Friday, 29 August 2025

हमारी आध्यात्मिक साधना का एकमात्र उद्देश्य -- धर्म की संस्थापना है, अन्य कुछ भी नहीं।

हमारी आध्यात्मिक साधना का एकमात्र उद्देश्य -- धर्म की संस्थापना है, अन्य कुछ भी नहीं। ईश्वर भी अवतार लेते हैं तो धर्म की संस्थापना के लिए ही लेते हैं। हम शाश्वत आत्मा हैं, जिसका स्वधर्म -- निज जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति है। उसी के लिए हम साधना करते हैं। परमात्मा तो हमें सदा से ही प्राप्त हैं, लेकिन माया का एक आवरण हमें परमात्मा का बोध नहीं होने देता। जब उस आवरण को हटाने का प्रयास करते हैं तो कोई न कोई विक्षेप सामने आ जाता है। इस आवरण और विक्षेप से मुक्त हुए बिना परमात्मा का बोध नहीं होता। माया के इस आवरण और विक्षेप को हटाना ही ईश्वर की प्राप्ति है। निज जीवन में यही धर्म की संस्थापना है। अवतृत होकर ईश्वर इस कार्य को एक विराट स्तर पर करते हैं। यहाँ मैं गीता के पाँच श्लोक उद्धृत कर रहा हूँ, जो हरिःकृपा से इस विषय को समझाने के लिए पर्याप्त हैं ---

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4.8।।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।4.9।।
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।4.10।।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4.11।।
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हरिःकृपा / गुरुकृपा से जैसा समझ में आया वैसा ही लिख दिया। सब पर हरिःकृपा हो। ॐ तत्सत् ॥
कृपा शंकर
२५ अगस्त २०२५

परमात्मा से अनुराग ---

 परमात्मा से अनुराग ---

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जैसे जैसे इस भौतिक शरीर की आयु बढ़ती जा रही है, उसी अनुपात में परमात्मा के प्रति अनुराग (परमप्रेम) भी निरंतर बढ़ता जा रहा है। किसी भी तरह की कोई आकांक्षा नहीं रही है। केवल एक अभीप्सा है, जिसमें ही तृप्ति, संतुष्टि और आनंद है।
यह सृष्टि उन पुराण-पुरुष परमात्मा की है, जिनकी प्रकृति अपने नियमों के अनुसार इसे चला रही है। उनके नियमों को न जानना हमारी भूल है।
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दो दिन पूर्व स्वयं भगवान ने ही ध्यान में मुझे बताया था कि हमारी आध्यात्मिक साधना का एकमात्र उद्देश्य धर्म की संस्थापना है। भगवान भी अवतार केवल धर्म की संस्थापना के लिए ही लेते हैं, अन्य किसी उद्देश्य के लिए नहीं। "संस्थापना" और "स्थापना" इन दोनों शब्दों के अर्थों में अत्यधिक अंतर है। भगवान तो हमें सदा से ही प्राप्त हैं, उनकी प्राप्ति के लिए कोई साधना नहीं करनी पड़ती। भगवान की माया के आवरण और विक्षेप -- हमारे और भगवान के मध्य में एक धुएं की एक पतली दीवार के रूप में हैं। उस आवरण और विक्षेप को हटाना ही भगवत्-प्राप्ति यानि परमात्मा का साक्षात्कार है।
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ये आवरण और विक्षेप हटते हैं -- परमात्मा के प्रति परम अनुराग (प्रेम), अभीप्सा और ध्यान-साधना से। "भक्ति" कोई करने की चीज नहीं है, यह एक अवस्था है जो हमें स्वयं में जागृत करनी पड़ती है। भक्ति से ही ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न होते हैं। भक्ति "माता" है तो "ज्ञान" और "वैराग्य" उसके पुत्र हैं।
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हम एक शाश्वत आत्मा हैं जिसका स्वधर्म परमात्मा को पूर्ण समर्पण -- यानि परमात्मा की स्वयं में पूर्ण अभिव्यक्ति है। अन्य कोई दूसरा स्वधर्म नहीं है।
.श्रीमद्भगवद्गीता से मेरे सारे संशयों का निवारण हुआ है। अतः गीतापाठ, शिवपूजा और परमात्मा की (पुरुषोत्तम या परमशिव के रूप में) ध्यान-साधना ---- ये ही मेरी उपासना हैं। अन्य सब कुछ मैंने भुला दिया है। अन्य विषयों पर मैं अब चर्चा ही नहीं करता।
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गीता में निर्भीकता, वीतरागता, स्थितप्रज्ञता, ब्राह्मी-स्थिति, निस्त्रेगुण्यता, साधना, अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति, और पूर्ण समर्पण --- ये मुझे निरंतर परम आकर्षित करते हैं। गीता में भक्ति और ज्ञान के उपदेश उनके लिये हैं जिनमें सतोगुण प्रधान हैं। कर्मयोग उनके लिए हैं जिन में रजोगुण प्रधान है। जिन में तमोगुण प्रधान है, वे गीता को नहीं समझ सकते। उनमें पात्रता नहीं है।
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अंत में धर्म के बारे में दो शब्द कहना चाहता हूँ। धर्म वह है जो धारण किया जाता है। उसके दस लक्षण मनुस्मृति में दिये हुए हैं। उसकी सर्वमान्य परिभाषा कणाद ऋषि के वैशेषिक सूत्रों में दी हुई है। याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों ने उपनिषदों में, और महाभारत में अनेक महापुरुषों द्वारा अनेक बार इसकी विस्तृत व्याख्या की गयी है।
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त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥" (गीता)
( आप आदिदेव और पुराण (सनातन) पुरुष हैं। आप इस जगत् के परम आश्रय, ज्ञाता, ज्ञेय, (जानने योग्य) और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप आपसे ही यह विश्व व्याप्त है॥
Thou art the Primal God, the Ancient, the Supreme Abode of this universe, the Knower, the Knowledge and the Final Home. Thou fillest everything. Thy form is infinite.
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२६ अगस्त २०२५
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पुनश्च: --- हमारे मूलाधारचक्र के त्रिभुज में एक शिवलिंग है, वहीं पर गणपति गणेश हैं, और कुंडलिनी महाशक्ति भी वहीं पर सुप्त हैं। हमारा निवास इस सृष्टि की अनंतता से भी परे परमशिव में है। वहाँ से हमें हमारी सूक्ष्म देह की सुषुम्ना नाड़ी की ब्राह्मी-उपनाड़ी (ब्रह्मनाड़ी) के माध्यम से एक विशिष्ट विधि से बार बार अवतरित होकर उस शिवलिंग को नमन करना पड़ता है। तत्पश्चात उसी मार्ग से ऊर्ध्वगमन होता है। ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय सद्गुरु के मार्गदर्शन में ही यह साधना होती है। कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन ही योग-साधना है। यह योग और तंत्र की उच्चतम साधना है। यह गोपनीय साधना है, यदि यह प्राप्त हो जाये, और इसे आप करते रहें। आपका जीवन कृतार्थ और कृतकृत्य हो जाएगा।

"कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।"

"कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।"

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आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों का सिद्धांत, और पुनर्जन्म -- ये अटल सत्य हैं। हमारा पुनर्जन्म भगवान की इच्छा से नहीं, हमारी स्वयं की इच्छा से होता है। हमारे मन में छिपी कामनाएँ ही हमारे पूनर्जन्म का कारण हैं, न कि भगवान की इच्छा। हमारा सनातन धर्म -- सत्य पर आधारित है, इसीलिए वह कभी नष्ट नहीं हो सकता। संसार मे यदि सभी हिंदुओं की हत्या कर भी दी जाये तो भी सनातन धर्म नष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि जिन अपरिवर्तनीय सत्य शाश्वत सिद्धांतों पर यह खड़ा है उनको फिर कोई मनीषी अनावृत कर देगा। संसार में यदि कहीं कोई सुख-शांति है तो वह इन मूलभूत सत्य सिद्धांतों के कारण ही है। जहाँ पर इन सत्य सिद्धांतों की मान्यता नहीं है, वहाँ अशांति ही अशांति है।
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राग-द्वेष व अहंकार से मुक्ति -- वीतरागता कहलाती है। यह वीतरागता और सत्यनिष्ठा ही मोक्ष का हेतु है। एकमात्र सत्य -- भगवान हैं। भगवान से परमप्रेम और समर्पण -- सत्यनिष्ठा कहलाते है। सत्य की खोज -- मनुष्य की एक शाश्वत जिज्ञासा है, वह शाश्वत जिज्ञासा ही इन सत्य सनातन सिद्धांतों को पुनः अनावृत कर देगी। भौतिक देह की मृत्यु के समय जैसे विचार हमारे अवचेतन मन में होते हैं, वैसा ही हमारा पुनर्जन्म होता है। हमारे पुनर्जन्म का कारण हमारे अवचेतन में छिपी हुई सुप्त कामनाएँ हैं, न कि भगवान की इच्छा।
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हम अपनी भक्ति के कारण ही कहते हैं कि यह सृष्टि भगवान की है, अन्य कोई कारण नहीं है। हम भगवान के अंश हैं अतः भगवान ने हमें भी अपनी सृष्टि रचित करने की छूट दी है। भगवान की सृष्टि में कोई कमी नहीं है। कमी यदि कहीं है तो वह अपनी स्वयं की सृष्टि में है। ये चाँद-तारे, ग्रह-नक्षत्र, और प्रकृति -- भगवान की सृष्टि है, और हमारे चारों ओर का घटनाक्रम -- हमारी स्वयं की सृष्टि है, भगवान की नहीं।
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(१) हमारे सामूहिक विचार ही घनीभूत होकर हमारे चारों ओर सृष्ट हो रहे हैं। जिन व्यक्तियों की चेतना जितनी अधिक उन्नत है, उनके विचार उतने ही अधिक प्रभावी होते हैं। अतः हमारे चारों ओर की सृष्टि -- हमारी स्वयं की सृष्टि है, भगवान की नहीं।
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(२) हम जो कुछ भी हैं, वह अपने स्वयं के ही अनेक पूर्व जन्मों के विचारों और भावों के कारण हैं, न कि भगवान की इच्छा से। हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं, जिनका फल निश्चित रूप से मिलता है। इन कर्मफलों से हम मुक्त भी हो सकते हैं, जिसकी एकमात्र विधि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताई है। अन्य कोई विधि नहीं है।
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(३) प्रकृति के नियमों के अनसार कुछ भी निःशुल्क नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। बिना कीमत चुकाये मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता। कुछ भी प्राप्त करने के लिए निष्ठा पूर्वक परिश्रम करना पड़ता है। हमारी निष्ठा और परिश्रम ही वह कीमत है। भगवान को प्राप्त करने के लिए भी भक्ति, समर्पण, श्रद्धा-विश्वास, लगन, और निष्ठा रूपी कीमत चुकानी होती है। मुफ्त में भगवान भी नहीं मिलते।
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कभी मैं भिखारियों की भीड़ देखता हूँ तो उनमें मुझे कई तो पूर्व जन्मों के बड़े-बड़े हाकिम (प्रशासक) दिखाई देते हैं, जिनसे कभी दुनियाँ डरती थी। उनकी मांगने की आदत नहीं गई तो भगवान ने इस जन्म में उनकी नियुक्ति (duty) यहाँ लगा दी। जो जितने बड़े घूसखोर, कामचोर, ठग, छल-कपट करने वाले, दूसरों का अधिकार छीनने वाले, और पाप-कर्म में रत रहने वाले अत्याचारी हैं -- उन को ब्याज सहित सब कुछ बापस चुकाना पड़ेगा। प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगी। नर्क की भयानक यातनाओं के रूप में उनसे उनके पापकर्म की कीमत बसूली जाएगी।
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आप सब के हृदय में प्रतिष्ठित परमात्मा को मैं नमन करता हूँ। वे ही मेरे प्राण और अस्तित्व हैं। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२८ अगस्त २०२१
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पुनश्च :--- "कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।"
इसमें ईश्वर मात्र दृष्टा हैं। करुणानिधान होने के कारण मनुष्य को सही मार्ग दिखाने का प्रयास करते हैं लेकिन हस्तक्षेप नहीं करते। कर्मफल में उनकी कोई भूमिका नहीं होती है।

गणेश चतुर्थी के दिन आज भगवान श्रीगणेश का आदेश है कि अवशिष्ट जीवन भूमा के ध्यान में ही बिताया जाये ---

गणेश चतुर्थी के दिन आज भगवान श्रीगणेश का आदेश है कि अवशिष्ट जीवन भूमा के ध्यान में ही बिताया जाये। साकार और निराकार में कोई भेद नहीं है। दोनों अन्तर्मन की अवस्थाएँ हैं। ओंकार रूप में जो परमात्मा हैं, उन्हीं का साकार रूप श्रीगणेश हैं। पञ्चप्राण उनके गण हैं जिनके वे गणपति हैं। पञ्चप्राणों के पाँच सौम्य, और पाँच उग्र रूप -- दस महाविद्याएँ हैं।

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ब्रह्मविद्या के प्रथम आचार्य -- भगवान सनत्कुमार से उनके प्रिय शिष्य देवर्षि नारद ने पूछा -- "सुखं भगवो विजिज्ञास इति"। जिसका उत्तर भगवान् श्री सनत्कुमार जी का प्रसिद्ध वाक्य है -- "यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति"। भूमा में यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में नहीं । जो भूमा है, व्यापक है, वह सुख है। कम में सुख नहीं है। भूमा का अर्थ है -- सर्व, विराट, विशाल, अनंत, विभु, और सनातन।
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भूमा-तत्व का ध्यान ही जीवन में परमात्मा को व्यक्त करने का मार्ग है। जो सब तरह के भेदों और सीमाओं से परे है, वह है भूमा-तत्व। यह सृष्टि की और हमारे जीवन की संपूर्णता है। जो भूमा है, वह सनातन, बृहत्तम, विभु, सर्वसमर्थ, नित्यतृप्त ब्रह्म है। जो भूमा है, वही सुख है, वही अमृत और सत्य है। "भूमा" में ही सुख है, अल्पता में नहीं। पूर्ण भक्ति से समर्पित होकर परमात्मा की अनंतता और विराटता पर ध्यान करते करते "भूमा" की अनुभूति होती है।
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दूसरे शब्दों में "भूमा" -- साधना की लगभग पूर्णता है। मनुष्य का शरीर एक सीमा के भीतर एक भूमि है। इस सीमित शरीर का जब विराट् से सम्बन्ध हो जाता है, तब यह भूमा है। आत्म-साक्षात्कार के पश्चात जो अनुभूति होती है, वह भूमा है। भूमा एक अनंत विराटता की अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। इसकी अनुभूति उन्हें ही होती है जो परमात्मा की अनंत विराटता पर ध्यान करते हैं।
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"भूमा" तत्व का ध्यान और सिद्धि -- जीवन की संपूर्णता है।
"यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति भूमानं भगवो विजिज्ञास इति॥ (छान्दोग्योपनिषद (७/२३/१)
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महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपने कालजयी महाकाव्य "कामायनी" में भूमा शब्द का प्रयोग किया है --
"तपस्वी, क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग?
जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही "भूमा" का मधुमय दान।
(कामायनी)
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ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। ईश्वर की अनुभूति हमें ज्योतिर्मय-ब्रह्म, भूमा, व सच्चिदानंद के रूप में होती है। जब सहस्त्रार का ऊपरी आवरण हट जाता है, तब ज्योतिर्मय अनंताकाश और उससे परे परमशिव की अनुभूति होती है। अनंत विराटता में परमात्मा की अनुभूति ही भूमा है।
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गुरुकृपा ही वेदान्त-वासना और भूमा-वासना की तृप्ति के रूप में फलीभूत होती है। गुरु रूप में स्वयं परमशिव ही 'दक्षिणामूर्ति' हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के पंद्रहवें अध्याय में जिस पुरुषोत्तम-योग का उपदेश जगदगुरु भगवान श्रीकृष्ण ने किया है, वह अंतिम योग, और योग-साधना की परिणिति है। उससे परे कुछ भी नहीं है। लेकिन वह गुरु-रूप में उनकी परम कृपा से ही समझ में आ सकता है।
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हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ अगस्त २०२५

Thursday, 28 August 2025

"मैं" स्वयं ही ऊर्जा हूँ ---

आज प्रातः भोर में तीन बजे के लगभग मैं सो रहा था, तब सूक्ष्म जगत में एक ज्योति मेरे समक्ष प्रकट हुई जिसने तुरंत ही नींद से और बिस्तर से उठा दिया। स्वभाविक रूप से हो रहा मेरा अजपा-जप आरंभ हो गया, और मैं सीधा बैठ गया। एक Oscillator की तरह मेरी सूक्ष्म देह के समक्ष उसका Oscillation पूरी सृष्टि को स्पंदित और क्रियाशील कर रहा था। मैंने उससे पूछा कि तुम्हें ऊर्जा कहाँ से मिलती है? उसने कहा कि मैं स्वयं ही ऊर्जा हूँ। वह ज्योति सूक्ष्म देह के सहस्त्रारचक्र में प्रवेश कर गई और लुप्त हो गई। उस ज्योति का प्राकट्य एक पाठ पढ़ा गया। मेरे लिए यह एक महत्वहीन सामान्य घटना थी, लेकिन फिर भी उसे स्वयं के लाभार्थ ही यहाँ लिख लिया है। थोड़ी देर में बात आयी-गयी हो जाएगी और मैं इसे भूल जाऊंगा। २९ अगस्त २०२२

Wednesday, 27 August 2025

आज की अधिकांश मनुष्यता - "कचरा" मनुष्यता है ---

 आज की अधिकांश मनुष्यता - "कचरा" मनुष्यता है ---

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कामज संतानों के कारण आज की अधिकाँश मनुष्यता -- कचरा मनुष्यता है। धर्मज संतानों के लिए माता-पिता दोनों में अति उच्च संस्कार होने आवश्यक हैं। महान आत्माओं को जन्म देना पड़ता है। इस समय सूक्ष्म जगत में अनेक महान आत्माएँ प्रतीक्षारत हैं पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए, लेकिन उन्हें सुपात्र सही माँ-बाप नहीं मिल रहे हैं, जिनके यहाँ वे जन्म ले सकें।
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जब स्त्री के अंडाणु और पुरुष के शुक्राणु का संयोग होता है उस समय सूक्ष्म जगत में एक विस्फोट सा होता है। उस समय जननी यानी माता के जैसे विचार होते हैं, वैसी ही आत्मा आकर गर्भस्थ हो जाती है। पिता के विचारों का भी प्रभाव पड़ता है पर बहुत कम। बच्चा गर्भ में आये उस से पूर्व ही तैयारी करनी पड़ती है। प्राचीन भारत ने इतनी सारी महान आत्माओं को जन्म दिया क्योंकि प्राचीन भारत में एक गर्भाधान संस्कार भी होता था। संतानोत्पत्ति से पूर्व पति-पत्नी दोनों लगभग छः माह तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते थे, उस काल में परमात्मा की उपासना करते और चित्त में उच्चतम भाव रखते थे। अनेक महान आत्माएँ लालायित रहती थीं ऐसी दम्पत्तियों के यहाँ जन्म लेने के लिए।
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फिर अन्य भी संस्कार होते थे। बच्चे की शिक्षा उसी समय से आरम्भ हो जाती थी जब वह गर्भ में होता था। बालक जब गर्भ में होता है तब माता-पिता दोनों के विचारों का और माता के भोजन का प्रभाव गर्भस्थ बालक पर पड़ता है।
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प्रत्येक हिन्दु के सौलह संस्कार होते थे। कई महीनों के ब्रह्मचर्य और उपासना के पश्चात् वासना रहित संभोग के समय गर्भाधान संस्कार, फिर गर्भस्थ शिशु के छठे महीने का पुंसवन संस्कार, आठवें महीने सीमंतोंन्न्यन संस्कार, भौतिक जन्म के समय जातकर्म संस्कार, जन्म के ग्यारहवें दिन नामकरण संस्कार, जन्म के छठे महीने अन्नप्राशन संस्कार, और एक वर्ष का बालक होने पर चूड़ाकर्म संस्कार -- इस तरह सात आरंभिक संस्कार होते थे। फिर अवशिष्ट जीवन में नौ संस्कार और भी होते थे। माता मन में सदा अच्छे भाव रखती थी और अच्छा भोजन करती थी। इस तरह से उत्पन्न धर्मज संतति महान होते थे। दुर्भाग्य से भारत में ही नहीं, पूरे विश्व की अधिकांश जनसंख्या "कचरा मनुष्यता" है।
ॐ तत्सत !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ अगस्त २०२३

Tuesday, 26 August 2025

रक्षा-बंधन, रक्षा-सूत्र, भगवा-ध्वज और श्रावण-पूर्णिमा .....

 रक्षा-बंधन, रक्षा-सूत्र, भगवा-ध्वज और श्रावण-पूर्णिमा .....

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(आज प्रातः रा.स्व.से.संघ झुंझुनूं की प्रौढ़ शाखा में बौद्धिक देने का मुझे आदेश हुआ| उस आदेश को मानते हुए निम्न बौद्धिक मेरे द्वारा दिया गया)
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परम पवित्र भगवा ध्वज, माननीय विभाग संघचालक जी, अधिकारीगण व उपस्थित स्वयंसेवको,
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भारत त्योहारों का देश है जहाँ पूरे वर्ष ही अनेक त्यौहार मनाये जाते हैं| संघ में हम सिर्फ छः उत्सव मनाते हैं ... वर्षप्रतिपदा, गुरुपूर्णिमा, रक्षाबंधन, शिवाजी साम्राज्य दिनोत्सव, विजयादशमी और मकर संक्रांति| आज हम रक्षा बंधन का पर्व मना रहे हैं| आज पवित्र श्रावण माह की पूर्णिमा होने के कारण रक्षाबंधन का पर्व है|
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रक्षा-बंधन वह बंधन है जो रक्षा के लिए बांधा जाता है| भगवा रंग अग्नि का रंग है जो पवित्रता का प्रतीक है| भगवा ध्वज भारत के धर्म और संस्कृति का प्रतीक है| हम परम पवित्र भगवा ध्वज को तिलक लगा कर और रक्षा-सूत्र बांधकर प्रणाम करते हैं तो यह हमारे धर्म और संस्कृति का सम्मान है| यह हमारा संकल्प है कि हम हमारे धर्म, संस्कृति और मान-सम्मान की रक्षा करेंगे|
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हम भारत को एक परम वैभवयुक्त, सशक्त और समृद्ध राष्ट्र बनाना चाहते हैं, तो वर्गभेद मिटाकर समानता और समरसता का भाव जागृत करना होगा| यह तभी संभव होगा जब हम समाज के दुर्बल, और उपेक्षित लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाकर उनमें राष्ट्र-रक्षा का भाव जागृत करेंगे| धर्म उन्हीं की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करते हैं| धर्मरक्षा हेतु हमें समाज के उपेक्षित और दुर्बल वर्ग को गले लगाना होगा| वर्तमान में देश की आतंरिक व बाह्य सुरक्षा को बड़ी चुनौतियां मिल रही हैं| इन चुनौतियों के मध्य हमारा क्या दायित्व हो सकता है, इसका निर्णय हम अपने विवेक से करें|
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श्रावण-पूर्णिमा का दिन ब्राह्मण वर्ग के लिए आत्मशुद्धि का पर्व है| वैदिक परम्परानुसार यह वेदपाठी ब्राह्मणों के लिए सबसे बड़ा त्यौहार है जो इसे श्रावणी उपाकर्म के रूप में मनाते हैं| नदियों व तालाबों के किनारे ब्राह्मण एकत्र होते हैं और आत्मशुद्धि के लिए अभिषेक व हवन करते हैं| इस में विधि-विधान से बनाया हुआ पंचगव्य, भस्म, चन्दन, अपामार्ग, दूर्वा, कुशा और मन्त्रों का प्रयोग किया जाता है| नया यज्ञोपवीत भी धारण करते हैं| गुरुकुलों में वेदपाठ का आरम्भ भी आज के दिन से ही होता है|
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एक बार कालखंड में वेदों का ज्ञान लुप्त हो गया था, स्वयं ब्रह्मा जी के पास भी वेदों का ज्ञान नहीं रहा| तब भगवान विष्णु ने हयग्रीव का अवतार लेकर फिर से वेदों का ज्ञान ब्रह्माजी को दिया| हयग्रीव अवतार में उनकी देह मनुष्य की थी पर सिर घोड़े का था| उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा थी| भगवान हयग्रीव बुद्धि के देवता है| तब से श्रावणी उपाकर्म को आत्मशुद्धि के लिए मनाते हैं| हयग्रीव नाम का एक राक्षस भी था, उसका वध भी भगवान विष्णु ने हयग्रीवावतार में किया|
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देवासुर संग्राम में देवताओं की असुरों द्वारा सदा पराजय ही पराजय होती थी| एक बार इन्द्राणी ने इन्द्र के हाथ पर विजय-सूत्र बांधा और विजय का संकल्प कराकर रणभूमि में भेजा| उस दिन युद्ध में इंद्र विजयी रहे|
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राजा बली का सारा साम्राज्य भगवान विष्णु ने वामन अवतार के रूप में दान में प्राप्त कर लिया था और सिर्फ पाताल लोक ही उसको बापस दिया| अपनी भक्ति से राजा बलि ने विष्णु को वश में कर के उन्हें अपने पाताल लोक के महल में ही रहने को बाध्य कर दिया| लक्ष्मी जी ने बड़ी चतुरता से राजा बली को रक्षासूत्र बांधकर एक वचन लिया और विष्णु जी को वहाँ से छुड़ा लाईं| तब से रक्षासूत्र बांधते समय ....
"येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल" .... मन्त्र का पाठ करते हैं|
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महाभारत में शिशुपाल वध के समय भगवान श्रीकृष्ण की अंगुली में चोट लग गयी थी और रक्त बहने लगा| तब द्रोपदी वहीं खड़ी थी| उसने अपनी साड़ी का एक पल्लू फाड़कर भगवान श्रीकृष्ण की अंगुली में एक पट्टी बाँध दी| चीर-हरण के समय भगवान श्रीकृष्ण ने द्रोपदी की लाज की रक्षा की|
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मध्यकाल में विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा हिन्दू नारियों पर अत्यधिक अमानवीय क्रूरतम अत्याचार होने लगे थे| तब से महिलाऐं अपने भाइयों को राखी बाँधकर अपनी रक्षा का वचन लेने लगीं, और रक्षासूत्र बांधकर रक्षाबंधन मनाने की यह परम्परा चल पड़ी|
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भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में पेशवा नाना साहब और और रानी लक्ष्मीबाई के मध्य राखी का ही बंधन था| रानी लक्ष्मीबाई ने पेशवा को रक्षासूत्र भिजवा कर यह वचन लिया था कि वे ब्रह्मवर्त को अंग्रेजों से स्वतंत्र करायेंगे|
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बंग विभाजन के विरोध में रविन्द्रनाथ टैगोर की प्रेरणा से बंगाल के अधिकाँश लोगों ने एक-दूसरे को रक्षासूत्र बांधकर एकजूट रहने का सन्देश दिया|
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श्रावण पूर्णिमा के दिन भगवान शिव धर्मरूपी बैल पर बैठकर अपनी सृष्टि में भ्रमण करने आते हैं| हमारे घर पर भी उनकी कृपादृष्टि पड़े, और वे कहीं नाराज न हो जाएँ, इस उद्देश्य से राजस्थान और आसपास के क्षेत्रों में महिलाऐं अपने घर के दरवाजों पर रक्षाबंधन के पर्व से एक दिन पहिले "सूण" मांडती हैं|
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अंत में मैं इस प्रार्थना के साथ अपनी वाणी को विराम देता हूँ कि .... "भारत माता अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बिराजमान हों, सम्पूर्ण भारत में असत्य और अन्धकार की शक्तियों का नाश हो, और सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा हो| वन्दे मातरं !! भारत माता की जय !!!
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कृपा शंकर
२६ अगस्त २०१८

भगवान की भक्ति में आनंद क्यों और कैसे प्राप्त होता है? ---

 भगवान की भक्ति में आनंद क्यों और कैसे प्राप्त होता है? ---

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नारद-भक्ति-सूत्रों में भगवान से परमप्रेम को भक्ति कहा गया है, जो अमृतस्वरूपा भी है। शांडिल्य-सूत्रों में ईश्वर के प्रति परम अनुराग को भक्ति कहा गया है।
>>> भक्ति -- हमारे हृदय के गहनतम प्रेम की स्वभाविक अनुभूति और अभिव्यक्ति है। इस प्रेम को जब हम सम्पूर्ण सृष्टि की अनंतता में विस्तृत कर देते हैं, तब वही प्रेम -- आनंद के रूप में लौट कर बापस हमारे पास आ जाता है। <<<
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सारा अस्तित्व ही भगवान विष्णु है। भगवान विष्णु स्वयं ही यह विश्व बन गए हैं। तत्व रूप में शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है। हम ध्यान शिव का करें या विष्णु का, या विष्णु के अवतारों का, फल एक ही है। मैं तो वही बता सकता हूँ जिसका मैं स्वयं अनुसरण करता हूँ। बाकी सब मैंने भुला दिया है।
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शिवभाव में स्थित होने के लिए सर्वप्रथम गुरु महाराज को मानसिक रूप से प्रणाम कर के, परमशिव के सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्मरूप का ध्यान भ्रूमध्य में करें। हमारी बंद आँखों के अंधकार के पीछे एक ज्योति है , उसका विस्तार सारे ब्रह्मांड में, सारी सृष्टि में कर दें। वह ज्योति ही हम स्वयं हैं, यह नश्वर देह नहीं। इस नश्वर देह को भुला दें और स्वयं ज्योतिर्मय ब्रह्मरूप में स्थित होकर सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का अजपा-जप द्वारा ध्यान करें। अजपा-जप को ही हंसःयोग, और हंसवतिऋक भी कहते हैं।
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सर्वव्यापी शिवमय होकर भ्रूमध्य में पूर्ण भक्ति से ध्यान करते करते बंद आँखों के अंधकार के पीछे एक न एक दिन प्रणव से लिपटी हुई ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है। वह ब्रह्मज्योति फिर कभी नष्ट नहीं होती। यही वह कूटस्थ है जिसका उल्लेख भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अनेक बार किया है। योगी साधक इसी सर्वव्यापी कूटस्थ ज्योति के सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करते हैं, और नादरूप में सुनाई दे रही प्रणव की ध्वनि का श्रवण करते हैं। तंत्र साधक इस ज्योति को ब्रह्मयोनि कहते हैं। इस ज्योति पर ध्यान करते करते यह ज्योति एक पंचमुखी श्वेत नक्षत्र में परिवर्तित हो जाती है। यह पंचमुखी शिव का प्रतीक है। इस नक्षत्र का भेदन करने पर योगी की चेतना परमात्मा के साथ एक हो जाती है। आज्ञाचक्र और सहस्त्रारचक्र के मध्य के भाग को परासुषुम्ना कहते हैं। जीवात्मा का निवास वहीं होता है। वहीं सारी सुप्त सिद्धियाँ और विभूतियाँ हैं। अपनी चेतना को हर समय वहीं रखने का अभ्यास करें।
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अंत में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात कहना चाहता हूँ >>>
***** परमात्मा की दृष्टि में सबसे अधिक महत्व हमारी भक्ति और समर्पण का है, अन्य सब गौण हैं। भक्ति और समर्पण में पूर्णता होगी तो अन्य सारी कमियों की ओर भगवान देखते भी नहीं हैं। अतः कौन क्या कहता है, इसका महत्व नहीं है। महत्व है परमात्मा की उपस्थिती और हमारे प्रेम व समर्पण का। तभी भगवान की विशेष परम कृपा होती है।
गीता में भगवान कहते हैं --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् -- "मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥"
इस श्लोक पर आचार्य शंकर के भाष्य का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है -- "मुझ में चित्त वाला हो कर तूँ समस्त कठिनाइयों को अर्थात् जन्ममरणरूप संसार के समस्त कारणों को मेरे अनुग्रह से तर जायगा -- सबसे पार हो जायगा। परंतु यदि तूँ मेरे कहे हुए वचनों को अहंकार से 'मैं पण्डित हूँ' ऐसा समझकर नहीं सुनेगा/ग्रहण नहीं करेगा तो नष्ट हो जायगा -- नाश को प्राप्त हो जायगा॥" *****
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अगस्त २०२३

Sunday, 24 August 2025

जो कुछ भी भगवान का है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है ---

स्वयं की (विश्व, राष्ट्र और समाज की) सारी समस्याओं, व उनके समाधान के प्रति मैं पूरी तरह सजग और अवगत हूँ। स्वयं की कमियों और क्षमता का भी पता है। परमात्मा के आदेशानुसार निज जीवन उन्हें समर्पित कर रहा हूँ।
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धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो। धर्म की पुनः प्रतिष्ठा अवश्यंभावी है, जिसे कोई नहीं रोक सकता। भगवान स्वयं धर्म की सर्वत्र पुनःस्थापना करने आ रहे हैं। हम आत्म-मुग्धता और मिथ्या अहंकार को त्याग कर सत्य-धर्मनिष्ठ बनें, अन्यथा हमारा विनाश निश्चित है। पूरे विश्व में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण होने लगा है।
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नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌ ॥
(कठोपनिषद/१/२/२३) व (मुण्डकोपनिषद/3/2/3)
अर्थात् -- यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं है, न मेधाशक्ति से, न बहुत शास्त्रों के श्रवण से 'यह' लभ्य है। यह आत्मा जिसका वरण करता है उसी के द्वारा 'यह' लभ्य है, उसी के प्रति यह 'आत्मा' अपने कलेवर को अनावृत करता है।
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हम कोई मंगते-भिखारी नहीं हैं। भगवान से कुछ मांग नहीं रहे हैं। परंतु जो कुछ भी भगवान का है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। उनकी सर्वव्यापकता हमारी सर्वव्यापकता है, उनका आनंद हमारा आनंद है, और उनका सर्वस्व हमारा है। उससे कम हमें कुछ भी नहीं चाहिये। एक पिता की संपत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है, वैसे ही उन की पूर्णता पर हमारा भी पूर्ण अधिकार है। उनकी पूर्णता से कम कुछ भी हमें नहीं चाहिए। यह शरीर महाराज भी अपना प्रारब्ध पूर्ण होते ही उनकी पूर्णता का ध्यान करते करते एक दिन छूट जाएगा। पर उनकी पूर्णता से कम कुछ भी हम स्वीकार नहीं करेंगे।
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महादेव महादेव महादेव॥ ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥ 🙏🙏🙏🙏🙏
कृपा शंकर

२४ अगस्त २०२५ 

मेरे परिचित और अपरिचित सभी जैन समाज को "मिच्छामी दुक्कड़म्" ---

मेरे परिचित और अपरिचित सभी जैन समाज को "मिच्छामी दुक्कड़म्" ---

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आज २४ अगस्त २०२२ से अगले ८ दिन तक श्वेतांबर जैन समाज, और अगले १० दिनों तक दिगंबर जैन समाज -- जैन मत का प्रमुख पर्व "पर्युषण" मनायेगा। इस पर्व को दिगंबर समाज -- "दशलक्षण", और श्वेतांबर समाज -- "अष्टांहिका" भी कहते हैं। इस अवधि में उपवास और पूजा अर्चना की जाती है, व जाने-अनजाने में किए गए सभी बुरे कर्मों की क्षमा-याचना हेतु एक-दूसरे को "मिच्छामी दुक्कड़म्" कहा जाता है। "मिच्छामी दुक्कड़म" प्राकृत भाषा का शब्द है। मिच्छामी का अर्थ क्षमा और दुक्कड़म का अर्थ दुष्ट-कर्म होता है, अर्थात जाने-अनजाने किए गए बुरे कर्मों के प्रति क्षमा याचना करना। हम कभी ना कभी जाने-अनजाने में मन, वचन या कर्म से किसी न किसी व्यक्ति को दु:खी करते रहते हैं। अतः आज के दिन क्षमा याचना कर ली जाती है, और क्षमा व अभय प्रदान कर दिया जाता है।
"मिच्छामी दुक्कड़म्॥"

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ---

 यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ---

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भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के दसवें अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में स्वयं को यज्ञों में जपयज्ञ बताया है। अब प्रश्न यह उठता है कि -- हम जप किस विधि से कैसे करें? किसका जप करें? कितनी देर तक करें? आदि आदि॥ इस विषय पर अनेक मत हैं।
मेरा अनुभव यह है कि हमारे में सतोगुण, रजोगुण, और तमोगुण में से कौन सा गुण किस समय प्रधान होता है, उसी के अनुसार हमारा जप उस समय होता है। इस विषय पर मैंने अनेक लेख लिखे हैं। उस समय जैसी मेरी मनःस्थिति थी, उसी के अनुसार वे लेख लिखे गए थे। सब में कुछ न कुछ भेद अवश्य निकलेगा।
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जिसमें भक्ति है उसी से संवाद करना सार्थक है। भक्तिहीन व्यक्ति से कोई किसी भी तरह की आध्यात्मिक चर्चा करना -- अपने समय को नष्ट करना है।
जप निरंतर हर समय मूर्धा में ही करना चाहिए -- ऐसा मेरा अनुभव है। इसको समझाऊंगा। सत्संगों में तीन बार ओंकार का जप करते हैं। पहली बार मूलाधारचक्र में, दूसरी बार अनाहतचक्र में, तीसरी बार आज्ञाचक्र में करते हैं।
अपनी आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार आज्ञाचक्र, सहस्त्रारचक्र, ब्रह्मरंध्र या अपनी चेतना में इस शरीर से बाहर निकलकर अनंतता से भी परे दिखाई दे रही ज्योति में स्थित होकर जप करें।
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मूर्धा में जप का अर्थ है कि अपने जबड़े, यानि दांतों के ऊपरी भाग से भी ऊपर, तालु से आज्ञाचक्र तक के क्षेत्र में स्थित होकर जप करें। इसे मूर्धा में जप कहते हैं। यदि इससे अधिक कुछ है, तो मुझे उसका ज्ञान नहीं है।
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जप की सर्वश्रेष्ठ विधि --- तो यह है कि हमारी देह का रोम रोम जप करे। यह पूरा ब्रह्मांड हमारा शरीर है। पूरा ब्रह्मांड, यानि पूरी सृष्टि ही भगवान के नाम का जप कर रही है। हमारी चेतना पूरे ब्रह्मांड में, पूरी सृष्टि के साथ एक हो। जप या तो राम नाम (रां) का होता है या ओंकार का। दोनों का फल एक ही है।
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अपनी बात मैंने सरलतम हिन्दी भाषा में, सरलतम शब्दों में कही है। इससे अधिक सरल और कुछ नहीं हो सकता। कोई समझे या न समझे, यह उसका भाग्य है। किसी को कोई संशय है तो किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय महात्मा से मार्गदर्शन प्राप्त करें।
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पुनश्च: (बाद में जोड़ा हुआ) -- भगवान श्रीकृष्ण हमें मूर्धा में ओंकार के जप का निर्देश देते हैं। गीता के आठवें अध्याय का १२वां और १३वां मंत्र देखिये --
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८:१३||"
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सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !!​ ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२४ अगस्त २०२३

Saturday, 23 August 2025

कुंडलिनी महाशक्ति का ही साकार रूप भगवती श्रीललितामहात्रिपुरसुंदरी हैं। वे ही श्रीविद्या हैं ---

 कुंडलिनी महाशक्ति का ही साकार रूप भगवती श्रीललितामहात्रिपुरसुंदरी हैं। वे ही श्रीविद्या हैं ---

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अनेक जिज्ञासु लोग मुझे संदेश भेज कर श्रीविद्या साधना सिखाने का अनुरोध करते हैं। मुझे इसका कोई अधिकार नहीं है। इसके बारे में बहुत अधिक भ्रांतियाँ लोगों में हैं। अधिकांश लोग समझते हैं कि यह कोई धन कमाने की विद्या है। यह कोई धन कमाने की विद्या नहीं है। इसके मंत्र परम गोपनीय होते हैं। इसका परम उद्देश्य कुंडलिनी शक्ति को जागृत कर उसका परमशिव में विलय है। इसमें यम-नियमों का पालन अनिवार्य है। जिनको श्रीविद्या की साधना सीखनी है वे किन्ही दण्डी सन्यासी महात्मा से मार्गदर्शन प्राप्त करें। यह विद्या दण्डी सन्यासियों या नाथ संप्रदाय के कुछ सिद्ध योगियों से ही सीखी जा सकती है। आपका मंगल हो।
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पुनश्च : यह सिद्धों, सन्यासियों और उनके शिष्यों का विषय हैं। इस विषय पर मेरी कुछ भी टिप्पणी अनधिकृत चेष्टा होगी। इस का एकमात्र प्रामाणिक ग्रंथ "सौंदर्य लहरी" है। मेरा अनुभव तो यह है कि कुंडलिनी महाशक्ति का ही साकार रूप भगवती श्रीललितामहात्रिपुरसुंदरी हैं। वे ही श्रीविद्या हैं। भगवती के जितने भी स्तोत्र हैं, उनमें काव्यात्मक व आध्यात्मिक दृष्टि से "श्रीललितासहस्त्रनाम" सर्वश्रेष्ठ स्तोत्र है। इसकी साधना का एक क्रम है, जिसे सिद्ध गुरु ही बता सकते हैं।
कृपा शंकर
२१ अगस्त २०२५

ब्रह्मलीन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी की ग्यारहवीं पुण्यतिथि पर उनको नमन ---

ब्रह्मलीन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी की ग्यारहवीं पुण्यतिथि पर उनको नमन! उनके प्रभाव से ओडिशा के वनवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण के कार्य लगभग बंद होने लगे थे| ईसाई बन चुके वनवासियों की सनातन हिन्दू धर्म में बापसी आरम्भ हो गयी थी| इस से बौखला कर कुछ धर्मद्रोहियों ने आज से दस वर्ष पूर्व २३ अगस्त २००८ को उनकी निर्मम ह्त्या कर दी| पहले उन्हें गोली मारी गयी फिर कुल्हाड़े से उनके शरीर को कई टुकड़ों में काट डाला गया| उस क्षेत्र के लोग कहते हैं कि उनकी ह्त्या मिशनरियों ने नक्सलवादियों के साथ मिल कर करवाई|

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ऐसे संतों की भारत भूमि पर कृपा बनी रहे, धर्मोद्धार के लिए पवित्र भारतभूमि पर उनका अवतरण होता रहे| ॐ नमो नारायण ! ॐ ॐ ॐ !! कृपा शंकर
२३ अगस्त २०१९