांगना, भगवान का अपमान है; अतः मैं भगवान से कुछ मांग नहीं सकता। जो कुछ भी सामान मेरे पास है, वह सब उन्हें समर्पित है। पूर्व-जन्म की स्मृतियाँ कभी कभी जागृत हो जाती थीं, अब उन्हें पूरी तरह भुला दिया है। भगवान की अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ भी भगवान से मांगने योग्य नहीं है।
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"अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥१३:८॥"
"इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥१३:९॥"
"असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥१३:१०॥"
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् --
अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्य की सेवा, शुद्धि, स्थिरता और आत्मसंयम॥
इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धवस्था, व्याधि और दुख में दोष दर्शन॥
आसक्ति तथा पुत्र, पत्नी, गृह आदि में अनभिष्वङ्ग (तादात्म्य का अभाव); और इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में समचित्तता।।
अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
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आज के स्वाध्याय के लिए गीता के उपरोक्त पाँच श्लोक ही पर्याप्त हैं। भगवान से कोई मांग नहीं, बल्कि स्वयं को उन्हें पूर्णतः समर्पित करें।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ मार्च २०२४
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