Monday, 31 October 2016

सप्त व्याहृतियों के साथ ब्रह्म गायत्री मन्त्र की साधना .....

सप्त व्याहृतियों के साथ ब्रह्म गायत्री मन्त्र की साधना .....
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प्रिय निजात्मगण, आप सब के शिवरूप को नमन !
मैं अपनी सीमित और अल्प बुद्धि से एक ऐसे विषय पर चर्चा करने का दुःसाहस कर रहा हूँ जिसकी पात्रता मुझ में नहीं है, अतः सभी से क्षमा याचना भी कर लेता हूँ|
निम्न प्रस्तुति मेरी साधू-संतों व विद्वानों के साथ हुए व्यक्तिगत सत्संगों से प्राप्त ज्ञान, निजी अनुभवों और स्वाध्याय पर आधारित है| यह प्रस्तुति गंभीर योग साधकों के लिए ही है| कहीं चूक भी जाऊँ तो आप सब मुझे क्षमा भी कर ही देंगे क्योंकि आप सब मेरी ही निजात्मा हैं और मेरे ह्रदय का सम्पूर्ण अहैतुकी प्रेम आप सब को समर्पित है|
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ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62वें सूक्त का दसवाँ मन्त्र 'ब्रह्म गायत्री-मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है----
"तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो योनः प्रचोदयात् |"
इस ब्रह्म-गायत्री-मन्त्र के मुख्य द्रष्टा तथा उपदेष्टा आचार्य महर्षि विश्वामित्र हैं| यह मन्त्र सभी वेदमन्त्रों का मूल बीज है| इसी से सभी मन्त्रों का प्रादुर्भाव हुआ है|
इसका अर्थ देखिये .....
तत् : उस
सवितु: सविता-सूर्य-प्रकाशक-ज्ञान
वरेण्यं: वरण करने योग्य
भर्ग: शुद्ध विज्ञान स्वरूप
देवस्य: देव का
धीमहि: हम ध्यान करें
धियो: बुद्धि को
य: जो
न: हमारी
प्रचोदयात: शुभ कार्यों में प्रेरित करे
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उस वरण करने योग्य शुद्ध विज्ञान स्वरूप सूर्य- प्रकाशक- ज्ञान देव का हम ध्यान करें जो हमारी बुद्धि को शुभ कार्यों में प्रेरित करे|
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गायत्री की महिमा अनंत है .....
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गायत्र्येव परो विष्णुर्गायत्र्येव पर: शिव:|
गायत्र्येव परो ब्रह्म गायत्र्येव त्रयी तत:|| —स्कन्द पुराण काशीखण्ड ४/९/५८, वृहत्सन्ध्या भाष्य
ब्रह्म गायत्रीति- ब्रह्म वै गायत्री| —शतपथ ब्राह्मण ८/५/३/७ -ऐतरेय ब्रा० अ० १७ खं० ५
भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं को 'गायत्री छन्दसामहम्' अर्थात छंदों में गायत्री कहा है|
गायत्री मन्त्र को ही सावित्री मन्त्र भी कहते है| महाभारत में भी सावित्री (गायत्री) मंत्र की महिमा कई स्थानों पर गाई गयी है|
भीष्म पितामह युद्ध के समय जब शरशय्या पर पड़े होते हैं तो उस समय अन्तिम उपदेश के रूप में युधिष्ठिर आदि को गायत्री उपासना की प्रेरणा देते हैं। भीष्म पितामह का यह उपदेश महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 150 में दिया गया है|
युधिष्ठिर पितामह से प्रश्न करते हैं ---- हे पितामह महाप्रज्ञ सर्व शास्त्र विशारद, कि जप्यं जपतों नित्यं भवेद्धर्म फलं महत ॥ प्रस्थानों वा प्रवेशे वा प्रवृत्ते वाणी कर्मणि ।। देवें व श्राद्धकाले वा किं जप्यं कर्म साधनम ॥ शान्तिकं पौष्टिक रक्षा शत्रुघ्न भय नाशनम् ।। जप्यं यद् ब्रह्मसमितं तद्भवान् वक्तुमर्हति ॥
भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा --- यान पात्रे च याने च प्रवासे राजवेश्यति ।। परां सिद्धिमाप्नोति सावित्री ह्युत्तमां पठन ॥ न च राजभय तेषां न पिशाचान्न राक्षसान् ।। नाग्न्यम्वुपवन व्यालाद्भयं तस्योपजायते ॥ चतुर्णामपि वर्णानामाश्रमस्य विशेषतः ।। करोति सततं शान्ति सावित्री मुत्तमा पठन् ॥
नार्ग्दिहति काष्ठानि सावित्री यम पठ्यते ।। न तम वालोम्रियते न च तिष्ठन्ति पन्नगाः ॥ न तेषां विद्यते दुःख गच्छन्ति परमां गतिम् ।। ये शृण्वन्ति महद्ब्रह्म सावित्री गुण कीर्तनम ॥ गवां मन्ये तु पठतो गावोऽस्य बहु वत्सलाः ।। प्रस्थाने वा प्रवासे वा सर्वावस्थां गतः पठेत ॥
''जो व्यक्ति सावित्री (गायत्री) का जप करते हैं उनको धन, पात्र, गृह सभी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं ।। उनको राजा, दुष्ट, राक्षस, अग्नि, जल, वायु और सर्प किसी से भय नहीं लगता ।। जो लोग इस उत्तम मन्त्र गायत्री का जप करते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों में सफल रहते हैं ।।
जिस स्थान पर सावित्री का पाठ किया जाता है, उस स्थान में अग्नि काष्ठों को हानि नहीं पहुँचाती है, बच्चों की आकस्मिक मृत्यु नहीं होती, न ही वहाँ अपङ्ग रहते हैं ।।
जो लोग सावित्री के गुणों से भरे वेद को ग्रहण करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कष्ट एवं क्लेश नहीं होता है तथा जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं ।।
गौवों के बीच सावित्री का पाठ करने से गौवों का दूध अधिक पौष्टिक होता है ।। घर हो अथवा बाहर, चलते फिरते सदा ही गायत्री का जप किया करें ।
भीष्म पितामह कहते हैं कि सावित्री- गायत्री से बढ़कर कोई जप नहीं है|
गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है।
गायत्री का सविता होने के संदर्भ में कुछ उक्तियाँ इस प्रकार हैं— सवितुश्चाधिदेवो या मन्त्राधिष्ठातृदेवता। सावित्री ह्यपि वेदाना सावित्री तेन कीर्तिता। -देवी भागवत
इस सावित्री मन्त्र का देवता सविता- (सूर्य) है। वेद मंत्रों की अधिष्ठात्री देवी वही है। इसी से उसे सावित्री कहते हैं।
यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः। प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुषास्महे।।
‘जो सविता देव हमारी बुद्धि को धर्म में प्रेरित करता है उसके श्रेष्ठ भर्ग (तेज) की हम उपासना करते हैं।
सर्व लोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते। यतस्तद् देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः।।-अमरकोश
‘‘वे सूर्य भगवान समस्त जगत को जन्म देते हैं इसलिए ‘सविता’ कहे जाते हैं। गायत्री मन्त्र के देवता ‘सविता’ हैं इसलिए उसकी दैवी-शक्ति को ‘सावित्री’ कहते हैं।’’
मनोवै सविता। प्राणधियः। -शतपथ 3/6/1/13
प्राण एव सविता, विद्युतरेव सविता। -शतपथ 7/7/9
सूर्य ही तेज कहा जाता है।
ब्रह्म तेज और सविता एक ही हैं। गायत्री को तेजस्विनी कहा गया है। सविता तेज का प्रतीक है। अस्तु सविता का तेज और गायत्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए।
गायत्री मन्त्र के देवता सविता हैं और उनकी भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं जो आज्ञा चक्र से ऊपर सहस्त्रार में या उससे भी ऊपर दिखाई देती है|
गुरु कृपा से ही परा सुषुम्ना का द्वार खुलता है जो मूलाधार से आज्ञा चक्र तक है|
उससे भी आगे उत्तरा सुषुम्ना जो आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक है, में प्रवेश तो गुरु की अति विशेष कृपा से ही हो पाता है|
वहाँ जो ज्योति दिखाई देती है वही सविता देव की भर्गः ज्योति है जिसका ध्यान किया जाता है और जिसकी आराधना होती है| इसका क्रम इस प्रकार मेरुदंड व मस्तिष्क के सूक्ष्म चक्रों पर मानसिक जाप करते हुए है ---
ॐ भू: ------ मूलाधार चक्र,
ॐ भुवः ---- स्वाधिष्ठान चक्र,
ॐ स्वः ----- मणिपुर चक्र,
ॐ महः ---- अनाहत चक्र,
ॐ जनः -- -- विशुद्धि चक्र,
ॐ तपः ------ आज्ञा चक्र,
ॐ सत्यम् --- सहस्त्रार ||
फिर आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में विराट सर्वव्यापी श्वेत भर्ग: ज्योति का ध्यान किया जाता है और चित्त जब स्थिर हो जाता है तब फिर प्रार्थना की जाती है ----
"ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं| ॐ भर्गोदेवस्य धीमहि| ॐ धियो योन: प्रचोदयात||"
यह त्रिपदा गायत्री है| इसमें चौबीस अक्षर हैं|
सप्त व्याहृति के साथ गायत्री जाप करना चाहिए|
पहली विधि :--
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ॐ भू: -------- मूलाधार
ॐ भुवः ------ स्वाधिष्ठान
ॐ स्वः ------- मणिपुर
ॐ महः -------- अनाहत
ॐ जनः -------- विशुद्धि
ॐ तपः --------- आज्ञा
ॐ सत्यं --------- सहस्त्रार
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्यधीमहि धियोयोनःप्रचोदयात् ----------- सहस्त्रार |||
अंत में दाएं हाथ की तीन अन्गुलियों से स्पर्श करते हुए ----
आपोज्योति -------दाईं आँख
रसोsमृतं ---------- बाईं आँख
ब्रह्मभूर्भुवःस्वरों --- भ्रूमध्य
यह गायत्री क्रिया है| इसका जाप अधिकाधिक करना चाहिए||
दूसरी विधि :--
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(१) ॐ -- प्राण ऊर्जा को ब्रह्मरंध्र तक क्रिया प्राणायाम द्वारा लाकर वहीँ रहने दें| श्वास वहीँ छोड़ दें|
विचार रखिये कि ईश्वरीय ब्रह्म शक्ति और अतिमानस शक्ति सहस्रार में अवतरण कर रही है|
तीन बार गम्भीर और लम्बे श्वास लें|
(२) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से मूलाधार तक और भूः से बापस ब्रह्मरन्ध्र|
(३) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से स्वाधिष्ठान तक और र्भुव: से ब्रह्मरन्ध्र।
(४) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से मणिपुर तक और स्व: से मणिपुर से ब्रह्मरन्ध्र।
(५) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से अनाहत तक और महः से अनाहत से ब्रह्मरन्ध्र|
(६) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से विशुद्धि तक और जनः से विशुद्धि से ब्रह्मरन्ध्र|
(७) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से आज्ञा तक और तपः से आज्ञा से ब्रह्मरन्ध्र|
(८) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से ब्रह्मरन्ध्र तक और सत्यम् से ब्रह्मरन्ध्र से ब्रह्मरन्ध्र|
(९) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से मणिपुर तक और तत्सवितुर्वरेण्यं से ब्रह्मरन्ध्र तक|
(१०) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से विशुद्धि तक और भर्गो देवस्य धीमहि से ब्रह्मरन्ध्र तक|
(११) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से आज्ञा तक और धियोयोन:प्रचोदयात् से ब्रह्मरन्ध्र तक|
(१२) ॐ ---- ब्रह्मरन्ध्र से महाशून्य और बापस ब्रह्मरन्ध्र|
श्वास-प्रश्वास ब्रह्मरन्ध्र में ही|
चौबीस बार यह गायत्री क्रिया करनी है|
अंत में --
आपोज्योति -------दाईं आँख |
रसोsमृतं ---------- बाईं आँख |
ब्रह्मभूर्भुवःस्वरों --- भ्रूमध्य ||
सात व्याह्रतियों के साथ गायत्री मन्त्र और प्राणायाम ........
(गायत्री साधना की यौगिक व तांत्रिक विधि)
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यह एक जप है| जप से पूर्व संकल्प करना पड़ता है कि आप कितने जप करेंगे| जितनों का संकल्प लिया है उतने तो करने ही पड़ेंगे|
फिर उस ज्योति का ध्यान करते रहो और ॐ के साथ साथ ईश्वर की सर्वव्यापकता में मानसिक अजपा-जप करते रहो| ईश्वर की सर्वव्यापकता आप स्वयं ही हैं|
(पूरी विधि किसी शक्तिपात संपन्न सद्गुरु से सीखनी चाहिए)
समापन -- 'ॐ आपो ज्योति रसोsमृतं ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम्' से कर के लम्बे समय तक बैठे रहो अपने आसन पर और सर्वस्व के कल्याण की कामना करो| प्रभु को अपना सम्पूर्ण परम प्रेम अर्पित करो और आप स्वयं ही वह परम प्रेम बन जाओ|
मुझे एक संत ने बताया था कि ऋग्वेद में एक मंत्र है जिस में "गायत्री" शब्द आता है और उस मन्त्र के दर्शन बिश्वामित्र से बहुत पूर्व शव्याश्व्य ऋषि को हुए थे|
प्रचलित गायत्री मन्त्र के दृष्टा विश्वामित्र ऋषि थे| इस के चौबीस अक्षर हैं और तीन पद हैं| अतः यह त्रिपदा चौबीस अक्षरी गायत्री मन्त्र कहलाता है| बाद में अन्य महान ऋषियों ने गायत्री मंत्र से पहले "भू", भुवः, और "स्वः" ये तीन व्याह्रतियाँ भी जोड़ दीं| अतः पूरा मन्त्र अपने प्रचलित वर्त्तमान स्वरुप में आ गया|
यह सप्त व्याहृतियुक्त गायत्री साधना की विधि बहुत अधिक शक्तिशाली है और प्रभावी है|
ॐ तत्सत्| ॐ नमः शिवाय|
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पुनश्चः :---
सहस्त्रार के मध्य में एक एक विराट श्वेत ज्योति सदैव बिराजमान रहती है|
प्राण तत्व मेरु शीर्ष (शिखा स्थान) से देह में प्रवेश कर सहस्त्रार के माध्यम से मेरु दंड के सभी चक्रों में प्रवेश कर पूरी देह को जीवंत रखता है| समस्त ऊर्जा वहीं से प्राप्त होती है|
अपनी ऊर्जा को फालतू के कार्यों में व्यर्थ न कर चेतना के ऊर्ध्वगमन में ही खर्च करें|
अपनी चेतना निरंतर आज्ञा चक्र पर रखें जो ध्यान के समय स्वतः ही सहस्त्रार पर चली जायेगी|
आज्ञा चक्र के प्रति सचेत रहें और और प्रणव ध्वनी को सुनते रहें|
निरंतर ईश्वर के चिंतन से स्वयं परमात्मा ही आपकी चिंता करने लगेंगे|
ॐ शिव||
 

Sunday, 30 October 2016

दीपावली पर जगन्माता से प्रार्थना .....

दीपावली पर जगन्माता से प्रार्थना .....
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हे महाकाली, हमारे राग-द्वेष को नष्ट करो| यह राग-द्वेष हमारी सब बुराइयों का मूल है| इस राष्ट्र भारतवर्ष के भीतर और बाहर के सभी शत्रुओं का समूल नाश करो| सम्पूर्ण भारतवर्ष में कहीं भी अन्धकार और असत्य की शक्तियों का अस्तित्व न रहे|
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हे महालक्ष्मी, हमें सारे सद्गुण दो| इस राष्ट्र को द्विगुणित परम वैभव, सर्वशक्तिसम्पन्नता और परम ऐश्वर्य प्रदान करो| हम तपस्वी, तेजस्वी व शक्तिशाली बनें| हमें तप करने का सामर्थ्य दो| हमें निरंतर ब्रह्मचिंतन और स्वाध्याय करने की शक्ति और प्रेरणा दो|
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हे महासरस्वती, हमें आत्म-ज्ञान दो| इस राष्ट्र भारतवर्ष को आध्यात्म और ज्ञान के शिखर पर आरूढ़ करो| 
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पुनश्चः सभी को दीपावली की शुभ कामनाएँ | दीपावली का पर्व महामंगलमय हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

Saturday, 29 October 2016

प्रेम मेरा अस्तित्व है, कोई भावना नहीं .....

प्रेम मेरा अस्तित्व है, कोई भावना नहीं .....
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सब कुछ ब्रह्मस्वरूप है और वही ब्रह्म मेरा साक्षिस्वरूप है| 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में चार महावाक्य ..... १. ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म, २. ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि, ३. ॐ तत्त्वमसि, और ४. ॐ अयमात्मा ब्रह्म हैं|
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हे गुरु रुपी सर्वव्यापी भगवान परमशिव, आपकी दृष्टी में मैं निरंतर हूँ, आप सदा मेरी रक्षा कर रहे हैं| आप ही मेरे ज्योतिर्मय ब्रह्म हैं, आप ही मुझे निरंतर सुनाई देने वाली प्रणव ध्वनी है, आप ही मेरे प्राण हैं, और आप ही मेरे अस्तित्व है|
गुरुरूप में आप सदा मेरे कूटस्थ में हैं और आप ही मुझे ब्रह्मज्ञान दे रहे हैं|
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ध्यान में सदा आप मेरे सम्मुख रहते हैं, पर अब निरंतर हर समय मेरे सजग चैतन्य में रहें| "मैं" "मैं" नहीं अब "आप" ही "आप" हैं| मेरा कोई पृथक अस्तित्व ना हो, कोई भेद न हो| सिर्फ और सिर्फ बस आपका ही अस्तित्व रहे| मुझे अपने साथ एकाकार करो| आपकी पूर्णता मेरी पूर्णता हो| आपकी अनंतता मेरी अनंतता हो|
मैं आपकी शरणागत हूँ| मेरा कल्याण करो| मेरी निरंतर रक्षा करो|
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इस देह का भ्रूमध्य पूर्व दिशा है, सहस्त्रार उत्तर दिशा है, बिंदु विसर्ग पश्चिम दिशा है और उससे नीचे का क्षेत्र दक्षिण दिशा है|
हे परमशिव आप सहस्त्रार में मुझसे अपना ध्यान करवाते हैं जहाँ पूरे ब्रह्मांड से घनीभूत होकर आपकी परम कृपा और ज्ञानगंगा निरंतर तैलधारा की तरह मुझ पर बरसती है|
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मैं आपका परमप्रेम हूँ| प्रेम मेरा स्वभाव है| प्रेम ही मेरा अस्तित्व है, कोई भावना नहीं| उस परमप्रेम में ही आप और मैं एक हैं| कहीं कोई पृथकता नहीं है|
ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव !
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

आत्म ज्ञान .....

आत्म ज्ञान .....
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संत जन कहते हैं कि यदि कोई ऐसा ज्ञान है जिसे जानने के पश्चात अन्य कुछ भी जानने को नहीं है तो वह है --- "आत्मज्ञान"| आत्म ज्ञान ही आत्म तत्व है जिसे प्राप्त करने पश्चात अन्य कुछ भी प्राप्त करने को नहीं है| आत्म-तत्व स्वयं को प्राप्त नहीं होता, अपितु मुमुक्षु स्वयं ही आत्म-तत्व को प्राप्त हो जाता है| उसका कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता| वह समष्टि के साथ एकाकार हो जाता हैं|
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यही सच्चिदानंद की प्राप्ति है| ऐसे ज्ञानी के लिए कुछ भी भेद नहीं रहता| उसके लिए दृश्य, दृष्टा और दृष्टि एक ही हो जाती है| यही आत्मसाक्षात्कार है, यही परमात्मा की प्राप्ति है| आत्म तत्व को जानने के लिए पूर्ण समर्पण भाव से श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य गुरु के पास जाना चाहिए| उन गुरु आचार्य के द्वारा निर्दिष्ट साधना के द्वारा ही कोई मुमुक्षु आत्म तत्व का साक्षात्कार कर सकता है|
‘तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि:
श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ||’ (मु.उप. १.२.१२)
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गुरु लाभ भी प्रभु कृपा से ही होता है| इसके लिए भक्ति और गहन अभीप्सा चाहिए| उपनिषदों में आत्म तत्व का ज्ञान ही भरा पड़ा है| उपनिषदों को समझना बहुत कठिन है| अतः श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य गुरु के सत्संग और मार्गदर्शन में साधना अति आवश्यक है| उपनिषदों का ज्ञान प्रेरणा दे सकता है| ग्रंथों के अध्ययन मनन से सत्संग लाभ भी मिलता है और मुमुक्षत्व भी जागृत होता है|
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ह्रदय में अभीप्सा, प्रेम और समर्पण के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते|
गुरु के मार्गदर्शन में ध्यान साधना से देह की चेतना से ऊपर उठकर अनंत के विस्तार की अनुभूति और उस दिव्य पूर्णता के साथ एकाकार कि अनुभूति आत्म तत्व का बोध कराती है|
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श्री रमण महर्षि का मुख्य उपदेश यह था कि प्रत्येक मुमुक्षु को निरंतर स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि ---- "मैं कौन हूँ?" --- (कोSहं) | इसी का निरंतर चिंतन करते करते साधक सोSहं के सोपान तक पहुँच जाता है|
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अष्टावक्र गीता में अष्टावक्र जी कहते हैं कि संसार में चार प्रकार के पुरुष हैं ---- एक ज्ञानी, दूसरा मुमुक्षु, तीसरा अज्ञानी और चौथा मूढ़।
"जो संशय और विपर्यय से रहित होता है और आत्मानंद में आनंदित होता है वही ज्ञानी है।"
अष्टावक्र जी कहते हैं ---
देह को आत्मा मानने से जन्म मरण रूपी संसार चक्र में पुन: पुन: भ्रमण करता पड़ता है| तुम पृथ्वि नही हो और न तुम जलरूप हो, न अग्निरूप हो, न वायु रूप हो और न आकाशरूप हो । अर्थात इन पॉंचो तत्वों में से कोई भी तत्व तुम्हारा स्वंरूप नहीं है और पॉंचो तत्वों का समुदायरूप इंद्रियों का विषय जो यह स्थूल शरीर है वह भी तुम नहीं हो क्योंकि शरीर क्षण क्षण में परिणाम को प्राप्त होता जाता है।
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श्रुति कहती है - अयमात्मा ब्रह़म्। अर्थात जो आत्मा है वही ब्रहम् है, वही ईश्वर है।
जब मुमुक्षु --- स्थूल देह, इंद्रियों के विषयों आदि से परे हट कर साक्षी भाव में स्थित हो कर साक्षी भाव से भी ऊपर उठ जाए उस स्थिति का नाम आत्मज्ञान है|
अध्ययन से आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता| अध्ययन प्रेरणा दे सकता है और कुछ सीमा तक मार्गदर्शन कर सकता है, उससे अधिक नहीं| किसी के प्रवचन सुनकर भी आत्मज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता| राजा जनक एक अपवाद थे| प्रवचन सुनकर भी प्रेरणा और उत्साह ही प्राप्त हो सकता है|
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संत जन कहते हैं कि आत्म-ज्ञानी महात्मा (जो महत् तत्व से जुड़ा है) के चरण जिस भूमि पर पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है| वह कुल और परिवार धन्य हो जाता है जहाँ ऐसी महान आत्मा जन्म लेती है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

सनातन हिन्दू धर्म की विशेषता ....

सनातन हिन्दू धर्म की विशेषता ----
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इस विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी है| पर मैं यहाँ दो पंक्तियों में ही सनातन हिन्दू धर्म की विशेषता बता रहा हूँ|
परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम, परमात्मा को पाने की अभीप्सा और तड़प, परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण व त्याग, सर्वस्व के कल्याण की कामना व प्रार्थना, गुरु-शिष्य परम्परा, स्वरुची अनुसार परमात्मा के विभिन्न रूपों की उपासना , उदारता और सहनशीलता -------------- ये सब सनातन हिन्दू धर्म में ही है, अन्यत्र कहीं भी नहीं|
भारत हिन्दू राष्ट्र है और रहेगा| अन्धकार और असत्य अनेक बार फैला है पर सदा उसका अंत ही हुआ है| सनातन हिन्दू धर्म का सूर्य विश्व के समस्त अन्धकार और अज्ञानता को दूर करेगा|
वह देश जहाँ महाराजा पृथु जैसे सम्राट हुए जिन्होंने पूरी पृथ्वी पर राज्य किया, जिनके कारण इस ग्रह का नाम ही पृथ्वी पड़ा; जिस देश में भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण जैसे अवतार हुए, जहाँ याज्ञवल्क्य, अगस्त्य, वशिष्ठ और विश्वामित्र जैसे अनगिनत ऋषि हुए, दिलीप जैसे गौ रक्षक महाराजा, महाराज शिवी जैसे न्यायी राजा, भगवन सनत्कुमार जैसे ब्रह्मज्ञ, नारद, ध्रुव, प्रहलाद और हनुमानजी जैसे भक्त हुए, जहाँ वेद, वेदांगों, पुराणों, षड्दर्शनों, रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों की रचनाएँ हुईं, जहाँ भीष्म जैसे दृढ़व्रती महारथी और अर्जुन जैसे अनगिनत वीरों ने जन्म लिया, वह भूमि सदा सदा के लिए असत्य के अन्धकार में नहीं रह सकती|
एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति का उदय हो रहा है जो पुनश्चः एक विराट ब्रह्मतेज और क्षात्रत्व
को जन्म देगी| भारत माँ अपने परम वैभव के साथ पुनश्च अखण्डता के सिंहासन पर आसीन होंगी|
घर घर में वेदों के स्वर गूंजेंगे, यहाँ जन्म लेने वाली प्रत्येक आत्मा महान होगी| ईश्वर की अब यही इच्छा है अतः इसे अब कोई नहीं रोक सकता| यह अन्धकार अधिक समय तक नहीं रहेगा| आप चाहो या ना चाहो इस सत्य के आप साक्षी ही नहीं भागीदार भी बनोगे|
जय जननी, जय भारत, जय सनातन हिन्दू धर्म !!! ॐ तत्सत्|

दीपावली की शुभ कामनाएँ .....

दीपावली की शुभ कामनाएँ .....
हम सब का अज्ञान नष्ट हो| हमारे धन में निरंतर वृद्धि हो| मेरा एकमात्र धन तो ब्रह्म चिंतन और स्वाध्याय है| अन्य किसी धन की कामना नहीं है|
ज्योतिषांज्योति कूटस्थ ज्योति निरंतर प्रज्ज्वलित रहे|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

ध्यान किसका करें ?

***** ध्यान किसका करें ? *****
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ध्यान उसी का करना चाहिए जिसका न तो कभी जन्म हुआ है और न कभी मृत्यु होगी| वह कौन और क्या है जिसने न तो कभी जन्म लिया है, और न कभी मृत्यु को प्राप्त होगा? .....
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु तो अवश्य ही होगी|
पर जिसने कभी जन्म ही नहीं लिया, क्या वह मृत्यु को प्राप्त कर सकता है?
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हमारा अजन्मा स्वरुप क्या है जो कभी जन्म ही नहीं लेता?
जो अनादि और अनंत है, जिसने कभी जन्म ही नहीं लिया, हमारा वह अजन्मा स्वरुप, शुद्ध अजन्मा भाव क्या है?
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वह शिव भाव है|
सर्वव्यापी भगवान परम शिव में परम प्रेममय हो कर पूर्ण समर्पण करना ही उच्चतम साधना है|
वही मुक्ति है, और वही लक्ष्य है|
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अपने विचारों के प्रति सतत् सचेत रहिये| जैसा हम सोचते हैं वैसे ही बन जाते हैं|
हमारे विचार ही हमारे "कर्म" हैं, जिनका फल भोगना ही पड़ता है|
मन की हर इच्छा, हर कामना एक कर्म या क्रिया है जिसकी प्रतिक्रया अवश्य होती है| यही कर्मफल का नियम है|
अतः हम स्वयं को मुक्त करें ..... सब कामनाओं से, सब संकल्पों से, सब विचारों से, और निरंतर शिव भाव में रहें|
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परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम, परमात्मा को पाने की अभीप्सा और तड़प, परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण व त्याग, समष्टि के कल्याण की कामना व प्रार्थना, और कुछ भी नहीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!

ओमकार का जप ....

ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ||
ॐकार का मानसिक जाप ऐसे करो जैसे आप किसी झरने के मध्य में हो| निरंतर आ रही सबसे तेज ध्वनि को सुनते रहो और ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का मानसिक जाप करते रहो| वह ध्वनि तेल धारा के सामान अविछिन्न हो|
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भूल जाओ की आप यह देह हो| आप सर्वव्यापी आत्मा हो| सारी अनंतता और पूर्णता आप स्वयं ही हो| अपने अस्तित्व का लय उस ध्वनी में ही कर दो|
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जिस तरह से झरने का जल ऊपर से नीचे निरंतर प्रवाहित हो रहा है वैसे ही आशुतोष भगवान परमशिव दक्षिणामूर्ति की कृपा आप के सहस्त्रार चक्र पर पूरे ब्रह्मांड से एकत्र होकर बरस रही है|
ॐ नमः शिवाय |
ॐ ॐ ॐ ||

33 कोटि देवी देवता ......

33 कोटि देवी देवता ......
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यह एक गलतफहमी है कि 33 करोड़ देवी देवता हैं| देवता 33 कोटि यानि 33 प्रकार के हैं|
12 आदित्य है, 8 वसु हैं, 11 रूद्र हैं, 2 अश्विनी कुमार हैं.....
कुल................12 +8 +11 +2 =33.

नरकासुर-चतुर्दशी की शुभ कामनाएँ ......

(1) नरकासुर-चतुर्दशी की शुभ कामनाएँ ......
कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर चतुर्दशी कहते हैं| प्रागज्योतिषपुर नगर का राजा नरकासुर नाम का एक अति दुर्दांत अत्याचारी दैत्य था| वह संतों को त्रास देने लगा और महिलाओं पर अत्याचार करने लगा| उसने सौलह हजार एक सौ स्त्रियों को बन्दी बना लिया| जब उसका अत्याचार बहुत अधिक बढ़ गया तब देवता व ऋषि-मुनि भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गए| भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें नरकासुर से मुक्ति दिलाने का आश्वसान दिया|
नरकासुर को स्त्री के हाथों ही पराजित होना लिखा था| अतः भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को अपना सारथी बनाया और युद्ध के लिए प्रस्थान किया|
नरकासुर के साथ हुए युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण कछ क्षणों के लिए अपनी माया से मूर्छित हुए तो सत्यभामा ने नरकासुर के साथ युद्ध किया और अपने अस्त्रों के प्रहार से उसे पराजित कर दिया| भगवान श्रीकृष्ण ने तब उसका वध कर के सौलह हज़ार एक सौ स्त्रियों को उसकी क़ैद से मुक्त किया, और प्रजा को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई|
उस दिन कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी थी| प्रजा ने अपने घरों में दीपक जलाए| अतः इसे छोटी दीपावली भी कहते हैं|
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(2) रूप चतुर्दशी की शुभ कामनाएँ .....
कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को रूप चतुर्दशी भी कहते हैं| इस दिन सौन्दर्य रूप भगवान श्रीकृष्ण की पूजा होती है, और व्रत भी रखा जाता है|
प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व दीपक जलाकर, उबटन आदि लगाकर स्नान किया जाता है| इस दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान करना अनिवार्य है| इससे देह और चैतन्य में सौंदर्य आता है|
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(3) हनुमत्जयन्ती की शुभ कामनाएँ .....
विभिन्न मतों के अनुसार देश में हनुमान जयंती वर्ष में दो बार मनाई जाती है| पहली चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को व दूसरी कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को| बाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी का जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हुआ है| इस दिन हनुमान जी के भक्त हनुमान जी का षोडशोपचार पूजन करते हैं|
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पुनश्चः आप सब को शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन |
ॐ नमःशिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

धन तेरस .....

धन तेरस ..... (कृपया अन्यथा न लें, मेरे इस लेख का कोई बुरा न माने) ....
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आज कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन भगवान धन्वन्तरि का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस या धनत्रयोदशी के नाम से जाना जाता है| भारत सरकार इस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के रूप में मनाएगी| धन्वन्तरि देवताओं के चिकित्सक हैं और चिकित्सा के देवता माने जाते हैं इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण होता है| इसका लौकिक धन-संपत्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है|
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धनतेरस के संदर्भ में एक लोक कथा प्रचलित है कि एक बार यमराज से एक यमदूत ने पूछा कि अकाल-मृत्यु से बचने का कोई उपाय है क्या? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है| इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आँगण मे यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं|
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धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था| भगवान धन्वन्तरि चूंकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है| कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें तेरह गुणा वृद्धि होती है|
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सबसे बड़ा धन अच्छा स्वास्थ्य है| धनतेरस के दिन दीप जला कर भगवान से अच्छे स्वास्थ्य की प्रार्थना करें| बेकार में प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुसार सोना-चांदी आदि खरीदने के लिए न दौड़ें, और अपने बड़े परिश्रम से कमाए धन को नष्ट न करें| अपने स्वास्थ्य की रक्षा करें| धन्यवाद !
धन तेरस की शुभ कामनाएँ|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ !!

परमात्मा की परम कृपा से हमारा जन्म भारतवर्ष में हुआ है .......

परमात्मा की परम कृपा से हमारा जन्म भारतवर्ष में हुआ है .....
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परमात्मा की परम कृपा से हमारा जन्म भारतवर्ष में इसी लिए हुआ है कि हम धर्माचरण करते हुए इसी जन्म में परमात्मा को प्राप्त करें| जीवन बहुत छोटा है, इसे नष्ट न करें| धर्म का आचरण हमें करना ही होगा| धर्म .... आचरण से होता है, बातों से नहीं| धर्म का आचरण ही धर्म है, उसका विवरण नहीं|
धर्म की रक्षा भी हम धर्म का पालन कर के ही कर सकते हैं, उसकी महिमा का गान कर के नहीं| धर्म तभी होगा जब हम धर्म का आचरण करेंगे|
हम धर्म का आचरण करेंगे तभी भगवान हमारी रक्षा करेंगे, अन्यथा नहीं|
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किसी पुस्तक में लिखा हुआ धर्म नहीं हो सकता, आचरण में लाया हुआ ही धर्म है| हम उसको जीवन में क्रियान्वित करेंगे तभी वह धर्म होगा, अन्यथा नहीं|
कृपया मेरी बात को अन्यथा न लें, भगवान राम और कृष्ण की मात्र पूजा कर के हम उन के भक्त नहीं हो सकते| उनके जीवन के आदर्शों को अपने जीवन में अवतरित कर के और उन की तरह आचरण कर के ही हम उनके भक्त बन सकते हैं|
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किसी गुरु के शिष्य हम उन के उपदेशों का पालन कर के ही बन सकते हैं, उनकी जयजयकार कर के नहीं|
ईश्वर को जीवन का केंद्रबिंदु बनाकर और उन से प्रेम कर के ही हम भक्त बन सकते हैं, मात्र विश्वास करने या पुस्तक पढने से नहीं|
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ॐ तत्सत् || ॐ नमः शिवाय || ॐ ॐ ॐ ||

घर पर खूब सारा आध्यात्मिक साहित्य हिंदी भाषा में रखें .........

घर पर खूब सारा आध्यात्मिक साहित्य हिंदी भाषा में रखें .........
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मुझे आध्यात्म में रूचि इस लिए नहीं हुई कि किसी ने मुझे आध्यात्मिक साहित्य पढ़ने के लिए बाध्य किया| मेरे स्वर्गीय पिताजी ने हिंदी में बहुत सारा साहित्य घर पर रखा था जो हमें सदा उपलब्ध रहता था| बचपन में ही हमने रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ पढ़ लिए थे जिनकी स्मृति अभी तक है| 15 वर्ष की आयु तक तो सम्पूर्ण विवेकानंद साहित्य का अध्ययन कर लिया था, जिसका अवलोकन एक दो बार जीवन में फिर किया| किशोरावस्था में ही रमण महर्षि और स्वामी रामतीर्थ के साहित्य का भी अध्ययन कर लिया था| श्री अरविन्द की भाषा अत्यंत क्लिष्ट थी अतः कभी ठीक से समझ में नहीं आई| उनके महाकाव्य 'सावित्री' को समझने का कई बार प्रयास किया, कभी ठीक से समझ में नहीं आया तो प्रयास करना ही छोड़ दिया|
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अपनी स्वयं की भाषा में सद्साहित्य सदा घर पर रखना चाहिए| इसका बाल मन पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है| पहले हिंदी में 'धर्मयुग' और 'सप्ताहिक हिंदुस्तान' नाम की पत्रिकाएँ आती थीं जो बहुत ज्ञानवर्धक थीं| आजकल वैसी पत्रिकाएँ छपती ही नहीं हैं| मासिक 'कादम्बिनी' कभी बहुत अच्छी पत्रिका हुआ करती थी|
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आजकल सारा आध्यात्मिक साहित्य बहुत ऊँचे मूल्य पर अंग्रेजी भाषा में तो आसानी से मिल जाता है पर हिंदी में नहीं| लगता है अंग्रेजी में पाठक अधिक हैं और हिंदी में कम| इसलिए प्रकाशक को हिंदी में छापने पर कोई आर्थिक लाभ नहीं होता| हिंदी भाषा में छपे पुराने संस्करण जो बाजार में उपलब्ध नहीं हैं, वे भी दुबारा प्रकाशित नहीं हो रहे हैं| प्रकाशकों की इसमें रूचि नहीं है क्योंकी इससे उन्हें आर्थिक लाभ नहीं होता|
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हिंदी भाषी जिज्ञासुओं को चाहिए कि अच्छे सद्साहित्य को खरीद कर भावी पीढ़ी को संस्कारित करने हेतु घर में खरीद कर रखें| घर में अच्छा साहित्य होगा तो बच्चे अवश्य पढेंगे और उनमें स्वतः अच्छे संस्कार जागृत होंगे| हिंदी में बिक्री अधिक होगी तो उनका प्रकाशन भी अधिक होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

मेरी पीड़ा .....

मेरी पीड़ा .....
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यों तो समष्टि की पीड़ा मेरी ही पीड़ा है, पर भारतवर्ष की पीड़ा विशेष रूप से मेरी पीड़ा है, क्योंकि धर्म, आध्यात्म और परमात्मा की सर्वाधिक और सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारतवर्ष में ही हुई है| भारतवर्ष की उन्नति मेरी उन्नति है और मेरी उन्नति पूरे भारतवर्ष की उन्नति है| पूरा भारतवर्ष दुखी है तो मैं दुखी हूँ, और मैं सुखी हूँ तो पूरा भारतवर्ष सुखी है| मेरी चेतना का विस्तार ही पूरे भारतवर्ष की चेतना का विस्तार है| भारतवर्ष में धर्म और संस्कृति के ह्रास और पतन से मैं बहुत व्यथित हूँ, मेरी भावनाएँ बहुत अधिक आहत हैं, और यह मेरा ही पतन है|
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मैं यह लेख आप सब विभिन्न देहों में व्यक्त मेरी ही निजात्माओं के लिए लिख रहा हूँ| वैसे तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और सृष्टि आप ही हैं| सारे नक्षत्रमंडल, ग्रह , उपग्रह और विश्व आप की ही अभिव्यक्ति हैं| आप यह देह नहीं, सर्वव्यापी शाश्वत आत्मा हैं और परमात्मा के दिव्य अमृत पुत्र हैं|
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भारतवर्ष का आप पर एक विशेष ऋण है जो आप को चुकाना ही पडेगा क्योंकि यह भागवत चेतना आपको भारतवर्ष ने ही दी है|
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पूरी सृष्टि में इस पृथ्वी का एक विशिष्ट स्थान है और इस पृथ्वी पर भारतवर्ष का एक विशेष स्थान है क्योंकि भारत एक आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र है और परमात्मा की सर्वाधिक उपस्थिति भारतवर्ष में ही है| भारत वर्ष में भी आपका ही एक विशिष्ट स्थान है|
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सारी सृष्टि का भविष्य इस पृथ्वी पर है, इस पृथ्वी का भविष्य भारतवर्ष व सनातन हिन्दू धर्म पर है और भारतवर्ष व सनातन हिन्दू धर्म का भविष्य आप पर निर्भर है|
और भी स्पष्ट शब्दों में आप पर ही पूरी सृष्टि का भविष्य निर्भर है|
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हर प्राणी में परम सत्ता का अस्तित्व है, आवश्यकता है उसे पहिचानने व योग साधना द्वारा जागृत कर लोक कल्याण के मार्ग पर मोड़ देने की| राष्ट्र के उत्थान में समष्टि के उत्थान के सूत्र जुड़े हैं, और समष्टि के कल्याण से व्यक्ति के कल्याण के सूत्र जुड़े हैं| संसार से मुंह मोड़ना मोक्ष का मार्ग नहीं है| जो निर्वाण चाहते हैं, वे सांसारिक कर्मों को अवसर देते हैं कि वे मुक्ति का मार्ग बन जाएं| यह संसार भी एक चेतना है, सभी प्राणियों में ईश्वर का सूक्ष्म अस्तित्व है| मनुष्य की क्रियाओं का संचालन परमसत्ता से आदेशित है इसलिए वे भी आध्यात्मिक उपलब्धि का साधन बन सकती हैं जो योग साधना के द्वारा संभव है|
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संपूर्ण दर्शन का सार या निचोड़ है ..... योग साधना के माध्यम से, व्यक्ति अपना आंतरिक विकास करे, और अपने ही अंदर की मानसिक चेतना से ऐसी उच्चतर, आध्यात्मिक व अतिमानसिक चेतना को विकसित करे जो मानव प्रकृति को रूपांतरित कर उसे दिव्य बना दे| इसी में जीवन की पूर्णता है, इसी में भागवत चेतना से मिलन है|
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हे जन्म भूमि भारत, हे कर्म भूमि भारत
हे वन्दनीय भारत अभिनंदनीय भारत
जीवन सुमन चढ़ाकर आराधना करेंगे
तेरी जनम-जनम भर, हम वंदना करेंगे
हम अर्चना करेंगे ||१||

महिमा महान तू है, गौरव निधान तू है
तू प्राण है हमारी जननी समान तू है
तेरे लिए जियेंगे,तेरे लिए मरेंगे
तेरे लिए जनम भर हम साधना करेंगे
हम अर्चना करेंगे ||२||
जिसका मुकुट हिमालय, जग जगमगा रहा है
सागर जिसे रतन की,अंजुली चढा रहा है
वह देश है हमारा,ललकार कर कहेंगे
इस देश के बिना हम,जीवित नहीं रहेंगे
हम अर्चना करेंगे ||३||
(संघ का एक गीत)
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ॐ तत्सत् | आप सब दिव्यात्माओं को नमन ! ॐ ॐ ॐ ||

सनातन हिन्दू धर्म क़ा प्राण है परमात्मा के प्रति अहैतुकी पूर्ण परम प्रेम, समर्पण और ध्यान साधना .....

सनातन हिन्दू धर्म क़ा प्राण है ..... परमात्मा के प्रति अहैतुकी पूर्ण परम प्रेम, समर्पण और ध्यान साधना .....
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इस बात की चर्चा बहुत कम होती है कि सनातन हिन्दू धर्म की ऐसी कौन सी विशेषता और शक्ति है जिसने अत्यधिक भयावह क्रूरतम मर्मान्तक प्रहारों के पश्चात भी इसे कालजयी और अमर बना रखा है| मनीषीगण इसे समझते भी हैं| अधिकाँश लोग कर्मकांड को ही हिन्दू धर्म समझते हैं जो सत्य नहीं है| कर्मकांड तो मात्र एक व्यवस्था है जिसमें समय समय पर परिवर्तन होते रहे हैं, पर यह धर्म का मूल बिंदु नहीं है|
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सनातन हिन्दू धर्म क़ा प्राण है ..... परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम, पूर्ण समर्पण और ध्यान साधना| जब तक हिन्दुओं में दस लोग भी ऐसे हैं जो भगवान से जुड़े हुए हैं तब तक भारत व सनातन हिन्दू धर्म का नाश नहीं हो सकता| यही सनातन धर्म का सार है| यही भारत की अस्मिता है| भारत का उद्धार और विस्तार भी ऐसे महापुरुष ही करेंगे जो भगवान को पूर्णरूपेण समर्पित हैं|
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घोर वन की भयावहता में रात्रि के अन्धकार में सिंहनी जब दहाड़ मारती है तब सारा वन काँप उठता है और सारे पशु भयभीत होकर भागने लगते हैं| उस समय सिंहनी के पास खडा सिंहशावक क्या भयभीत होता है? उसे अपनी माता के प्रेम पर भरोसा है और माँ से प्रेम है| भगवान हमारी माता भी हैं| वे जब हैं तो भय कैसा? वे तो सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करते हैं|
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भारत का सबसे बड़ा अहित किया है अधर्मसापेक्ष यानि धर्मनिरपेक्ष अधर्मी सेकुलरवाद, मार्क्सवाद और मैकाले की शिक्षा व्यवस्था ने| विडम्बना है कि आधुनिक भारत के अनेक साहित्यकारों ने धर्मनिरपेक्षता (अधर्मसापेक्षता) और मार्क्सवाद को बढ़ावा दिया है जिसका दुष्प्रभाव समाज पर पड़ा है, जिसके कारण समाज में धर्म का ह्रास और ग्लानि भी हुई है| समाज में चरित्रहीनता अधर्मसापेक्षता (धर्मनिरपेक्षता) के कारण ही है|
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भारत की अस्मिता हमारे धर्म, संस्कृति व आदर्शों (भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण) पर गर्व हम में हो| हमारे जीवन का केंद्रबिंदु परमात्मा हों और हम उन्हें शरणागति द्वारा समर्पित हों ..... यही सर्वश्रेष्ठ कार्य है जिसे हम इस जीवन में कर सकते हैं|
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ॐ तत्सत | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

भारतवर्ष में धर्म और संस्कृति के ह्रास और पतन से मैं बहुत व्यथित हूँ .....

भारतवर्ष में धर्म और संस्कृति के ह्रास और पतन से मैं बहुत व्यथित हूँ| राष्ट्र की समस्याओं और समाधान का भास निज चेतना में है|
मेरी भावनाएँ बहुत आहत हैं| पर समाधान क्या है ???
पूरी सृष्टि परमात्मा के संकल्प से बनी है| उस परमात्मा से जुड़कर, उसके संकल्प से जुड़कर ही कोई समाधान निकल सकता हैं|
इसके लिए समर्पण और साधना करनी होगी|
किसी भी विषयपर बिना उस विषय के प्रत्यक्ष अनुभव के, किसी भी तरह के बौद्धिक निर्णय पर पहुँचना -- अहंकार का लक्षण है जो एक अज्ञानता ही है| ऐसा नहीं होना चाहिए|
भगवान भुवन भास्कर उदित होने पर कभी नहीं कहते की मैं आ गया हूँ| उनकी उपस्थिति मात्र से सभी प्राणी उठ जाते हैं| उनकी उपस्थिति में कहीं भी कोई अन्धकार नहीं रहता|
उनकी तरह ही निज जीवन को ज्योतिर्मय बनाना होगा तभी अन्धकार और अज्ञानता को दूर कर समाज और राष्ट्र को आलोकित किया जा सकता है|
सिर्फ बुद्धि से आप किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच सकते| किसी भी मान्यता के पीछे निज अनुभव भी होना चाहिए|
व्यक्तिगत जीवन की व्यस्तताओं के कारण कुछ समय के लिए आध्यात्मिक लेखों की प्रस्तुति पर अस्थायी विराम लगा रहा हूँ| जब भी प्रभु से प्रेरणा मिलेगी पुनश्चः उपस्थित हो जाऊँगा|
आपके जीवन में शुभ ही शुभ हो| आप सब मेरी ही निजात्मा हैं| आप सब के हृदयस्थ प्रभु को प्रणाम|
ॐ नमो नारायण ! जय जय श्री सीताराम !

जीवन की किसी भी जटिल समस्या और बुराई का समाधान मात्र स्वयं के प्रयास से नहीं हो सकता ...

मेरा अब तक का यह अनुभव है जो आप सब के साथ बाँट रहा हूँ .......
जीवन की किसी भी जटिल समस्या और बुराई का समाधान मात्र स्वयं के प्रयास से नहीं हो सकता| परमात्मा की करुणामयी कृपा का होना अति आवश्यक है|
निष्काम भाव से परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम और समर्पण ही सब समस्याओं का समाधान है| फिर योग-क्षेम का वहन वे ही करने के लिए वचनबद्ध हैं|
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आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य के स्थान को स्थायी रूप से परमात्मा के लिए आरक्षित रखें| बार बार यह देखें कि देह में हमारी चेतना कहाँ है| जहाँ हमारी चेतना होगी वैसे ही विचार आयेंगे| यदि हमारी चेतना नाभि के नीचे है तो यह खतरे की घंटी है| प्रयास पूर्वक अपनी चेतना को नाभि से ऊपर ही रखें|
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कुछ प्राणायाम और योगासनों जैसे सूर्य नमस्कार, पश्चिमोत्तानासन, महामुद्रा, मूलबन्ध उड्डियानबंध जलंधरबंध आदि का नियमित अभ्यास हमारी चेतना को बहुत अधिक प्रभावित करता है| मेरुदंड को सीधा रखकर बैठकर भ्रूमध्य में ध्यान और अजपाजप करने से चेतना ऊर्ध्वमुखी होती है| भागवत मन्त्र का यथासंभव हर समय मानसिक जाप हमारी किसी भी परिस्थिति में रक्षा करता है|
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लक्ष्य एक ही है ..... वह है ..... परमात्मा कि प्राप्ति| जब तक परमात्मा को उपलब्ध न हों तब तक इधर उधर ना देखें, अपने सामने अपने लक्ष्य को ही सदा रखें|
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शुभ कामनाएँ और प्रणाम | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

रूस की अक्टूबर क्रांति क्या सचमुच एक महान क्रांति थी या भयंकर छलावा थी ?........

(एक धर्म-विरोधी विचारधारा पर एक लघु खंडनात्मक चर्चा)
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रूस की अक्टूबर क्रांति क्या सचमुच एक महान क्रांति थी या भयंकर छलावा थी?........
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7 नवंबर 1917 (रूसी कैलेंडर 25 अक्टूबर) को हुई बोल्शेविक क्रांति पिछले एक सौ वर्षों में हुई विश्व की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी जिसे महान अक्टूबर क्रांति का नाम दिया गया है| इसका प्रभाव इतना व्यापक था कि रूस में जारशाही का अंत हुआ और मार्क्सवादी सता स्थापित हुई व सोवियत संघ का जन्म हुआ|
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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद योरोप के अनेक देशों में रूसी प्रभाव से साम्यवादी शासन स्थापित हुए| चीन में माओत्सेतुंग के नेतृत्व में साम्यवादी सता में आये| उत्तरी कोरिया और उत्तरी वियतनाम में साम्यवादी सरकारें बनीं| क्यूबा में साम्यवादियों ने सरकार बनाई|
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पर मेरे दृष्टिकोण से यह तथाकथित क्रांति एक छलावा थी| मार्क्सवादी साम्यवाद ने विश्व की चेतना को नकारात्मक रूप से बहुत अधिक प्रभावित किया | यह मार्क्सवादी साम्यवाद एक छलावा था जिसने मेरे जैसे लाखों लोगों को भ्रमित किया| मुझे इसके छलावे से निकलने में बहुत समय लगा| बाद में मेरे जैसे और भी अनेक लोग इस अति भौतिक व धर्म-विरोधी विचारधारा के भ्रमजाल से मुक्त हुए|
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विश्व में जहाँ भी साम्यवादी सत्ताएँ स्थापित हुईं वे अपने पीछे एक विनाशलीला छोड़ गईं| इनके द्वारा अपने ही करोड़ों लोगों का भयानक नरसंहार हुआ और मानवीय चेतना का अत्यधिक ह्रास हुआ| अब तो विश्व इसके प्रभाव से मुक्त हो चुका है| सिर्फ उत्तरी कोरिया में ही एक निरंकुश तानाशाही द्वारा यह व्यवस्था बची हुई है| भारत में भी मार्क्सवाद के बहुत अधिक अनुयायी हैं|
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यह एक धर्म-विरोधी व्यवस्था थी इसलिए मैं यह लेख लिख रहा हूँ|
यह क्रांति कोई सर्वहारा की क्रांति नहीं थी| यह एक सैनिक विद्रोह था जो वोल्गा नदी में खड़े औरोरा नामक युद्धपोत से आरम्भ हुआ और सारी रुसी सेना में फ़ैल गया था| इस विद्रोह का कोई नेता नहीं था अतः फ़्रांस में निर्वासित जीवन जी रहे व्लादिमीर इलीइच लेनिन ने जर्मनी की सहायता से रूस में आकर इस विद्रोह का नेतृत्व संभाल लिया और इसे सर्वहारा की मार्क्सवादी क्रांति का रूप दे दिया|
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इस सैनिक विद्रोह की पृष्ठभूमि में जाने के लिए तत्कालीन रूस की भौगोलिक, राजनितिक, सैनिक व आर्थिक स्थिति को समझना होगा| रूस में भूमि तो बहुत है पर उपजाऊ भूमि बहुत कम है| रूस सदा से एक विस्तारवादी देश रहा है| इसने फैलते फैलते पूरा साइबेरिया, अलास्का और मंचूरिया अपने अधिकार में ले लिया था| उसका अगला लक्ष्य कोरिया को अपने अधिकार में लेने का था| रूस की इस योजना से जापान में बड़ी उत्तेजना और आक्रोश फ़ैल गया क्योंकी जापान का बाहरी विश्व से सम्बन्ध कोरिया के माध्यम से ही था| अतः जापान ने युद्ध की तैयारियाँ कर के अपनी सेनाएँ रूस के सुदूर पूर्व और मंचूरिया में उतार दीं| रूस और जापान में युद्ध हुआ जिसमें रूस पराजित हुआ| जापान ने पूरा मंचूरिया उसकी राजधानी पोर्ट आर्थर सहित रूस से छीन लिया| जार ने अपनी नौसेना को युद्ध के लिए भेजा जो बाल्टिक सागर से हजारों मील की दूरी तय कर अफ्रीका का चक्कर लगाकर जब तक मेडागास्कर पहुंची, मंचुरिया का पतन हो गया था| फिर भी रुसी नौसेना सुंडा जलडमरूमध्य और दक्षिण चीन सागर होती हुई सुदूर पूर्व में व्लादिवोस्टोक की ओर रवाना हुईं| जब रुसी नौसेना त्शुशीमा जलडमरूमध्य को पार कर रही थी तब जापान की नौसेना ने अचानक आक्रमण कर के पुरे रूसी नौसेनिक बेड़े को डुबा दिया, जिसमें से कोई भी जहाज नहीं बचा और हज़ारों रुसी सैनिक डूब कर मर गए| यह एक ऐसी घटना थी जिससे रूसी सेना में और रूस में एक घोर निराशा फ़ैल गयी|
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बाद में हुए प्रथम विश्व युद्ध में रुसी सेना की बहुत दुर्गति हुई| रुसी सेना के पास न तो अच्छे हथियार थे और न अच्छे वस्त्र और न पर्याप्त खाद्य सामग्री| जितने सैनिक युद्ध में मरे उससे अधिक सैनिक तो भूख और ठण्ड से मर गए| अतः सेना में अत्यधिक आक्रोश था अपने शासक जार के प्रति| रूस में भी खाद्य सामग्री की बहुत अधिक कमी थी और पेट भर के खाना सभी को नहीं मिलता था| अतः वहां की प्रजा भी अपने शासक के प्रति आक्रोशित थी|
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उपरोक्त परिस्थितियों में रूस में तथाकथित महान अक्टूबर क्रांति हुई| जो सैनिक इसके पक्ष में थे वे बहु संख्या में थे अतः "बोल्शेविक" कहलाये और जो वहां के शासक के पक्ष में अल्प संख्या में थे वे "मेन्शेविक" कहलाये| उनमें युद्ध हुआ और बोल्शेविक जीते अतः यह क्रांति बोल्शेविक क्रांति कहलाई|
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फिर रूस में क्या हुआ और कैसे साम्यवाद अन्य देशों में फैला यह तो सब को पता है|
चीन में साम्यवाद रूस की सैनिक सहायता से आया| माओ के long march में स्टालिन के भेजे हुए रुसी सेना के tanks भी थे जिनके कारण ही माओ सत्ता में आ पाए|
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विश्व की चेतना को इस प्रभाव से निकलना ही था अतः आने वाले समय के लिए यह भी होना आवश्यक था| मार्क्सवादी सत्ताओं ने धर्म की जड़ों को उखाड़ कर फैंक दिया था| पर अब वहाँ धर्म पुनर्स्थापित हो रहा है|
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साम्यवाद का मूल स्रोत ब्रिटेन है| जैसे भारतीय सभ्यता को नष्ट करने के षडयंत्र ब्रिटेन से आरम्भ हुए, वैसे ही रूस को नष्ट करने के भी| जर्मनी से उपद्रवी मार्क्स को ब्रिटेन बुलाया गया| उसके साहित्य को ब्रिटेन में तो नहीं पढ़ाया गया पर सरकारी खर्च से उसके साहित्य को छाप कर पूरे विश्व में फैलाया गया| भारत में साम्यवादी विचारधारा को ब्रिटेन से लाने का श्री ऍम.ऐन. रॉय को है| दुनिया के सारे उपद्रवियों को ब्रिटेन में शरण मिल जाती है|

अब तो रूस में सनातन धर्म जिस गति से फ़ैल रहा है उससे लगता है रूस का भावी धर्म सनातन धर्म ही होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

पाप क्या है और पापी कौन है ? .....

पाप क्या है और पापी कौन है ? ......
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अपने आत्म-तत्व की विस्मृति ही सबसे बड़ा पाप है|
अपने आप को पापी कहना भी पाप है| ह्रदय में तो साक्षात भगवान नारायण बैठे हैं| सत्य ज्ञान अनंत परम ब्रह्म सच्चिदानंद का चैतन्य हमारे ह्रदय में प्रकाशित है| वैश्वानर के रूप में वे हमारे उदर में भी विराजित हैं| स्वयं को पापी कहना क्या परमात्मा को गाली देना नहीं हो गया?
उस आत्म-तत्व का अनुसंधान और उसमें स्थिति ही सबसे बड़ी साधना है|

आप में कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का आलोक ही बाहर के तिमिर का नाश कर सकता है .....

आप में कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का आलोक ही बाहर के तिमिर का नाश कर सकता है | आप अपने सर्वव्यापी शिवरूप में स्थित हो सम्पूर्ण समष्टि का कल्याण करने अवतरित हुए हो | आप सामान्य मनुष्य नहीं, परमात्मा की अमृतमय अभिव्यक्ति हो, साक्षात शिव परमब्रह्म हो | जिस पर भी आपकी दृष्टि पड़े वह तत्क्षण परम प्रेममय हो निहाल हो जाए | जो आपको देखे वह भी तत्क्षण धन्य हो जाए |
भगवान कहीं आसमान से नहीं उतरने वाले, अपने स्वयं के अन्तर में उन्हें जागृत करना होगा |
सब का कल्याण हो |
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ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

Sunday, 23 October 2016

स्वयं की पीड़ा .....

मैं स्वयं की पीड़ा, स्वयं का दुःख और कष्ट तो सहन कर लेता हूँ, पर जो लोग मुझ से जुड़े हुए हैं उनका कष्ट सहन नहीं कर पाता| देखा जाय तो सारी सृष्टि वास्तव में मुझ से ही जुड़ी है|
यह संसार सचमुच दुःख का सागर है| सुख और दुःख से परे की भी कोई तो स्थिति अवश्य ही होगी? असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ ही इस समय छाई हुई हैं| कोई इसे माया कहता है, कोई कुछ और, पर ये भी असत्य नहीं हैं|
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कोई कहता है ...... मनुष्य का अहंकार दुखी है, कोई कर्मों का खेल बताता है, तो कोई कुछ और| दुःखी मनुष्य बेचारा ठगों के चक्कर में पड़ जाता है जो आस्थाओं के नाम पर उसका सब कुछ ठग लेते हैं|
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हे प्रभु, यह सृष्टि तुम्हारी है, यह तुम्हारी ही रचना है और तुम स्वयं ही इसके जिम्मेदार हो| सारे सुख-दुःख तुम्हारे हैं| सबकी रक्षा करो| सबको दुखों से मुक्त करो|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

साधनाओं का पुस्तकीय ज्ञान और गुरु-प्रदत्त ज्ञान ..........

साधनाओं का पुस्तकीय ज्ञान और गुरु-प्रदत्त ज्ञान ..........
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पुस्तकों से और विद्वानों से प्राप्त ज्ञान मात्र बौद्धिक होता है | वह अवचेतन मन में और चित्त में नहीं उतरता |
योग और तंत्र मार्ग में कई साधनाएँ गोपनीय रखी गयी हैं, इसका एकमात्र कारण यह है कि उनका परिणाम दुधारी तलवार की तरह है | उन साधनाओं में साधनाकाल में आचार विचार के बड़े कठोर नियमों जैसे ...यम, नियम...आदि का पालन करना पड़ता है, अन्यथा साधक को कभी ठीक न होने वाली गंभीर दिमागी विकृति हो सकती है | वह आसुरी शक्तियों का एक उपकरण भी बन सकता है | देवता के स्थान पर वह असुर भी बन सकता है | इसलिए पात्रता देखकर ही सद्गुरु शिष्य को उनका ज्ञान देता है और साधनाकाल में सद्गुरु अपने शिष्य की रक्षा भी करता है | मेरा एक सहकर्मी अधिकारी बड़ा प्रखर विद्वान्. चरित्रवान और अच्छा ध्यानयोग साधक था पर कालान्तर में कुसंगति के प्रभाव से आसुरी स्वभाव का होकर एक शराबी, मांसाहारी और परस्त्रीगामी भ्रष्ट असुर हो गया | उसके सारे सद्गुण समाप्त हो गए |
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अपनी बौद्धिक जिज्ञासा को शांत करने के लिए साधनाओं के बारे में जानने में कोई बुराई नहीं है | पर साधना सदा एक ब्रह्मनिष्ठ श्रोत्रिय (जो वेद उपनिषद् आदि श्रुतियों का ज्ञाता और उनका अनुगामी हो) सिद्ध सद्गुरु के मार्गदर्शन में ही आरम्भ करनी चाहिए | सद्गुरु से प्राप्त ज्ञान सीधा गहन चेतना में उतरता है और गुरु का सान्निध्य निरंतर हर प्रकार की भावी विपत्तियों से रक्षा भी करता है |
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भगवान की अहैतुकी भक्ति निरापद है | उसमें कोई खतरा नहीं है | भक्ति के बिना किसी भी मार्ग की साधना सफल नहीं होतीं | भगवान से प्रार्थना करने पर निश्चित रूप से मार्गदर्शन प्राप्त होता है|
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आप सब निजात्माओं को सादर नमन | ॐ नमः शिवाय | ॐॐॐ ||

परमात्मा के लिए एक अभीप्सा यानि एक अतृप्त प्यास सदा ह्रदय में रहे .....

परमात्मा के लिए एक अभीप्सा यानि एक अतृप्त प्यास सदा ह्रदय में रहे .....
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परमात्मा की उपस्थिति का निरंतर आभास रहे| यही उपासना है| उपास्य के गुण उपासक में आये बिना नहीं रहते| परमात्मा की प्राप्ति की तड़प में समस्त इच्छाएँ विलीन हों और अचेतन मन में छिपी वासनाएँ नष्ट हों|
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परमात्मा को पाने की लगन होगी तो प्रकृति पूर्ण सहयोग करेगी| जब भी समय मिले भ्रूमध्य में पूर्ण भक्ति के साथ ध्यान कीजिये| निष्ठा और साहस के साथ हर बाधा को पार करें| अपने आप धीरे धीरे ध्यान का केंद्र सहस्त्रार हो जाएगा|
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परमात्मा से सिर्फ परमात्मा के लिए ही प्रार्थना करें| अन्य प्रार्थनाएँ महत्वहीन हैं| परमात्मा की शक्ति सदा हमारे साथ है| उससे जुड़कर ही हमारे शिव संकल्प पूर्ण हो सकते हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

शुभ काम में देरी ना करो .....

शुभ काम में देरी ना करो .....
जो कल करना है सो आज करो, और जो आज करना है वह अभी करो|
सर्वाधिक शुभ कार्य है ..... भक्तिपूर्वक परमात्मा का ध्यान, जिसे आगे पर ना टालें|
मैं योगमार्ग का एक साधक हूँ अतः वही कहने का प्रयास करता हूँ जो निज जीवन में होता है| बाकी का मुझे कोई ज्ञान नहीं है| लिखने में कई बार अशुद्धि भी हो जाती है, जिसका जब भी अवसर मिलता है संशोधन कर लेता हूँ|
पिछलें कुछ दिनों में कुछ लेखों में चक्रभेद/ग्रंथिभेद आदि की कुछ चर्चाएँ की है| उसी क्रम में आगे की कुछ और चर्चा भी करते हैं|
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कुछ महीनों तक अजपा-जप और ओंकार का ध्यान करते करते साधक को मेरुदंड के निचले भाग में ऐसी अनुभूति होने लगती है जैसे कोई पीछे गुदा से कुछ ऊपर के भाग पर ठोकर मार रहा हो, या कुछ सनसनाहट सी ऊपर की ओर उठ रही हो| यह एक स्वाभाविक अनुभूति है जिसमें घबराने की कोई बात नहीं है| जब साँस लेते हैं तब ऐसे लगता है जैसे कोई विद्युत प्रवाह ऊपर उठ रहा हो, और साँस छोड़ते समय वह प्रवाह नीचे जा रहा हो| कई बार भक्ति के अतिरेक में या किसी महात्मा के सत्संग में ऐसी अनुभूति और भी अधिक प्रबल हो जाती है| यह सुषुम्ना में कुण्डलिनी का जागरण है| >>>>> इसकी किसी से चर्चा भी नहीं करनी चाहिए| यह एक व्यक्तिगत और गोपनीय अनुभूति है|<<<<<
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यह सुषुम्ना में प्राण ऊर्जा का संचलन है| श्वास-प्रश्वास इसी की प्रतिक्रया है| अब साधक की दृष्टी तो भ्रूमध्य पर रहे, चेतना सर्वव्यापी रहे, पर सजगता उस ऊर्जा संचलन पर रहे|
जब हम साइकिल चलाते हैं तब पैडल भी मारते हैं, हेंडल भी पकड़ते हैं, ब्रेक पर अंगुली भी रखते है, सामने भी देखते हैं, और यह भी याद रखते हैं कि कहाँ जाना है| इतने सारे काम एक साथ करने पड़ते हैं अन्यथा हम साइकिल नहीं चला पाएंगे|
वैसे ही यह ध्यान साधना है जिसमें परमात्मा की सर्वव्यापकता का भी ध्यान करते हैं, गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र का मानसिक चेतना में जाप भी करते हैं, दृष्टी भ्रूमध्य पर भी रखते हैं, और मेरु दंड में हो रही उठक -पटक के प्रति सजग भी रहते हैं, और प्रेमपूर्वक अपने अहं का समर्पण भी करते हैं| इतने सारे काम एकसाथ करने पड़ते हैं, अन्यथा हम साधना नहीं कर पाएंगे|
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अब प्रयासपूर्वक सुषुम्ना नाड़ी में अपनी चेतना को स्वाभाविक रूप से नाभि से ऊपर के चक्रों में ही रखेंगे| ऐसा करते करते यानि ऐसा बनते बनते हमारी बात बन जायेगी|
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अब और भी आगे की चर्चा करते हैं|
आज्ञाचक्र से सुषुम्ना दो भागों में विभक्त हो जाती है| एक भाग भ्रूमध्य की ओर से सहस्त्रार को जाता है, जो परासुषुम्ना है, और दूसरा भाग सीधा सहस्त्रार की ओर जाता है, वह "उत्तरा सुषुम्ना" है| यह उत्तरा सुषुम्ना का द्वार सिर्फ विशेष गुरुकृपा से ही खुलता है| परमात्मा की कृपा से यदि उत्तरा सुषुम्ना में प्रवेश हो जाए तब चेतना को निरंतर वहीं रखने का प्रयास करन चाहिए|
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गुरुकृपा से जब कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है तब वह मूलाधार से आज्ञाचक्र तक के क्षेत्र में विचरण करती है| आज्ञाचक्र का भेदन होने पर वह भ्रूमध्य से सहस्त्रार में प्रवेश करती है|
उत्तरा सुषुम्ना में जागृत कुण्डलिनी "परम कुण्डलिनी" या "परा कुण्डलिनी" कहलाती है| यह उत्तरा सुषुम्ना का मार्ग महामोक्षदायी और सूर्य की तरह ज्योतिर्मय है| इसमें ब्रह्मा, विष्णु और महादेव की शक्तियाँ निहित हैं| इसमें अपनी चेतना को लाकर साधक साधना द्वारा शिवमय हो सकता है| पर इसमें प्रवेश सिद्ध गुरु की परम कृपा से ही होता है| गुरु शिष्य का परम हितैषी होता है| वह न केवल भगवद्प्राप्ति का मार्ग बताता है, शिष्य की भावी विपत्तियों से रक्षा भी करता है|
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यह साधना स्वभाव बन जानी चाहिए| इस दुःखपूर्ण संसार से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय है ..... स्व-भाव, अर्थात आत्मज्ञान| इस स्वभाव का ही दूसरा नाम है 'चिदाकाश'|
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यहाँ जो बताया गया है वह सिर्फ परिचयात्मक ही है| अब बापस साधना पथ पर लौटेगे| गुरु कृपा से साधना द्वारा ही यहाँ तक पहुँच सकते हैं|
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विषय बहुत लंबा है अतः यहीं विराम दे रहा हूँ| पूर्व जन्मों के अच्छे कर्मों से जब भगवान के प्रति भक्ति जागृत होती है तब भगवान गुरु के रूप में आकर मार्गदर्शन देते हैं और रक्षा भी करते हैं|
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आप सब में हृदयस्थ भगवन नारायण को प्रणाम |
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

भागवत मन्त्र और कुण्डलिनी साधना .....

भागवत मन्त्र और कुण्डलिनी साधना .....
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सामान्यतः योग साधक मूलाधार से सहस्त्रार तक क्रमशः --- लं, वं, रं, यं, हं, ॐ,ॐ, इन बीज मन्त्रों के साथ आरोहण करते हैं और विपरीत क्रम से अवरोहण करते हैं|
भागवत मन्त्र के प्रत्येक अक्षर के साथ प्रत्येक चक्र पर एक निश्चित विधि से (जो सार्वजनिक नहीं की जा सकती) क्रमशः आरोहण और अवरोहण करते हुए जप रुपी प्रहार करने से मेरु दंड में रूद्रग्रंथि, विष्णुग्रन्थि और ब्रह्मग्रन्थि का भेदन होता है| यह अति कठिन कार्य है| प्राण ऊर्जा भी जागृत होकर सुषुम्ना की ब्राह्मी उपनाड़ी में प्रवेश करती है, न कि चित्रा और वज्रा में|
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खेचरी मुद्रा में यदि साधना की जाये तो सफलता अति शीघ्र मिलती है| खेचरी का अभ्यास तो सभी को करना चाहिए| जो खेचरी नहीं कर सकते उन्हें भी ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर जितना पीछे ले जा सकते हैं रखने का अभ्यास करना चाहिए|
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धीरे धीरे लम्बे अभ्यास के पश्चात चेतना अनाहत चक्र और सहस्त्रार के मध्य ही भ्रमण करने लगती है, नीचे के तीन चक्रों में नहीं उतरती| यह अति उच्च अवस्था है| जो और भी उच्च कोटि के साधक हैं उन की चेतना तो मस्तक ग्रंथि (आज्ञा चक्र) और सहस्त्रार के मध्य ही रहती है|
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मेरा तो व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि श्वास-प्रश्वास के प्रति और मेरुदंड व मस्तिष्क के चक्रों के प्रति सजग रहते हुए भागवत मन्त्र का निरंतर जाप करना चाहिए| यह मैं कोई आस्थावश नहीं बल्कि अपने अनुभव से लिख रहा हूँ| कोई आवश्यक नहीं है आप मेरे से सहमत ही हों|

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जब ओंकार की ध्वनि स्वतः ही सुननी आरम्भ हो जाए तो उसे ही सुनना चाहिए| उसकी भी एक विधि है| गायत्री मन्त्र के जाप की भी एक तांत्रिक विधि है जिससे भी कुंडलिनी जागरण होता है|
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ओंकार से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है और आत्मानुसंधान से बड़ा कोई तंत्र नहीं है|
यह लेख मात्र एक परिचयात्मक है, मैं दुबारा कहता हूँ की मात्र परिचयात्मक लेख है पाठकों की रूचि जागृत करने के लिए|
कोई भी आध्यात्मिक साधना हो वह तब तक सफल नहीं होती जब तक आपके ह्रदय में परमात्मा के प्रति परम प्रेम और उसे पाने की अभीप्सा नहीं होती|
मैं आप सब में प्रभु को प्रणाम करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि आप सब में परम प्रेम जागृत हो|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || ॐ ॐ ॐ ||

Wednesday, 19 October 2016

परमात्मा सब सिद्धांतों, मत-मतान्तरों, परम्पराओं और सम्प्रदायों से परे है ...

परमात्मा सब सिद्धांतों, मत-मतान्तरों, परम्पराओं और सम्प्रदायों से परे है ...
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जो आदि, अनंत और अगम है क्या उसे कुछ सिद्धांतों, मत-मतान्तरों, परम्पराओं और सम्प्रदायों के बंधन में बाँध सकते हैं?
हम परमात्मा का साक्षात्कार चाहते हैं, उससे कम कुछ भी नहीं|
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आस्तिक-नास्तिक मतों के विवादों; शैव, वैष्णव, शाक्त और गाणपत्य आदि सम्प्रदायों के मतभेदों; साकार-निराकार के विवादों और अनेक सारे मत-मतान्तरों की उलझनों से हमें अपनी चेतना को ऊपर उठाना है|
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भगवान साकार भी है और निराकार भी| सारे आकार उसी के हैं| सारे मत और सिद्धांत उसी में समाहित हैं| वह सब से ऊपर है| जहाँ इनका सहारा चाहिए, इनका सहारा लो, पर इनमें बंधो मत|.
महत्व सिर्फ भक्ति यानि परम प्रेम का है| जिससे भी आपकी भक्ति बढ़े वह सही है, और जिससे आपकी भक्ति घटे वह गलत है|
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हम भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं |
ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||

ग्रंथिभेद ......

ग्रंथिभेद ......
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मूलाधार चक्र से आज्ञाचक्र तक का क्षेत्र अज्ञानक्षेत्र है| जब तक चेतना इस क्षेत्र में है तब तक मनुष्य अज्ञान में ही रहता है| आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश करने पर ही ज्ञानक्षेत्र में प्रवेश होता है| इसमें चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में ही रहती है, तभी ज्ञानलाभ होना आरम्भ होता है| सहस्त्रार से आगे पराक्षेत्र है|
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साधक को ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि और रूद्रग्रंथि का भेदन करना पड़ता है| मणिपूर चक्र के नीचे ब्रह्म ग्रन्थि, वहाँ से विशुद्धि चक्र तक विष्णु ग्रन्थि, तथा उससे ऊपर रुद्र ग्रन्थि है|
मुण्डकोपनिषद् के ३ मुण्डक इन ३ ग्रन्थियों के भेदन हैं|
दुर्गा सप्तशती के ३ चरित्र भी उसी अनुसार हैं|
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मणिपुर चक्र में १० दल हैं| उसको भू समानान्तर काटोगे तो ऊपर अनाहत चक्र की ओर ५ दल व नीचे की ओर ५ दल आएँगे|
नीचे के ५ दल, स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र मिल कर के हुए ब्रह्माग्रंथि|
ऊपर के ५ दल से विशुद्धि चक्र तक विष्णु ग्रंथि|
और उसके ऊपर रूद्र ग्रंथि है|
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भगवान बांके बिहारी श्रीकृष्ण की त्रिभंग मुद्रा इन्हीं तीन ग्रंथियों के भेदन का प्रतीक है|
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ललिता सहस्रनाम में ग्रन्थित्रय के स्थानों का वर्णन इस प्रकार है .....
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मूलाधारैकनिलया ब्रह्मग्रन्थि विभेदिनी |
मणिपूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थि विभेदिनी ||८९||
आज्ञाचक्रान्तरालस्था रुद्रग्रन्थि विभेदिनी |
सहस्राराम्बुजारूढा सुधासाराभिवर्षिणी ||९०||
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भगवान आदि शंकराचार्य ने भी सौंदर्य लहरी में उपरोक्त का दृष्टान्त दिया है|
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मुण्डकोपनिषद (२/२/७-९) में विष्णुग्रंथि भेद के बारे में .....
मनोमयः प्राण शरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय |
तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद्विभाति ||७||
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः |
क्षीयन्ते चास्यकर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ||८||
हिरण्मये परे कोषे विरजं ब्रह्म निष्कलम्।
तच्छुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विदुः ||९||
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मुण्डकोपनिषद (३ /१-३) में रुद्रग्रन्थि भेद के बारे में .....
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकषीति ||१||
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः |
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशस्य महिमानमिति वीतशोकः ||२||
यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ||३||.
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मुंडकोपनिषद (३/२) में ब्रह्मग्रंथि भेद के बारे में .....
वेदान्तविज्ञान सुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे॥६॥
गताः कलाः पञ्चदशप्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवताषु।
कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽव्यये सर्व एकी भवन्ति॥७॥
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तः गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८॥
स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्या ब्रह्मवित् कुले भवति।
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तो भवति॥९॥
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श्रीमद्भागवत् में भी इसका वर्णन है|
दुर्गासप्तशती में भी असुर वध ..... ह्रदय ग्रंथि भेदन का ही प्रतीक है|
स्पष्ट है कि ग्रन्थिभेदन अत्यंत महत्वपूर्ण है|
ग्रंथियाँ सुषुम्ना में प्राण प्रवाह को बाधित करती है| ये ग्रन्थियां इड़ा एवम् पिंगला के संगम बिंदु पर बनती हैं|
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विष्णुतीर्थ की सौन्दर्य लहरी की हिन्दी टीका के अनुसार ब्रह्मग्रंथि का स्थान मूलाधार में, विष्णु ग्रन्थि का स्थान हृदय में और रुद्रग्रन्थि का स्थान आज्ञा चक्र में समझना चाहिये|
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(यह एक गोपनीय गुरुमुखी विद्या है जो गुरु द्वारा ही शिष्य को प्रत्यक्ष दी जाती है)
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जैसे समुद्र में मिलने पर नदी का अलग नाम-रूप समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार परात्पर पुरुष से मिलने पर साधक का अपना कोई नाम रूप नहीं रह जाता| जो परंब्रह्म को जानता या पाता है (विद् = जानना, पाना, साक्षात्कार), वह ब्रह्म ही हो जाता है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हम जीवभाव से ऊपर उठकर शिवत्व को प्राप्त हों ....... यही हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है .......

हम जीवभाव से ऊपर उठकर शिवत्व को प्राप्त हों ....... यही हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है .......
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मनुष्य ..... पशु, असुर और देवता ..... इन तीनों का मिलाजुला रूप है|
हर व्यक्ति में एक पशु छिपा है, पर साथ साथ एक असुर और देवता भी है|
मनुष्य इन तीनों का मिलाजुला रूप है| कभी कौन सा गुण अधिक हो जाता है, कभी कौन सा|
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सभी जीव जीवन भर आश्रय और भोजन की खोज में इधर उधर भटकते और परिश्रम करते है एवं प्रायः आपस में लड़ते झगड़ते रहते है| अधिकांश जीव अपने निवास और क्षेत्र के लिए जीवन भर संघर्ष करते है| कई बार तो अपना जीवन साथी चुनने के लिए भी आपस में लड़ते है| उन्हें जीवन भर यही सब कुछ करना पड़ता है और फिर वे अगली पीढ़ी को जन्म दे कर और तैयार कर के मर जाते है| उनका केवल एक ही उद्देश्य दिखाई देता है .....अगली पीढ़ी को तैयार करना|
मनुष्य भी धन संपत्ति, सुख सुविधाओं, घर, नौकरी, व्यवसाय, जीवन में सफलता आदि के लिए जीवन भर परिश्रम, प्रतिद्वंदिता और संघर्ष करता है| फिर विवाह और संतानोत्पति कर अगली पीढ़ी को तैयार करके मर जाता है|
क्या मनुष्य जीवन का यही उद्देश्य है कि वह अगली पीढ़ी को तैयार करे और मर जाए? अब मनुष्य में छिपे पशुत्व, असुरत्व और देवत्व पर विचार करते हैं|
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(1) काम वासनाओं का सदैव चिंतन ही पशुता है|
मनुष्य में और पशु में अंतर है ही कहाँ? आध्यात्मिक रूप से तो जो भी पाश में बंधा है वह पशु है, जिसको पाश से मुक्ति पशुपतिनाथ की कृपा से ही मिलती है| पर यहाँ उसके लौकिक अर्थ पर विचार हो रहा है|
काम वासनाओं का सदैव चिंतन ही पशुता है| कई मामलों में तो पशु भी मनुष्य से श्रेष्ठ हैं| पशु अपनी काम वासनाओं और उदर की पूर्ति प्रकृति के चक्र के अनुसार ही करता है| पर अधिकाँश मनुष्यों के तो जीवन का लक्ष्य ही है काम वासनाओं और जिह्वा के स्वाद कि पूर्ति| विवाह कि संस्था धीरे धीरे समाप्त होती जा रही है| दोनों लिंगों के लिए विवाह एक शोषण का माध्यम बनता जा रहा है|
कुछ पंथ और सम्प्रदाय भी ऐसे हैं जिन में कामुकता को प्रश्रय और काम वासना की पूर्ति ही जीवन का ध्येय है| हमारी वृत्तियाँ पशुओं के समान या उनसे भी बुरी ही है क्या?
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(2) अधर्म से धन एकत्र करना, दूसरों को पीड़ित व दुखी करना, झूठ-कपट, अहंकार और लालच ..... ये आसुरी यानि राक्षसी प्रवृति है|
राग-द्वेष और अहंकार मनुष्य को राक्षस बनाते है| अपने विचारों कि श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए और अपने जीभ के स्वाद के लिए दूसरों कि ह्त्या और जनसंहार करना राक्षसों का कार्य है| इस राक्षसी प्रवृत्ति ने पता नहीं इस सृष्टि में कितने जन संहार किये है, कितने हज़ारों करोड़ मनुष्यों की हत्याएँ की हैं और पता नहीं कितनी अति उन्नत सभ्यताओं को नष्ट किया है| इस पृथ्वी पर लगता है आजकल असुरों यानि राक्षसों, दानवों और पिशाचों का ही राज्य है|
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(3) सद्भाव, करुणा और परोपकार ..... देवत्व के लक्षण हैं|
करुणा, समष्टि के कल्याण की भावना, परोपकार आदि के कार्य देवत्व को व्यक्त करते हैं|
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मनुष्य कभी पशु, कभी राक्षस तो कभी देवता भी बन जाता है| सृष्टि में जितने भी अच्छे कार्य हो रहे उसके पीछे मनुष्य का देवत्व है| यह सृष्टि यदि टिकी हुई है तो मनुष्य के देवत्व के कारण ही टिकी हुई है|
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मनुष्य जीवन की एक ही विशेषता है कि सभी मनुष्य अपना कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं परंतु अन्य जीव नहीं| मनुष्य स्वयं को मुक्त कर सकता है पर अन्य जीव नहीं| मनुष्य में विवेक है बस यही उसे पशुओ और असुरों से अलग करता है|
मनुष्य जीवन कि सबसे बड़ी विशेषता एक ही है कि मनुष्य चाहे तो परमात्मा को प्राप्त कर सकता है जो देवताओं के लिए भी संभव नहीं है|
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हम जीवभाव से ऊपर उठकर शिवत्व को प्राप्त हों ....... यही हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है|
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सभी को हार्दिक मंगल शुभ कामनाएँ| धन्यवाद|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

उस पेड़ का पतन सुनिश्चित है जो अपनी जड़ों की चिंता नहीं करता .....

उस पेड़ का पतन सुनिश्चित है जो अपनी जड़ों की चिंता नहीं करता .....
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भारत की अस्मिता और प्राण सनातन धर्म है जिसे अब हम हिंदुत्व कहते हैं| बिना सनातन धर्म यानि हिंदुत्व के भारत भारत नहीं है| अगर हिन्दू , सनातन धर्म को जीवन की प्राथमिकता नहीं बनाएगा .... तो हर हिन्दू का जीवन समस्याग्रस्त होना सुनिश्चित है| भारत की आत्मा आध्यात्मिकता है| भारत में धर्म की पुनर्स्थापना के लिए हमें आध्यात्म की ओर लौटना होगा और स्वयं को दैवीय शक्तियों से युक्त कर बलशाली होना होगा| स्वयं सब प्रकार से शक्तिशाली बनकर ही हम धर्म और राष्ट्र की रक्षा कर सकेंगे|
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हमारा चरित्र श्वेत कमल की भाँति इतना उज्जवल हो जिसमें कोई धब्बा ना हो| हमारे आदर्श और हमारा चिंतन उच्चतम हो| इसका एकमात्र उपाय है हमें अपनी मानसिकता बदली होगी और जीवन का केंद्र बिंदु परमात्मा को बनाना होगा| कम से कम इतना तो हम कर ही सकते हैं कि जीवन का हर कार्य परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए पूर्ण मनोयोग से करें, हर समय परमात्मा का स्मरण रखें, और अपने आचरण को और विचारों को सही रखें| जीवन में अपने विवेक के अनुसार जो भी सर्वश्रेष्ठ हम कर सकते हैं वह करें, तभी धर्म की रक्षा होगी|
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यह कार्य स्वयं से ही आरम्भ करना होगा| समाज और राष्ट्र के कर्णधारों को ही नहीं सभी को इस विषय पर विचार करना होगा| अन्यथा विनाश हम देख ही रहे हैं|
धर्मनिरपेक्षतावाद (सेकुलरिज्म) और जातिगत आरक्षण भारत की जड़ें खोद रहे हैं|
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धर्म की रक्षा उसके पालन से होती है, सिर्फ बातें करने से या राजनीति से नहीं| वर्तमान में यह देख कर खेद होता है कि हम सिर्फ नाम के लिए ही हिन्दू रह गए हैं| अपने धर्म को जानने व समझने का प्रयास ही नहीं करते|
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आप सब को नमन ! आप सब के ह्रदय में परमात्मा है, उसकी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप में हो|
ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

Monday, 17 October 2016

सृष्टि बीज, संहार बीज और अजपा गायत्री ........

सृष्टि बीज, संहार बीज और अजपा गायत्री ........
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जब हम सामान्यतः साँस लेते हैं तब स्वाभाविक रूप से "हं" की ध्वनी उत्पन्न होती है, यह ध्वनी संहार बीज है| और जब साँस छोड़ते हैं तब "सः" की ध्वनी उत्पन्न होती है, यह सृष्टि बीज है| जब हम निरंतर चल रही इन ध्वनियों को सजग होकर सुनते हैं तब "हं सः " मन्त्र बनता है| यह एक बहुत उन्नत साधना है जो "अजपा- जप" कहलाती है| साँस लेते समय "हं" का मानसिक जाप, और छोड़ते समय "सः" का मानसिक जाप "अजपा गायत्री" कहलाता है| अचेतन रूप से हर मनुष्य इस मन्त्र का दिन में लगभग २१,६०० बार जाप करता है| अति उन्नत साधकों का क्रम स्वतः बदल जाता है, और यह मन्त्र "हंसः" से "सोहं" हो जाता है|
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इस साधना में साधक भ्रूमध्य में एक प्रकाश की कल्पना करता है जिसे वह समस्त ब्रह्मांड में फैला देता है और यह भाव रखता है की मैं सर्वव्यापी ज्योतिर्मय हूँ, यह देह नहीं| धीरे धीरे यह प्रकाश निरंतर दिखाई देने लगता है और कूटस्थ में ओंकार की ध्वनी सुनाई देने लगती है|
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यह एक बहुत उन्नत साधना है अतः जिज्ञासु को साधना से पूर्व किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से मार्गदर्शन और आशीर्वाद ले लेना चाहिए|
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ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ! तत्वमसि ! सोsहं | ॐ ॐ ॐ ||

शाश्वत् मित्र .......

शाश्वत् मित्र .......
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जब इस आत्मा का इस देह रूप में अवतरण हुआ उस से पूर्व एक मित्र परमात्मा ही था जो सदा साथ में था| जन्म के पश्चात माँ बाप के रूप में उस मित्र परमात्मा ने ही पालन पोषण किया| उस मित्र परमात्मा ने ही भाई, बहिनों, काका, काकी, ताऊ, ताई, दादी, भुआ, भाभी और अन्य सभी सम्बन्धियों के रूप में प्रेम किया| सभी मित्रों, सहपाठियों और सहकर्मियों के रूप में भी उस मित्र परमात्मा ने ही साथ दिया|
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शांति में, युद्धों में, देश-विदेशों में और महासागरों में, प्रकृति के सौम्यतम और विकरालतम रूपों में, पृथ्वी के हर भाग में, अपरिचित, अजनबी और अनजान लोगों के मध्य सदा मैंने एक अदृश्य मित्र को साथ पाया जो मेरा साथ देता था व निरंतर मेरी रक्षा करता था|
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अब जब मेरे कई सम्बन्धी, मित्र और अधिकांश सहकर्मी तो पता नहीं कहाँ अज्ञात अनंतता में चले गए हैं, मैं उस अदृश्य मित्र को ही सदा साथ में पाता हूँ जो निरंतर मेरे सुख दुःख का साथी है| वह दिखता नहीं है पर सदा मेरे साथ है| वह ही उपरोक्त सभी रूपों में छलिया बन कर आया था| लगता है उसका काम ही छलने का है| जीवन में आनंद और पीड़ाएँ दोनों उसी ने दीं और साथ साथ भुगती भी|
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वह मित्र ही है जो इस ह्रदय में धड़क रहा है, इन आँखों से देख रहा है, और इस देह की समस्त क्रियाओं का संचालन कर रहा है| एक दिन जब वह इस देह के ह्रदय में धड़कना बंद कर देगा तब मेरे लिए सब कुछ, यहाँ तक कि यह पृथ्वी भी छूट जायेगी और पता नहीं कहाँ अज्ञात में जाना होगा तब वह मित्र ही सदा मेरे साथ में रहेगा|
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मैं सार्थकता इसी में पाता हूँ कि उस परम शिव शाश्वत मित्र से मित्रता और भी प्रगाढ़ हो जाये और उसके साथ कोई भेद ना रहे| मेरा प्रथम, अंतिम और एकमात्र प्रेम अब उसके साथ ही है जो कहीं भी दिखाई नहीं देता पर सब रूपों में वही है|

ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं .....

पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं .....
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हर व्यक्ति में परमात्मा का अंश तो होता ही है, पर साथ साथ पशुता भी होती है|
अति अल्प मात्रा में ही सही जब तक व्यक्ति में अहंकार है, पशुता का अंश भी उसमें है| व्यक्ति का कभी भी पतन हो सकता है, उसे पता भी नहीं चलता|
हमारी यह बहुत बड़ी भूल है कि हम अपने राष्ट्रनायकों, महात्माओं और धर्मगुरुओं को पूर्ण समझते हैं; उनकी हर बात को आदर्श और परम सत्य मानते है, जो एक भटकाव है| उनके कहे हुए असत्य को भी सत्य मान लेते हैं| पर वे भी भूल कर सकते हैं और उनका भी आंशिक या गहन पतन हो सकता है|
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पूर्णता और सत्य को परमात्मा में ढूंढें , मनुष्य में नहीं, चाहे उसका व्यक्तित्व कितना भी महान क्यों ना हो| सत्य एक अनुभूति है, जो प्रत्येक को अनुभूत करनी पडती है| एक व्यक्ति का सत्य दुसरे के काम नहीं आ सकता, मात्र प्रेरणा दे सकता है| दुसरे लोग हमें प्रेरणा दे सकते हैं पर सत्य का बोध तो परमात्मा के प्रत्यक्ष साक्षात्कार से ही हो सकता है| और जहाँ तक हमारा प्रश्न है हमें दूसरों के उज्जवल पक्ष से ही प्रेरणा लेनी चाहिए, ना कि उनके अंधकारमय पक्ष से|
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हमारा निरंतर प्रयास हो कि हम प्रेममय बनें और उतरोत्तर प्रगति करते रहें| किसी गेंद को सीढियों पर गिरा दें तो वह नीचे की ओर ही जायेगी| किसी बर्तन को नियमित न माँजें तो उसकी चमक भी कम होती जायेगी| जीवन में स्थिरता नहीं है| या तो उत्थान है या पतन| निरतर उत्थान का प्रयत्न न करते रहेंगे तो पतन निश्चित है| हमारे भीतर एक देवता भी है और एक असुर भी| हमारा लक्ष्य इन दोनों से ऊपर उठ कर शिवत्व को उपलब्ध होना है| शुभ कामनाएँ|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

सदा ह्रदय की ही सुननी चाहिए, मन की नहीं .....

(1) सदा ह्रदय की ही सुननी चाहिए, मन की नहीं .
(2) ह्रदय कहाँ है ?
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(1) मनुष्य का मन और उसका ह्रदय कभी एक नहीं हो सकते| मन पर पूर्ण नियंत्रण हो जाए तो बात दूसरी है| मन गणना करता है, हित-अहित की सोचता है और झूठ भी बोलता है, जब कि ह्रदय सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म का बोध कराता है और कभी झूठ नहीं बोलता| ह्रदय में सदा परमात्मा का निवास होता है, सारे अच्छे विचार और प्रेरणाएँ वहीं से आती हैं| मन एक झरने सा उच्छशृंखल है, ह्रदय शांत सरोवर है| ह्रदय को अभिलाष है ..... सच्चे प्रेम की, कर्त्तव्य की, धर्म की, सम्मान की, पर मन इच्छुक है हर क्षण शरीर के सुख का| अतः हमें सदा ह्रदय की ही सुननी चाहिए, मन की नहीं| ह्रदय की भाषा मन के शब्दों और भावनाओं के परे है|
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(2) ह्रदय कहाँ है ? .....
जो योग मार्ग के साधक हैं उनके चैतन्य में ह्रदय का केंद्र भौतिक ह्रदय न रहकर, आज्ञाचक्र व सहस्त्रार के मध्य हो जाता है| वे प्रयासपूर्वक अपनी चेतना को आज्ञाचक्र से ऊपर रखते हैं जो कुछ समय पश्चात स्वभाविक हो जाता है| उसी क्षेत्र में उन्हें नाद यानि प्रणव की ध्वनी सुनाई देती है, और ज्योति का प्राकट्य भी वहीँ होता है जो कूटस्थ में प्रतिबिम्बित होती है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||

स्वयंभु ब्रह्मणे नमः .....

स्वयंभु ब्रह्मणे नमः .....
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क्या महासागर की एक लहर महासागर को देख सकती है ?
क्या एक मिट्टी का एक घड़ा मिट्टी को देख सकता है ?
हमारा वास्तविक स्वरुप परमात्मा है, उससे परे अन्य कुछ है ही नहीं|
हमारा वास्तविक रूप ही आनंदमय है और हम आनंद को ढूंढ रहे हैं|
अज्ञान तो ज्ञान से ही दूर हो सकता है|
अपनी आनन्दरूपता को न जानने के कारण ही हम सुख के पीछे भटक रहे हैं|
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अजपा-जप और प्रणव पर ध्यान के द्वारा परमात्मा पर चित्त स्थिर करना चाहिये|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

लोगों से मित्रता की कामना ..... निजात्मा की परमात्मा को पाने की तड़फ की ही अभिव्यक्ति है ....

लोगों से मित्रता की कामना ..... निजात्मा की परमात्मा को पाने की तड़फ की ही अभिव्यक्ति है|
सांसारिक लोगों से अत्यधिक घनिष्ठता अंततः वितृष्णा यानि घृणा को जन्म देती है| अत्यधिक घनिष्ठता से अंततः निराशा ही मिलती है| मित्रता वहीं सफल होती है जहां मित्रता का आधार परमात्मा के प्रति प्रेम होता है| अन्य आधार बेचैनी और असंतोष को जन्म देते हैं| वास्तव में हमारा सच्चा और एकमात्र मित्र परमात्मा ही है|
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सुख ..... मन की एक अस्थायी अवस्था मात्र है|
जीवन में सुख पाने की कामना भी वास्तव में निजात्मा की सच्चिदानंद को पाने की तड़फ की ही अभिव्यक्ती मात्र है| यह एक अभीप्सा ही है जो सिर्फ परमात्मा से ही तृप्त हो सकती है| संसार में सुख की खोज में आज तक तो कोई सुखी नहीं हुआ| जिन को हम सुखी समझते हैं, उनसे पूछ कर देख लीजिये, तब पता चल जाएगा कि कौन सुखी है| सुख वास्तव में मन की एक अस्थायी अवस्था मात्र है| वास्तविक सुख तो सच्चिदानंद परमात्मा की भक्ति से प्राप्त आनंद ही है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Saturday, 15 October 2016

जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि हम परमात्मा की दृष्टी में क्या हैं .....

जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि हम परमात्मा की दृष्टी में क्या हैं|
कौन क्या सोचता है, क्या कहता है और क्या नहीं कहता इसका कोई महत्व नहीं है| सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धी है परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम|

हम शाश्वत आनंद चाहते हैं| पर सच्चा आनंद तभी प्राप्त होता है जब हम उपासना द्वारा अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित हों| सच्चिदानंद ही परम ब्रह्म है|

निरंतर हर समय परमात्मा का स्मरण करें| रात्रि को सोने से पहिले, प्रातःकाल उठते ही और जब भी समय मिले भगवन का स्मरण करें| इसमें कोई देश-काल का बंधन नहीं है| जैसा हम सोचते हैं वैसा ही हो जाते हैं|

आप सब निजात्माओं को नमन |
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ

सामान्य मानवीय चेतना से ऊपर उठिए .....

सामान्य मानवीय चेतना से ऊपर उठिए| स्वयं को दीन हीन व अकिंचन मत समझिये| अपने भौतिक व्यक्तित्व व शरीर की चेतना से ऊपर उठिए| आप यह देह नहीं परमात्मा के निज रूप हैं|

विश्व में आज तक जितने भी महान कार्य हुए हैं वे सारे महान कार्य उन लोगों के माध्यम से सम्पादित हुए जो अत्यंत सरल और सांसारिक रूप से सामान्य व्यक्ति थे| अपनी चेतना को ईश्वर की चेतना से जोड़िये| अपने अन्तस्थ में प्रभु को ढूँढिए| इस प्रक्रिया में अनायास ही अनेक दिव्य और अकल्पनीय कार्य आपके माध्यम से हो जायेंगे|

संसार में कुछ भी नि:शुल्क नहीं है| हर चीज का मुल्य चुकाना होता है| एक दीपक पहले स्वयं जलता है तब जाकर उसका प्रकाश औरों को मिलता है| दीपक पतंगों को प्यारा है| वे दीपक के प्रेम में इतने उन्मत्त हो जाते हैं कि उसकी लौ में स्वयं को जला देते हैं| पर वास्तव में सत्य कुछ और ही है| दीपक पहले अपने आप को जलाता है, उसके बाद ही पतंगे उस की लौ से प्रेम करते हैं|

आप जो भी महान कार्य होते हुए आप देखना चाहते हैं उसका संकल्प निरंतर निज चेतना में बनाए रखिये| आप का संकल्प कभी भी विस्मृत न हो|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्च :  मानवीय चेतना से ऊपर उठें .....
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मानवीय चेतना से ऊपर उठ कर देवत्व में स्वयं को स्थापित करने का कोई न कोई मार्ग तो अवश्य ही होगा| हमें अपने जीवन का केंद्र बिंदु परमात्मा को बनाना ही पड़ेगा| वर्तमान सभ्यता में मनुष्य की बुद्धि का तो खूब विकास हो रहा है पर अन्य सद् गुणों का अधिक नहीं| मूक और निरीह प्राणियों पर क्रूर अत्याचार और अधर्म का आचरण प्रकृति कब तक सहन करेगी? मनुष्य का लोभ और अहंकार अपने चरम पर है| कभी भी महाविनाश हो सकता है| धर्म का थोड़ा-बहुत आचरण ही इस महाभय से रक्षा कर सकेगा| हम स्वयं को यह शरीर समझ बैठे हैं यही पतन का सबसे बड़ा कारण है| इस विषय पर कुछ मंथन अवश्य करें|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
६ अप्रेल २०१७

मनुष्य की शाश्वत यात्रा .....

मनुष्य की शाश्वत यात्रा कई जन्मों से चल रही है| कुछ लोग मुझसे इसका प्रमाण माँगते हैं| जो मेरा अनुभूत सत्य है उस पर मुझे कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है| न ही मैं ऐसे लोगों को समय दे सकता हूँ|

जीवन की प्रकृति का एकमात्र उद्देश्य है .....परमात्मा की प्राप्ति| इस विषय पर कोई वाद-विवाद और कुतर्क स्वीकार्य नहीं है| परमात्मा की प्राप्ति प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता के भीतर है|

आत्मा अमर है, इसकी विस्मृति ही जीव का पतन है| यह अज्ञानता ही मनुष्य के सब दुखों और कष्टों का कारण है| यदि कोई यह नहीं जानता कि उसे क्या करना चाहिए तो उसे कुछ भी नहीं करना चाहिए| पात्रता होने पर उसे भी मार्गदर्शन मिलेगा|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हमारे विचार सदा शुभ और संकल्प सदा शिव-संकल्प हों .....

जितना पतन हो गया उतना हो गया, आगे हज़ारों वर्षों तक उत्थान ही उत्थान है|
हम सब के संकल्प में बड़ी शक्ति है| नित्य दिन में कम से कम दो बार एक निश्चित समय पर और निश्चित स्थान पर खड़े होकर अपने दोनों हाथ ऊपर कर के समष्टि के कल्याण, विश्व शांति, भाईचारे और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए प्रार्थना करें|
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हम सब के सामूहिक संकल्प और प्रार्थना का अति शक्तिशाली प्रभाव होगा| जब हम उपरोक्त विधि से प्रार्थना करते हैं तब हमारी अँगुलियों के अग्रभाग से एक अदृष्य प्रचंड घनीभूत ऊर्जा निकलती है जो चारों ओर फैलकर साकार रूप लेती है| सृष्टि में हो रहे समस्त घटनाक्रम हमारे सामूहिक विचारों के ही परिणाम है| जैसा हम सोचते हैं और संकल्प करते हैं वैसा ही चारों ओर घटित होता है| जैसी दृष्टी वैसी सृष्टि|
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जीवन में वर्तमान में जियें और अपना सर्वश्रेष्ठ करें, जो होगा वह अच्छा ही होगा| अपने विचारों पर दृष्टी रखें, उन्हें नियंत्रित करें| हमारे विचार सदा शुभ और संकल्प सदा शिव-संकल्प हों|
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ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||

वैवाहिक संबंधों में बिखराब .......

आजकल वैवाहिक संबंधों में अत्यधिक बिखराव हो रहा है| इसका कारण अत्यधिक अपेक्षा और महत्वाकांक्षा का होना, व सहनशीलता, त्याग और संतोष का अभाव है|

एक बात याद रखें कि जो भी विवाह चहरे के कोण, त्वचा के रंग, व वर/वधु के पिता की धन-संपत्ति को देख कर किया जाता है, उसका विफल होना सुनिश्चित है|

पत्नी और भार्या में दिन-रात का अंतर है| जिसके मात्र भरण-पोषण का दायित्व लिया जाता है वह भार्या है| पत्नी यज्ञ के लिए है, जो इस जीवन यज्ञ की ब्रह्माग्नि में अपने साथ साथ आहुति दे वह पत्नी है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Wednesday, 12 October 2016

देशी नस्ल की गायों की ह्त्या और संतों पर हो रहे प्रहार समाज पर भारी पड़ेंगे .....

देशी नस्ल की गायों की ह्त्या और संतों पर हो रहे प्रहार समाज पर भारी पड़ेंगे| अब प्रकृति इन्हें और सहन नहीं करेगी| इनका परिणाम महाविनाश होगा|
भू और खनन माफियाओं ने लगभग सारी गोचर भूमियों का अतिक्रमण कर लिया है| गायों के चरने के स्थान नहीं बचे हैं| बछड़ों के लिए कोई अभयारण्य नहीं हैं| उन्हें जन्मने के कुछ माह पश्चात आवारा फिरने के लिए छोड़ दिया जाता है| गौ वंश की तस्करी हो रही है| कुछ समय पश्चात दूध भी विदेशों से आयात करना पड़ेगा|
एक संत किसी से कोई अपेक्षा रखे बिना, सिर्फ परमात्मा पर आश्रित हो अपनी समष्टि साधना करता है| माफिया लोगों ने संतों को भी सताना शुरू कर दिया है| इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे| यह समाज पर भारी पडेगा|

जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ ........

जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ ........
दोष डुबकी में है, महासागर में नहीं| जब हमें महासागर में मोती ही ढूँढने हैं तो वे समुद्र तट की रेत में लात मारने से नहीं मिलेंगे| उसके लिए समुद्र की गहराई में डुबकी लगानी होगी| जो गहरे पानी में उतरेंगे उन्हें ही मोती मिलेंगे, न कि ऊपरी सतह पर तैरने वालों को|
यदि मोती नहीं मिलते हैं तो इसमें सागर का क्या दोष है? दोष तो डुबकी में है|
परमात्मा को उपलब्ध होने के लिए भी स्वयं को गहराई में उतरना होगा| कोई दूसरा हमारे लिए यह कार्य नहीं कर सकता| किसी के पीछे पीछे भागने से कुछ नहीं होने वाला|
मात्र प्रवचन सुनने, मात्र ग्रंथों का अध्ययन करने या ऊँची ऊँची दार्शनिक बातों से कुछ नहीं होगा| आहुती स्वयं की ही देनी होगी|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

यज्ञ ......

यज्ञ का अर्थ बहुत विस्तृत है| जैसा मैं समझ सका हूँ उसके अनुसार मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि ..... जो भी कार्य समष्टि के कल्याण के लिए किया जाता है, वह यज्ञ है| समष्टि के लिए सर्वश्रेष्ठ कार्य जो कोई कर सकता है वह है ..... परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम विकसित करने और परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पित होने का निरंतर प्रयास| यह मेरी दृष्टी में सबसे बड़ा यज्ञ है क्योंकि इसमें अपने अहं यानि मानित्व की आहुती अपने प्रियतम प्रभु को दी जाती है| जब अहं समाप्त हो जाता है तब केवल परमात्मा ही बचते हैं| यही समष्टि की सबसे बड़ी सेवा और सबसे बड़ा यज्ञ है|
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् |
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना ||
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इस जीवन में माता पिता की सेवा और सम्मान प्रथम यज्ञ है| उसके बिना अन्य यज्ञ सफल नहीं होते| वे लोग भाग्यशाली हैं जिन्हें माता पिता की सेवा का अवसर मिलता है| माता पिता का तिरस्कार करने वाले से उसके पितृगण प्रसन्न नहीं होते| उसके घर में कोई सुख शांति नहीं होती और उसके सारे यज्ञ कर्म विफल होते हैं|
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इस ग्रह पृथ्वी के देवता 'अग्नि' हैं| भूगर्भ में जो अग्नि है उसी के कारण पृथ्वी पर जीवन है| उस भूगर्भस्थ अग्नि के कारण ही हमें सब प्रकार के रत्न, धातुएँ और वनस्पति प्राप्त होती हैं| इसीलिए सृष्टि में इस पृथ्वी लोक पर जहाँ हमारा वर्तमान अस्तित्व है वहाँ परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक "अग्नि" ही है| उस "अग्नि" में हम समष्टि के कल्याण के लिए कुछ विशिष्ट मन्त्रों के साथ आहुतियाँ देते हैं वह यज्ञ का एक रूप है|
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एक विशिष्ट विधि द्वारा प्राण में अपान, और अपान में प्राण कि आहुतियाँ देते हैं, वह भी यज्ञ का एक रूप है| फिर प्रणव का मानसिक जप करते हुए ज्योतिर्मय नाद ब्रह्म में लय होकर अपने अस्तित्व का अर्पण करते हैं, वह भी यज्ञ है|
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परोपकार के लिए हम जो भी कार्य करते हैं वह भी यज्ञ की श्रेणी में आता है| भगवान की भक्ति भी एक यज्ञ है| परमात्मा की चर्चा "ज्ञान यज्ञ" है|
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कस्मै देवाय हविषा विधेम? हम किस देवता की प्रार्थना करें और किस देवता के लिए हवन करें, यजन करें, प्रार्थना करें? कौन सा देव है,जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा कर सके, हमको शांति प्रदान कर सके , हमें ऊँचा उठाने में सहायता दे सके? किस देवता को प्रणाम करें? ऐसा देव कौन है?
मेरी समझ से ये वे देव हैं जिन्होनें मुझ में ही नहीं, पूरी सृष्टि में स्वयं को व्यक्त कर रखा है| उन्हीं परब्रह्म का ध्यान मेरे लिए "साधना" है|
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अपने ह्रदय में परमात्मा को पाने की प्रचंड अग्नि प्रज्ज्वलित कर शिवभाव में स्थित होकर प्रणव की चेतना से युक्त होकर हर साँस में सोsहं-हंसः भाव से उस प्रचंड अग्नि में अपने अस्तित्व की आहुतियाँ देकर प्रभु की सर्वव्यापकता और अनंतता में विलीन हो जाना सबसे बड़ा यज्ञ है|
अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का प्रभु में पूर्ण समर्पण कर उनके साथ एकाकार हो जाना ही यज्ञ कि परिणिति है|
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव | शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर

जन्म और मृत्यु से परे ...........

जन्म और मृत्यु से परे ...........
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जन्म और मृत्यु से परे एक ऐसी चेतना जागृत हो जहाँ जन्म, मृत्यु और पृथकता का बोध एक स्वप्न हो जाये| जहाँ कुछ भी मुझ से पृथक ना हो, परमात्मा की पूर्णता और अनंतता ही मेरा अस्तित्व हो| मैं यह देह नहीं अपितु सर्वव्यापी परम चैतन्य हूँ| इस पृथ्वी से लाखों करोड़ों अरबों प्रकाशवर्ष दूर स्थित ऐसे नक्षत्र मंडल भी हैं, जहाँ से जब प्रकाश चला था तब पृथ्वी का अस्तित्व ही नहीं था, और जब तक उनका प्रकाश पृथ्वी तक पहुंचेगा तब तक इस पृथ्वी का अस्तित्व भी नहीं रहेगा| वे नक्षत्र मंडल और उनका प्रकाश भी मैं ही हूँ|
यह समस्त अस्तित्व मेरा घर है, यह समस्त सृष्टि मेरा परिवार है|
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हे प्रभु, हे परमशिव आप और मैं एक हैं, जो भी थोड़ी बहुत अज्ञानता और पृथकता का बोध है उसे समाप्त करो| आपकी अनंतता और पूर्णता ही मैं रहूँ|
हे जगन्माता, करुणा कर के इन अज्ञान रुपी ग्रंथियों ..... ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि और रूद्रग्रंथि ..... का भेदन करो|
आप ही इस देह में अवस्थित हैं| अपनी महिमा को व्यक्त करो| मैं आपकी शरणागत हूँ|
मुझे आपके परम प्रेम, ज्ञान, भक्ति, और वैराग्य के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए|
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इस राष्ट्र भारत के भीतर व बाहर के सभी शत्रुओं का नाश करो| भारत की अस्मिता की रक्षा हो| भारतवर्ष अपने परम वैभव को प्राप्त करे|
सम्पूर्ण समष्टि का, सब प्राणियों का कल्याण हो| आपकी जय हो|
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ॐ तत्सत् | अयमात्मा ब्रह्म | तत्वमसि | सोsहं | ॐ ॐ ॐ ||

गृहस्थ जीवन और परमात्मा का साक्षात्कार .....

कोई गृहस्थ व्यक्ति जो अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहता है, क्या सत्य यानि ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है ?
शास्त्रों में सुख, सम्पति, परिवार और बड़ाई को राम भक्ति में बाधक माना है|
वानप्रस्थ आश्रम पुस्तकों में ही सीमित रह गया है| 50 वर्ष की आयु में कोई वानप्रस्थ बनता दिखाई नहीं देता| मरते दम तक सभी गृहस्थ ही रहते हैं| तथाकथित पारिवारिक उत्तरदायित्व कभी पीछा ही नहीं छोड़ते|
सहयोग न मिलने के पश्चात भी क्या कोई अपने सहयोगी को उसी प्रकार लेकर चल सकता है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है ?
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विभिन्न देहों में मेरे ही प्रियतम निजात्मन,
मैंने मात्र चर्चा हेतु मंचस्थ मनीषियों और विद्वानों से प्रश्न किया था कि .....
(1) कोई गृहस्थ व्यक्ति जो अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहता है, क्या वह सत्य यानि ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है ?
(2) क्या कोई अपने सहयोगी को उसी प्रकार लेकर चल सकता है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है ?
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मेरी दृष्टी में ये अति गहन प्रश्न हैं पर उनका उत्तर मेरे दृष्टिकोण से बड़ा ही सरल है जिसे मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ .....
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विवाह हानिकारक नहीं होता है| पर उसमें नाम रूप में आसक्ति आ जाए कि मैं यह शरीर हूँ, मेरा साथी भी शरीर है, तब दुर्बलता आ जाती है और इस से अपकार ही होता है| वैवाहिक संबंधों में शारीरिक सुख की अनुभूति से ऊपर उठना होगा| सुख और आनंद किसी के शरीर में नहीं हैं| भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता|
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यह अपने अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हमारा वैवाहिक जीवन कैसा हो| इसमें सुकरात के, संत तुकाराम व संत नामदेव आदि के उदाहरण विस्तार भय से यहाँ नहीं दे रहा|
हम ईश्वर की ओर अपने स्वयं की बजाय अनेक आत्माओं को भी साथ लेकर चल सकते हैं| ये सारे के सारे आत्मन हमारे ही हैं| परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने से पूर्व हम अपनी चेतना में अपनी पत्नी, बच्चों और आत्मजों के साथ एकता स्थापित करें| यदि हम उनके साथ अभेदता स्थापित नहीं कर सकते तो सर्वस्व (परमात्मा) के साथ भी अपनी अभेदता स्थापित नहीं कर सकते|
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क्रिया और प्रतिक्रया समान और विपरीत होती है| यदि मैं आपको प्यार करता हूँ तो आप भी मुझसे प्यार करेंगे| जिनके साथ आप एकात्म होंगे तो वे भी आपके साथ एकात्म होंगे ही| आप उनमें परमात्मा के दर्शन करेंगे तो वे भी आप में परमात्मा के दर्शन करने को बाध्य हैं|
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पत्नी को पत्नी के रूप में त्याग दीजिये, आत्मजों को आत्मजों के रूप में त्याग दीजिये, और मित्रों को मित्र के रूप में देखना त्याग दीजिये| उनमें आप परमात्मा का साक्षात्कार कीजिये| स्वार्थमय और व्यक्तिगत संबंधों को त्याग दीजिये और सभी में ईश्वर को देखिये| आप की साधना उनकी भी साधना है| आप का ध्यान उन का भी ध्यान है| आप उन्हें ईश्वर के रूप में स्वीकार कीजिये|
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और भी सरल शब्दों में सार की बात यह है की पत्नी को अपने पति में परमात्मा के दर्शन करने चाहियें, और पति को अपनी पत्नी में अन्नपूर्णा जगन्माता के| उन्हें एक दुसरे को वैसा ही प्यार करना चाहिए जैसा वे परमात्मा को करते हैं| और एक दुसरे का प्यार भी परमात्मा के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए| वैसा ही अन्य आत्मजों व मित्रों के साथ होना चाहिए| इस तरह आप अपने जीवित प्रिय जनों का ही नहीं बल्कि दिवंगत प्रियात्माओं का भी उद्धार कर सकते हो| अपने प्रेम को सर्वव्यापी बनाइए, उसे सीमित मत कीजिये|
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आप में उपरोक्त भाव होगा तो आप के यहाँ महापुरुषों का जन्म होगा|
यही एकमात्र मार्ग है जिस से आप अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते है, अपने सहयोगी को भी उसी प्रकार लेकर चल सकते है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है|
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मैं कोई अधिक पढ़ा लिखा विद्वान् नहीं हूँ, न ही मेरा भाषा पर अधिकार है और न ही मेरी कोई लिखने की योग्यता है| अपने भावों को जितना अच्छा व्यक्त कर सकता था किया है|
ईश्वर की प्रेरणा से ही यह लिख पाया हूँ| कोई भी यदि इन भावों को और भी अधिक सुन्दरता से कर सकता है और करना चाहे तो वह स्वतंत्र है|
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आप सब विभिन्न देहों में मेरी ही निजात्मा हैं, मैं आप सब को प्रेम करता हूँ और सब में मेरे प्रभु का दर्शन करता हूँ| आप सब को प्रणाम|
ॐ तत्सत् |
कृपा शंकर
October 13, 2013

***** दशहरे की शुभ कामनाएँ ***** "सीता को पा कर ही हम रावण का नाश कर सकते हैं, और तभी राम से जुड़ सकते हैं" .....

***** दशहरे की शुभ कामनाएँ *****
"सीता को पा कर ही हम रावण का नाश कर सकते हैं,
और तभी राम से जुड़ सकते हैं" .....
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हमारा प्रथम, अंतिम और एकमात्र शत्रु कहीं बाहर नहीं, हमारे भीतर ही अवचेतन मन में छिपा बैठा विषय वासना रुपी रावण है|
हमारे ह्रदय के एकमात्र राजा राम हैं| उन्होंने ही सदा हमारी ह्रदय भूमि पर राज्य किया है, और सदा वे ही हमारे राजा रहेंगे| अन्य कोई हमारा राजा नहीं हो सकता| वे ही हमारे परम ब्रह्म हैं|
हमारे ह्रदय की एकमात्र महारानी सीता जी हैं| वे हमारे ह्रदय की अहैतुकी परम प्रेम रूपा भक्ति हैं| वे ही हमारी गति हैं| वे ही सब भेदों को नष्ट कर हमें राम से मिला सकती हैं| अन्य किसी में ऐसा सामर्थ्य नहीं है|
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हमारी पीड़ा का एकमात्र कारण यह है कि हमारी सीता का रावण ने अपहरण कर लिया है| हम सीता को अपने मन के अरण्य में गलत स्थानों पर ढूँढ रहे हैं और रावण के प्रभाव से दोष दूसरों को दे रहे हैं, जब कि कमी हमारे प्रयास की है| यह मायावी रावण ही हमें भटका रहा है| सीता जी को पा कर ही हम रावण का नाश कर सकते हैं, और तभी राम से जुड़ सकते हैं|
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राम से एकाकार होने तक इस ह्रदय की प्रचंड अग्नि का दाह नहीं मिटेगा, और राम से पृथक होने की यह घनीभूत पीड़ा हर समय निरंतर दग्ध करती रहेगी| राम ही हमारे अस्तित्व हैं और उनसे एक हुए बिना इस भटकाव का अंत नहीं होगा| उन से जुड़कर ही हमारे वेदना का अंत होगा और तभी हम कह सकेंगे ..... "शिवोSहं शिवोSहं अहं ब्रह्मास्मि"|
= कृपा शंकर =
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पुनश्चः .... इस राष्ट्र में धर्म रूपी बैल पर बैठकर भगवान शिव ही विचरण करेंगे, और भगवान श्रीकृष्ण की ही बांसुरी बजेगी जो नवचेतना को जागृत करेगी| सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा होगी व असत्य और अन्धकार की शक्तियों का निश्चित रूप से नाश होगा| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
= कृपा शंकर =
October 11, 2014

मैं ज्योतिषांज्योति पूर्ण प्रकाश हूँ .....

मैं ज्योतिषांज्योति पूर्ण प्रकाश हूँ .....
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मंचस्थ निजात्मन, आप सब विभिन्न रूपों में मेरी ही निजात्मा हो| आप सब को मेरे ह्रदय का सम्पूर्ण अनंत अहैतुकी प्रेम समर्पित है|

धर्म और राष्ट्र के उत्थान के लिए आप जैसे प्रत्येक सच्चे भारतीय को अपनी दीनता और हीनता का परित्याग कर अपने निज देवत्व को जागृत करना होगा| क्षुद्रात्मा पर परिछिन्न माया के आवरण को हटाना होगा|

"आप पूर्ण प्रकाश हैं| आप ज्योतियों की ज्योति -- ज्योतिषांज्योति हो|
आपके संकल्प और दिव्य प्रकाश से ही सम्पूर्ण संसार का विस्तार हुआ है| आप कोई ख़ाक के पुतले और दीन हीन नहीं हो|"

"आप सम्पूर्ण समष्टि, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हो| सम्पूर्ण सृष्टि ही आपका शरीर है|
आपका अभ्युदय ही सृष्टि का अभ्युदय है और सृष्टि का उत्कर्ष ही आपका उत्कर्ष है|
आपके अन्तस्थ सूर्य का प्रकाश ही एकमात्र प्रकाश, प्रकाशों का प्रकाश -- ज्योतिषांज्योति है|"
जब आप साँस लेते हो तो सम्पूर्ण सृष्टि साँस लेती है, जब आप साँस छोड़ते हो तो सम्पूर्ण सृष्टि साँस छोड़ती है| जब आप जागते हो तो सारी सृष्टि जागती है, आप सोते हो तो सारी सृष्टि सोती है| आपकी प्रगति ही सारी सृष्टि की प्रगति है|

निरंतर निदिध्यासन करते रहिये --- "मैं प्रकाशों का प्रकाश हूँ", "तत्वमसि", "सोsहं"|
आप उस ज्योतिषांज्योति से स्वयं को एकाकार कीजिये| यही आपका वास्तविक तत्व है| तब आप में कोई भय, आक्रोष और दु:ख नहीं रहेगा|

"सर्वत्र आप ही तो हो| आपका निज प्रकाश निरंतर, अविचल और शाश्वत है|
यह संसार तो छोटी मोटी तरंगों और भंवरों से अधिक नहीं है|
आप परिपूर्ण और मूर्तमान आनंद हैं|"

अपनी उच्चतर क्षमताओं को विकसित करने के लिए इसी विचार को निरंतर बल देना होगा --- "तत्वमसि, सोsहं"|| ॐ ॐ ॐ !!

= कृपा शंकर =
October 11, 2013.

तनाव से निवृति .....

(संकलन : स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के सत्संग से)
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तनाव से निवृति .....
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यदि ध्यान के अभ्यास से अहंकार और वासना क्षीण न हो तो वह मात्र एक मनोरंजक व्यायाम है| विचार और व्यवहार में परिवर्त्तन होना ध्यान की सिद्धता की सच्ची कसौटी है| मनुष्य ध्यान के द्वारा मन और बुद्धि से परे ऊर्ध्वचेतना में आरोहण करते हुए दिव्य चेतना में निमग्न होकर, शून्यता से परे पूर्णता की अवस्था में सुरदुर्लभ परमानन्दानुभूति कर सकता है| ध्यान ऊर्जा, प्रकाश, दिव्यता और आनन्द-प्राप्ति का सर्वोच्य साधन है|
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मनुष्य के मन की शक्तियां असंख्य दिशाओं में बिखरी रहती हैं| उन्हें समेटने के लिए ध्यान का अभ्यास अमोघ उपाय है| योगीजन प्रायः खेचरी मुद्रा में (अर्थात् जिह्वा को विपरीत तालु में लगाकर) भृकुटी पर दृष्टी एकाग्र करते हैं| भृकुटी का ध्यान मनुष्य के तीसरे नेत्र (अन्तर्चक्षु) को खोलकर अकल्पनीय मानसिक दृष्टि से भृकुटि में प्रकाश पर ध्यान को स्थिर किया जा सकता है|
साधक को नीरव, शान्त तथा एकान्त स्थल में सुविधाजनक मुद्रा में बैठकर धीरे-धीरे कोई छोटा-सा मंत्र (ॐ, सोऽहं, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ नमः शिवाय, नमः शिवाय कोई भी वैदिक मन्त्र) जपते हुए ध्यान का अभ्यास करना चाहिए|
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ध्यान मस्तिष्क को ऊर्जा एवं प्रकाश देकर समस्त शारीरिक क्रियाओं (रक्त-प्रवाह, श्वास, हृदय-स्पन्दन, चयापचय इत्यादि को तथा मानसिक गति को पूर्णतः नियन्त्रित करने एवं सहज बनाने में सहायक होता है तथा शरीर एवं मस्तिष्क को गहरी विश्रान्ति प्रदान कर देता है। ध्यान का अभ्यास मनुष्य को न केवल समस्त मानसिक रोगों एवं दुर्व्यसनों की रुचि से मुक्त करके पूर्णतः सन्तुलित एवं स्वस्थ कर सकता है, बल्कि उसे दिव्य जीवन की ओर भी उन्मुख कर देता है ध्यान तनाव और अनिद्रा को दूर करने का अमोघ उपाय है। ध्यान के समय़ श्वास सीधा और गहरा होकर आयुवृद्धि करता है। योगी ध्यान द्वारा अचिनत्य, कल्पनीय परमब्रह्म का साक्षात्कार कर लेते हैं। ध्यान का उद्देश्य भौतिक जगत् से ऊपर उठकर दिव्य चेतना में निमग्न होना है।
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नारायण ! प्रकृति ने मानवदेह के मध्य बिन्दु के रूप में नाभि को संस्थित किया है। मनुष्य की प्राण शक्ति ऊर्जा के रूप में चिन्तन के अनुसार ऊर्ध्वामुकी होकर मस्तिष्क की ओर अथवा अधोमुखी होकर नाभि से नीचे की ओर प्रवाहित होती है। साधक चिन्तन एवं ध्यान द्वारा चेतना के प्रवाह अथवा प्राणों की ऊर्जा के प्रवाह को ऊर्ध्वामुखी करके भोग से योग की ओर अथवा अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ता है। यही ब्रह्मचर्य एंव आनन्द प्राप्ति का सोपान है।ध्यान के अभ्यास में, विशेषतः कुण्डलिनी शक्ति के जागरण में, सिद्ध गुरु से दिशा-निर्देशन प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक होता है।
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तर्कवादी मनुष्य कदापि सूक्ष्म तत्व का ग्रहण नहीं कर सकता। पाण्डित्य-प्रदर्शन और वाक्-पटुता सूक्ष्म अनुभूति के आदान-प्रदान में बाधक होते हैं। साधक को श्रद्धा और विश्वास से परिपूरित होकर सदगुरु की शरण ग्रहण करनी चाहिए। सदगुरु गूढ़ तत्वों को सरल प्रकार से हृदयंगम करा देते हैं। ध्याननिमग्न मनुष्य न केवल स्वयं गहन शान्ति का अनुभव करता है, बल्कि अन्य समीपस्थ मनुष्यों में भी शान्ति, सद्भवाना एवं सात्त्विकता का संचार कर देता है।
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श्रीमद् भगवद्गीता में कुण्डलिनी योग की चर्चा नहीं है, यद्यपि तन्त्र विद्या में ध्यान के संदर्भ में उसका विशेष महत्व कहा गया है। साधक विभिन्न स्तरों को पार करते हुए क्रम-विकास के पथ पर अग्रसर होता है। मानव-देह में मेरुदण्ड के अधोभाग में स्थित मूलाधार चक्र में अनन्त शक्ति (सूक्ष्म नाड़ी तन्तुरुप) कुण्डली लगाये हुए सर्प की आकृति में स्थित है। मल मूत्र विसर्जन के स्थानों के समीप स्थित इस केन्द्र को शक्तिपीठ अथवा योनिपीठ भी कहते हैं। षट्कमलों अथवा षट्चक्रों का भेदन करना षट्चक्र सोपान पर चढ़ना कुण्डलिनी तत्व को जगाने (कुण्डलिनी-जागरण) की विधि है। मेरुदण्ड में तीन प्रमुख नाडियाँ हैं-सुषुम्ना (बोधिनी अथवा प्राणतोषिणी सरस्वती), इडा (गंगा) और पिंगला (यमुना) जो सत्, रज और तम की भी सूचक हैं।
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योगी त्रिवेणी से मानसिक स्नान करते हैं। मेरुदण्ड जीवन का परिचालक, पोषक एवं धारक होता है। दिव्य सहस्रदल कमल (ब्रह्मरन्ध्र) में चन्द्रमा विराजमान है, जिसका चिन्तन योगी करते हैं। सुषुम्ना के सहारे षट्चक्र इस प्रकार हैं-*मूलाधार चक्र (तत्व पृथ्वी, वर्ण पीत, देवता गणेश, सम्बद्ध वाहन हाथी। इसके कमल में चार दल हैं।
"यो गुरुः स शिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरुः स्मृतः।
उभयोरन्तरं नास्ति गुरोरपि शिवस्य च॥"
जो गुरु है, वह शिव कहा गया है, जो शिव है वह गुरु माना गया है। गुरु और शिव दोनों में अन्तर नहीं है।
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षट् चक्रों एवं सप्तम सहस्रार चक्र को सप्तलोक ( भूः भुवः स्वः तपः जनः महः सत्यम् ) भी कहा गया है। मूलाधार चक्र भूलोक तथा सहस्रार चक्र ब्रह्मलोक है। कुछ हठयोगी नाभिचक्र में मूलाधार का स्थान तथा आज्ञाचक्र में सहस्रार का स्थान मानते हैं।
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स्वाधिष्ठान चक्र (तत्व जल, वर्ण श्वेत, देवता ब्रह्मा, सम्बद्ध वाहन मगरमच्छ, इसके कमल में छह सिन्दूरी पँखुड़ियाँ हैं। )
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मणिपुर चक्र (तत्व अग्नि, वर्ण हेम, देवता विष्णु, सम्बद्ध वाहन मेष। इसके कमल में दस पँखुडियाँ हैं। )
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अनाहत चक्र (तत्व आकाश, वर्ण श्वेत अथवा सुहेम, वाहन गज। इसमें सिलेटी बैंगनी रंग की सोलह पँखुडियाँ हैं। )
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आज्ञा चक्र (इसके श्वेत कमल में केवल दो पँखुडियाँ हैं, इसका देवता महेश्वर है। ) आज्ञा चक्र में दिव्य ज्योति की अनुभूति होती है।
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नारायण ! कुण्डलिनी शक्ति जागृत होने पर असंख्य विद्युत-तरंगों के केन्द्र तथा एक हजार पंखुड़ियों के कमलवाले सहस्रार, चक्र को प्राप्त हो जाती है। चित्शक्ति जो सर्पिलरुप में, कुण्डलिनी रूप में, मूलाधार चक्र में (सुषुम्ना के विविर में) प्रसुप्त होकर स्थित है, जागृत होने पर चक्रभेदन करती हुई मस्तिष्क के मध्य में स्थित सहस्राकार चक्र तक पहुँचकर ब्रह्मलीन हो जाती है। सहस्रार चक्र का आज्ञा चक्र के साथ घनिष्ठ संबंध हैं। मेरुदण्ड शिव के पिनाक का प्रतीक है। पिनाक का एक भाग, जो मूलाधार चक्र में रहता है, चित्रकूट कहलाता है तथा सारा देह अयोध्यापुरी कहलाता है। मूलाधार के पद्म के मध्य स्थित योनि में कुण्डलिनी स्थित है। सहस्रार चक्र अथवा ब्रह्मरन्ध्र ही ब्रह्मलोक है, जहाँ महाशिवलिंग विराजमान है अथवा यह चित् स्वरुप महाशिव का कैलासरुप वास-स्थान है।
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मूलाधार चक्र के भेदन से मिट्टी-तत्व पर विजय प्राप्त होती है तथा ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण प्रारम्भ हो जाता है। योगी क्रमशः पाँचों तत्वों पर विजय पाकर ऊर्ध्वरेता हो जाता है तथा गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। कुण्डलिनी शक्ति के विविध चक्रों को पार करते समय योगी को विभिन्न ध्वनियों का श्रवण होता है। योगी में आन्तरिक ऊर्जा का विकास एवं आरोहण होता है तथा वह अपने भीतर ऊर्ध्वगमन करते हुए एक विशेष स्तर पर आकर गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो जाता है अर्थात् जड़ता से मुक्त हो जाता है और उसके जीवन में सत्यं शिवं सुन्दरम् का समावेश हो जाता है। भौतिक आकर्षण से विमुक्त होकर वह सहज प्रेम और करुणा से परिपूर्ण हो जाता है। योगी को अनेक सूक्ष्म शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। अष्ट सिद्धि उसे हस्तगत हो जाती है, किंतु योगी का लक्ष्य दिव्यसुधापान है।
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ब्रह्मरन्ध्र का संबंध सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के साथ होता है। सुषुम्ना मूलाधार से सहस्रार तक अखण्डरूप से स्थित रहती है तथा उमा की प्रतीक कही जाती है। मूलाधार चक्र के भेदन से ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण प्रारंभ हो जाता है। जब वाग्देवी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर सुषुम्ना के द्वारा मूलाधार के सहस्रार तक प्रवाहित हो जाती है, मूलाधार को सहस्रार से जोड़ देती है, वह उमा-शिव-मिलन भी कहलाता है तथा साधक को महाभाव की मधुर मूर्च्छा, दिव्यावेश, असह्य आनन्द, सौन्दर्य-दर्शन इत्यादि का अनुभव होता है तथा ऊर्ध्वागामी चेतना का परम चेतना के साथ ऐक्य होने पर परमानन्द प्राप्ति हो जाती है। इस ध्यान-प्रक्रिया में मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध, जालन्धर बन्ध, महाबन्ध तथा खेचरी मुद्रा सहायक होते हैं।
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ॐकार का नाद नाभिकमल से उत्थित होकर अनाहत चक्र को झंकृत करता हुआ कण्ठस्थित विशुद्ध चक्र में स्फुट होता है तथा योगियों को स्फोट एवं नाद का दिव्य अनुभव होता है। ॐकार का वासस्थान आज्ञा चक्र होने के कारण भृकुटी पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तथा भृकुटी पर चन्दन का तिलक किया जाता है। वास्तव में समस्त मस्तक ऊर्जा का संवेदनशील स्थल होता है।
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नारायण ! ध्यान की साधना से मनुष्य ऐसी मानसिक अवस्था को प्राप्त हो जाता है, जब उसे घोर दुःख भी विचलित नहीं कर सकते। साधक विद्युत के वेग से सदृश प्रसारित होनेवाली दिव्य शक्ति का अनुभव समस्त देह, मन और मस्तिष्क में करता है तथा वह सभी अङ्मों में उसकी व्याप्ति देखता है। संसिद्ध योगी सम्पूर्ण प्राणियों में भगवान् का दर्शन करता है तथा समदर्शी होता है। यदि मृत्यु होने तक साधना अपूर्ण रह जाती है, साधक आगामी जन्मों में पुराने संस्कारों के बल से पुनः साधना की उच्चभूमि की प्राप्ति का प्रयत्न करता है तथा अन्त में परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। मनुष्य का मन परमात्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं पूर्ण विश्रान्ति नहीं पा सकता। श्रद्धापूर्वक भगवद्भजन करनेवाला सर्वश्रेष्ठ होता है।
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कर्मयोगी के लिए परिवार सम्पूर्ण साधना का श्रेष्ठ केन्द्र-स्थल होता है। यद्यपि आद्यात्मिक प्रगति में तीर्थों का विशेष महत्व है, कर्मयोगी के लिए सत्य, क्षमा, इन्द्रयि-संयम प्राणियों के प्रति दयाभाव तथा सरल व्यवहार भी तीर्थ होते हैं। कर्मयोगी इन गुणों का अभ्यास परिवार में कर सकता है। परिवार के सदस्य उत्तम भावना, विचार, वचन और व्यवहार द्वारा परिवार को स्वर्ग बना सकते हैं। अपार भौतिक सम्पदा, वैभव और ऐश्वर्य में सुख देने की क्षमता नहीं होती। कर्मयोगी को सद्गुणों की अपेक्षा भौतिक सम्पदा को तुच्छ मानकर सद्गुणों के विकास एवं अभ्यास पर बल देना चाहिए। संघटित परिवार प्रत्येक सदस्य की संकटवेला में पूर्ण सहायता का श्रेष्ठ आश्वासन (बीमा) होता है, किंतु अविवेकीजन की क्षुद्रता, संकीर्णता तथा असहनशीलता के कारण परिवार टूट जाते हैं।
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नारायण ! घृणा को घृणा से, कटुता को कटुता से, क्रोध को क्रोध से, दुष्टता को दुष्टता से, हिंसा को हिंसा से, क्षुद्रता को क्षुद्रता से, असत्य को असत्य से तथा अन्धकार को अन्धकार से कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है, किंतु घृणा को प्रेम से, कटुता को मधुरता से, क्रोध को क्षमा से, दुष्टता को साधुता से, हिंसा को अहिंसा से, क्षुद्रता को उदारता से, असत्य को सत्य से तथा अन्धकार को प्रकाश से ही जीता जा सकता है। मनुष्य की व्यक्तिगत सुखभोग की कामना महान् पुरुषार्थ को भी तुच्छ स्वार्थ बना देती है तथा यज्ञ-भावना (उदार-वृत्ति) पुरुषार्थ को परमार्थ बना देती है। सत्य प्रेम और सेवा मन के विष को धोकर उसे निर्मल बना देते हैं, संयम, सादगी और संतोष मनुष्य को सुख एवं शान्ति देते हैं तथा आध्यात्मिक भाव (ज्ञान, ध्यान एवं भक्ति) उसे आनन्द एवं दिव्यता प्रदान कर सकते हैं। सत्य, क्षमा, इन्द्रिय-संयम, दयाभाव तथा सरल व्यवहार का अभ्यास परिवार को सुगठित एवं सुखमय बना देते हैं। परिवार समाज की महत्वपूर्ण इकाई होता है तथा परिवारों के सुदृढ़ होने पर समाज हो जाता है। जो मनुष्य परिवार के लिए उपयोगी होता है, वहीं समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होता है।
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नारायण ! मनुष्य का मन ही सुख और दुःख का कारण होता है तथा मनुष्य स्वयं अपने विचारों द्वारा अपने मन का निर्माण करता है। मनुष्य जैसा चिन्तन करता है, वैसा ही मन हो जाता है, मन के स्वरुप का निर्माण चिन्तन द्वारा हो जाता है। अतएव स्वाध्याय (उत्तम ग्रन्थों का अध्ययन) तथा सत्संग का जीवन में अतुलनीय महत्व होता है। स्वाध्याय एवं सत्संग का जीवन में अतुलनीय महत्व होता है। स्वाध्याय एवं सत्संग से विवेक उत्पन्न होता है तथा मनुष्य विवेक द्वारा कामना आदि दोषों की निवृत्ति कर सकता है।
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विवेकशील पुरुष प्रेम, क्षमा, सहनशीलता तथा सेवाभाव से अपने चारों ओर मधुर वातावरण का निर्माण कर लेता है तथा विवेकहीन मनुष्य अंहकार, घृणा, क्रोध, संकीर्णता तथा स्वार्थ से अपने चारो ओर शत्रुतापूर्ण वातावरण का निर्माण कर लेता है तथा अकेला पड़कर सभी दूसरों को दोष देता रहता है। स्वार्थपूर्ण तथा अंहकारपूर्ण मनुष्य को अपने अतिरिक्त कोई व्यक्ति उत्तम प्रतीत नहीं होता तथा अन्त में वह स्वयं से भी घृणा करके दुखी, व्याकुल तथा अशान्त हो जाता है।
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स्वार्थ विकास-प्रक्रिया में बाधक तथा स्वार्थत्याग सहायक होता है। कर्मयोगी अपने कर्मक्षेत्र में भयरहित एवं चिन्तारहित होकर कर्म करता है तथा सहज प्रसन्न रहता है। वह किसी के क्रुद्ध होने पर प्रतिक्रियात्मक क्रोध नहीं करता और कटुता का उत्तर मधुरता से देता है। कच्चा फल कठोर और कटु होता है तथा पकने पर मृदु और मधुर हो जाता है। परिपक्व उत्तम पुरुष प्रेमरसपूर्ण, मृदु और मधुर हो जाता है।
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सब मनुष्यों में परमात्मा का दर्शन करनेवाला पुरुष किसी का अपमान नहीं करता तथा निःस्वार्थ जन-सेवा को प्रभु-सेवा अथवा परमेश्वर की पूजा ही मानता है। कर्मयोगी अपना व्यवहार शुद्ध करके आत्मशुद्धि करता है। छठे अध्याय का अन्तिम श्लोक आगामी छह अध्यायों में उपासना (भक्ति) की प्रधानता का सूचक है, यद्यपि गीता के तीनों की षट्कों में कर्म, भक्ति और ज्ञान का समानान्तर प्रतिपादन है। इति शम्
जय जय शङ्कर हर हर शङ्कर । काशी शङ्कर पालय माम् ॥
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साभार : पूज्यपाद स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी