भगवान अपनी साधना स्वयं ही करते हैं। मैं कोई साधक नहीं हूँ ---
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पूरे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) की एक ही अभीप्सा है कि नित्य-सचेतन नित्य-नवीन नित्य-वर्तमान सच्चिदानंद परमशिव की चेतना हर समय निज-चैतन्य में छायी रहे। निज विचारों व भावों में भी निरंतर परमशिव रहें। लेकिन होता वही है जैसी उनकी इच्छा होती है। मैं ध्यान तो परमशिव का करने का प्रयास करता हूँ लेकिन एक छवि शांभवी मुद्रा में वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण की भी स्वतः ही आ जाती है। यह अनेक वर्षों से हो रहा है। वे स्वयं अपनी साधना स्वयं करते हैं। मैं केवल एक निमित्त साक्षीमात्र ही बन कर रह गया हूँ। अपनी स्वतंत्र इच्छा से मैं कुछ भी नहीं कर पाता। वैसे परमशिव और पुरुषोत्तम में कोई भेद नहीं है, दोनों एक हैं। वे ही परमब्रह्म हैं, और वे ही सच्चिदानंद हैं।
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मैं ईश्वर के अवतारों में श्रद्धा और विश्वास रखता हूँ। जब निज-चेतना सर्वव्यापी ब्रह्म के साथ एक होने लगती है, तब ही समझ में आता है कि सारे आकार जिसके हैं, वे ही निराकार हैं। जो भी सृष्ट हुआ है वह निराकार से साकार हुआ है। अतः साकार और निराकार दोनों में कोई भेद नहीं है। जो श्रीराम हैं, वे ही श्रीकृष्ण हैं, और वे ही शिव हैं। हरिः और हर में कोई भेद नहीं है।
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जब बात परमात्मा के मातृरूप की आती है, तब विषय थोड़ा सा जटिल होकर परिवर्तित हो जाता है। इस विषय को अपनी स्वयं की अनुभूतियों से समझना बड़ा सरल है, लेकिन किसी अन्य को समझाना बड़ा कठिन है।
तब भगवती स्वयं ही कर्ता होकर स्वयं को कुंडलिनी महाशक्ति के रूप में व्यक्त कर परमशिव का ध्यान स्वयं करती हैं। दूसरे शब्दों में महाकाली ही एकमात्र कर्ता होकर सारे कर्मफल श्रीकृष्ण को अर्पित करती हैं।
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कुंडलिनी महाशक्ति और परमशिव का मिलन ही योग-साधना की अंतिम परिणिति है। तब स्वयं में और परमात्मा में कोई भेद नहीं रहता। इससे आगे कोई शब्द नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ सितंबर २०२५
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