आध्यात्मिक चुम्बकत्व ..............
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आत्म-प्रशंसा एक बहुत बड़ा अवगुण है| कभी भूल से भी आत्मप्रशंसा ना करें|
आपके भीतर एक आध्यात्मिक चुम्बकत्व है, वह बिना कुछ कहे ही आपकी महिमा का बखान कर देता है| ध्यान साधना से उस आध्यात्मिक चुम्बकत्व का विकास करें|
वह चुम्बकत्व आप में होगा तो अच्छे लोग ही आपकी तरफ खिंचे चले आयेंगे, आप जहां भी जायेंगे वहां लोग स्वतः ही आपकी और आकर्षित होंगे, आपकी बातें लोग ध्यान से सुनेंगे, आपकी कही हुई बातो को लोग कभी भूलेंगे नहीं और उन पर आपकी बातों का चिर स्थायी प्रभाव पडेगा|
.
कभी कभी आप बहुत सुन्दर भाषण और प्रवचन सुनते है, बड़े जोर से प्रसन्न होकर तालियाँ बजाते हैं, पर पांच दस मिनट बाद उसको भूल जाते हैं| वहीं कभी कोई आपको एक मामूली सी बात कह देता है जिसे आप वर्षों तक नहीं भूलते| कभी कोई अति आकर्षक व्यक्ति मिलता है, मिलते ही आप उससे दूर हटना चाहते हैं, पर कभी कभी एक सामान्य से व्यक्ति को भी आप छोड़ना नहीं चाहते, यह उस व्यक्ती के चुम्बकत्व का प्रभाव है|
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आध्यात्मिक चुम्बकत्व क्या है ???
यह आत्मा की एक शक्ति है जो उस हर वस्तु या परिस्थिति को आकर्षित या निर्मित कर लेती है जो किसी को अपने विकास या सुख-शांति के लिए चाहिए|
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आप जहाँ भी जाते हैं और जिन भी व्यक्तियों से मिलते हैं उन के चुम्बकत्व का आपस में विनिमय होता रहता है, इसीलिए अपने शास्त्रों में कुसंग का सर्वथा त्याग करने को कहा गया है| सत्संग की महिमा भी यही है|
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आत्म-प्रशंसा एक बहुत बड़ा अवगुण है| कभी भूल से भी आत्मप्रशंसा ना करें|
आपके भीतर एक आध्यात्मिक चुम्बकत्व है, वह बिना कुछ कहे ही आपकी महिमा का बखान कर देता है| ध्यान साधना से उस आध्यात्मिक चुम्बकत्व का विकास करें|
वह चुम्बकत्व आप में होगा तो अच्छे लोग ही आपकी तरफ खिंचे चले आयेंगे, आप जहां भी जायेंगे वहां लोग स्वतः ही आपकी और आकर्षित होंगे, आपकी बातें लोग ध्यान से सुनेंगे, आपकी कही हुई बातो को लोग कभी भूलेंगे नहीं और उन पर आपकी बातों का चिर स्थायी प्रभाव पडेगा|
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कभी कभी आप बहुत सुन्दर भाषण और प्रवचन सुनते है, बड़े जोर से प्रसन्न होकर तालियाँ बजाते हैं, पर पांच दस मिनट बाद उसको भूल जाते हैं| वहीं कभी कोई आपको एक मामूली सी बात कह देता है जिसे आप वर्षों तक नहीं भूलते| कभी कोई अति आकर्षक व्यक्ति मिलता है, मिलते ही आप उससे दूर हटना चाहते हैं, पर कभी कभी एक सामान्य से व्यक्ति को भी आप छोड़ना नहीं चाहते, यह उस व्यक्ती के चुम्बकत्व का प्रभाव है|
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आध्यात्मिक चुम्बकत्व क्या है ???
यह आत्मा की एक शक्ति है जो उस हर वस्तु या परिस्थिति को आकर्षित या निर्मित कर लेती है जो किसी को अपने विकास या सुख-शांति के लिए चाहिए|
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आप जहाँ भी जाते हैं और जिन भी व्यक्तियों से मिलते हैं उन के चुम्बकत्व का आपस में विनिमय होता रहता है, इसीलिए अपने शास्त्रों में कुसंग का सर्वथा त्याग करने को कहा गया है| सत्संग की महिमा भी यही है|
जब हम संत महात्माओं के बारे चिंतन मनन करते हैं तब उनका चुम्बकत्व भी
हमें प्रभावित करता है| इसीलिए सद्गुरु का और परमात्मा का सदा चिंतन करना
चाहिए और मानसिक रूप से सदा उनको अपने साथ रखना चाहिए|
किसी की निंदा या बुराई करने से उसके अवगुण आपमें आते हैं अतः परनिंदा से बचो|
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अपने ह्रदय में निरंतर अपने इष्ट देव/देवी का, व भ्रूमध्य में अपने सद्गुरु का निरंतर ध्यान रखें| इससे आपके आध्यात्मिक चुम्बकत्व का विकास होगा| आप प्रायः शांत और मौन रहें, अपने चुम्बकत्व को बोलने दें|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
पुनश्चः .....
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। दुर्योधन हमेशा गुरु द्रोणाचार्य से कहते थे कि आप कोई चमत्कार नहीं दिखाते, जिससे युद्ध में हमारे अनुकूल उपलब्धि हो। द्रोण ने कहा कि कृष्ण और अर्जुन को युद्ध से अलग करो, तो मैं कुछ कर सकता हूं। परिणामत: संसप्तकों का एक युद्ध हुआ। इस युद्ध में नियम था कि यदि कोई ललकारे तो युद्ध करना ही पड़ेगा।
युद्ध क्षेत्र से दूर जाकर दुर्योधन ने ललकार लगाई। उस ललकार का उत्तर देने के लिए पांडवों की ओर से सिर्फ महाराज युधिष्ठिर और अभिमन्यु ही आ सके। कौरवों के दल ने इसी समय चक्रव्यूह की रचना की। ऐसे समय यह सब किया गया, जब पांडवों को उसका आभास भी नहीं था। वे अपने-अपने मोर्चों पर जूझते रहे। अंतत: अभिमन्यु को इस षड्यंत्र का सामना करना पड़ा और इस युद्ध में अभिमन्यु मारा गया।
वस्तुत: पांडवों को भान भी नहीं था कि ऐसा कुछ होने वाला है, जिससे गहरी क्षति हो सकती है। केवल धर्मराज और अभिमन्यु रह गए थे, जिन्हें चक्रव्यूह का भेदन करना था।
अभिमन्यु ने चक्रव्यूह का सामना किया। उसने उसके कई भागों पर विजय पाई, लेकिन अंत में मारा गया। जब अन्य पांडव लौटे और उन्हें अभिमन्यु के मरने का पता चला, तो अर्जुन को धर्मराज पर क्रोध आया। उन्होंने उन्हें बुरा-भला कहा।
जब क्रोध शांत हुआ, तब पश्चाताप का दौर आया। अर्जुन ने कहा, अरे, मैंने उस व्यक्ति को ऐसा कहा, जिन्हें धर्मराज कहा जाता है। इसके प्रायश्चित के लिए मुझे आत्मदाह कर लेना चाहिए।
कृष्ण भी बोले, जरूर करना चाहिए। दूर चिता सजाई जाने लगी। सब एक-दूसरे की ओर देख रहे थे कि क्या हो रहा है, पर कोई कुछ बोल नहीं रहा था।
अंत में मुस्कराते हुए कृष्ण ने कहा, आत्मदाह का एक विकल्प भी है कि तुम अपनी प्रशंसा खुद करो। श्रीकृष्ण की बात सुनकर अर्जुन को भान और ज्ञान हुआ। उन्होंने आत्मदाह का निर्णय त्याग दिया। इस प्रकार कृष्ण ने अर्जुन को आत्महत्या से बचा लिया।
यह श्रीकृष्ण का व्यावहारिक दर्शन था। जीवन को यथार्थ में देखने की उनकी दृष्टि थी। यही जीवन की प्रासंगिकता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है- आत्मप्रशंसा अनल सम, करतब कानन दाह यानी आत्मप्रशंसा वह आग है, जिसमें कर्तव्य का जंगल जल जाता है।
किसी की निंदा या बुराई करने से उसके अवगुण आपमें आते हैं अतः परनिंदा से बचो|
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अपने ह्रदय में निरंतर अपने इष्ट देव/देवी का, व भ्रूमध्य में अपने सद्गुरु का निरंतर ध्यान रखें| इससे आपके आध्यात्मिक चुम्बकत्व का विकास होगा| आप प्रायः शांत और मौन रहें, अपने चुम्बकत्व को बोलने दें|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
पुनश्चः .....
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। दुर्योधन हमेशा गुरु द्रोणाचार्य से कहते थे कि आप कोई चमत्कार नहीं दिखाते, जिससे युद्ध में हमारे अनुकूल उपलब्धि हो। द्रोण ने कहा कि कृष्ण और अर्जुन को युद्ध से अलग करो, तो मैं कुछ कर सकता हूं। परिणामत: संसप्तकों का एक युद्ध हुआ। इस युद्ध में नियम था कि यदि कोई ललकारे तो युद्ध करना ही पड़ेगा।
युद्ध क्षेत्र से दूर जाकर दुर्योधन ने ललकार लगाई। उस ललकार का उत्तर देने के लिए पांडवों की ओर से सिर्फ महाराज युधिष्ठिर और अभिमन्यु ही आ सके। कौरवों के दल ने इसी समय चक्रव्यूह की रचना की। ऐसे समय यह सब किया गया, जब पांडवों को उसका आभास भी नहीं था। वे अपने-अपने मोर्चों पर जूझते रहे। अंतत: अभिमन्यु को इस षड्यंत्र का सामना करना पड़ा और इस युद्ध में अभिमन्यु मारा गया।
वस्तुत: पांडवों को भान भी नहीं था कि ऐसा कुछ होने वाला है, जिससे गहरी क्षति हो सकती है। केवल धर्मराज और अभिमन्यु रह गए थे, जिन्हें चक्रव्यूह का भेदन करना था।
अभिमन्यु ने चक्रव्यूह का सामना किया। उसने उसके कई भागों पर विजय पाई, लेकिन अंत में मारा गया। जब अन्य पांडव लौटे और उन्हें अभिमन्यु के मरने का पता चला, तो अर्जुन को धर्मराज पर क्रोध आया। उन्होंने उन्हें बुरा-भला कहा।
जब क्रोध शांत हुआ, तब पश्चाताप का दौर आया। अर्जुन ने कहा, अरे, मैंने उस व्यक्ति को ऐसा कहा, जिन्हें धर्मराज कहा जाता है। इसके प्रायश्चित के लिए मुझे आत्मदाह कर लेना चाहिए।
कृष्ण भी बोले, जरूर करना चाहिए। दूर चिता सजाई जाने लगी। सब एक-दूसरे की ओर देख रहे थे कि क्या हो रहा है, पर कोई कुछ बोल नहीं रहा था।
अंत में मुस्कराते हुए कृष्ण ने कहा, आत्मदाह का एक विकल्प भी है कि तुम अपनी प्रशंसा खुद करो। श्रीकृष्ण की बात सुनकर अर्जुन को भान और ज्ञान हुआ। उन्होंने आत्मदाह का निर्णय त्याग दिया। इस प्रकार कृष्ण ने अर्जुन को आत्महत्या से बचा लिया।
यह श्रीकृष्ण का व्यावहारिक दर्शन था। जीवन को यथार्थ में देखने की उनकी दृष्टि थी। यही जीवन की प्रासंगिकता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है- आत्मप्रशंसा अनल सम, करतब कानन दाह यानी आत्मप्रशंसा वह आग है, जिसमें कर्तव्य का जंगल जल जाता है।
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