Wednesday, 20 August 2025

"अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति" और "पुरुषोत्तम-योग" --

 "अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति" और "पुरुषोत्तम-योग" --

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गीता के १३वें अध्याय के ११वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण "अनन्य-योग और अव्यभिचारिणी भक्ति" का उपदेश देते हैं। इसके लिये परम वैराग्य चाहिए जो इस जन्म में तो मेरे पास नहीं है। लगता है मुझे मनुष्य देह में और जन्म लेने होंगे। इस जन्म में तो यह संभव नहीं है। यह भक्ति की पराकाष्ठा है।
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"अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति" का अर्थ है -- परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम और समर्पण, जिसमें किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु के प्रति किसी भी तरह का कोई प्रेम या आसक्ति नहीं रहती है। यह ईश्वर से अन्य किसी भी सांसारिक वस्तु या व्यक्ति से प्रेम नहीं करने की स्थिति है, जो भक्ति में स्थिरता और पूर्णता को दर्शाता है।
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ऐसे ही गीता का सार -- १५वें अध्याय का पुरुषोत्तम-योग है, जिसे भगवान की परम कृपा से ही समझा जा सकता है। यह बुद्धि का विषय नहीं है। वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण ने करुणावश अपनी परम कृपा कर के यह विषय मुझे बहुत अच्छी तरह से समझाया है। यह योगमार्ग की उच्चतम साधना है। लेकिन इतना जीवन शेष नहीं है कि मैं इसे निज जीवन में अवतरित कर सकूं।
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मैं भगवत् कृपा पर निर्भर हूँ। जीवन का हर क्षण उन्हें समर्पित है। साधक, साध्य और साधना वे स्वयं ही हैं। उनसे पृथक चिंतन का विषय कुछ भी अन्य नहीं है।
ॐ तत्सत्।
कृपा शंकर
३ अगस्त २०२५

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