Sunday 21 August 2016

साधना का एक अति गूढ़ तत्व ------ "संधिक्षण" ....

साधना का एक अति गूढ़ तत्व ------ "संधिक्षण" .....
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संधिक्षण में की गयी साधना ही "संध्या" कहलाती है| संधिक्षण दिन में चार बार आता है| यह अति शुभ मुहूर्त होता है| पर यह मात्र एक क्षण का ही होता है| यही समय "संध्या" करने का होता है|
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क्षण, स्थान और काल का महत्व साधना में बहुत महत्वपूर्ण है| किसी भी सिद्धि की प्राप्ति इस तथ्य पर निर्भर करती है कि किस स्थान पर, किस काल में और किस क्षण में साधना सम्पन्न हुई| क्षणों में संधिक्षण का विशेष महत्व है| उस समय मन्त्रचेतना प्रबल होती है और सिद्धि आसानी से मिल जाती है|
आजकल समय का प्रभाव ही ऐसा है कि मनुष्य तपस्यादि की परवाह न कर बाहरी दिखावे और आडम्बर में फंस गया है|
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जब रात्री का अवसान होता है और ऊषा का आगमन होता है ---- तब एक संधिक्षण आता है जिसमें किये हुए जप-तप का विशेष फल होता है| ऐसे ही मध्यान्ह में एक संधिक्षण आता है जो सूर्योदय और सूर्यास्त के समय के बिलकुल मध्य में होता है जिसकी गणना करनी होती है| सायंकाल को भी ऐसे ही दिन की समाप्ति पर रात्री से पूर्व एक संधिक्षण आता है| मध्यरात्री को भी एक महाक्षण आता है जो सूर्यास्त और सूर्योदय के बिल्कुल मध्य में होता है जिसका भी हिसाब लगाना पड़ता है|
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इन शुभ क्षणों में किसी सिद्ध क्षेत्र में, ध्यानासन पर बैठकर किसी सिद्ध मन्त्र की गुरुपरम्परानुसार साधना की जाए तो सिद्धिलाभ अति शीघ्र होता है|
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ब्राह्मणों के लिए द्विकाल यानि प्रातः और सायं की संध्या अनिवार्य है| जिनके पास समय होता है वे त्रिकालसंध्या भी करते हैं| श्रीविद्या के उपासक मध्यरात्रि में तुरीय संध्या करते हैं|
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एक रहस्य और भी है| दो तिथियों के मिलने का समय भी अति पवित्र होता है|
प्रातः और सायंकाल की संध्या तो यथासम्भव अवश्य ही करनी चाहिए|
ॐ नमः शिवाय||

ॐ ॐ ॐ ||

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