Monday, 29 August 2016

श्रुति : ..........

श्रुति : (लेखक: सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र)
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हर श्रुति के दो खण्ड होते हैं - मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग।
श्रुति को समझने के लिए जिनकी जरूरत पड़ती है उन्हें भी विद्या कह दिया जाता है।
श्रुतियों का अर्थ करने के लिये व्याकरण की बड़ी जरूरत होती है । शब्द का निर्माण कैसे हुआ ? इसका तात्पर्य क्या है ?
प्रत्येक मंत्र में कितने अक्षर , कितनी मात्रायें हैं ? यह जानने के लिये छन्दशास्त्र की जरूरत पड़ेगी , उसे भी जानना पड़ेगा|
इसी प्रकार किस - किस मन्त्र का किस प्रकार विनोयोग है , उसे जानने के लिये कल्पसूत्रों की जरूरत है|
वेद में कर्तव्य कर्मों को करने के लिये काल बताया है । काल का निर्णय करने के लिये ज्योतिषशास्त्र की जरूरत पड़ेगी|
यह भी पता लगाना पड़ता है कि सन्दर्भानुसार शब्द का अर्थ कैसे किया जाये । कई शब्दों के अर्थ संदर्भ के बिना केवल व्याकरण के बल से निर्णीत नहीँ होते ।
संदर्भों को जाने तब श्रुतियों का अर्थ ठीक लगेगा । ये सब मिलकर छ हो गये, इन्हें वेदाङ्ग कहते हैं ।
इतने ज्ञान से वेद के अक्षरार्थ का पता लग गया लेकिन वेदो का तात्पर्य समझने के लिये ये पर्याप्त नहीं हैं।
वेद का तात्पर्य समझने के लिये पुराण , न्याय , धर्मशास्त्र और मीमांसा की जरूरत पड़ती है ।
पुराण से यहाँ इतिहास - पुराण दोनों का संग्रह है । इतिहास अर्थात् " ईश्वरी प्रसाद का इतिहास नहीं समझेंगे । बाल्मिकि रामायण और व्यास जी का महाभारत , इन दो को ही हम इतिहास समझते हैं ।
यहाँ लिखा कि " विभेत्यल्पश्रुताद् वेदः मामयं प्रहरिष्यति " जिस व्यक्ति ने वेदाङ्ग , पुराण , न्याय , धर्म- शास्त्र और मीमांसा का अध्ययन गुरु मुख से नहीं किया वह केवल अक्षरार्थ के बल से जब श्रुतियों का अर्थ करता है तो जो वेद संसार के मूल कारण अज्ञान को भी नष्ट करने में समर्थ है , वह भी काँप जाता है । " अल्पश्रुतात् " अर्थात् इन ज्ञानों को प्राप्त किये बिना जो श्रुतियों का अर्थ लगाने जाता है उससे " वेद " अर्थात् श्रुति को डर लगता है कि अब यह मेरा वध करने आ गया ।

आजकल अधिकतर लोग कहते हैं कि " वेद ही पढ़ना है तो सीधे पढ़ लें। " ऐसे लोगों से वेद ही बेचारा काँपता रहता है कि न जाने कहाँ का कहाँ अथः कर जायेंगे । वे का तात्पर्य बताने में ये चारों शास्त्र भी जरूरी है । इतिहास , पुराण के द्वारा वेद का उपबृंहण करना पड़ता है । पुराण के अन्दर सर्ग , प्रतिसर्ग , मन्वन्तर आदि कथानकों के द्वारा पता लगता है कि वेद के अमुक मन्त्र का क्या तात्पर्य है जिसको उन ऋषियों ने बताया । मंगल हो आपका ।

साधना में नियमितता .....

साधना में नियमितता .....
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परमात्मा की नियमित उपासना से धर्म के गूढ़ से गूढ़ तत्व भी अपने आप ही समझ में आ जाते हैं| जिस तरह किसी शिला के ऊपर कंकर रखकर बड़े पत्थर से पीसते रहो तो वे कंकर धूल बनकर महीन से महीन होते जाते हैं, वैसे ही चाहे कितनी भी या कैसी भी जड़ता अपने चैतन्य में हो, नियमित साधना से निरंतर रूपांतरित होती रहती है|
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सैकड़ों हज़ारों बाधाओं के बावजूद भी अपने संकल्प से टस से मस नहीं होना चाहिए| कही जाने की आवश्यकता नहीं है| घर में एक एकांत कमरे की या एकांत स्थान की व्यवस्था कर लो और वहीँ नियमित रूप से अपने आसन पर बैठकर अपने ईष्ट देव का पूर्ण प्रेम से ध्यान करो| आगे का काम उसका है, हमारा नहीं|
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पहले हम लोग कुओं से पानी भरते थे, वहाँ रस्सी के आवागमन से शिला पर निशान पड़ जाते थे| प्राचीन मंदिरों में लोगों के आवागमन से मार्ग में पत्थर की घिसी हुई शिलाओं को मैनें देखा है| कैसी भी जड़ता हो प्रभु कृपा उसे दूर कर देती है|

आप सब परमात्मा की परम अभिव्यक्ति हो| अप सब को सादर सप्रेम नमन!
ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

सारी साधनाएँ आध्यात्म की तैयारी मात्र हैं, अपने आप में आध्यात्म नहीं ........

सारी साधनाएँ आध्यात्म की तैयारी मात्र हैं, अपने आप में आध्यात्म नहीं ........
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आध्यात्म एक अनुभूति जन्य स्थिति है जिसे ईश्वर की कृपा से ही समझा जा सकता है| आत्‍म तत्व की निरंतर अनुभूति यानि परमात्मा के साथ एक होने की सतत् अनुभूति, दृष्टा दृष्टि और दृश्‍य --- इन सब का यानि ज्ञाता ज्ञान और ज्ञेय का एकाकार हो जाना, परम प्रेममय हो जाना, अकर्ता की स्थिति, साक्षी भाव का भी तिरोहित हो जाना, अनन्यता आदि ..... ये सब आध्यात्मिकता के लक्षण है| ईश्वर की कृपा से इस स्थिति को प्राप्त करना ही आध्यात्म है और जिस साधना से यह प्राप्त हो वह ही आध्यात्मिक साधना है|
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कोई मोक्ष प्राप्त करने के करने के लिए साधना करता है, वह किसी प्रयोजन के लिए, कुछ प्राप्त करने के लिए कर रहा है| यह आध्यात्म नहीं है| कोई स्त्री, पुत्र, धन-संपत्ति, मुकदमें में जीतने, सुख-शांति और व्यापार में सफलता के लिए साधना कर रहा है, वह किसी कामना पूर्ती के लिए कर रहा है| यह आध्यात्म नहीं है| जहाँ कोई माँग है वह आध्यात्म नहीं है|
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यह तो गूँगे का गुड़ है| मिश्री का स्वाद वही बता सकता है जिसने ग्रहण की हो, शेष तो अनुमान ही लगा सकते हैं अथवा उसके गुणों को नकार सकते हैं| कोई बताये भी तो क्या ? .....नेति-नेति | आत्मन्येवात्मने तुष्टः अर्थात आत्मा द्धारा ही आत्मा को संतुष्टि मिलती है|
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परमात्मा की अभिव्यक्ति आप सब दिव्य आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

शान्ति सीता समाहिता आत्मारामो विराजते .....

शान्ति सीता समाहिता आत्मारामो विराजते .....
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विश्व में अनेक अच्छी घटनाएँ भी घटित होती हैं, पर वे नहीं छपतीं| आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अनेक अच्छे अच्छे कार्य हो रहे हैं, पर वे प्रकाश में नहीं आते|
आध्यात्म मार्ग पर अग्रसर पथिक को इन बातों की परवाह नहीं करनी चाहिए| उसे तो निरंतर चलायमान रहना है| इस मार्ग में कोई विश्राम नहीं है|
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आध्यात्म मार्ग के पथिक को निरन्तर चलते ही रहना है| उसके लिए कोई विश्राम हो ही नहीं सकता| वह अनुकूलता की प्रतीक्षा नहीं कर सकता| अनुकूलता कभी नहीं आएगी| न तो समुद्र की लहरें कभी शांत होंगी और न नदियों की चंचलता ही कभी कम होगी| यह संसार जैसे चल रहा है वैसे ही प्रकृति के नियमानुसार चलता रहेगा, न कि हमारी इच्छानुसार|
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कौन क्या कहता है और क्या करता है, इसका कोई महत्व नहीं है| महत्व सिर्फ इसी बात का है कि हमारे समर्पण में कितनी पूर्णता हुई है| अपनी चरम सीमा तक का प्रयास हमें करना होगा|
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"राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम" .....
हमारी साधना ही राम का काज है जिसके पूर्ण होने तक कोई विश्राम नहीं हो सकता| हमारा प्राकट्य ही रामकाज के लिए हुआ है| अब कोई बहाना नहीं चलेगा| काम को कल पर नहीं टाल सकते| हमें तो इसी समय से जुट जाना है|
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सृष्टि के कण कण में रमण करने वाले राम जी कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है| हरि अनंत हैं और उनकी कथा भी अनंत है| सम्पूर्ण जगत सियाराममय है|
त्रेतायुग में सीता जी की खोज तो श्रीहनुमान जी ने कर ली थी पर यह जो ब्रह्म अंशी जीव "आत्माराम" है, इसकी सीता अर्थात शांति का हरण, विकार रुपी रावण नें कर लिया हैं, और निरंतर कर रहा है| उसी आत्माराम से उसकी शांति रूपी सीता का मिलन, विकार रुपी रावण का वध कर के करा देना ही हमारा रामकाज है|
आदिगुरू भगवान शंकराचार्य कहतें हैं ......
"शान्ति सीता समाहिता आत्मारामो विराजते" ......
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रावण को मारने से पहले सीता जी की खोज आवश्यक है| और यह दोनों काम बिना हनुमान जी के संभव नहीं हैं| "हनुमान" अर्थात जिसने अपने मान का हनन कर दिया हैं| अपने जीवन में अहंकार का नाश किये बिना हम अपने आत्मा रुपी "राम" से शांति रूपी "सीता" का मिलन नहीं करा सकते|
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मेरे कहने का भाव आप सब समझ गए होंगे| आध्यात्म की यात्रा में अपने अहंकार का समर्पण पहला पड़ाव है| सभी का कल्याण हो|

जय गुरु ! ॐ गुरु ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||

गुरु रूप ब्रह्म उतारो पार भव सागर के .......

गुरु रूप ब्रह्म उतारो पार भव सागर के .......
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हम प्रायः नित्य निरंतर गुरु महाराज से करुण प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु, इस भवसागर के पार उतारो| प्रार्थना करते करते अकस्मात् हम पाते हैं कि भवसागर तो कभी का पार हो गया, सिर्फ उसकी कुछ महक यानि गंध बची है जो भी शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी|
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भवसागर एक मानसिक सृष्टि है, मन से बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं है| जब मनुष्य का मन सभी बाह्य मायावी आकर्षणों और आकांक्षाओं से मुक्त होकर स्थायी रूप से परमात्मा में रम जाता है, उसी क्षण भवसागर भी पार हो जाता है| विक्षेप और आवरण (माया की दो शक्तियाँ) तो आते रहते हैं पर प्रभु प्रेम (भक्ति) की शक्ति के आगे वे विवश हैं|
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हमारी नौका (हमारी देह, मन, प्राण, बुद्धि आदि) जिस पर हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं, का कर्णधार (Helmsman) जब हम अपने सद्गुरु रूपी ब्रह्म को बना देते हैं (यानि समर्पित कर देते हैं), तब वायु की अनुकूलता (परमात्मा की कृपा) तुरंत हो जाती है| जितना गहरा हमारा समर्पण होता है, उतनी ही गति नौका की बढ़ जाती है, और सारे छिद्र भी करूणावश परमात्मा द्वारा ही भर दिए जाते हैं|
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कभी कभी कुछ काल के लिए हम अटक जाते हैं, पर अति सूक्ष्म रूप से गुरु महाराज बलात् धक्का मार कर फिर आगे कर देते हैं| धन्य हैं ऐसे सद्गगुरु जो अपने शिष्यों को कभी भटकने या अटकने नहीं देते, और निरंतर चलायमान रखते हैं|
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अपेक्षित सारा ज्ञान और उपदेश भी वे किसी ना किसी माध्यम से दे ही देते हैं|
अतः भवसागर पार करने की चिंता छोड़ दो और .... ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः यानि ब्रह्मज्ञ होकर केवल ब्रह्म में ही स्थित होने का निरंतर प्रयास करो| यही साधना है और यही उपासना है| अपनी नौका के कर्ण (Helm) के साथ साथ अपना हाथ भी उनके ही हाथों में सौंप दो और उन्हें ही संचालन (Steer) करने दो| वे इस नौका के स्वामी ही नहीं, बल्कि नौका भी वे स्वयं ही है| इस विमान के चालक ही नहीं, विमान भी वे स्वयं ही हैं|
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(क्षमा कीजिये, इनसे और अधिक सरल व स्पष्ट शब्दों में अपने भावों को व्यक्त करने में मैं असमर्थ हूँ)
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>>> जिन्हें मार्गदर्शन चाहिए, वे कुटिलता त्याग कर, सत्यनिष्ठ बन कर पात्रता अर्जित करें, और किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य गुरु की शरण लें| मैं किसी का गुरु नहीं हूँ और न ही गुरु पद के लिए अधिकृत हूँ| एक अच्छा शिष्य ही बनने का प्रयास कर रहा हूँ| <<<
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ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ॐ शिव ॐ शिव ! भगवान परमशिव सबका कल्याण करें|
ॐ ॐ ॐ !!

हमारे शाश्वत और एकमात्र मित्र भगवान ही हैं .........

हमारे शाश्वत और एकमात्र मित्र भगवान ही हैं .........
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जीवन में अनेक व्यक्तियों से हमारा मिलना होता है| उनमें से अनेक हमारे मित्र बन जाते हैं| कुछ अच्छे मित्र बनते हैं और उनमें से कुछ शत्रु भी बन जाते हैं| बहुत अधिक घनिष्ठता भी घृणा में बदल जाती है| कई मित्रों से जीवन में दुबारा मिलना ही नहीं होता और कई काल कवलित हो जाते हैं| स्थायी और शाश्वत मित्रता की तो हम इस सृष्टि में कल्पना भी नहीं कर सकते| सारे सम्बन्ध निजी हितों और अपेक्षाओं पर आधारित हैं| जब हित आपस में टकराते हैं या अपेक्षाएँ पूरी नहीं होतीं तब मित्रता समाप्त हो जाती है|
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पर एक मित्र ऐसा भी है जो कभी साथ नहीं छोड़ता, जिसकी मित्रता अहैतुकी यानि बिना किसी शर्त के शाश्वत है| वह मित्र हर समय हमारे ऊपर दृष्टी रखता है, निरंतर हमारी रक्षा करता है और कभी साथ नहीं छोड़ता| जब हमने जन्म लिया उससे पूर्व भी वह हमारे साथ था और मृत्यु के पश्चात भी वह ही हमारे साथ रहेगा| वह इतना समीप है कि उसे हम देख नहीं पाते| दिखाई देने के लिए भी कुछ दूरी चाहिए पर उससे कोई दूरी नहीं है| उस मित्र ने ही माता-पिता के रूप में हमें प्यार किया| वह ही भाई-बहिन, सारे सम्बन्धियों और मित्रों के रूप में आया| हमारी इस देह के ह्रदय में भी वह ही धड़क रहा है, हमारी आँखों से वह ही देख रहा है, और हमारे पैरों से वह ही चल रहा है| वास्तव में यह देह भी उसी की है जो उसने हमें लोकयात्रा के लिए दी है|
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उसकी मित्रता तो हमारे से अहैतुकी यानि unconditional है, पर हम अपना हित या conditions थोप देते हैं तब ही वह हमारे सामने नहीं आता| हमारी सारी सांसारिक धन-संपत्ति, सारा सांसारिक ज्ञान, सारी सांसारिक उपलब्धियाँ, और सारी सांसारिक प्रतिबद्धताएँ और सारे सांसारिक सम्बन्ध तभी तक हैं जब तक वह इस देह के ह्रदय में धड़क रहा है| जब वह अचानक धड़कना बंद कर देगा तब सब कुछ छूट जाएगा, पता नहीं अज्ञात में हम कहाँ जायेंगे| यह पृथ्वी तक हमारे से छूट जाएगी|
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बुद्धिमानी का कार्य तो यही होगा कि हम उस शाश्वत मित्र से सचेतन मित्रता करें और जीवन का जो भी अति अल्प और सीमित समय मिला है उसे फालतू की गपशप और मनोरंजन के नाम पर समय नष्ट न कर के उस के ही चिंतन में ही लगायें| बाकी आप सब समझदार और विवेकशील हो|
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शुभ कामनाएँ | ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||

Sunday, 28 August 2016

इस मातृशक्ति को नमन ......

इस मातृशक्ति को नमन ......

नित्य प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में हमारे मोहल्ले की एक बड़ी संख्या में महिलाऐं हनुमान जी के मंदिर में एकत्र होकर भजन-कीर्तन करते हुए प्रभात-फेरी निकालती हैं| इससे वातावरण बहुत पवित्र रहता है| नित्य यह प्रभात फेरी मेरे घर के सामने से ही निकलती है अतः नित्य प्रातःकाल भजन सुनने को मिल जाते हैं|
हमारे नगर में ऐसी ही दो और प्रभात-फेरियाँ ...... एक तो इंदिरा नगर के नगर-नरेश मंदिर से, और दूसरी नेहरु बाज़ार के श्रीराम मंदिर से निकलती हैं|
यहाँ कभी कभी हरिशरण दास जी नाम के निम्बार्क सम्प्रदाय के एक वैष्णव संत पधारते हैं, जो पूरे नगर को भक्तिमय बना जाते हैं| उन्हीं की प्रेरणा से ये प्रभात-फेरियाँ निकलनी आरम्भ हुई थीं|
मैं उन सब माताओं को साधुवाद देता हूँ जो इन प्रभात-फेरियों में भाग लेती हैं|
जय श्रीकृष्ण !

आध्यात्मिक चुम्बकत्व ..............

आध्यात्मिक चुम्बकत्व ..............
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आत्म-प्रशंसा एक बहुत बड़ा अवगुण है| कभी भूल से भी आत्मप्रशंसा ना करें|
आपके भीतर एक आध्यात्मिक चुम्बकत्व है, वह बिना कुछ कहे ही आपकी महिमा का बखान कर देता है| ध्यान साधना से उस आध्यात्मिक चुम्बकत्व का विकास करें|
वह चुम्बकत्व आप में होगा तो अच्छे लोग ही आपकी तरफ खिंचे चले आयेंगे, आप जहां भी जायेंगे वहां लोग स्वतः ही आपकी और आकर्षित होंगे, आपकी बातें लोग ध्यान से सुनेंगे, आपकी कही हुई बातो को लोग कभी भूलेंगे नहीं और उन पर आपकी बातों का चिर स्थायी प्रभाव पडेगा|
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कभी कभी आप बहुत सुन्दर भाषण और प्रवचन सुनते है, बड़े जोर से प्रसन्न होकर तालियाँ बजाते हैं, पर पांच दस मिनट बाद उसको भूल जाते हैं| वहीं कभी कोई आपको एक मामूली सी बात कह देता है जिसे आप वर्षों तक नहीं भूलते| कभी कोई अति आकर्षक व्यक्ति मिलता है, मिलते ही आप उससे दूर हटना चाहते हैं, पर कभी कभी एक सामान्य से व्यक्ति को भी आप छोड़ना नहीं चाहते, यह उस व्यक्ती के चुम्बकत्व का प्रभाव है|
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आध्यात्मिक चुम्बकत्व क्या है ???
यह आत्मा की एक शक्ति है जो उस हर वस्तु या परिस्थिति को आकर्षित या निर्मित कर लेती है जो किसी को अपने विकास या सुख-शांति के लिए चाहिए|
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आप जहाँ भी जाते हैं और जिन भी व्यक्तियों से मिलते हैं उन के चुम्बकत्व का आपस में विनिमय होता रहता है, इसीलिए अपने शास्त्रों में कुसंग का सर्वथा त्याग करने को कहा गया है| सत्संग की महिमा भी यही है|

जब हम संत महात्माओं के बारे चिंतन मनन करते हैं तब उनका चुम्बकत्व भी हमें प्रभावित करता है| इसीलिए सद्गुरु का और परमात्मा का सदा चिंतन करना चाहिए और मानसिक रूप से सदा उनको अपने साथ रखना चाहिए|
किसी की निंदा या बुराई करने से उसके अवगुण आपमें आते हैं अतः परनिंदा से बचो|
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अपने ह्रदय में निरंतर अपने इष्ट देव/देवी का, व भ्रूमध्य में अपने सद्गुरु का निरंतर ध्यान रखें| इससे आपके आध्यात्मिक चुम्बकत्व का विकास होगा| आप प्रायः शांत और मौन रहें, अपने चुम्बकत्व को बोलने दें|

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||


पुनश्चः  .....

इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। दुर्योधन हमेशा गुरु द्रोणाचार्य से कहते थे कि आप कोई चमत्कार नहीं दिखाते, जिससे युद्ध में हमारे अनुकूल उपलब्धि हो। द्रोण ने कहा कि कृष्ण और अर्जुन को युद्ध से अलग करो, तो मैं कुछ कर सकता हूं। परिणामत: संसप्तकों का एक युद्ध हुआ। इस युद्ध में नियम था कि यदि कोई ललकारे तो युद्ध करना ही पड़ेगा।
युद्ध क्षेत्र से दूर जाकर दुर्योधन ने ललकार लगाई। उस ललकार का उत्तर देने के लिए पांडवों की ओर से सिर्फ महाराज युधिष्ठिर और अभिमन्यु ही आ सके। कौरवों के दल ने इसी समय चक्रव्यूह की रचना की। ऐसे समय यह सब किया गया, जब पांडवों को उसका आभास भी नहीं था। वे अपने-अपने मोर्चों पर जूझते रहे। अंतत: अभिमन्यु को इस षड्यंत्र का सामना करना पड़ा और इस युद्ध में अभिमन्यु मारा गया।
वस्तुत: पांडवों को भान भी नहीं था कि ऐसा कुछ होने वाला है, जिससे गहरी क्षति हो सकती है। केवल धर्मराज और अभिमन्यु रह गए थे, जिन्हें चक्रव्यूह का भेदन करना था।
अभिमन्यु ने चक्रव्यूह का सामना किया। उसने उसके कई भागों पर विजय पाई, लेकिन अंत में मारा गया। जब अन्य पांडव लौटे और उन्हें अभिमन्यु के मरने का पता चला, तो अर्जुन को धर्मराज पर क्रोध आया। उन्होंने उन्हें बुरा-भला कहा।
जब क्रोध शांत हुआ, तब पश्चाताप का दौर आया। अर्जुन ने कहा, अरे, मैंने उस व्यक्ति को ऐसा कहा, जिन्हें धर्मराज कहा जाता है। इसके प्रायश्चित के लिए मुझे आत्मदाह कर लेना चाहिए।
कृष्ण भी बोले, जरूर करना चाहिए। दूर चिता सजाई जाने लगी। सब एक-दूसरे की ओर देख रहे थे कि क्या हो रहा है, पर कोई कुछ बोल नहीं रहा था।
अंत में मुस्कराते हुए कृष्ण ने कहा, आत्मदाह का एक विकल्प भी है कि तुम अपनी प्रशंसा खुद करो। श्रीकृष्ण की बात सुनकर अर्जुन को भान और ज्ञान हुआ। उन्होंने आत्मदाह का निर्णय त्याग दिया। इस प्रकार कृष्ण ने अर्जुन को आत्महत्या से बचा लिया।
यह श्रीकृष्ण का व्यावहारिक दर्शन था। जीवन को यथार्थ में देखने की उनकी दृष्टि थी। यही जीवन की प्रासंगिकता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है- आत्मप्रशंसा अनल सम, करतब कानन दाह यानी आत्मप्रशंसा वह आग है, जिसमें कर्तव्य का जंगल जल जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण निरंतर हमारे कूटस्थ में हैं .....

भगवान श्रीकृष्ण निरंतर हमारे कूटस्थ में हैं .....
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अपनी साँसों से
हमारे मेरुदंडस्थ
सप्तचक्रों की बांसुरी में
सप्तसुरों की तान
बजा रहें हैं |
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हमारे भीतर वे ही साँस ले रहे हैं| उनकी साँस से ही हमारी साँस चल रही है| उनके सप्त स्वरों से मिल कर प्रणव ध्वनि यानि अनाहत नाद ध्यान में हमें निरतर सुनाई दे रही है| ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में वे ही हमारी दृष्टी में निरतर बने हुए हैं| उनका जन्म हमारे चित्त में निरंतर हो रहा है| उनकी चेतना से हमारा चित्त आनंदमय है|
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ॐॐॐ!!

ध्यान साधकों को एक सुझाव .....

जो लोग ध्यान साधना करते हैं उनको मैं मेरे लंबे अनुभव से एक सुझाव देना चाहता हूँ|
आप चाहे किसी भी गुरु परम्परा का अनुसरण करते हों पर नीचे लिखी कुछ बातें आपकी साधना में बहुत सहायक होंगी|
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ध्यान से पूर्व कुछ देर तक तेजी से चलना, फिर सूर्य नमस्कार, अनुलोम-विलोम प्राणायाम और पश्चिमोत्तानासन का अभ्यास करें| प्रार्थना करके पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर के ऊनी कम्बल पर पद्मासन या सिद्धासन में बैठें और आतंरिक प्राणायाम, अजपा-जाप और ओंकार पर ध्यान करें| थोड़े थोड़े अभ्यास से आपका ध्यान बहुत गहरा होने लगेगा| खेचरी मुद्रा भी किसी योग्य योगाचार्य से सीखें और अभ्यास करें| ध्यान में पूर्णता खेचरी मुद्रा की सिद्धि के उपरांत ही आएगी|
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एक ही आसन पर बैठे बैठे यदि थक जाएँ तो फिर दो-तीन बार पश्चिमोत्तानासन आधारित महामुद्रा का अभ्यास करें और गहरी साँसें लें| थकान दूर हो जायेगी| यदि आपकी कमर और गर्दन में तकलीफ है तो डॉक्टर को पूछे बिना कोई भी योगासन ना करें|
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ध्यान के बाद योनी-मुद्रा आदि का अभ्यास करें| जब भी पर्याप्त समय मिले, लंबे समय तक ओंकार पर ध्यान करें और गुरुप्रदत्त मंत्र का यथासंभव अधिकाधिक जाप करें| ध्यान का समापन सर्वस्व के प्रति प्रार्थना कर के ही करें|
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रात्रि को सोने से पूर्व खूब खूब गहरा ध्यान कर के निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ| प्रातःकाल परमात्मा का चिंतन करते हुए ही उठें| दिन का प्रारम्भ परमात्मा के ध्यान से ही करें|
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पूरे दिन परमात्मा का अनुस्मरण करते रहें| कुसंग का सर्वदा त्याग, सत्संग और प्रेरणास्पद सद्साहित्य का स्वाध्याय करते रहें|
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अपने विचारों का ध्यान रखें| हम जो कुछ भी हैं वह अपने अतीत के विचारों से हैं| हम भविष्य में वही होंगे जैसे वर्तमान में हमारे विचार हैं|
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सभी को शुभ कामनाएँ | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

अपने विवेक का सम्मान करें ............

अपने विवेक का सम्मान करें ............
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स्वविवेक के प्रकाश में सारे कार्य करें| जैसा आपका ईश्वरप्रदत्त विवेक कहे वैसा ही करें|
कहीं पर आप कुछ भी पढ़ें, या किसी से कुछ भी सुनें, उस पर तुरंत आँख मींच कर विश्वास ना करे| भगवान ने जो विवेक दिया उसको काम में लायें और सारे कार्य निज विवेक के प्रकाश में करें|
अपने विवेक का सम्मान करें|
ॐ ॐ ॐ ||

५० वर्ष पूर्व १९६५ में भारत पाक के मध्य हुआ दूसरा युद्ध -----

५० वर्ष पूर्व १९६५ में भारत पाक के मध्य हुआ दूसरा युद्ध -----
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(यह लेख मैंने २३ जून २०१५ को पोस्ट किया था, फिर उसी में थोड़ा सा संशोधन कर के दुबारा ९ जुलाई २०१५ को पोस्ट किया| आज 28 अगस्त २०१५ पूरे भारत में इस युद्ध की पचासवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही है अतः इसे तीसरी बार पोस्ट कर रहा हूँ)
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भारत पाक के मध्य १९६५ के व १९७१ के युद्ध की मुझे बड़ी स्पष्ट स्मृतियाँ हैं| १९६२ में चीन से पराजित होने के कारण देश में निराशा व्याप्त थी पर १९६५ के इस युद्ध ने देश में व्याप्त उस निराशा को दूर कर दिया| उस समय देश में जो जोश जागृत हुआ उसकी अब सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है|
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सन १९६५ में देश में अनाज की बहुत कमी थी| राशन में अमेरिका से आयातित लाल रंग का गेंहूँ मिलता था जो अमेरिका में पशुओं को खिलाया जाता था| हम भारतीय लोग वह अनाज खाने को बाध्य थे| पाकिस्तान ने अमेरिका की सहायता से युद्ध की बहुत अच्छी तैयारियाँ कर रखी थीं| उसके पास अमेरिका से प्राप्त नवीनतम टैंक और युद्धक विमान थे| अन्य हथियार भी उसके पास श्रेष्ठतर थे|
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भारत-पाकिस्तान के मध्य अप्रैल १९६५ से सितम्बर १९६५ के बीच छोटी मोटी झड़पें कही न कहीं लगातार होती ही रहती थीं| युद्ध का आरम्भ पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर के नाम से अपने सैनिको को घुसपैठियो के रूप मे भेज कर इस अपेक्षा से किया कि कश्मीर की जनता भारत के विरुद्ध विद्रोह कर देगी| अगस्त १९६५ में ३०,००० पाकिस्तानी सैनिको ने कश्मीर की स्थानीय जनता की वेषभूषा मे नियंत्रण रेखा को पार कर भारतीय कश्मीर मे प्रवेश किया| १ सितम्बर १९६५ को पाकिस्तान ने ग्रैंड स्लैम नामक एक अभियान के तहत सामरिक दृष्टी से महत्वपूर्ण अखनूर, जम्मू नगर और कश्मीर को भारत से जोड़ने वाले महत्वपूर्ण भूभाग पर अधिकार के लिये आक्रमण कर दिया| इस अभियान का उद्देश्य कश्मीर घाटी का शेष भारत से संपर्क तोडना था ताकि भारत की रसद और संचार व्यवस्था भंग कर दी जाय|
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भारत में उस समय सेना के पास गोला बारूद की बहुत कमी थी| १९६२ की पराजय की पीड़ा से देश उबरा भी नहीं था| पाकिस्तान के इस आक्रमण के लिये भारत तैयार नहीं था| पाकिस्तान को भारी संख्या मे सैनिकों और श्रेष्ठतर श्रेणी के टैंको का लाभ मिल रहा था| आरम्भ में भारत को भारी क्षति उठानी पड़ी| युद्ध के इस चरण मे पाकिस्तान बहुत बेहतर स्थिति मे था और पूरी तरह लग रहा था कि कश्मीर पर उसका अधिकार हो जायेगा|
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पाकिस्तान को रोकने के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने लाहौर पर हमले का आदेश दिया| पाकिस्तान के लिए यह एक अप्रत्याशित प्रत्याक्रमण था| इससे कश्मीर पर पाकिस्तानी सेना का दबाव बहुत कम हो गया| पाकिस्तान ने भी लाहौर पर भारत का दबाव कम करने के लिये खेमकरण पर आक्रमण कर दिया|
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तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी की अपील पर देशवासियों ने सप्ताह में एक समय भोजन करना बंद कर दिया और भोजन भी कम मात्रा में खाना आरम्भ कर दिया ताकि देश में भुखमरी ना हो| शास्त्री जी ने -- "जय जवान जय किसान" का नारा दिया और किसानों से अधिक अन्न उगाने की अपील की|
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इस लड़ाई मे भारतीय सेना के लगभग ३००० और पाकिस्तानी सेना के ३८०० जवान मारे जा चुके थे| भारत ने युद्ध मे ७१० वर्ग किलोमीटर इलाके पर और पाकिस्तान ने २१० वर्ग किलोमीटर इलाके पर कब्जा कर लिया था। भारत के क्ब्जे मे सियालकोट, लाहौर और कश्मीर के उपजाऊ क्षेत्र थे, और पाकिस्तान के कब्जे मे सिंध और छंब के अनुपजाऊ इलाके थे|
इस युद्ध में आजादी के बाद पहली बार भारतीय वायु सेना (आईएएफ) एवं पाकिस्तान वायु सेना (पीएएफ) के विमानों ने एक दुसरे का मुकाबला किया| नौ सेना ने जब तक युद्ध आरम्भ करने की तैयारी की, युद्ध विराम हो गया और कोई नौसैनिक युद्ध नहीं हो पाया|
पश्चिमी राजस्थान के कुछ क्षेत्रों पर पाकिस्तान ने बहुत भयानक बमबारी की थी| उस समय की अनेक स्मृतियाँ स्थानीय लोगों को है|
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इस युद्ध का लाभ यह हुआ कि भारत का स्वाभिमान बढ़ा| वह निराशा दूर हुई जो १९६२ की पराजय के पश्चात हुई थी| हानि यह हुई कि हमें हमारे प्रिय प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी को खोना पडा| युद्ध में हम जीते तो अवश्य पर दुर्भाग्य से वार्ता की टेबल पर हार गए और जीते हुए क्षेत्र पाकिस्तान को बापस लौटाने पड़े| आज तक यह भी रहस्य बना हुआ है कि शास्त्री जी की ह्त्या हुई थी या स्वाभाविक मौत| किन परिस्थितियों में ताशकंद समझौता हुआ यह भी रहस्य अभी तक बना हुआ है|
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पाकिस्तान में युद्ध का उन्माद पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने फैलाया था| पाकिस्तान के तत्कालीन सैनिक तानाशाह अय्यूब खान यह युद्ध नहीं चाहते थे पर भुट्टो ने उनके दिमाग में यह बात बैठा दी थी कि भारत को पराजित करने का यही सही समय है| पाकिस्तान को बड़ी निराशा हुई जब उसकी अपेक्षानुसार कश्मीर की जनता ने पाकिस्तान के पक्ष में भारत के विरुद्ध कोई विद्रोह नहीं किया, और भारत के प्रधान मंत्री का राजनीतिक नेतृत्व भी बड़ा अच्छा व सफल रहा| भारत की सेना ने बड़ी वीरता से युद्ध लड़ा| अमेरिका का अप्रत्यक्ष और पूर्ण समर्थन पाकिस्तान को था| अमेरिका को पाकिस्तान की योजना व सैन्य तैयारियों का पूरा पता था पर अमेरिका ने यह युद्ध रुकवाने का कोई प्रयास नहीं किया|
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देशवासियों के शौर्य, बलिदान और त्याग को हमें नहीं भूलना चाहिए|
जय भारत ! वन्दे मातरम् |

कुछ ज्योतिर्मय इतना आलोक लेकर आते हैं ......

कुछ ज्योतिर्मय इतना आलोक लेकर आते हैं कि उनके जाने के बाद भी प्रकाश ही प्रकाश रह जाता है|
हम सब भी उसी ज्योति और प्रेम की अभिव्यक्ति हैं|
जीवन की सार्थकता इसी में हैं कि हम परमात्मा को पूर्णतः समर्पित होकर स्वयं ज्योतिर्मय बनें|
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हम प्रभु को समर्पित पुष्प बनें
जब उसकी उपस्थिति की रश्मियों से
भक्ति पल्लवित होगी
तब उसकी महक
हमारे ह्रदय से
सभी हृदयों में व्याप्त हो जाएगी
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ॐ ॐ ॐ || अयमात्मा ब्रह्म ||

बुराई और भलाई साथ साथ नहीं रह सकतीं .........

बुराई और भलाई साथ साथ नहीं रह सकतीं .........
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भीष्म में इतनी तपस्विता थी की महाभारत युद्ध में उन्होंने भगवान श्री कृष्ण को भी अपना वचन भंग कर शस्त्र उठाने को बाध्य कर दिया| पर उन्हें मरना पडा| स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को भीष्म को धराशायी करने की आज्ञा दी| क्योंकि भीष्म अहंकार के प्रतीक थे| उनके लिए न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म का कोई महत्व नहीं था| उन्हें मतलब था तो सिर्फ अपनी प्रतीज्ञा से, अपने अहंकार से| वे बुराई और भलाई दोनों को साथ साथ देखना चाहते थे| अंधकार और प्रकाश दोनों साथ साथ नहीं रहा सकते| वैसे ही आज के ये तथाकथित धर्म-निरपेक्ष और बुद्दिजीवी लोग हैं| भविष्य इन्हें क्षमा नहीं करेगा|
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वैसे भी यह वर्त्तमान सभ्यता है जो अति द्रुत गति से विनाश की ओर जा रहीं है| इसके विनाश को कोई नहीं रोक सकता| भारत में जिस गति से भूजल का दोहन हो रहा है, आज से बीस-बाईस वर्ष पश्चात भारत में भूजल समाप्त हो जाएगा|
धर्म की उपेक्षा के कारण अधर्म का निरंतर विस्तार हो रहा है| मनुष्या का लोभ और अहंकार निरंतर बढ़ रहा है| जिस प्रकार गत दो विश्व युद्धों का कारण मनुष्य का लोभ, अहंकार और घृणा थी वैसे मनुष्य का लोभ, अहंकार और घृणा ही उसके विनाश का कारण बनेंगे| मनुष्य जाति ने दुर्बल प्राणियों पर जो क्रूर अत्याचार किये हैं उस का भी मुल्य उसे नष्ट होकर ही चुकाना पड़ेगा| विश्व का घटना-क्रम जिस तरह से घटित हो रहा है मुझे तो अति निकट भविष्य में विनाश के लक्षण स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं|
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रक्षा उन्ही की होगी जिनका आचरण धर्ममय होगा और जो भगवान की शरणागत होंगे| धर्म से मेरा अर्थ किसी मत या पंथ यानि Religion से नहीं है| धर्म की मेरी अवधारणा वह है जो सनातन भारतीय संस्कृति की रही है|
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धर्म की पुनर्स्थापना होगी| मुझे तो यह भी लगता है कि जैसे डायनासोर आदि प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं वैसे ही यह मनुष्य जाति भी विलुप्त हो जायेगी| एक नए अतिमानुष और अतिमानुषी चेतना का अवतरण होगा| वह अतिमानुष ही धर्म की पुनर्स्थापना और इस पृथ्वी पर राज्य करेगा|

विवाह की संस्था का सम्मान हो .............

विवाह की संस्था का सम्मान हो .............
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विवाह की संस्था एक पवित्र बंधन है जिसका पूर्ण सम्मान होना चाहिए| ऐसा सिर्फ एक धर्मनिष्ठ और सुसंस्कृत परिवार में ही संभव है| पर समाज में आ रही उन्मुक्तता से इस संस्था के अस्तित्व को ही खतरा होने लगा है| पहिले यह विकृति सिर्फ कुछ पुरुषों में ही थी पर आधुनिक शिक्षा, पश्चिमी प्रभाव, व कुछ वामपंथी प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष यानि सेकुलर लोगों के कारण देश की मातृशक्ति के एक बड़े भाग में भी विकृति आ गयी है| पहिले यह विकृति सिर्फ दिल्ली, मुंबई, जैसे महानगरों में ही थी पर अब तो सारे भारत में फैल गयी है|
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अधिकांशतः अब तक तो नारी को पूज्या ही माना जाता था, भोग्या नहीं| पर अब जैसी विकृति आ रही है उससे तो अगले एक दशक में ही विवाह की संस्था लगभग समाप्त हो जायेगी| नारी पूज्या के स्थान पर स्वयं भोग्या बनना चाहती है|
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मिथ्या दोषारोपण, कलह और असहाय बड़े-बूढ़ों पर अत्याचार अब अनेक आधुनिक प्रगतिशील महिलाऐं अपनी शान समझती हैं| महिला अत्याचार और दहेज़ के झूठे आरोप, घर में नित्य कलह, और पति को प्रताड़ित कर अलग रह कर भरण-पोषण के बढ़ा-चढ़ा कर किये गए दावे, अब समाज को खोखला कर रहे हैं| सारे कानून और प्रशासन भी इन महिलाओं का ही सहयोग करते है|
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लिव इन रिलेशनशिप, अपने लाभ के लिए विवाह करना, दहेज़ और महिला-अत्याचार के फर्जी मामले बनाकर मोटी रकम बसूलना आजकल सामान्य हो गया है|
छेड़खानी, बलात्कार आदि के आरोप किसी पर भी लगा देना अब शान की बात हो गयी है|
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आने वाला समय पुरुषों पर भारी पडेगा| इससे बचने का एक ही उपाय है कि विवाह की संस्था का पूर्ण सम्मान हो|
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युवकों को चाहिए कि वे विवाह से पूर्व किसी भी लड़की से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखें| सम्बन्ध की बात तो दूर है, उनकी और देखे तक भी नहीं| बहुत ही आवश्यक हो और टाला नहीं जा सके तभी उनसे कोई बात करे वह भी कम से कम शब्दों में| विवाह के बाद तो परनारी को छूना तो दूर, स्वपन में भी उसका चिंतन ना करें| विवाह भी बहत अधिक सोच-समझ कर अपने समकक्ष, अच्छे स्वभाव वाली संस्कारित लड़की से करें| तभी विवाह की संस्था बच सकती है|
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एक सुखी परिवार ही आध्यात्मिक हो सकता है|
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ॐ ॐ ॐ ||

साधू , सावधान !

साधू सावधान ! .....
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नर्क की अग्नि से भी भयावह वासना की अग्नि है|
सावधान साधू व्यक्ति, इससे बच कर रहो|
इसकी कल्पना भी तुम्हे नर्क की अग्नि में गिरा देगी|
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जो पतनोन्मुख है, और जो गलत लोगों का संग करता है, उसका साथ छोड़ देना चाहिए, चाहे वह स्वयं का गुरु ही क्यों ना हो| कुसंग सर्वदा त्याज्य है|

हम मानसिक दासता से मुक्त हों .....

हम मानसिक दासता से मुक्त हों .....
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बचपन में एक कविता पढी थी जिसकी दो पंक्तियाँ अभी तक याद है .....
"संसार में हों कष्ट कम तो नर्क में भिजवाइये,
पर हे दयानिधि, दासता का दृश्य मत दिखलाइये |"
भारत को गुलाम और दीन-हीन बनाने के लिए असुर/राक्षस अंग्रेजों ने भारत की कृषि और शिक्षा व्यवस्था को बड़ी कुटिलता और क्रूरता से नष्ट कर दिया था| उनके समय में भारत में बड़े भयानक अकाल पड़े और करोड़ों लोग भूख से मरने को विवश किये गए|
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भारत में ब्राह्मणों का पतन अंग्रेजों की कुटिल शिक्षा नीतियों और सन् १८५७ के विफल प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के बाद में उनके द्वारा बनाये गए Indian Education Act के कारण हुआ| तब तक ब्राह्मण निःस्वार्थ रूप से अपने कर्मकांड करते थे, और गुरुकुल चलाते थे| समाज उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था|
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अंग्रेजों ने गुरुकुलों पर प्रतिबन्ध लगा दिया| गुरुकुल चलाने वाले ब्राह्मणों का सब कुछ छीन लिया और पूरे भारत में चलने वाले लाखों गुरुकुलों को आग लगवाकर नष्ट कर दिया| गुरुकुलों को सहायता देना अपराध घोषित कर दिया और अनेक आचार्य ब्राह्मणों की हत्याएं करवा दीं और बचे हुए ब्राह्मणों को इतना दरिद्र बना दिया कि वे अपने बच्चों को शिक्षा देने में भी असमर्थ हो गए|
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आजकल हर बात के लिए ब्राह्मणों को दोष देना उनके साथ अन्याय ही है| ब्राह्मण सदा निःस्वार्थ और परोपकारी रहे थे| आज जो भी धर्मग्रंथ बचे हैं वे ब्राह्मणों ने रट रट कर अपनी स्मृति से सुरक्षित रखे थे| हिन्दू पुस्तकालयों को तो मुसलमान शासकों ने अपने शासन काल में नष्ट कर दिया था| अंग्रेजों ने भी यही काम किया, ब्राह्मणों को दरिद्र बनाकर उनके सारे ग्रन्थ रद्दी के भाव खरीद लिये|
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सनातन धर्म के ग्रन्थ और संस्कृत भाषा बची है तो वह ब्राह्मणों के कारण ही| ब्राहमण एक वर्ण है जाति नहीं| जाति प्रथा में विकृति आई तो वह मुस्लिम शासन के दौरान ही आई| दलितोद्धार का कार्य भी सबसे पहिले ब्राह्मणों ने ही आरंभ किया था| त्याग और तपस्या के कार्य ब्राह्मणों ने सदा किये हैं|
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वर्तमान में आरक्षण पद्धति ने ब्राह्मणों के साथ साथ कुछ अन्य अनारक्षित वर्गों की कमर तोड़ दी है| उन्हें कहीं काम नहीं मिलता और समाज में निराशा व्याप्त है| आरक्षण व्यवस्था जो मात्र दस वर्षों के लिए ही की गयी थी अब स्थायी हो गयी है| भारत की पूरी राजनीति ही जाति पर आधारित है| हर कार्य के लिए व्यक्ति की जाति पूछी जाती है|
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यदि जाति आधारित राजनीति नहीं होती तो भारत में अब तक जाति व्यवस्था पूरी तरह स्वतः ही नष्ट हो जाती|
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भारत को अपनी शिक्षानीति ऐसी बनानी होगी जिससे हर व्यक्ति चरित्रवान, स्वाभिमानी और स्वावलंबी बने|
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पता नहीं क्यों अंग्रेजों द्वारा किये गए अत्याचारों को भारत की सभी सरकारें जानबूझ कर छिपाती आ रही हैं| जाते जाते अँगरेज़ अपने सभी दस्तावेज़ यथासंभव नष्ट कर गए और सत्ता अपने मानसपुत्रों को हस्तांतरित कर गए थे|
यह क्यों नहीं बताया जाता कि अँगरेज़ जब भारत में आये तब विश्व की अर्थव्यवस्था में भारत का भाग २४% था जो उनके जाते समय घट कर ४% ही रह गया| पश्चिम की समृद्धि और उनकी औद्योगिक क्रांति भारत से लूटे गए धन से ही हुई|
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भारत का कपड़ा विश्व का सर्वश्रेष्ठ कपड़ा था जिसकी बुनाई बंद करा दी गयी| बंगाल के मलमल बनाने वाले कारीगरों के हाथ काट दिए गए| क्रांतिकारियों पर कितने अमानवीय अत्याचार किये गए| दोनों विश्वयुद्धों में भारतीय सैनिकों को युद्ध के चारे के रूप में प्रयोग किया गया और अनगिनत सिपाहियों को भूख से मरने को विवश किया गया|

जाते जाते वे हमें ऐसी शिक्षा पद्धति दे गए जिसने हमें अभी तक मानसिक रूप से गुलाम बना रखा है |
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अपनी एक घनीभूत पीड़ा थी जो इस लेख के माध्यम से व्यक्त कर दी|
तेरा गौरव अमर रहे माँ हम दिन चार रहे ना रहें| भारत माता की जय| सत्य सनातन धर्म की जय|
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

गोरी त्वचा के प्रति आकर्षण हमारी मानसिक दासता यानि गुलामी का प्रतीक है .......

गोरी त्वचा के प्रति आकर्षण
हमारी मानसिक दासता यानि गुलामी का प्रतीक है .......
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गोरी चमड़ी के प्रति आकर्षण इंगित करता है कि हम अभी भी मानसिक रूप से गुलाम हैं| भारत में चमड़ी को गोरी बनाने के नाम पर हर वर्ष करोड़ों रूपये के लेप और क्रीमें बिकती हैं जिनसे आज तक तो कोई गोरा बना नहीं है पर उनका निर्माण करने वाली विदेशी कम्पनियाँ हम भारतीयों की इस कमजोरी का लाभ उठाकर हर वर्ष करोड़ों रूपये हम से ठग कर ले जाती हैं|
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अँगरेज़ और पुर्तगाली जब भारत में आये थे उस समय उनका मुख्य व्यवसाय समुद्रों में डकैती डालना और लोगों को गुलाम बनाकर बेचना था| मूल रूप से वे समुद्री डाकू थे| गुलामों के व्यापार में इंग्लैंड की महारानी की भी भागीदारी थी| उन्होंने भारत के मुग़ल शासकों की गोरी चमड़ी के प्रति कमजोरी को पहिचाना और उन्हें गोरी चमड़ी की फिरंगी दासी युवतियाँ, हब्सी गुलाम और अच्छी शराब भेंट में देकर भारत में व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त कीं|
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अंग्रेजों के शासनकाल में भारतीयों में यह हीन भावना बैठ गयी थी कि गोरी चमड़ी वाले फिरंगी हमारे से श्रेष्ठ प्राणी हैं| तभी से भारत में गोरा बनने की भूख बढ़ गयी, विशेषकर महिलाओं में गोरी मेम साहिबा जैसी बनने की| फिरंगी अँगरेज़ भी कुछ भारतीयों को पुरुष्कृत करने के लिए उन्हें साथ में बैठाकर शराब पीने और नाचने के लिए फिरंगी औरतों की व्यवस्था कर देते थे| कांग्रेस की स्थापना भी एक क्लब के रूप में हुई थी जहाँ अँगरेज़ परस्त भारतियों को आकर्षित करने के लिए फिरंगी औरतों के साथ शराब पीने, नाचने गाने और मौज मस्ती की व्यवस्था थी|
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अंग्रेजों व अन्य विदेशियों ने भारतीयों की इस कमजोरी का लाभ उठाया जिसके दुष्परिणामों को हम आज तक भुगत रहे हैं| इस विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं और अनेक लेख उपलब्ध हैं| पामेला माउन्टबेटन के माध्यम से अंग्रेजों ने सता हस्तांतरण से पूर्व और पश्चात् भी हम भारतियों को गुलाम बनाये रखा और अपनी नीतियाँ क्रियान्वित कीं| भारत में आज की सबसे बड़ी ज्वलंत समस्या इसी के कारण है| बाद में भी जो होता रहा वह सबको पता है| आज भी हम फिरंगियों की भाषा व संस्कृति के गुलाम हैं और स्वतत्र होने का ढोंग कर रहे हैं|
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भारत में सर्वत्र जब भी शादी विवाह होते हैं तब सबसे पहिले लड़के लड़की की त्वचा का रंग देखा जाता है, फिर चेहरे का कोण, और बाद में अन्य गुण|
आप भारत के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों पर, और बड़े बड़े होटलों में भी देख सकते हैं कि वहाँ गोरे और काले आगंतुकों के साथ अलग अलग सा व्यवहार होता है| यह हमारी हीन भावना है|
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अब और तो कर भी क्या सकते हैं क्योंकि असहाय हैं| भगवान् से प्रार्थना ही कर सकते हैं कि भारत में भारतीयों को गोरी त्वचा के मोह, आकर्षण और गुलामी से बचाए|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

क्या हम ज़िंदा हैं ??? ==============

क्या हम ज़िंदा हैं ??? ==============

हम तथाकथित बुद्धिजीवी
हैं स्तब्ध !
निहत्थे और निष्प्रभ !!
न आत्म विश्वाश है हम में
न साहस
फिर भी ज़िंदा हैं -
इस दु:साहस के लिए सचमुच हम शर्मिन्दा हैं !!!

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध 'भीष्म को क्षमा नहीं किया गया' में अकाट्य तर्कों से इस तथ्य को रेखांकित किया है कि जो लोग समाज की उपेक्षा करते हुए स्वहित को महत्व देते हैं, अन्याय के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठाते उन्हें इतिहास कभी माफ़ नहीं करता|
इसीलिये अपनी सम्पूर्ण विद्वता और वरिष्ठता के उपरांत भी भीष्म को क्षमा नहीं किया गया| अपनी भीष्म प्रतिज्ञा और और त्याग के बावजूद भीष्म इतिहांस के पन्नों में अपना स्वर्णिम स्थान नहीं बना सके क्योंकि वे अन्याय के समक्ष चुप रहे| उनका मौन प्रकारांतर से उनकी कायरता का प्रतीक बन गया है|
(साभार: वीरा डा. नीरू खींचा, झुंझुनू,राजस्थान)

मुझमें कभी कुटिलता का कण मात्र भी न हो .....

मुझमें कभी कुटिलता का कण मात्र भी न हो .....
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हे प्रभो, हे गुरुदेव, आपने सब कुछ दिया है, मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए|
इतने अधिक आशीर्वाद, इतना अधिक प्रेम ..... सब कुछ आपने इतना अधिक दिया है कि अब माँगने के लिए कुछ बचा भी नहीं है| आप मेरी दृष्टी में, और मैं सदा आपकी दृष्टी में निरंतर हूँ| मैं अतिधन्य हूँ|
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मेरे जीवन में कभी कोई अहंकार और कोई कुटिलता का कणमात्र भी न आये|
और बस आप तो सदा हैं ही, अतः कुछ भी और नहीं चाहिए| आपकी माया अत्यधिक विक्षेप उत्पन्न कर रही है अतः हे प्रभु मेरी लाज रखो|.
> > >
"तुम मेरी राखो लाज हरि

तुम जानत सब अन्तर्यामी
करनी कछु ना करी
तुम मेरी राखो लाज हरि
अवगुन मोसे बिसरत नाहिं
पलछिन घरी घरी
सब प्रपंच की पोट बाँधि कै
अपने सीस धरी
तुम मेरी राखो लाज हरि
दारा सुत धन मोह लिये हौं
सुध-बुध सब बिसरी
सूर पतित को बेगि उबारो
अब मोरि नाव भरी
तुम मेरी राखो लाज हरि

Wednesday, 24 August 2016

वेदों की ओर कैसे लौटें? .....

वेदों की ओर कैसे लौटें? .....
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कुछ मित्रगण मुझे सलाह देते हैं की बापस वेदों की ओर लौटो, सिर्फ वेद पढ़ो अन्य कुछ भी नहीं, सम्मान भी उन्हीं ब्राह्मणों का करो जो वेदाध्ययन करते हैं --- आदि आदि|

मुझे उनके इन कथनों पर कोई आपत्ति नहीं है| उनका कथन ठीक ही होगा|
यह ऐसे ही है जैसे एक चौथी कक्षा के एक बालक को कहा जाए कि चौथी कक्षा में क्या रखा है, पढ़ना ही है तो डी.लिट्.की पढाई करो, सम्मान भी उसी का करो जो डी.लिट्.कर रहा है|


एक बच्चा जो पहाड़े ही सीख रहा है उसे आप सीधे आभियांत्रिक गणित सीखने को कहो तो वहा क्या सीख पायेगा? या तो वह स्वयम पागल हो जाएगा या सिखाने वाला पागल हो जाएगा|

वेदों का ज्ञान मेरे जैसे एक सामान्य बुद्धि के व्यक्ति के लिए समझना असंभव है| वेदों के ज्ञान को समझाने के लिए ही अन्य अनेक ग्रंथों की रचना हुई है| मैं मानता हूँ की वेद अपौरुषेय हैं जिनकी रचना किसी ने नहीं की बल्कि ऋषियों को ही समय समय पर उनके दर्शन हुए हैं| ईश्वर की एक विशेष कृपा के बिना उनको समझना असम्भव है|

अतः मेरे उन मित्रों को चाहिए कि दुराग्रह न करें और जो वे दूसरों से अपेक्षा करते हैं, पहले उसे स्वयं करके दिखाएँ| धन्यवाद|
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उपरोक्त लेख पर स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी की टिप्पणी ........
श्रुति :
हर श्रुति के दो खण्ड होते हैं - मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग । श्रुति को समझने के लिए जिनकी जरूरत पड़ती है उन्हें भी विद्या कह दिया जाता है । श्रुतियों का अर्थ करने के लिये व्याकरण की बड़ी जरूरत होती है । शब्द का निर्माण कैसे हुआ ? इसका तात्पर्य क
्या है ? प्रत्येक मंत्र में कितने अक्षर , कितनी मात्रायें हैं ? यह जानने के लिये छन्दशास्त्र की जरूरत पड़ेगी , उसे भी जानना पड़ेगा । इसी प्रकार किस - किस मन्त्र का किस प्रकार विनोयोग है , उसे जानने के लिये कल्पसूत्रों की जरूरत है । वेद में कर्तव्य कर्मों को करने के लिये काल बताया है । काल का निर्णय करने के लिये ज्योतिषशास्त्र की जरूरत पड़ेगी। यह भी पता लगाना पड़ता है कि सन्दर्भानुसार शब्द का अर्थ कैसे किया जाये । कई शब्दों के अर्थ संदर्भ के बिना केवल व्याकरण के बल से निर्णीत नहीँ होते । संदर्भों को जाने तब श्रुतियों का अर्थ ठीक लगेगा । ये सब मिलकर छ हो गये, इन्हें वेदाङ्ग कहते हैं ।
इतने ज्ञान से वेद के अक्षरार्थ का पता लग गया लेकिन वेदो का तात्पर्य समझने के लिये ये पर्याप्त नहीं हैं। वेद का तात्पर्य समझने के लिये पुराण , न्याय , धर्मशास्त्र और मीमांसा की जरूरत पड़ती है । पुराण से यहाँ इतिहास - पुराण दोनों का संग्रह है । इतिहास अर्थात् " ईश्वरी प्रसाद का इतिहास नहीं समझेंगे । बाल्मिकि रामायण और व्यास जी का महाभारत , इन दो को ही हम इतिहास समझते हैं । यहाँ लिखा कि " विभेत्यल्पश्रुताद् वेदः मामयं प्रहरिष्यति " जिस व्यक्ति ने वेदाङ्ग , पुराण , न्याय , धर्म- शास्त्र और मीमांसा का अध्ययन गुरु मुख से नहीं किया वह केवल अक्षरार्थ के बल से जब श्रुतियों का अर्थ करता है तो जो वेद संसार के मूल कारण अज्ञान को भी नष्ट करने में समर्थ है , वह भी काँप जाता है । " अल्पश्रुतात् " अर्थात् इन ज्ञानों को प्राप्त किये बिना जो श्रुतियों का अर्थ लगाने जाता है उससे " वेद " अर्थात् श्रुति को डर लगता है कि अब यह मेरा वध करने आ गया । आजकल अधिकतर लोग कहते हैं कि " वेद ही पढ़ना है तो सीधे पढ़ लें। " ऐसे लोगों से वेद ही बेचारा काँपता रहता है कि न जाने कहाँ का कहाँ अथः कर जायेंगे । वे का तात्पर्य बताने में ये चारों शास्त्र भी जरूरी है । इतिहास , पुराण के द्वारा वेद का उपबृंहण करना पड़ता है । पुराण के अन्दर सर्ग , प्रतिसर्ग , मन्वन्तर आदि कथानकों के द्वारा पता लगता है कि वेद के अमुक मन्त्र का क्या तात्पर्य है जिसको उन ऋषियों ने बताया । मंगल हो आपका । श्री Kripa Shankar B जी !

 

महाविनाश की दिशा ............

महाविनाश की दिशा ............
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वर्तमान समय में कालचक्र जिस दिशा में घूम रहा है वह महाविनाश की दिशा है|
मनुष्यों में लोभ, घृणा, मोह, अहंकार और स्वार्थ बहुत अधिक बढ़ गया है|
मूक निरीह प्राणियों की जीभ के स्वाद के लिए तड़पा तड़पा कर क्रूरता से ह्त्या और अत्याचार भी मनुष्य जाति का एक पैशाचिक कृत्य है जिसे प्रकृति अब और अधिक सहन नहीं कर पाएगी|
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मतान्धता और पारस्परिक घृणा के कारण हो रहे नरसंहार और अत्याचार मनुष्य जाति का महाविनाश कर देंगे| इस महाविनाश से सिर्फ भगवान ही बचा सकते हैं|
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इस समय राष्ट्र को धर्मरक्षा के लिए एक ब्रह्मत्व की आवश्यकता है| जब ब्रह्मत्व जागृत होगा तो क्षातृत्व और अन्य गुण भी स्वतः ही प्रकट होंगे| वर्तमान घटना क्रमों की पृष्ठभूमि में आसुरी शक्तियां हैं| राक्षसों, असुरों और पिशाचों से मनुष्य अपने बल पर नहीं लड़ सकते| उन्हें दैवीय शक्तियों का आश्रय और सहयोग लेना ही पड़ेगा|
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इस कालखंड में वैसे भी मनुष्य जाति विफल ही रही है अपने उद्देश्य में| वर्तमान सभ्यता विनाश की ओर जा रही है| मनुष्यों द्वारा अहंकार तृप्ति के लिए किये जा रहे धर्मविरुद्ध कार्य असुरों और राक्षसों के ही हैं| सनातन धर्म पर हो रहे मर्मान्तक प्रहारों से हमें अपने अस्तित्व की रक्षा आत्म बल जगाकर करनी ही होगी और साथ साथ ईश्वर की शरण भी लेनी होगी|
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असत्य और अन्धकार की शक्तियों का महाविनाश तो सुनिश्चित है ही, और उसके पश्चात सम्पूर्ण अखंड भारत में धर्म की पुनर्स्थापना होना भी सुनिश्चित है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

Tuesday, 23 August 2016

पता नहीं कब बुलावा आ जाए .....

****** इस तरह अपना जीवन जीओ कि यदि परमात्मा किसी भी क्षण बापस अपने पास बुला लें तो तत्क्षण संसार को धन्यवाद और विदा कह कर प्रभु को कह सको ---- "हे प्रभु, मैं इसी समय आपको साथ चल रहा हूँ|"
संसार में जब तक हो हर एक कार्य को मन लगाकर पूर्णता से करो ताकि उसे पूरा करने दुबारा बापस ना आना पड़े|
अपना पूर्ण अहैतुकि प्रेम निरंतर सब को दो व पूर्णता से जीओ| पता नहीं कब बुलावा आ जाए| *****

जब भी ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि जल रही होती है ......

जब भी ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि जल रही होती है उसे पाने की तो जो भी समय मिलता है वह उसी के चिंतन मनन में निकल जाता है|
परमात्मा किसी की रक्षा करेंगे या नहीं इसकी चिंता नहीं होनी चाहिए| यह सृष्टि उसी की है| वह अपनी सृष्टि चलाने में सक्षम है| यदि वह चाहता है कि अधर्म का राज्य हो तो अधर्म और दुष्टों का ही राज्य होगा| नुकसान भी तो उसी का ही है, उसी के प्रेमी मित्र, साधू संत सब समाप्त हो जायेंगे|
जहाँ भी उसने अपनी संतानों को रखा है वहीं उसे आना ही पड़ेगा| जो भी उसके द्वारा अपनी संतानों के माध्यम से अनुभूत और व्यक्त हो रहा है वह उसी का है| यदि उसकी संतानें दुखी हैं तो वह स्वयं दुखी है, वे आनंद में हैं तो वह ही आनंद में है|
उसके प्रेमियों को उसकी पूर्णता से कम कुछ भी नहीं चाहिए| यदि उसकी इच्छा है कि वे दुखी होकर मर जाएँ तो वे सहर्ष मर जायेंगे| पर मरते समय भी ध्यान उसी का ही रहना चाहिए| शेष कुछ भी नहीं है| उसी की इच्छा पूरी हो|
वह अपनी सृष्टि को कैसे भी चलाये, अंततः दुखी वही है|

हम कोई मंगते भिखारी नहीं हैं .....

हम कोई मंगते भिखारी नहीं हैं| हम कुछ माँग नहीं रहे| उसका जो कुछ भी है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| उसकी सर्वव्यापकता हमारी सर्व व्यापकता है, उसका आनंद हमारा आनद है, उसका सर्वस्व हमारा है| उससे कम हमें कुछ भी नहीं चाहिये| एक पिता की संपत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है, वैसे ही उसकी पूर्णता पर हमारा पूर्ण अधिकार है|

(1) गायत्री मन्त्र में सविता देवता हैं, भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं| फिर इसे गायत्री मन्त्र क्यों कहते हैं? क्या इस के छंद के कारण इसका नाम गायत्री मन्त्र है? (2) क्या कोई सावित्री मन्त्र भी होता है?

प्रश्न: --
===
(1) गायत्री मन्त्र में सविता देवता हैं, भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं| फिर इसे गायत्री मन्त्र क्यों कहते हैं?
क्या इस के छंद के कारण इसका नाम गायत्री मन्त्र है?
(2) क्या कोई सावित्री मन्त्र भी होता है?

उत्तर: ----
===== (माननीय श्री मिथिलेश व्दिवेदी जी द्वारा)
काशी विश्वनाथ बाबा की जय. मङ्गल सुप्रभात......प्रणाम.......जैसे जैसे हम बदलते जा रहे हैं वैसे वैसे हमारे मंत्रों के अर्थ भी बदलते जा रहे हैं। पुराने वेदमंत्र आज नवीन अर्थ दे रहे हैं। पहले माना जाता था कि गायत्री मंत्र में उस सूर्य से प्रार्थना की जाती है जिसके चारों ओर हमारी धरती चक्कर लगाती है। सैकड़ों हज़ारों साल तक यही माना जाता रहा। आज भी बहुत लोग यही मानते हैं लेकिन फिर इसी गायत्री मंत्र का यह अर्थ भी सामने आया जिसमें परमात्मा से प्रार्थना की जाती है। इसी क्रम में अब गायत्री मंत्र का एक शाब्दिक अनुवाद भी पहली बार प्रकट हुआ है। यह अनुवाद आप भी देखिए -
हम परमेश्वर के सूर्य के उस वरणीय तेज का ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे।
तत्-उस, सवितुः-सूर्य, वरेण्यं-वरणीय, भर्गो-तेज, देवस्य-देव के, धीमहि-हम ध्यान करें, धियो-बुद्धियों को, यो-जो, नः-हमारी, प्रचोदयात्-प्रेरित करे......इस तरह जिसे आज तक एक प्रार्थना समझा जाता रहा है, वह एक आदेश के रूप में सामने आता है जिसके अनुसार हमें कुछ करना भी होगा।
मेरे हिसाब से तो गायत्री और सविता दोनों एक रूप हैं। भगवती गायत्री आद्याशक्ति प्रकृति के पाँच स्वरूपों में एक मानी गयी हैं। इनका विग्रह तपाये हुए स्वर्ण के समान है। यही वेद माता कहलाती हैं। वास्तव में भगवती गायत्री नित्यसिद्ध परमेश्वरी हैं। किसी समय ये सवित्र की पुत्री के रूप में अवतीर्ण हुई थीं, इसलिये इनका नाम सावित्री पड़ गया। कहते हैं कि सविता के मुख से इनका प्रादुर्भाव हुआ था। भगवान सूर्य ने इन्हें ब्रह्माजी को समर्पित कर दिया। तभी से इनकी ब्रह्माणी संज्ञा हुई। इस मंत्र में सवित्र देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है।
कहीं-कहीं सावित्री और गायत्री के पृथक्-पृथक् स्वरूपों का भी वर्णन मिलता है। इन्होंने ही प्राणों का त्राण किया था, इसलिये भी इनका गायत्री नाम प्रसिद्ध हुआ। उपनिषदों में भी गायत्री और सावित्री की अभिन्नता का वर्णन है- गायत्रीमेव सावित्रीमनुब्रूयात्। इस प्रकार गायत्री, सावित्री और सरस्वती एक ही ब्रह्मशक्ति के नाम हैं।
हाँ, 'गायत्री' एक छन्द भी है जो ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंदों में एक है। कदाचित इसी लिए इसे गायत्री मन्त्र कहा जाता है।
महाभारत में भी सावित्री (गायत्री) मंत्र की महिमा कई स्थानों पर गायी गयी है ।। यहाँ तक कि भीष्म पितामह युद्ध के समय अन्तिम शरशय्या पर पड़े होते हैं तो उस समय अन्तिम उपदेश के रूप में युधिष्ठिर आदि को गायत्री उपासना की प्रेरणा देते हैं ।। भीष्म पितामह का यह उपदेश महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 150 में दिया गया है ।।
युधिष्ठिर पितामह से प्रश्न करते हैं पितामह महाप्राज्ञ सर्व शास्त्र विशारद ।। कि जप्यं जपतों नित्यं भवेद्धर्म फलं महत ॥ प्रस्थानों वा प्रवेशे वा प्रवृत्ते वाणी कर्मणि ।। देवें व श्राद्धकाले वा किं जप्यं कर्म साधनम ॥ शान्तिकं पौष्टिक रक्षा शत्रुघ्न भय नाशनम् ।। जप्यं यद् ब्रह्मसमितं तद्भवान् वक्तुमर्हति ॥
भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहाः- यान पात्रे च याने च प्रवासे राजवेश्यति ।। परां सिद्धिमाप्नोति सावित्री ह्युत्तमां पठन ॥ न च राजभय तेषां न पिशाचान्न राक्षसान् ।। नाग्न्यम्वुपवन व्यालाद्भयं तस्योपजायते ॥ चतुर्णामपि वर्णानामाश्रमस्य विशेषतः ।। करोति सततं शान्ति सावित्री मुत्तमा पठन् ॥
नार्ग्दिहति काष्ठानि सावित्री यम पठ्यते ।। न तम वालोम्रियते न च तिष्ठन्ति पन्नगाः ॥ न तेषां विद्यते दुःख गच्छन्ति परमां गतिम् ।। ये शृण्वन्ति महद्ब्रह्म सावित्री गुण कीर्तनम ॥ गवां मन्ये तु पठतो गावोऽस्य बहु वत्सलाः ।। प्रस्थाने वा प्रवासे वा सर्वावस्थां गतः पठेत ॥
''जो व्यक्ति सावित्री (गायत्री) का जप करते हैं उनको धन, पात्र, गृह सभी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं ।। उनको राजा, दुष्ट, राक्षस, अग्नि, जल, वायु और सर्प किसी से भय नहीं लगता ।। जो लोग इस उत्तम मन्त्र गायत्री का जप करते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों में सफल रहते हैं ।। जिस स्थान पर सावित्री का पाठ किया जाता है, उस स्थान में अग्नि काष्ठों को हानि नहीं पहुँचाती है, बच्चों की आकस्मिक मृत्यु नहीं होती, न ही वहाँ अपङ्ग रहते हैं ।।
जो लोग सावित्री के गुणों से भरे वेद को ग्रहण करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कष्ट एवं क्लेश नहीं होता है तथा जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं ।। गौवों के बीच सावित्री का पाठ करने से गौवों का दूध अधिक पौष्टिक होता है ।। घर हो अथवा बाहर, चलते फिरते सदा ही गायत्री का जप किया करें ।
भीष्म पितामह कहते हैं कि सावित्री- गायत्री से बढ़कर कोई जप नहीं हैः- जपतां जुह्वता चैव नित्यं च प्रयतात्मनाम् ।। ऋषिणाम् परमं जप्यं गुह्यमेतन्नराधिम ॥ तथातथ्येन सिद्धस्य इतिहासं पुरातनम् ।। तदेतत्ते समाख्यां तथ्य ब्रह्म सनातनम् ॥
हृदयं सर्व भूतानां श्रुतिरेषा सनातनी ।। सोमदित्यान्वयाः सर्वे राघवाः कुरवस्तथा ।। पठन्ति शुचयो नित्यं सावित्री प्राणिनां गतिम ॥
''हे नर श्रेष्ठ सदा जप में लीन रहने वाले तथा नित्य हवन करने वाले ऋषियों का यह परम जप तथा गुप्त मंत्र है ।। सर्वप्रथम इस गुह्य मंत्र का इतिहास 'पराशर' द्वारा देवराज के समक्ष वर्णन करता हूँ ।। यह गायत्री ब्रह्मस्वरूप तथा सनातन है ।। यही सर्वभूत का हृदय तथा श्रुति है ।। चन्द्रवंशी, सूर्यवंशीय, कुरुवंशी, सभी राजा पूर्ण पवित्र भाव से सर्व हितकारी इस महामंत्र सावित्री गायत्री का जप किया करते थे ।''
सविता और सावित्री की युग्म भावना एक कल्पना पर नहीं तथ्यों पर आधारित है। अग्नि तत्त्व से बना दृश्यमान सूर्य तो चेतन सविता देव का स्थूल प्रतीक भर है। प्रतीक पूजा का स्वरूप ही यह है कि जड़ पदार्थों के माध्यम से चेतनात्मक प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी कराई जाय। सविता-चेतना ब्रह्मतेज को कहते हैं। वह अदृश्य है। ब्रह्मण्डीय चेतना के रूप में, दिव्य प्रखरता के रूप में सर्वत्र व्यापक और विद्यमान है।
पृथ्वी पर जिस तरह सूर्य-क्रेन्द्र से जीवन बरसता है उसी प्रकार आत्मा रूपी पृथ्वी पर ब्रह्मसत्ता के प्राण तेज की तेज वर्षा होती है। इसी से अन्तः भूमि विभूतियों की हरीतिमा उगती और फूलती- फलती है। गायत्री के साथ उनके देवता सविता का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध इसी आधार पर जुड़ा हुआ है। गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है।
गायत्री का सविता होने के संदर्भ में कुछ उक्तियाँ इस प्रकार हैं— सवितुश्चाधिदेवो या मन्त्राधिष्ठातृदेवता। सावित्री ह्यपि वेदाना सावित्री तेन कीर्तिता। -देवी भागवत
इस सावित्री मन्त्र का देवता सविता- (सूर्य) है। वेद मंत्रों की अधिष्ठात्री देवी वही है। इसी से उसे सावित्री कहते हैं।
यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः। प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुषास्महे।।
‘जो सविता देव हमारी बुद्धि को धर्म में प्रेरित करता है उसके श्रेष्ठ भर्ग (तेज) की हम उपासना करते हैं।
सर्व लोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते। यतस्तद् देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः।।-अमरकोश
‘‘वे सूर्य भगवान समस्त जगत को जन्म देते हैं इसलिए ‘सविता’ कहे जाते हैं। गायत्री मन्त्र के देवता ‘सविता’ हैं इसलिए उसकी दैवी-शक्ति को ‘सावित्री’ कहते हैं।’’
मनोवै सविता। प्राणधियः। -शतपथ 3/6/1/13
प्राण एव सविता, विद्युतरेव सविता। -शतपथ 7/7/9
सूर्य ही तेज कहा जाता है। ब्रह्म तेज और सविता एक ही हैं। गायत्री को तेजस्विनी कहा गया है। सविता तेज का प्रतीक है। अस्तु सविता का तेज और गयात्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए। कहा गया है—
तेजसा वै गायत्री प्रथमं त्रिरात्र दाधार पदैर्द्वितीयमक्षरैस्तृतीयम्। तेजो वै गयात्री। गो। ज्योतिर्वै गायत्री छन्दसाम्। ज्योतिर्वै गायत्री। दविद्युतती वै गायत्री। गायत्र्येव भर्ग।। गायत्री वै रथन्तरस्य योनिः तेजो वै गायत्री।
सविता तेज के सम्बन्ध में किसी प्रकार भ्रम न रह जाय, उसे भौतिक अग्नि प्रकाश न मान लिया जाय, इसलिए यह स्पष्टीकरण आवश्यक समझा गया है कि यह ‘तेजस्’ विशुद्धा रूप से ब्रह्म तत्त्व का है। सविता तेज को ब्रह्मतेज के अतिरिक्त और कुछ समझ बैठने की भूल किसी अध्यात्म विद्या के छात्र को नहीं ही करनी चाहिए। कहा है—
सविता सर्वभूतानां सर्वभावान् प्रसूयते। सवनात् पावनाच्चैव सवितानेन चोच्यते।।
सकल भूतों के उत्पादक तथा पावन कर्ता होने से परमात्मा सविता कहलाते हैं।
आदित्यो ब्रह्मोत्यादेशस्तस्योपव्याख्यानम्।
-छान्दोग्योपनिषद्-3 प्र. 19/1
सूर्य ही ब्रह्म है, वह महर्षियों का आदेश है, सूर्य में परमेश्वर की सत्ता को समझने का उपदेश है।
इस प्रकार सावित्री और गायत्री मन्त्र में भेद नहीं है।
साभार: मिथिलेश व्दिवेदी

सुख, संपति, परिवार और बड़ाई का मोह वास्तव में राम भक्ति में बाधक हैं ...

सुख, संपति, परिवार और बड़ाई का मोह वास्तव में राम भक्ति में बाधक हैं .................
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मेरे एक प्रिय विद्वान और भक्त मित्र ने जिनका विचार अपनी सरकारी सेवा से निवृति के पश्चात विरक्त साधू बनने का था, सेवा-निवृति से पहिले ही अपनी स्वयं की कमाई से एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान में जो चार धामों में भी आता है, अपने लिए एक विशाल आश्रम का भवन बनवा लिया| एक अच्छी सी कार भी खरीद ली| भक्तों के रहने का स्थान, सत्संग करने का कमरा, एक मंदिर भी बनवा लिया, और अन्य सारी सुविधाएँ भी जुटा लीं| सेवा-निवृत होते ही आराम से विधिवत रूप से बाबाजी बन गए और अपने आश्रम में रहने लगे|
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यहीं से उनकी सारी समस्याओं का आरम्भ हुआ| अच्छी सरकारी नौकरी में थे अतः पेंशन के अच्छे रूपये आते थे और बचत भी कर रखी थी अतः कोई आर्थिक समस्या तो थी नहीं| पर मायावी सांसारिक मोह नहीं छुटा| उनके पूर्वाश्रम की पत्नी बड़ा अनुनय विनय कर के शिष्या और सेविका बन कर आ गयी, धीरे धीरे पूर्वाश्रम का पुत्र और पुत्रवधू भी आ गयी| पुत्रवधू को डर था कि कहीं बाबाजी अपनी करोड़ों की संपत्ति किसी को चेला बनाकर नहीं दे दे अतः वह सारी संपति अपने नाम करवाने के लिए कलह करने लगी| पूर्व पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू व पुत्रवधु के पीहर वाले सब एक होकर बाबाजी से लड़ाई झगड़े और उत्पीड़न तक पर उतर आये|
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बाबाजी मुझसे सलाह और सहायता माँगने लगे| मैंने उनको सलाह दी कि इस सारी संपति को बेचकर अपने गुरु स्थान वृन्दावन चले जाओ और रुपया पैसा अपने विवेकानुसार परमार्थ में खर्च कर दो, या अपना स्थान अपनी गुरु-परम्परा के साधुओं को सौंप दो| पर महात्मा जी को अपनी भव्य संपति से इतना मोह हो गया कि कहीं भी जाना उनको अच्छा नहीं लगा| वृन्दावन तो उनको बहुत गंदा स्थान लगा| उन्होंने मुझसे दो हट्टे-कट्टे दबंग अच्छे शिष्यों की व्यवस्था करने की प्रार्थना की|
मैंने उनसे कहा कि अच्छे शिष्य भी भाग्य से मिलते हैं, अतः मैं यह व्यवस्था नहीं कर सकूँगा| अब स्थिति यह है कि महात्मा जी मुझसे अनुरोध कर रहे हैं की मैं उनके आश्रम को संभाल लूँ और उनकी कहीं अन्यत्र व्यवस्था कर दूं| मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें मना कर दिया है| अब उनके इस मोह के कारण उनकी परंपरा के साधू भी उन्हें साधू ही नहीं मानते और उन्हें गृहस्थ बताते हैं|
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मैं और भी कुछ लोगों को जानता हूँ जो अपने घर, संपति, परिवार और बड़ाई के मोह से आध्यात्मिक मार्ग पर नहीं चल पाए|
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अभी हाल में ही मेरे एक और सेवानिवृत इंजिनियर मित्र ने अपने लिए एक बहुत बड़ा कोठीनुमा आश्रम बनवाया है और सपत्नीक उसमें रहते हैं| पति-पत्नी दोनों ही भक्त हैं और बड़े प्रेम से साथ रहकर साधना करने का प्रयास करते हैं| उन्हें कोई विशेष लाग-लपेट नहीं है| उनका पुत्र एक दुसरे नगर में अच्छे पद पर है जिसका स्वयं का मकान है|
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यह लेख लिखने का मेरा उद्देश्य यही बताना है कि जब और जिस भी समय वैराग्य हो जाये , या जब भी ईश्वर की एक झलक मिले, उसी समय विरक्त होकर गृह-त्याग कर देना चाहिए और किसी भी तरह की लाभ-हानि का चिंतन नहीं करना चाहिए|
गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्य ही कहा है .......
"सुख संपति परिवार बड़ाई | सब परिहरि करिहऊँ सेवकाई ||
ए सब राम भगति के बाधक | कहहिं संत तव पद अवराधक ||"
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हे हरि सुन्दर .....

हे हरि सुन्दर, हे हरि सुन्दर, तेरे चरणों पर शीश नमन करता हूँ |
हे हरि, उन सब का हरण कर लो, जिन्होनें तुम से मेरा हरण कर लिया है |
सब कुछ तो तुम ही हो, समस्त अस्तित्व और उससे भी परे जो कुछ भी है, वह तुम ही हो | तुम्हारे से पृथक कुछ भी नहीं है | फिर भी यह अतृप्त प्यास, तड़प और वेदना क्यों है ?
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सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म |
प्रज्ञानं ब्रह्म |
अयमात्मा ब्रह्म |
अहं ब्रह्मास्मि |
तत्वमसि |
सर्व खल्विदं ब्रह्म |
सच्चिदानंद ब्रह्म |
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समस्त अस्तित्व ब्रह्म है | जिस प्रकार एक जन्मांध किसी रंग को नहीं पहिचान सकता, उसी तरह तर्क-वितर्क और बुद्धि से उसे समझना असंभव है|
वह सिर्फ अहैतुकी परम प्रेम, समर्पण उसकी महती अनुकम्पा यानि परम कृपा के द्वारा ही समझा जा सकता है|

जब तुम ही सर्वस्व हो फिर यह विक्षेप और आवरण क्यों है ?
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

ह्रदय की अभीप्सा कैसे शांत हो ? .......

ह्रदय की अभीप्सा कैसे शांत हो ? .......
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अभीप्सा ..... ह्रदय की एक प्यास होती है जो निरंतर बढती रहती है, कभी शांत नहीं होती| जब वह अभीप्सा जागृत होती है तब ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है, और ह्रदय तड़प उठता है| अभीप्सा में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है|
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बढ़ते बढ़ते वह प्यास सारे भौतिक, प्राणिक और मानसिक स्तरों का अतिक्रमण कर जाती है| यानि किसी भी भौतिक, प्राणिक और मानसिक उपायों या उपलब्धियों से शांत नहीं होती| संसार की कोई भी वस्तु उसे शांत नहीं कर सकती|
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उस अभीप्सा को शांत करने के लिए कई बार मनुष्य भटकता है| उसकी प्रबल जिज्ञासा भटकाते भटकाते उसे अनेक प्रकार का बौद्धिक अध्ययन करवाती है पर वह प्यास बौद्धिकता से शांत नहीं होती| अनेक ठग गुरुओं के चक्कर में वह ठगा भी जाता है जो चेले मूँडने को सदैव उपलब्ध रहते हैं| अनचाहे हर प्रकार के सलाहकार भी मिल जाते हैं| पर वह प्यास फिर भी अतृप्त रहती है|
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अंततः वह मनुष्य परमात्मा से प्रार्थना करता है तब भगवान स्वयं ही कृपा कर के उसका किसी न किसी माध्यम से मार्गदर्शन कर देते हैं| पर यह तो उसकी होने वाली एक लम्बी यात्रा का आरम्भ मात्र है| अनेक भटकाव फिर भी आते हैं पर करुणा कर के कृपासिंधु भगवान उसे बार बार सन्मार्ग पर ले आते हैं| हिमालय जैसी बड़ी बड़ी भूलें भी क्षमा कर दी जाती हैं|
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यह अभीप्सा सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के अहैतुकी परम प्रेम यानि परा भक्ति से ही शांत होती है|
जहाँ तक मेरा अनुभव है ऐसी ही अत्यधिक बेचैन कर देने वाली प्रचंड अग्नि की दाहकता वाली यह अभीप्सा कोई छोटे मोटे उपायों से नहीं बल्कि कई कई घंटों की गहन ध्यान साधना के बाद ही शांत होती है|
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हम सब के हृदयों में ऐसी ही पराभक्ति जागृत हो, हम सब के हृदयों में वह अभीप्सा जागृत हो, इसी शुभ कामना के साथ सब को सादर नमन !
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हमें कुसंग का सर्वदा त्याग ही नहीं अपितु उन सब की संगति भी छोड़ देनी चाहिए जिनके ह्रदय में परमात्मा के प्रति प्रेम नहीं है .....

हमें कुसंग का सर्वदा त्याग ही नहीं अपितु उन सब की संगति भी छोड़ देनी चाहिए जिनके ह्रदय में परमात्मा के प्रति प्रेम नहीं है .....
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ईश्वर भक्ति वीरता को जन्म देती है जो वीर नहीं उससे भक्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह प्रेम से नहीं डर से बंधा है हे मनुष्य, तू उस वीरता को धारण कर और चक्रवर्ती बन|
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"जाके ह्रदय ना राम वैदेही, तजिहे ताहि कोटि वैरी सम, यद्यपि परम सनेही |
तज्यो पिता प्रह्लाद, विभीषण बंधू , भरत महतारी|
बलि गुरु तज्यो, कंत बृजबानितनी, भये मुद मंगलकारी !!
नाते नेह राम के मनियत, सुह्रदय सु -सेब्य जहाँ लौ|
अंजन कहा आँखि जेहि फूटे , बहुतेक कहौ कहा लौ|
तुलसी सौ सब भांति परम हित , पूज्य प्राण ते प्यारौ|
जासो होए सनेह राम पद , एतो मतों हमारो ||"
अर्थात् ........
जिसके ह्रदय में भगवान के लिए भक्ति नहीं हो, उसे करोड़ों शत्रुओं के समान छोड़ देना चाहिए|
जिस प्रकार प्रहलाद ने पिता का, विभीषण ने भाई का, भरत ने माता का और गोपियाँ पति का त्याग कर मुदित मंगलकारी हुईं| अंजन लगाने से यदि आँख फूट जाये और रोशनी ही चली जाये तो क्या लाभ अंजन लगाने से ? जिस के संग से भगवान से प्रेम बढे वह ही परम हितकारी है, यही हमारा मत है|
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मीरा बाई ने बहुत दुखी होकर संत तुलसीदास जी से सलाह माँगी थी .......
"घर के स्वजन हमारे जेते सबन उपाधि बढ़ाई|
साधू संग अरु भजन करत मोहि,
देत कलेश अधनाइ||
बालेपन से मीरा किनी, गिरिधर लाल मिताई|
सो तो अब छुटै नहीं, क्यों हो लगी लगन बरियाई||"
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तुलसीदास जी ने मीराबाई को सलाह देते हुए ही उपरोक्त पद लिखा था जो आज भी प्रासंगिक है| तुलसीदास जी का उत्तर मिलते ही मीराबाई अपना घर मेवाड़ छोड़कर स्थायी रूप से वृन्दावन आ गईं|

जब तक मीराबाई मेवाड़ में थीं वहाँ विधर्मियों का कोई आक्रमण नहीं हुआ| उनके मेवाड़ छोड़ने के पश्चात ही वहाँ विधर्मियों के आक्रमण आरम्भ हो गए|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Sunday, 21 August 2016

परमात्मा को निरंतर अपने चित्त में, अपने अस्तित्व में प्रवाहित होने दो, सब बातों का सार यही है .....

परमात्मा को निरंतर अपने चित्त में, अपने अस्तित्व में प्रवाहित होने दो,
सब बातों का सार यही है .....
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कई बार मनुष्य कोई जघन्य अपराध जैसे ह्त्या, बलात्कार या अन्य कोई दुष्कर्म कर बैठता है फिर सोचता है कि मेरे होते हुए यह सब कैसे हुआ, मैं तो ऐसा कर ही नहीं सकता था| पर उसे यह नहीं पता होता कि वह किन्हीं आसुरी शक्तियों का शिकार हो गया था जिन्होंने उस पर अधिकार कर के यह दुष्कर्म करवाया|
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सूक्ष्म जगत की आसुरी और पैशाचिक शक्तियाँ निरंतर अपने शिकार ढूँढती रहती हैं| जिसके भी चित्त में वासनाएँ होती हैं उस व्यक्ति पर अपना अधिकार कर वे उसे अपना उपकरण बना लेती हैं और उस से सारे गलत काम करवाती हैं|
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जितना हमारा गलत और वासनात्मक चिंतन होता है, उतना ही हम उन आसुरी शक्तियों को स्वयं पर अधिकार करने के लिए निमंत्रित करते हैं| भौतिक जगत पूर्ण रूप से सूक्ष्म जगत के अंतर्गत है| सूक्ष्म जगत की अच्छी या बुरी शक्तियाँ ही यहाँ अपना कार्य कर रही है|
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अगर हम संसार में कोई अच्छा कार्य करना चाहते हैं उसका एक ही उपाय है कि परमात्मा को निरंतर स्वयं के भीतर प्रवाहित होने दें, उसके उपकरण बन जाएँ|
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वह सदा हमारे साथ है| हमारे ह्रदय में भी वो ही धड़क रहा है, व हमारी हर साँस में वह ही है| उस के प्रति सजग रहो| साकार भी वही है और निराकार भी वही है| साकार ही निराकार का आधार है| साकार की साधना करते करते वह उससे भी परे हो जाता है|
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ध्यान साधना के लिए परमात्मा के दो साकार रूप सर्वश्रेष्ठ हैं -- एक भगवान् नारायण का और दूसरा भगवान् शिव का| इनमें से जो भी हमारा प्रिय रूप हो निरंतर उसे अपने चित्त में रखें| उस के प्रति समर्पित होने का निरंतर प्रयास करते रहें| उसका निरंतर स्मरण करें| उन्हें या सद्गुरु जो अपने भीतर कार्य करने दें, और उन के प्रति समर्पित हो जाएँ, व उन्हें ही अपने जीवन का कर्ता बनाएँ|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

साधना का एक अति गूढ़ तत्व ------ "संधिक्षण" ....

साधना का एक अति गूढ़ तत्व ------ "संधिक्षण" .....
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संधिक्षण में की गयी साधना ही "संध्या" कहलाती है| संधिक्षण दिन में चार बार आता है| यह अति शुभ मुहूर्त होता है| पर यह मात्र एक क्षण का ही होता है| यही समय "संध्या" करने का होता है|
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क्षण, स्थान और काल का महत्व साधना में बहुत महत्वपूर्ण है| किसी भी सिद्धि की प्राप्ति इस तथ्य पर निर्भर करती है कि किस स्थान पर, किस काल में और किस क्षण में साधना सम्पन्न हुई| क्षणों में संधिक्षण का विशेष महत्व है| उस समय मन्त्रचेतना प्रबल होती है और सिद्धि आसानी से मिल जाती है|
आजकल समय का प्रभाव ही ऐसा है कि मनुष्य तपस्यादि की परवाह न कर बाहरी दिखावे और आडम्बर में फंस गया है|
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जब रात्री का अवसान होता है और ऊषा का आगमन होता है ---- तब एक संधिक्षण आता है जिसमें किये हुए जप-तप का विशेष फल होता है| ऐसे ही मध्यान्ह में एक संधिक्षण आता है जो सूर्योदय और सूर्यास्त के समय के बिलकुल मध्य में होता है जिसकी गणना करनी होती है| सायंकाल को भी ऐसे ही दिन की समाप्ति पर रात्री से पूर्व एक संधिक्षण आता है| मध्यरात्री को भी एक महाक्षण आता है जो सूर्यास्त और सूर्योदय के बिल्कुल मध्य में होता है जिसका भी हिसाब लगाना पड़ता है|
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इन शुभ क्षणों में किसी सिद्ध क्षेत्र में, ध्यानासन पर बैठकर किसी सिद्ध मन्त्र की गुरुपरम्परानुसार साधना की जाए तो सिद्धिलाभ अति शीघ्र होता है|
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ब्राह्मणों के लिए द्विकाल यानि प्रातः और सायं की संध्या अनिवार्य है| जिनके पास समय होता है वे त्रिकालसंध्या भी करते हैं| श्रीविद्या के उपासक मध्यरात्रि में तुरीय संध्या करते हैं|
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एक रहस्य और भी है| दो तिथियों के मिलने का समय भी अति पवित्र होता है|
प्रातः और सायंकाल की संध्या तो यथासम्भव अवश्य ही करनी चाहिए|
ॐ नमः शिवाय||

ॐ ॐ ॐ ||

आजकल परमात्मा हम सब को निरंतर कुछ अधिक ही याद कर रहे हैं ....

आजकल परमात्मा हम सब को निरंतर कुछ अधिक ही याद कर रहे हैं ....
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जीवन में आ रही सभी बाधाओं, कठिनाइयों, पीड़ाओं, दुःखों, कष्टों, अभिशापों और सभी प्रकार की विपरीतताओं का स्वागत है| ये सब भगवान की कृपा हैं जो हमें उनकी याद दिलाने के लिए निरंतर आती हैं| इनके बिना सृष्टिकर्ता को कौन याद करेगा ?
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प्रभुकृपा से ये सब तो है हीं, साथ साथ परमात्मा के आशीर्वाद और महती कृपा से बौद्धिक स्तर पर कोई किसी भी तरह की कणमात्र भी शंका या संदेह नहीं है| सोच व विचारों में स्पष्टता है|
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अब एक ही अभीप्सा है ..... बचा-खुचा अवशिष्ट जीवन परमात्मा के ध्यान में ही बिता दिया जाए, और समर्पण में पूर्णता हो| अन्य कोई कामना नहीं है|
भगवान योग-क्षेम का वहन भी करेंगे और निराश्रय की रक्षा भी करेंगे|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

Friday, 19 August 2016

अपने समय के एक-एक क्षणका सदुपयोग और ईश्वर प्रदत्त विवेक के प्रकाश में सारे कार्य करें .....

अपने समय के एक-एक क्षणका सदुपयोग
और ईश्वर प्रदत्त विवेक के प्रकाश में सारे कार्य करें .....
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हमें अपने समय के एक एक क्षण का सदुपयोग करना होगा अन्यथा हम स्वयं को क्षमा नहीं कर पाएंगे | आग लगने पर कुआँ नहीं खोदा जा सकता, कुएँ को तो पहिले से ही खोद कर रखना पड़ता है|
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जिस भौतिक विश्व में हम रहते हैं, उससे भी बहुत अधिक बड़ा एक सूक्ष्म जगत भी हमारे चारों ओर है, जिसमें नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह की सत्ताएँ हैं|
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जितना हम अपनी दिव्यता की ओर बढ़ते हैं, ये नकारात्मक शक्तियां उतनी ही प्रबलता से हम पर अधिकार करने का प्रयास करती हैं| सबसे पहिले वे हमारा मनोबल क्षीण करती हैं| इनका उपकरण बनने से बचने के लिए निरंतर प्रयास करना पड़ता है| इसके लिए निरंतर हरि स्मरण, सत्संग, स्वाध्याय और कुसंग-त्याग व सात्विक भोजन ये ही उपाय हैं| अपने विचारों और भावों पर सदा ध्यान रखें और अच्छे संकल्प करें|

भगवान सबकी रक्षा करें| हमारा समर्पण पूर्ण हो| ॐ गुरु ! जय गुरु !
ॐ ॐ ॐ !!

राजस्थान के लोक-देवता गोगा जी .....

राजस्थान के लोकदेवता गोगा जी .....
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वीर प्रसूता भारत माँ ने जैसे और जितने वीर उत्पन्न किये हैं वैसे पूरे विश्व के इतिहास में कहीं भी नहीं हुए| भारत का इतिहास सदा गौरवशाली रहा है| हजारों वर्षों के वैभव और समृद्धि के बाद पिछले एक हज़ार वर्षों का कालखंड कुछ खराब रहा जो हमारे ही सामूहिक बुरे कर्मों का फल था| वह समय ही खराब था जो निकल चुका है| पर इसमें कभी भी भारत ने पूर्णतः पराधीनता स्वीकार नहीं की और निरंतर अपना संघर्ष जारी रखा| राजस्थान में अनेक वीरों को आज भी लोक देवता के रूप में पूजा जाता है| इनमें प्रमुख हैं ---- पाबूजी, गोगाजी, रामदेवजी, तेजाजी, हडबुजी और महाजी| इन सब ने धर्मरक्षार्थ बड़े भीषण युद्ध किये और कीर्ति अर्जित की| निम्न लेख लोकदेवता गोगाजी को समर्पित है|
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गोगा नवमी पर पूरे राजस्थान में घर घर में पकवान बनाए जाते हैं और मिट्टी से बनी गोगाजी की प्रतिमा को प्रसाद लगाकर रक्षाबन्धन पर बाँधी हुई राखियाँ व रक्षासूत्र खोलकर उन्हें चढाए जाते हैं|
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जब महमूद गजनवी सोमनाथ मंदिर का विध्वंश करने और लूटने जा रहा था तब राजपूताने में गोगाजी (गोगा राव चौहान) ने ही सर्वप्रथम उसका रास्ता रोका था| उन्होंने उसके द्वारा भेजे गए हीरे जवाहरातों के थाल पर ठोकर मार दी और अपनी छोटी से सेना को युद्ध का आदेश दिया| इसका विवरण आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने अपनी कालजयी कृति "जय सोमनाथ" में भी किया है|
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घमासान युद्ध हुआ| गजनी की विशाल सेना के सामने उनकी छोटी सी सेना कहाँ टिकती| वृद्ध गोगाजी ने अपने सभी पुत्रों, पौत्रों, भाइयों, भतीजों, भांजों व सभी संबंधियों सहित जन्मभूमि और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दे दिया| उनके परिवार व सैनिकों की समस्त मातृशक्ति ने जीवित अग्नि में कूद कर जौहर किया ताकि विधर्मी उनकी देह को ना छू सकें|
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उनका एक पुत्र सज्जन बचकर सोमनाथ चला गया| मंदिर के विध्वंस के बाद जब गज़नवी की सेना लूट के माल के साथ बापस लौट रही थीं तब वह उनका मार्गदर्शक बन गया और उसकी सेना को मरुभूमि में ऐसा फँसाया कि गजनवी की सेना के हजारो सिपाही प्यास से मर गए|
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युद्ध में जिस स्थान पर गोगाजी का शरीर गिरा था उसे गोगामेडी कहते हैं| यह स्थान हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील में है| इसके पास में ही गोरखटीला है तथा नाथ संप्रदाय का विशाल मंदिर स्थित है|
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नागवंशी क्षत्रीय चौहान वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था| गोगाजी को गुरु गोरखनाथ जी से एक वरदान प्राप्त था अतः उन्हें सर्पों का देवता माना जाता है| आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है| गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है| लोकधारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है| भादवा माह के शुक्लपक्ष तथा कृष्णपक्ष की नवमियों को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है| नाथ परम्परा के साधुओं के ‍लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है।
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चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान की तरह गोगाजी भी एक परम वीर यशस्वी राजा हुए| गोगाजी का राज्य सतलुज से हांसी (हरियाणा) तक था। ये गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। इनका जन्म भी गुरु गोरखनाथ के वरदान से हुआ था| विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है।
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भारत में एक बहुत बड़े ऐतिहासिक शोध की और सही इतिहास पढाये जाने की आवश्यकता है| हमें हमारा गौरवशाली इतिहास नहीं पढ़ाया जाता, सिर्फ पराधीनता की दास्ताँ पढाई जाती है| हमें वो ही इतिहास पढ़ाया जाता है जिसे हमारे शत्रुओं ने हमें नीचा दिखाने के लिए लिखा था|
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जय हो भारतभूमि और सनातन धर्म, जिसने ऐसे वीरों को जन्म दिया|
जय जननी जय भारत !
ॐ ॐ ॐ ||

भारत कभी निरक्षर नहीं था ....

भारत कभी निरक्षर नहीं था ......
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(लेखक : Vinay Jha )
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लार्ड विलियम बेंटिक के समय जब लार्ड मैकॉले की नयी शिक्षा नीति प्रस्तुत की गयी थी, उसी काल में बंगाल-बिहार की पारम्परिक शिक्षा पर एडम महोदय की विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी थी जो मैंने पढ़ी है | इसमें स्पष्ट लिखा है कि लड़कियों की शिक्षा के बारे में आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु लड़कों के बारे में एडम महोदय का निष्कर्ष है कि उस प्रांत में कुल 150748 गाँवों में लगभग एक लाख पाठशालाएं थीं | अतः दो तिहाई गाँवों में स्कूल थे | अर्थात केवल छोटे गाँवों में ही स्कूल नहीं थे |
एडम महोदय के शब्दों में पाठशाला जाने योग्य आयुवर्ग के सभी छात्रों की कुल अनुमानित संख्या को ध्यान में रखने पर प्रत्येक "31 या 32 लड़कों पर एक स्कूल था" !! एडम महोदय के पास विशुद्ध आंकड़े नहीं थे, किन्तु विभिन्न स्रोतों से उन्होंने जो आंकड़े उपलब्ध किये वे लगभग विश्वसनीय थे | उनका निष्कर्ष था कि "निम्नतम वर्गों में भी अपने लड़कों को शिक्षित करने की इच्छा मन में गहरी बैठी थी" (मैंने शब्दशः अनुवाद किया है)| उनकी रिपोर्ट के पृष्ठ 19 में ये बातें लिखी हैं , जो सिद्ध करते हैं कि सभी जातियों , यहाँ तक कि तथाकथित जनजातियों और तथाकथित दलितों में भी लगभग शत-प्रतिशत साक्षरता थी, औरतों को छोड़कर !! औरतों के बारे में आंकडें उपलब्ध नहीं थे, किन्तु एडम महोदय का मत है कि पुरुषों से औरतें पीछे थीं | उस समय इंग्लैंड में भी औरतों की साक्षरता पुरुषों से लगभग 20% - 25% कम थी |
मनोरंजक तथ्य यह है कि एडम महोदय के अनुसार कलकत्ता में स्कूलों और छात्रों की संख्या आबादी के हिसाब से देहातों की अपेक्षा बहुत कम थी (पृष्ठ 20) !! अर्थात जहाँ अंग्रेजी सत्ता अधिक प्रभावी थी, वहाँ साक्षरता कम थी ! अब समझ में आ गया न कि भारत में शिक्षा और साक्षरता का विनाश किन लोगों ने किया ? जिन्होंने शिक्षा का विनाश किया उन्होंने ही प्रचार किया कि ब्राह्मण दूसरों को पढने नहीं देते थे और ब्राह्मणों ने ही दलितों को हर अधिकारों से वंचित किया जिस कारण अम्बेडकर को "सामाजिक तथा शैक्षणिक पिछड़ों" के लिए आरक्षण का अनुच्छेद संविधान में जोड़ना पडा और मनुस्मृति जलानी पड़ी, जबकि एडम महोदय की रिपोर्ट में शिक्षकों की जातियों और फीस आदि पर विस्तृत विवरण हैं |
कमाल की बात है कि फारसी मदरसों की संख्या बहुत कम थी, जिससे स्पष्ट है कि अधिकाँश मुस्लिम बच्चे भी ब्राह्मण शिक्षकों की पाठशालाओं में पढ़ते थे ! उदाहरणार्थ, एडम महोदय ने Dr Buchanan की रिपोर्ट (1808) को उद्धृत किया है जिसमें दिनाजपुर के विशाल जिले के बारे में उल्लेख है कि आबादी में 70% मुस्लिम थे किन्तु 9 फारसी मदरसे थे और 135 हिन्दू पाठशाला थे जिनमें 16 उच्च शिक्षा के लिए थे (पृष्ठ 76, एडम रिपोर्ट) !
एडम महोदय ने स्पष्ट लिखा है कि दिव्य (वैदिक) विद्याएँ ब्राह्मण सबको नहीं देते थे | किन्तु सांसारिक विद्याओं पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था |
उन्नीसवीं शती के आरम्भ तक साक्षरता लगभग 10% ही रह गयी थी, और वह भी मुख्यतः आधुनिक पद्धति वाले स्कूलों द्वारा ही |
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पहले यह तो प्रचारित करना चाहिए कि भारत निरक्षर नहीं था जैसा कि अंग्रेजों ने बना दिया | बंगाल में एक लाख पाठशालाएं थीं तो देश में कितनी होंगी ? जनसंख्या के हिसाब से छ-सात लाख, जो आज भी नहीं है ! कम से कम दैनन्दिन का गणित और भाषा की पढ़ाई थी न !! आज तो बड़े बड़े वैज्ञानिकों और गणित के प्रोफेसरों को देखता हूँ परचून की दूकान पर स्मार्टफ़ोन के कैलकुलेटर पर हिसाब जोड़ते हुए | भूगोल के विद्वान हैं किन्तु अपने गाँव का भूगोल नहीं जानते और न गाँवके लिए उनका ज्ञान किसी काम का है | इतिहासकार हैं किन्तु अपने पाँच पुरखों का भी नाम नहीं जानते, अपने गाँव और समाज के इतिहास में कोई रूचि नहीं | निपट मूर्ख हैं, कूड़ा-कर्कट दिमाग में ठूँसकर विद्वान बनते हैं | इनसे बेहतर तो अनपढ़ लोग हैं जो श्रम करके खाते हैं, गरीब देश में लाखों का वेतन नहीं लूटते | पादरी विलियम एडम की बाद वाली रिपोर्टों में अधूरी और झूठी बातें जुड़वायी गयीं क्योंकि देशी पाठशालाओं को बन्द कराने की मानसिकता ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बना ली थी, 1832 में ही भारतीय विद्याओं से घृणा करने वाले लार्ड मैकॉले भारत सम्बन्धी मामलों पर लन्दन में सबसे बड़े हाकिम बन गए थे |
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19 वीं शताब्दी में (1857 के आसपास) मेरे गाँव में केशव चौधरी जी नाम के ब्राह्मण बिना फीस के पाठशाला चलाते थे जिसमें सबको शिक्षा मिलती थी, किन्तु वैदिक विद्याएँ केवल ब्राह्मणों को दी जाती थी | उस गाँव में तथाकथित दलित भी बहुत से हैं | केशव चौधरी के बाद उनके शिष्य पशुपति ठाकुर जी ने पाठशाला का प्रभार लिया | पशुपति ठाकुर जी घर से दूर गाँव की सीमा के बाहर एक स्वनिर्मित मन्दिर पर रहते थे जहाँ उनका भोजन घरवाले पँहुचा देते थे | उनके पाँचों पुत्र प्रोफेसर बने, बड़े पुत्र वाचस्पति ठाकुर जी BPSC (बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन) के अध्यक्ष बने, किन्तु पशुपति ठाकुर जी के मरणोपरान्त संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना उनके शिष्यों ने की (उनके शिष्य और ग्रामीण सांसद ने) ताकि हिन्दू पाठशाला की अति-प्राचीन परम्परा बन्द न हो (उसी पाठशाला में पुरी गोवर्धन मठ के वर्तमान शंकराचार्य जी के दादा भी पढ़ते थे जो मेरे ही ग्रामीण थे किन्तु सौ वर्ष पहले पास के गाँव में प्रवास कर गए) | उस संस्कृत महाविद्यालय में प्राथमिक विद्यालय भी अन्तर्निहित था (अभी भी है) | संस्कृत महाविद्यालय के प्रथम सचिव वाचस्पति ठाकुर जी थे और वर्त्तमान सचिव मैं हूँ |
केशव चौधरी जी की अधिकाँश भूमि पर दलितों ने कब्जा जमा लिया, कुछ भूमि दलितों से बचाने के लिए उनके वंशजों ने संस्कृत महाविद्यालय को दान में दे दिया |
आज से चार वर्ष पूर्व उनके वंशज की 17 वर्ष की नाबालिग बच्ची का उन्हीं की भूमि पर बसने वाले एक दलित ने अपहरण कर लिया | हमलोगों ने अपहर्ता को पुलिस से पकड़वाया, किन्तु हरिजन एक्ट के भय से बच्ची के पिता ने मुकदमा नहीं किया | अपहर्ता का पिता दारू की अवैध भट्ठी चलाता था जिसे लोगों ने बन्द कराया तो संस्कृत महाविद्यालय के ठीक मुहाने पर शराब का ठेका खोल दिया जिसे मैंने बन्द कराया | उसने अपने बेटे को सिखाया था कि कहीं से ब्राह्मणी पुतोहू ला दो, जितना पैसा चाहिए दूंगा ! बच्ची पिता के घर लौटी किन्तु दोबारा उसी दलित ने अपहरण कर लिया, जिसके बाद उस बच्ची के पिता शर्म के मारे गाँव छोड़कर भाग गए |
केशव चौधरी जी दलितों को न पढ़ाते और उनके पोते ने दलितों को बसने के लिए भूमि नहीं दी होती तो आज केशव चौधरी का वंश बर्बाद और बदनाम न होता ! उन्हीं दलितों ने संस्कृत महाविद्यालय को बन्द कराने के लिए कई बार हंगामा किया और दूर से नक्सलों को भी बुलाया जिन्हें समझा कर मैंने विदाकर दिया और उनके स्थानीय कम्युनिस्ट (CPI) मित्रों पर मुकदमा करके गिरफ्तारी का आदेश करा दिया | अब इन लोगों को टीवी द्वारा अम्बेडकर की भी जानकारी मिल गयी है और अब उन्हें सिखाया जा रहा है कि हज़ारों वर्षों से ब्राह्मणोंने उनका शोषण किया है और पढने नहीं दिया | कम्युनिस्ट पार्टी का साथ कई ब्राह्मण भी दे रहे हैं |
पूरे देश का लगभग यही हाल रहा है |
एडम महोदय के काल में ही मद्रास और मुंबई प्रेसिडेंसियों में भी शिक्षा पर सर्वेक्षण हुआ था जिनके निष्कर्ष भी लगभग समान थे |
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तीस वर्ष पहले मैंने पढ़ा था कि 19वीं शती के मध्य में भारत में एक भी खेतिहर मजदूर नहीं था, अंग्रेजों और जमींदारों की लूट-खसोट के कारण छोटे किसान भूमिहीन होते गए जो आज़ादी के बाद भी जारी है, आज भी गरीब किसान या तो मजदूर बनते हैं या आत्महत्या करते हैं | वह पुस्तक एक विद्यार्थी ने चुरा ली, किन्तु दिल्ली में आज भी उपलब्ध है | लेखक (स्वर्गीय) ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे किन्तु उच्च कोटि के बुद्धिजीवी थे ; उस पुस्तक की खासियत थी कि अंग्रेजों और उनके भारतीय पिट्ठूओं (गान्धी-नेहरु सहित) सबका भंडाफोड़ करने वाले मूल दस्तावेज लेखक ने छाप दिए जिस कारण अंग्रेजों ने इस पुस्तक को प्रतिबंधित कर दिया था | ब्रिटिश राज के इतने मूल दस्तावेज किसी दूसरी पुस्तक में नहीं मिलेंगे -- स्वर्गीय रजनी पाल्मे दत्त की "India Today" जो आधुनिक भारतीय इतिहास पर महानतम ग्रन्थ है (इनकी माँ स्वीडन के पाल्मे परिवार की थी जिसने स्वीडन को ओलोफ पाल्मे नाम का प्रधानमन्त्री दिया था, और पिता बंगाली थे)| रजनी पाल्मे दत्त से वैचारिक मतभेद रखने वाले भी न तो उनके दस्तावेजों को काट सकते हैं और न ही उनके तर्कों को | उदाहरणार्थ, 1937 ईस्वी का नेहरु का वह पत्र इस पुस्तक में प्रकाशित है जिसने कांग्रेस के उस समय के मित्र जिन्ना को पाकिस्तान की माँग करने के सिवा कोई रास्ता नहीं छोड़ा , गान्धी जी का वह बयान छपा है जिसमें उन्होंने 1946 के नौसेना विद्रोह का विरोध किया था, ब्रिटिश वाइसराय का ब्रिटिश प्रधानमन्त्री के नाम पत्र छपा है जिसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि नौसेना विद्रोह के बाद अब अंग्रेज भारत पर राज नहीं कर सकते, जिसे पढ़ते ही ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एटली ने तत्क्षण घोषणा कर दिया कि भारत चाहे या न चाहे अगस्त 1947 तक अंग्रेज भारत छोड़ देंगे | किन्तु हमें पढ़ाया जाता है कि गान्धी-नेहरु के डर से अंग्रेज भाग गए !!
(1942 के आन्दोलन का भी गान्धी-नेहरु ने नेतृत्व नहीं किया था, वे लोग तो जेल में आराम फरमा रहे थे और बाहर लाखों लोगों पर ब्रिटिश हवाई जहाज बम बरसा रहे थे क्योंकि दसियों हज़ार थानों से ब्रिटिश पुलिस और अफसरों को लोगों ने बलपूर्वक भगा दिया था -- बहुत ही हिंसक आन्दोलन था जिसे अब कांग्रेस अहिंसक कहती है | आन्दोलन का आरम्भ जिन लोगों ने किया वे लोग आजीवन कांग्रेस के विरोधी रहे और 1947 तक केन्द्रीय कारागारों में बन्द या फरार रहे, किन्तु ब्रिटिश शासन जब तक रहा तबतक वे लोग राष्ट्रीय आन्दोलन में एकता चाहते रहे जबकि सत्ता के लिए गान्धी-नेहरु अंग्रेजों से सौदेबाजी कर रहे थे |)
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1868 ईस्वी में पुनः प्रकाशित उपरोक्त रिपोर्ट की छायाप्रति मेरे पास है जो 123 MB की फाइल है | यदि दूसरे लोग पढ़ना चाहें तो ले सकते हैं |
साभार : विनय झा

Thursday, 18 August 2016

महर्षि अरविन्द का उत्तरपाड़ा भाषण .......

(प्रत्येक भारतीय को यह लेख अवश्य पढना चाहिए) (इसे अधिकाधिक शेयर करें)
(श्रीअरविन्द का यह भाषण --- सर्वश्रेष्ठ लेख है जो मैंने अपने पूरे जीवनकाल में पढ़ा है)
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महर्षि अरविन्द का उत्तरपाड़ा भाषण
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सनातन धर्म ही राष्ट्रीयता है- (१)
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(अलीपुर जेल से छूटने के बाद श्रीअरविंद का पहला महत्त्वपूर्ण भाषण उत्तरपाड़ा में हुआ था। 'धर्म रक्षिणी सभा' के वार्षिक अधिवेशन में १९०१ के दिन यह उद्बोधन हुआ था। इसमें उन्होंने अपने जेल-जीवन का आध्यात्मिक अनुभव सुनाया और साथ ही देश को सच्ची राष्ट्रीयता का संदेश दिया। इसमें उन्होंने बताया है कि सच्चा हिंदू धर्म, सच्चा सनातन धर्म क्या है और आज के संसार को उसकी क्यों जरूरत है। उनका यह भाषण उनके जीवन में एक नये मोड़ का परिचय देता है। इस भाषण को सौ वर्ष से अधिक पूरे हो गये हैं)
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जब मुझे आपकी सभा के इस वार्षिक अधिवेशन में बोलने के लिये कहा गया, तो मैंने यही सोचा था कि आज के लिये जो विषय चुना गया है उसी पर, अर्थात् हिंदू धर्म पर कुछ कहूंगा। मैं नहीं जानता कि उस इच्छा को मैं पूरा कर सकूंगा या नहीं, क्योंकि जैसे ही मैं यहां आकर बैठा, मेरे मन में एक संदेश आया और यह संदेश आपको और सारे भारत राष्ट्र को सुनाना है। यह वाणी मुझे पहले-पहल जेल में सुनायी दी थी और उसे अपने देशवासियों को सुनाने के लिये मैं जेल से बाहर आया हूं।
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पिछली बार जब में यहां आया था उसे एक वर्ष से ऊपर हो चुका है। उस बार मैं अकेला न था, तब मेरे साथ ही बैठे थे राष्ट्रीयता के एक परम शक्तिमान् दूत। उन दिनों वे उस एकांतवास से लौटकर आये थे जहां उन्हें भगवान् ने इसलिये भेजा था कि वे अपनी कालकोठरी की शांति और निर्जनता में उस वाणी को सुन सकें जो उन्हें सुनानी थी। उस समय आप सैंकड़ों की संख्या में उन्हीं का स्वागत करने आये थे। आज वे हमसे बहुत दूर हैं, वे हमसे हजारों मील के फासले पर हैं। दूसरे लोग भी, जिन्हें मैं अपने साथ काम करते हुए पाता था, आज अनुपस्थित हैं। देश पर जो तूफान आया था उसने उन्हें दूर-दूर बिखेर दिया है। इस बार एक वर्ष का समय निर्जनवास में बिताकर आया हूं और अब बाहर आकर देखता हूं कि सब कुछ बदल गया है। जो सदा मेरे साथ बैठते थे, जो सदा मेरे काम में सहयोग दिया करते थे, आज बर्मा में कैद हैं, दूसरे उत्तर में नजरबंद होकर सड़ रहे हैं। जब मैं बाहर आया तो मैंने अपने चारों ओर देखा, जिनसे सलाह और प्रेरणा पाने का अभ्यास था उन्हें खोजा। वे मुझे नहीं मिले। इतना ही नहीं, जब मैं जेल गया था तो सारा देश वंदेमातरम् की ध्वनि से गूंज रहा था, वह एक राष्ट्र बनने की आशा से जीवंत था। यह उन करोड़ों मनुष्यों की आशा थी जो गिरी हुई दशा से अभी-अभी ऊपर उठे थे। जब मैं जेल से बाहर आया तो मैंने इस ध्वनि को सुनने की कोशिश की, किंतु इसके स्थान पर निस्तब्धता थी। देश में सन्नाटा था और लोग हक्के-बक्के से दिखायी दिये, क्योंकि जहां पहले हमारे सामने भविष्य की कल्पना से भरा ईश्वर का उज्ज्वल स्वर्ग था वहां हमारे सिर पर धूसर आकाश दिखायी दिया जिससे मानवीय वज्र और बिजली की वर्षा हो रही थी। किसी को यह न दिखायी देता था कि किस ओर चलना चाहिये, चारों ओर से यही प्रश्न उठ रहा था ''अब क्या करें? हम क्या कर सकते हैं? मुझे भी पता न था कि अब क्या किया जा सकता है। लेकिन एक बात मैं जानता था, ईश्वर की जिस महान् शक्ति ने उस ध्वनि को जगाया था, उस आशा का संचार किया था उसी शक्ति ने यह सन्नाटा भेजा है। जो ईश्वर उस कोलाहल और आंदोलन में थे, वे ही इस विश्राम और निस्तब्धता में भी हैं। ईश्वर ने इसे भेजा है ताकि राष्ट्र क्षणभर के लिये रुककर अपने अंदर खोजे और जाने कि उनकी इच्छा क्या है। इस निस्तब्धता से मैं निरुत्साहित नहीं हुआ हूं, क्योंकि कारागार में इस निस्तब्धता के साथ मेरा परिचय हो चुका है और मैं जानता हूं कि मैंने एक वर्ष की लंबी कैद के विश्राम और निस्तब्धता में ही यह पाठ पढ़ा है। जब विपिनचंद्र पाल जेल से बाहर आये तो वह एक संदेश लेकर आये थे और वह प्रेरणा से मिला हुआ संदेश था। उन्होंने यहां जो वक्तृता दी थी वह मुझे याद है। उस वक्तृता का मर्म और अभिप्राय उतना राजनीतिक नहीं था जितना धार्मिक था। उन्होंने उस समय जेल के अंदर मिली हुई अनुभूति की, हम सबके अंदर जो भगवान् हैं, राष्ट्र के अंदर जो परमेश्वर हैं उनकी बात की थी। अपने बाद के व्याख्यानों में भी उन्होंने कहा था कि इस आंदोलन में जो शक्ति काम कर रही है वह सामान्य शक्ति की अपेक्षा महान् है और इसका हेतु भी साधारण हेतु से कहीं बढ़ कर है। आज मैं भी आपसे फिर मिल रहा हूं, मैं भी जेल से बाहर आया हूं और इस बार भी आप ही, इस उत्तरपाड़ा के निवासी ही, मेरा सबसे पहले स्वागत कर रहे हैं। किसी राजनीतिक सभा में नहीं, बल्कि उस समिति की सभा में जिसका उद्देश्य है धर्म की रक्षा। जो संदेश विपिनचंद्र पाल ने बक्सर जेल में पाया था, वही भगवान् ने मुझे अलीपुर में दिया। वह ज्ञान भगवान् नेे मुझे बारह महीने के कारावास में दिन-प्रतिदिन दिया और आदेश दिया है कि अब जब मैं जेल से बाहर आ गया हूं तो आपसे उसकी बात करूं ।
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मैं जानता था कि मैं जेल से बाहर निकल आऊंगा। यह वर्षभर की नजरबंदी केवल एक वर्ष के एकांतवास और प्रशिक्षण के लिये थी। भला किसी के लिये यह कैसे संभव होता कि वह मुझे जेल में उतने दिनों से अधिक रोक रखता जितने दिन भगवान् का हेतु सिद्ध करने के लिये आवश्यक थे? भगवान् ने कहने के लिये एक संदेश दिया है और करने के लिये एक काम। मैं यह जानता था कि जब तक यह संदेश सुना नहीं दिया जाता तब तक कोई मानव शक्ति मुझे चुप नहीं कर सकती, जब तक वह काम नहीं हो जाता तब तक कोई मानव शक्ति भगवान् के यंत्र को रोक नहीं सकती, फिर वह यंत्र चाहे कितना ही दुर्बल, कितना ही कमजोर क्यों न हो। अब जब कि मैं बाहर आ गया हूं, इन चंद मिनटों में ही मुझे एक ऐसी वाणी सुझायी गयी है जिसे व्यक्त करने कीे मेरी कोई इच्छा न थी। मेरे मन में जो कु छ था उसे भगवान् ने निकालकर फेंक दिया है और मैं जो कुछ बोल रहा हूं वह एक प्रेरणा के वश होकर, बाध्य होकर बोल रहा हूं।
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जब मुझे गिरफ्तार करके जल्दी-जल्दी लालबाजार की हवालात में पहुंचाया गया तो मेरी श्रद्धा क्षणभर के लिये डिग गयी थी, क्योंकि उस समय मैं भगवान् की इच्छा के मर्म को नहीं जान पाया था। इसलिये मैं क्षणभर के लिये विचलित हो गया और अपने हृदय में भगवान् को पुकारकर कहने लगा, ''यह क्या हुआ? मेरा यह विश्वास था कि मुझे अपने देशवासियों के लिये कोई विशेष काम करना है और जब तक वह काम पूरा नहीं हो जाता तबतक तुम मेरी रक्षा करोगे। तब फिर मैं यहां क्यों हूं और वह भी इस प्रकार के अभियोग में? एक दिन बीता, दो दिन बीते, तीन दिन बीत गये, तब मेरे अंदर से एक आवाज आयी, ''ठहरो और देखो कि क्या होता है। तब मैं शांत हो गया और प्रतीक्षा करने लगा। मैं लाल बाजार थाने से अलीपुर जेल में ले जाया गया और वहां मुझे एक महीने के लिये मनुष्यों से दूर एक निर्जन कालकोठरी में रखा गया। वहां मैं अपने अंदर विद्यमान भगवान् की वाणी सुनने के लिये, यह जानने के लिये कि वे मुझसे क्या कहना चाहते हैं और यह सीखने के लिये कि मुझे क्या करना होगा, रात-दिन प्रतीक्षा करने लगा।
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इस एकांतवास में मुझे सबसे पहली अनुभूति हुई, पहली शिक्षा मिली। उस समय मुझे याद आया कि गिरफ्तारी से एक महीना या उससे भी कुछ अधिक पहले मुझे यह आदेश मिला था कि मैं अपने सारे कर्म छोड़कर एकांत में चला जाऊं और अपने अंदर खोज करूं ताकि भगवान् के साथ अधिक संपर्क में आ सकूं । मैं दुर्बल था और उस आदेश को स्वीकार न कर सका। मुझे अपना कार्य बहुत प्रिय था और हृदय में इस बात का अभिमान था कि यदि मैं न रहूं तो इस काम को धक्का पहुंचेगा, इतना ही नहीं शायद असफल और बंद भी हो जायेगा, इसलिये मुझे काम नहीं छोडऩा चाहिये। लेकिन मुझे ऐसा बोध हुआ कि वे मुझसे फिर बोले और उन्होंने कहा कि, ''जिन बंधनों को तोडऩे की शक्ति तुममें नहीं थी उन्हें तुम्हारे लिये मैंने तोड़ दिया है क्योंकि मेरी यह इच्छा नहीं है और न थी ही कि वे कार्य जारी रहें। तुम्हारे करने के लिये मैंने दूसरा काम चुना है और उसी के लिये मैं तुम्हें यहां लाया हूं ताकि मैं तुम्हें वह बात सिखा दूं जिसे तुम स्वयं नहीं सीख सके और तुम्हें अपने काम के लिये तैयार कर लूं। इसके बाद भगवान् ने मेरे हाथों में गीता रख दी। मेरे अंदर उनकी शक्ति प्रवेश कर गयी और मैं गीता की साधना करने में समर्थ हुआ। मुझे केवल बुद्धि द्वारा ही नहीं, बल्कि अनुभूति द्वारा यह जानना पड़ा कि श्री कृष्ण की अर्जुन से क्या मांग थी और वे उन लोगों से क्या मांगते हैं जो उनका कार्य करने की इच्छा रखते हैं, अर्थात् घृणा और कामना-वासना से मुक्त होना होगा, फल की इच्छा न रखकर भगवान् के लिये कर्म करना होगा, अपनी इच्छा का त्याग करना होगा और निश्चेष्ट तथा सच्चा यंत्र बनकर भगवान् के हाथों में रहना होगा, ऊंच और नीच, मित्र और शत्रु, सफलता और विफलता के प्रति समदृष्टि रखनी होगी और यह सब होते हुए भी उनके कार्य में कोई अवहेलना न आने पाये।
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मैंने यह जाना कि हिंदू धर्म का मतलब क्या है। बहुधा हम हिंदू धर्म, सनातन धर्म की बातें करते हैं, किंतु वास्तव में हममें से कम ही लोग यह जानते हैं कि यह धर्म क्या है। दूसरे धर्म मुख्य रूप से विश्वास, व्रत, दीक्षा और मान्यता को महत्त्व देते हैं, किंतु सनातन धर्म तो स्वयं जीवन है, यह इतनी विश्वास करने की चीज नहीं है जितनी जीवन में उतारने की चीज है। यही वह धर्म है जिसका लालन-पालन मानव-जाति के कल्याण के लिये प्राचीन काल से इस प्रायद्वीप के एकांतवास में होता आ रहा है। यही धर्म देने के लिये भारत उठ रहा है। भारतवर्ष, दूसरे देशों की तरह, अपने लिये ही या मजबूत होकर दूसरों को कुचलने के लिये नहीं उठ रहा। वह उठ रहा है सारे संसार पर वह सनातन ज्योति डालने के लिये जो उसे सौंपी गयी है। भारत का जीवन सदा ही मानव-जाति के लिये रहा है, उसे अपने लिये नहीं बल्कि मानव जाति के लिये महान् होना है।
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अत: भगवान् ने मुझे दूसरी वस्तु दिखायी-उन्होंने मुझे हिंदू धर्म के मूल सत्य का साक्षात्कार करा दिया। उन्होंने मेरे जेलरों के दिल को मेरी ओर मोड़ दिया, उन्होंने जेल के प्रधान अंग्रेज अधिकारी से कहा कि ''ये कालकोठरी में बहुत कष्ट पा रहे हैं, इन्हें कम-से-कम सुबह-शाम आध-आध घंटा कोठरी के बाहर टहलने की आज्ञा दे दी जाये। यह आज्ञा मिल गयी और जब मैं टहल रहा था तो भगवान् की शक्ति ने फिर मेरे अंदर प्रवेश किया। मैंने उस जेल की ओर दृष्टि डाली तो ऊंची दीवारों के अंदर बंद नहीं हूं, मुझे घेरे हुए थे वासुदेव। मैं अपनी कालकोठरी के सामने के पेड़ की शाखाओं के नीचे टहल रखा था, परंतु वहां पेड़ न था, मुझे प्रतीत हुआ कि वह वासुदेव हैं, मैंने देखा कि स्वयं श्री कृष्ण खड़े हैं और मेरे ऊपर अपनी छाया किये हुए हैं।
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मैंने अपनी कालकोठरी के सींखचों की ओर देखा, उस जाली की ओर देखा जो दरवाजे का काम कर रही थी, वहाँ भी वासुदेव दिखायी दिये। स्वयं नारायण संतरी बनकर पहरा दे रहे थे। जब मैं उन मोटे कंबलों पर लेटा जो मुझे पलंग की जगह मिले थे तो मैंने यह अनुभव किया कि मेरे सखा और प्रेमी श्री कृष्ण मुझे अपनी बाहुओं में लिये हुए हैं। मुझे उन्होंने जो गहरी दृष्टि दी थी उसका यह पहला प्रयोग था। मैंने जेल के कैदियों-चोरों, हत्यारों और बदमाशों को देखा और मुझे वासुदेव दिखायी पड़े, उन अंधेरे में पड़ी आत्माओं और बुरी तरह काम में लाये गये शरीरों में मुझे नारायण मिले। उन चोरों और डाकुओं में बहुत से ऐसे थे जिन्होंने अपनी सहानुभूति और दया के द्वारा मुझे लज्जित कर दिया, इस विपरीत परिस्थिति में मानवता विजयी हुई थी। इनमें से एक आदमी को मैंने विशेष रूप से देखा जो मुझे एक संत मालूम हुआ। वह हमारे देश का एक किसान था जो लिखना-पढऩा नहीं जानता था, जिसे डकैती के अभियोग में दस वर्ष का कठोर दंड मिला था। यह उनमें से एक व्यक्ति था जिन्हें हम वर्ग के मिथ्याभिमान में आकर 'छोटो लोक' (नीच) कहा करते हैं। फिर एक बार भगवान् मुझसे बोले, उन्होंने कहा 'अपना कुछ थोड़ा-सा काम करने के लिये मैंने तुम्हें जिनके बीच भेजा है उन लोगों को देखो। जिस जाति को मैं ऊपर उठा रहा हूँ उसका स्वरूप यही है और इसी कारण मैं उसे ऊपर उठा रहा हूँ।
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जब छोटी अदालत में मुकदमा शुरू हुआ और हम लोग मजिस्ट्रेट के सामने खड़े किये गये तो वहाँ भी मेरी अंतदृष्टि मेरे साथ थी। भगवान् ने मुझसे कहा, 'जब तुम जेल में डाले गये थे तो क्या तुम्हारे हृदय हताश नहीं हुआ था, क्या तुमने मुझे पुकारकर यह नहीं कहा था, कहाँ, तुम्हारी रक्षा कहां है? लो, अब मजिस्ट्रेट की ओर देखो, सरकारी वकील की ओर देखो। मैंने देखा कि अदालत की कुर्सी पर मजिस्ट्रेट नहीं, स्वयं वासुदेव नारायण बैठ थे। अब मैंने सरकारी वकील की ओर देखा पर वहां कोई सरकारी वकील नहीं दिखायी दिया, वहाँ तो श्री कृष्ण बैठे थे, मेरे सखा, मेरे प्रेमी वहाँ बैठे मुस्करा रहे थे। उन्होंने कहा, 'अब डरते हो? मैं सभी मनुष्यों में विद्यमान हूँ और उनके सभी कर्मों और शब्दों पर राज करता हूँ। मेरा संरक्षण अब भी तुम्हारे साथ है और तुम्हें डरना नहीं चाहिये। तुम्हारे विरुद्ध जो यह मुकदमा चलाया गया है उसे मेरे हाथों में सौंप दो। यह तुम्हारे लिये नहीं है। मैं तुम्हें यहाँ मुकदमें के लिये नहीं बल्कि किसी और काम के लिये लाया हूँ। यह तो मेरे काम का साधनमात्र है, इससे अधिक कुछ नहीं। इसके बाद जब सेशन जज की अदालत में विचार आरंभ हुआ तो मैं अपने वकील के लिये ऐसी बहुत-सी हिदायतें लिखने लगा कि गवाही में मेरे विरुद्ध कही गयी बातों में से कौन-सी बातें गलत हैं और किन-किन पर गवाहों से जिरह की जा सकती है। तब एक ऐसी घटना घटी जिसकी मैं आशा नहीं करता था। मेरे मुकदमें की पैरवी के लिये जो प्रबंध किया गया था वह एकाएक बदल गया और मेरी सफाई के लिये एक दूसरे ही वकील खड़े हुए। वे अप्रत्याशित रूप से आ गये- वे मेरे एक मित्र थे, किन्तु मैं नहीं जानता था कि वे आयेंगे। आप सभी ने उनका नाम सुना है, जिन्होंने मन से सभी विचार निकाल बाहर किये और इस मुकदमें के सिवा सारी वकालत बंद कर दी, जिन्होंने महीनों लगातार आधी-आधी रात तक जगकर मुझे बचाने के लिये अपना स्वास्थ्य बिगाड़ लिया- वे हैं श्री चित्तरंजन दास। जब मैंने उन्हें देखा तो मुझे संतोष हुआ, फिर भी मैं समझता था कि हिदायत लिखना जरूरी है। इसके बाद यह विचार हटा दिया गया और मेरे अंदर से आवाज आयी, 'यही आदमी है जो तुम्हारे पैरों के चारों ओर फैले जाल से तुम्हें बाहर निकालेगा। तुम इन कागजों को अलग धर दो। इन्हें तुम हिदायतें नहीं दोगे, मैं दूंगा। उस समय से इस मुकदमें के संबंध में मैंने अपनी ओर से अपने वकील से एक शब्द भी नहीं कहा, कोई हिदायत नहीं दी और यदि कभी मुझसे कोई सवाल पूछा गया तो मैंने सदा यही देखा कि मेरे उत्तर से मुकदमें को कोई मदद नहीं मिली। मैंने मुकदमा उन्हें सौंप दिया और उन्होंने पूरी तरह उसे अपने हाथों में ले लिया, और उसका परिणाम आप जानते ही हैं। मैं सदा यह जानता था कि मेरे संबंध में भगवान् की क्या इच्छा है, क्योंकि मुझे बार-बार यह वाणी सुनायी पड़ती थी, मेरे अंदर से सदा यह आवाज आया करती थी, 'मैं रास्ता दिखा रहा हूँ, इसलिये डरो मत।
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'मैं तुम्हें जिस काम के लिये जेल में लाया हूँ अपने उस काम की ओर मुड़ो और जब तुम जेल से बाहर निकलो तो यह याद रखना-कभी डरना मत, कभी हिचकिचाना मत। याद रखो, यह सब मैं कर रहा हूँ, तुम या और कोई नहीं। अत: चाहे जितने बादल घिरें, चाहे जितने खतरे और दु:ख-कष्ट आयें, कठिनाइयाँ हों, चाहे जितनी असंभवताएं आयें, कुछ भी असंभव नहीं है, कुछ भी कठिन नहीं है। मैं इस देश और इसके उत्थान में हूँ, मैं वासुदेव हूँ, मैं नारायण हूँ। जो कुछ मेरी इच्छा होगी वही होगा, दूसरों की इच्छा से नहीं। मैं जिस चीज को लाना चाहता हूँ उसे कोई मानव-शक्ति नहीं रोक सकती।
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इस बीच वे मुझे उस एकांत कालकोठरी से बाहर ले आये और मुझे उन लोगों के साथ रख दिया जिन पर मेरे साथ ही अभियोग चल रहा था। आज आपने मेरे आत्म-त्याग और देशप्रेम के बारे में बहुत कुछ कहा है। मैं जब से जेल से निकला हूँ तब से इसी प्रकार की बातें सुनता आ रहा हूँ, किन्तु ऐसी बातें सुनने से मुझे लज्जा आती है, मेरे अंदर एक तरह की वेदना होती है। क्योंकि मैं अपनी दुर्बलता जानता हूँ, मैं अपने दोष और त्रुटियों का शिकार हूँ। मैं इन बातों के बारे में पहले भी अंधा न था और जब मेरे एकांतवास में, ये सब-की-सब मेरे विरुद्ध खड़ी हो गयीं तो मैंने इनका पूरी तरह अनुभव किया। तब मुझे मालूम हुआ कि मनुष्य के नाते मैं दुर्बलताओं का एक ढेर हूँ, एक दोषभरा अपूर्ण यंत्र हूँ, मुझमें ताकत तभी आती है जब कोई उच्चतर शक्ति मेरे अंदर आ जाये। अब मैं उन युवकों के बीच में आया और मैंने देखा कि उनमें से बहुतों में एक प्रचण्ड साहस और अपने को मिटा देने की शक्ति है और उनकी तुलना में मैं कुछ भी नहीं हूँ। इनमें से एक-दो ऐसे थे जो केवल बल और चरित्र में ही मुझसे बढ़कर नहीं थे- ऐसे तो बहुत थे- बल्कि मैं जिस बुद्धि की योग्यता का अभिमान रखता था, उसमें भी बढ़े हुए थे। भगवान् ने मुझसे फिर कहा, 'यही वह युवक-दल, वह नवीन और बलवान जाति है जो मेरे आदेश से ऊपर उठ रही है। ये तुमसे अधिक बड़े हैं। तुम्हें भय किस बात का है? यदि तुम इस काम से हट जाओ या सो जाओ तो भी काम पूरा होगा। कल तुम इस काम से हटा दिये जाओ तो ये युवक तुम्हारे काम को उठा लेंगे और उसे इतने प्रभावशाली ढंग से करेंगे जैसे तुमने भी नहीं किया। तुम्हें इस देश को एक वाणी सुनाने के लिये मुझसे कुछ बल मिला है, यह वाणी इस जाति को ऊपर उठाने में सहायता देगी। यह वह दूसरी बात थी जो भगवान् ने मुझसे कही।
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इसके बाद अचानक कुछ हुआ और क्षणभर में मुझे एक कालकोठरी के एकांतवास में पहुँचा दिया गया। इस एकांतवास में मेरे अंदर क्या हुआ यह कहने की प्रेरणा नहीं हो रही, बस इतना काफी है कि वहाँ दिन-प्रतिदिन भगवान् ने अपने चमत्कार दिखाये और मुझे हिन्दू धर्म के वास्तविक सत्य का साक्षात्कार कराया। पहले मेरे अंदर अनेक प्रकार के संदेह थे। मेरा लालन-पालन इंग्लैण्ड में विदेशी भावों और सर्वथा विदेशी वातावरण में हुआ था। एक समय मैं हिन्दू धर्म की बहुत-सी बातों को मात्र कल्पना समझता था, यह समझता था कि इसमें बहुत कुछ केवल स्वप्न, भ्रम या माया है। परन्तु अब दिन-प्रतिदिन मैंने हिन्दू धर्म के सत्य को, अपने मन में, अपने प्राण में और अपने शरीर में अनुभव किया। वे मेरे लिये जीवित अनुभव हो गये और मेरे सामने ऐसी सब बातें प्रकट होने लगीं जिनके बारे में भौतिक विज्ञान कोई व्याख्या नहीं दे सकता। जब मैं पहले-पहल भगवान् के पास गया तो पूरी तरह भक्ति-भाव के साथ नहीं गया था, पूरी तरह ज्ञानी के भाव से भी नहीं गया था। बहुत दिन हुए, स्वदेशी-आंदोलन शुरू होने से पहले और मेरे सार्वजनिक काम में घुसने से कुछ वर्ष पहले बड़ौदा में मैं उनकी ओर बढ़ा था।
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उन दिनों जब मैं भगवान् की ओर बढ़ा तो मुझे उनपर जीवंत श्रद्धा न थी। उस समय मेरे अंदर अज्ञेयवादी था, नास्तिक था, संदेहवादी था और मुझे पूरी तरह विश्वास न था कि भगवान् हैं भी। मैं उनकी उपस्थिति का अनुभव नहीं करता था। फिर भी कोई चीज थी जिसने मुझे वेद के सत्य की ओर, गीता के सत्य की ओर, हिन्दूधर्म के सत्य की ओर आकर्षित किया। मुझे लगा कि इस योग में कहीं पर कोई महाशक्तिशाली सत्य अवश्य है, वेदांत पर आधारित इस धर्म में कोई परम बलशाली सत्य अवश्य है। इसलिये जब मैं योग की ओर मुड़ा और योगाभ्यास करके यह जानने का संकल्प किया कि मेरी बात सच्ची है या नहीं तो मैंने उसे इस भाव और इस प्रार्थना से शुरू किया। मैंने कहा, 'हे भगवान्, यदि तुम हो तो तुम मेरे हृदय की बात जानते हो। तुम जानते हो कि मैं मुक्ति नहीं मांगता, मैं ऐसी कोई चीज नहीं मांगता जो दूसरे मांगा करते हैं। मैं केवल इस जाति को ऊपर उठाने की शक्ति मांगता हूँ, मैं केवल यह मांगता हूँ कि मुझे इस देश के लोगों के लिये, जिनसे मैं प्यार करता हूँ, जीने और कर्म करने की आज्ञा मिले और यह प्रार्थना करता हूँ कि मैं अपना जीवन उनके लिये लगा सकूं। मैंने योगसिद्धि पाने के लिये बहुत दिनों तक प्रयास किया और अंत में किसी हद तक मुझे मिली भी, पर जिस बात के लिये मेरी बहुत अधिक इच्छा थी उसके संबंध में मुझे संतोष नहीं हुआ। तब उस जेल के, उस कालकोठरी के एकांतवास में मैंने उसके लिये फिर से प्रार्थना की। मैंने कहा, 'मुझे अपना आदेश दो, मैं नहीं जानता कि कौन-सा काम करूं और कैसे करूं। मुझे एक संदेश दो।
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इस योगयुक्त अवस्था में मुझे दो संदेश मिले। पहला यह था, 'मैंने तुम्हें एक काम सौंपा है और वह है इस जाति के उत्थान में सहायता देना। शीघ्र ही वह समय आयेगा जब तुम्हें जेल के बाहर जाना होगा, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि इस बार तुम्हें सजा हो या तुम अपना समय, औरों की तरह अपने देश के लिये कष्ट सहते हुए बिताओ। मैंने तुम्हें काम के लिये बुलाया है और यही वह आदेश है जो तुमने मांगा था। मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि जाओ और काम करो।Ó दूसरा संदेश आया, वह इस प्रकार था, 'इस एक वर्ष के एकांतवास में तुम्हें कुछ दिखाया गया है, वह चीज दिखायी गयी है जिसके बारे में तुम्हें संदेह था, वह है हिन्दुधर्म का सत्य। इसी धर्म को मैं संसार के सामने उठा रहा हूँ, यही वह धर्म है जिसे मैंने ऋषि-मुनियों और अवतारों के द्वारा विकसित किया और पूर्ण बनाया है और अब यह धर्म अन्य जातियों में मेरा काम करने के लिये बढ़ रहा है। मैं अपनी वाणी का प्रसार करने के लिये इस जाति को उठा रहा हूँ। यही वह सनातन धर्म है जिसे तुम पहले सचमुच नहीं जानते थे, किन्तु जिसे अब मैंने तुम्हारे सामने प्रकट कर दिया है। तुम्हारे अंदर जो नास्तिकता थी, जो संदेह था उनका उत्तर दे दिया गया है, क्योंकि मैंने अंदर और बाहर स्थूल और सूक्ष्म, सभी प्रमाण दे दिये हैं और उनसे तुम्हें संतोष हो गया है। जब तुम बाहर निकलो तो सदा अपनी जाति को यही वाणी सुनाना कि वे सनातन धर्म के लिये उठ रहे हैं, वे अपने लिये नहीं बल्कि संसार के लिये उठ रहे हैं। मैं उन्हें संसार की सेवा के लिये स्वतंत्रता दे रहा हूँ। अतएव जब यह कहा जाता है कि भारतवर्ष ऊपर उठेगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म ऊपर उठेगा| जब कहा जाता है कि भारतवर्ष महान् होगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म महान् होगा। जब कहा जाता है कि भारतवर्ष बढ़ेगा और फैलेगा तो इसका अर्थ होता है सनातन धर्म बढ़ेगा और संसार पर छा जायेगा। धर्म के लिये और धर्म के द्वारा ही भारत का अस्तित्व है। धर्म की महिमा बढ़ाने का अर्थ है देश की महिमा बढ़ाना। मैंने तुम्हें दिखा दिया है कि मैं सब जगह हूँ, सभी मनुष्यों और सभी वस्तुओं में, हूँ, मैं इस आंदोलन में हूँ और केवल उन्हीं के अंदर कार्य नहीं कर रहा जो देश के लिये मेहनत कर रहे हैं बल्कि उनके अंदर भी जो उनका विरोध करते और मार्ग में रोड़े अटकाते हैं। मैं प्रत्येक व्यक्ति के अंदर काम कर रहा हूँ और मनुष्य चाहे जो कुछ सोचें या करें, पर वे मेरे हेतु की सहायता करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते। वे भी मेरा ही काम कर रहे हैं, वे मेरे शत्रु नहीं बल्कि मेरे यंत्र हैं। तुम यह जाने बिना भी कि तुम किस ओर जा रहे हो, अपनी सारी क्रियाओं के द्वारा आगे बढ़ रहे हो। तुम करना चाहते हो कुछ और पर कर बैठते हो कुछ और। तुम एक परिणाम को लक्ष्य बनाते हो और तुम्हारे प्रयास ऐसे हो जाते हैं जो उससे भिन्न या उल्टे परिणाम लाते हैं। शक्ति का आविर्भाव हुआ है और उसने लोगों में प्रवेश किया है। मैं एक जमाने से इस उत्थान की तैयारी करता आ रहा हूँ और अब वह समय आ गया है अब मैं ही इसे पूर्णता की ओर ले जाऊंगा।
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यही वह वाणी है जो मुझे आपको सुनानी है। आपकी सभा का नाम है 'धर्मरक्षिणी सभाÓ। अस्तु, धर्म का संरक्षण, दुनिया के सामने हिन्दुधर्म का संरक्षण और उत्थान- यही कार्य हमारे सामने है। परन्तु हिन्दुधर्म क्या है? वह धर्म क्या है जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं? वह हिन्दुधर्म इसी नाते है कि हिन्दुजाति ने इसको रखा है, क्योंकि समुद्र और हिमालय से घिरे हुए इस प्रायद्वीप के एकांतवास में यह फला-फूला है, क्योंकि इस पवित्र और प्राचीन भूमि पर इसकी युगों तक रक्षा करने का भार आर्यजाति को सौंपा गया था। परन्तु यह धर्म किसी एक देश की सीमा से घिरा नहीं है, यह संसार के किसी सीमित भाग के साथ विशेष रूप से और सदा के लिये बंधा नहीं है। जिसे हम हिन्दूधर्म कहते हैं वह वास्तव में सनातन धर्म है, क्योंकि यही वह विश्वव्यापी धर्म है जो दूसरे सभी धर्मों का आलिंगन करता है। यदि कोई धर्म विश्वव्यापी न हो तो वह सनातन भी नहीं हो सकता। कोई संकुचित धर्म, सांप्रदायिक धर्म, अनुदार धर्म कुछ काल और किसी मर्यादित हेतु के लिये ही रह सकता है। यही एक ऐसा धर्म है जो अपने अंदर सायंस के आविष्कारों और दर्शनशास्त्र के चिंतनों का पूर्वाभास देकर और उन्हें अपने अंदर मिलाकर जड़वाद पर विजय प्राप्त कर सकता है। यही एक धर्म है जो मानवजाति के दिल में यह बात बैठा देता है कि भगवान् हमारे निकट हैं, यह उन सभी साधनों को अपने अंदर ले लेता है जिनके द्वारा मनुष्य भगवान् के पास पहुँच सकते हैं। यही एक ऐसा धर्म है जो प्रत्येक क्षण, सभी धर्मों के माने हुए इस सत्य पर जोर देता है कि भगवान् हर आदमी और हर चीज में हैं तथा हम उन्हीं में चलते-फिरते हैं और उन्हीं में हम निवास करते हैं। यही एक ऐसा धर्म है जो इस सत्य को केवल समझने और उसपर विश्वास करने में ही हमारा सहायक नहीं होता बल्कि अपनी सत्ता के अंग-अलंग में इसका अनुभव करने में भी हमारी मदद करता है। यही एक धर्म है जो संसार को दिखा देता है कि संसार क्या है- वासुदेव की लीला। यही एक ऐसा धर्म है जो हमें यह बताता है कि इस लीला में हम अपनी भूमिका अच्छी-से-अच्छी तरह कैसे निभा सकते हैं, जो हमें यह दिखाता है कि इसके सूक्ष्म-से-सूक्ष्म नियम क्या हैं, इसके महान्-से-महान् विधान कौन-से हैं। यही एक ऐसा धर्म है जो जीवन की छोटी-से-छोटी बात को भी धर्म से अलग नहीं करता, जो यह जानता है कि अमरता क्या है और जिसने मृत्यु की वास्तविकता को हमारे अंदर से एकदम निकाल दिया है।
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यही वह वाणी है जो आपको सुनाने के लिये आज मेरी जबान पर रख दी गयी थी। मैं जो कुछ कहना चाहता था वह तो मुझसे अलग कर दिया गया है और जो मुझे कहने के लिये दिया गया है उससे अधिक मेरे पास कहने के लिये कुछ नहीं है। जो वाणी मेरे अंदर रख दी गयी थी केवल वही आपको सुना सकता हूँ। अब वह समाप्त हो चुकी है। पहले भी एक बार जब मेरे अंदर यही शक्ति काम कर रही थी तो मैंने आपसे कहा था कि यह आंदोलन राजनीतिक आंदोलन नहीं है और राष्ट्रीयता राजनीति नहीं, बल्कि एक धर्म है, एक विश्वास है, एक निष्ठा है। उसी बात को आज फिर मैं दोहराता हूँ, किन्तु आज मैं उसे दूसरे ही रूप में उपस्थित कर रहा हूँ। आज मैं यह नहीं कहता कि राष्ट्रीयता एक विश्वास है, एक धर्म है, एक निष्ठा हे, बल्कि मैं यह कहता हूँ कि सनातन धर्म ही हमारे लिये राष्ट्रीयता है। यह हिन्दुजाति सनातन धर्म को लेकर ही पैदा हुई है, उसी को लेकर चलती है और उसी को लेकर पनपती है। जब सनातन धर्म की हानि होती है तब इस जाति की भी अवनति होती है और यदि सनातन धर्म का विनाश संभव होता तो सनातन धर्म के साथ ही-साथ इस जाति का विनाश हो जाता। सनातन धर्म ही है राष्ट्रीयता। यही वह संदेश है जो मुझे आपको सुनाना है|