हमारी सोच और हमारे विचार ही हमारे उत्थान-पतन के कारण हैं। जैसा हम लगातार सोचते हैं वैसे ही हो जाते हैं ---
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बचपन से ही हम सुनते और पढ़ते आये हैं कि कामिनी और कांचन मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति में बाधक हैं। यह बात पूरी तरह असत्य यानि झूठ है। मैं इसे सिद्ध कर सकता हूँ। आध्यात्मिक प्रगति में यदि कुछ बाधक है तो वह हमारा लोभ, राग-द्वेष और अहंकार है, अन्य कुछ भी नहीं। इसीलिए गीता में भगवान हमें निःस्पृह, वीतराग और स्थितप्रज्ञ होने का उपदेश देते हैं। जैसे एक पुरुष एक स्त्री के प्रति आकर्षित होता है वैसे ही एक स्त्री भी पुरुष के प्रति होती है, तो क्या स्त्री की प्रगति में पुरुष बाधक हो गया?
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विद्यारण्य स्वामी के अनुसार एक स्त्री को कामी पुरुष काम-संकल्प से देखता है, कुत्ता कुछ खाने को मिल जाएगा इस लोभ से देखता है, ब्रह्मविद अनासक्ति के भाव से देखता है, और एक भक्त उसे माता के रूप में देखता है।
मेरी दृष्टि में साधु वही है जो निःस्पृह, वीतराग और स्थितप्रज्ञ है। अन्यथा वह एक जिज्ञासु मात्र है। जो व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर्य आदि आसुरी दुर्गुणों से भरा पड़ा है वह एक असुर है जो हर दृष्टि से त्याज्य है।
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कांचन के बिना यह लोकयात्रा नहीं चलती। मनुष्य को भूख-प्यास भी लगती है, सर्दी-गर्मी भी लगती है, बीमारी में दवा भी आवश्यक है, और रहने को निवास की भी आवश्यकता होती है। हर क़दम पर पैसा चाहिये। जैसे आध्यात्मिक दरिद्रता एक अभिशाप है, उससे कई गुणा अधिक भौतिक दरिद्रता भी अभिशाप है।
वनों, गुफाओं और आश्रमों में रहने वाले विरक्तों को भी भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और बीमारियाँ लगती है। उनकी भी कई भौतिक आवश्यकताएँ होती हैं, जिनके लिए वे संसार पर ही निर्भर होते हैं।
जो सत्यनिष्ठा से भगवान से जुड़ा है, उसकी तो हर आवश्यकता की पूर्ति स्वयं भगवान करते हैं। लेकिन ऐसा भक्त और विरक्त लाखों में एक होता है।
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मनुष्य की कल्पना -- मनुष्य की ही सृष्टि है जो बाधक है, ईश्वर की सृष्टि नहीं। यदि ईश्वर की सृष्टि बाधक होती तो सभी को बंधनकारक होती। अतः अपने विचारों और अपने भावों पर नियंत्रण रखें, ईश्वर की सृष्टि को दोष न दें।
एक व्यक्ति एक महात्मा के पास गया और बोला कि मुझे संन्यास चाहिये, मैं यह संसार छोड़ना चाहता हूँ। महात्मा ने इसका कारण पूछा तो उस व्यक्ति ने कहा कि मेरा धन मेरे सम्बन्धियों ने छीन लिया, स्त्री-पुत्रों ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया, और सब मित्रों ने भी मेरा त्याग कर दिया; अब मैं उन सब का त्याग करना चाहता हूँ। महात्मा ने कहा कि तुम उनका क्या त्याग करोगे? उन्होंने ही तुम्हें त्याग दिया है।
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भौतिक समृद्धि -- आध्यात्मिक समृद्धि का आधार है। एक व्यक्ति जो दिन-रात रोटी और धन के बारे में ही सोचता है, वह परमात्मा का चिंतन नहीं कर सकता। पहले भारत में बहुत समृद्धि थी। एक छोटा-मोटा गाँव भी हज़ारों साधुओं को भोजन करा सकता था, व उन्हें आश्रय भी दे सकता था। लेकिन अब परिस्थितियाँ वे नहीं हैं।
सबसे अधिक महत्वपूर्ण तो व्यक्ति के विचार और भाव हैं, उन्हें शुद्ध रखना एक उच्च कोटि की साधना है। मनुष्य के भाव और सोच-विचार ही उसके पतन और उत्थान के कारण हैं। कोई अन्य कारण नहीं है।
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मैं आप सब को धन्यवाद देता हूँ कि आपने इन पंक्तियों को पढ़ा। आप सब में हृदयस्थ श्रीहरिः को नमन। मैं आप सब के कल्याण की प्रार्थना करता हूँ। आपके कल्याण में ही मेरा कल्याण निहित है।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। ॐ शिव शिव शिव शिव शिव॥
कृपा शंकर
३ फरवरी २०२५
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