मैंने भारत के इतिहास को कभी कभी जब भी अवसर मिला, अपनी बौद्धिक क्षमतानुसार विस्तार से पढ़ने का प्रयास किया है। दूसरे देशों -- तिब्बत, रूस, मध्य-एशिया, मंगोलिया और तुर्की के इतिहास में भी रुचि रही है। सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) और खिलाफ़त (खलीफ़ाओं की हुकूमत) के बारे में भी काफी कुछ पढ़ा है। मुझे इस्तांबूल (तुर्की) में ऐतिहासिक आकर्षण के सबसे बड़े केंद्र सोफिया हागिया को भी देखने का अवसर मिला है। तुर्की के कमाल अतातुर्क उर्फ मुस्तफ़ा कमाल पाशा (१८८१-१९३८) के उस साक्षात्कार के बारे में भी पढ़ा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर भारत पर ब्रिटिश काबिज नहीं होते तो गज़वा-ए-हिन्द यानी भारत पर इस्लामिक राज्य के रूप में तुर्की के खलीफा के शासन की स्थापना हो जाती।
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मैं कमाल पाशा का सम्मान करता हूँ, लेकिन उनका उपरोक्त वक्तव्य अज्ञान पर आधारित असत्य था। सत्य तो यह है कि अंग्रेजों ने भारत की सत्ता मराठों से ली थी।
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मराठों ने मुगल सत्ता को पूरी तरह परास्त कर के सारी सत्ता अपने हाथ में ले ली थी। कूटनीतिक कारणों से दिल्ली के लालकिले में नाममात्र के मुगल बादशाह को बैठाकर मराठे उसके संरक्षक बन गए थे। मराठा पेशवा यदि अंग्रेजों के छल-कपट के शिकार नहीं हुये होते तो पूरे भारत पर मराठों का हिंदवी साम्राज्य होता।
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पंजाब में पठानों से सिखों की प्राणरक्षा मराठा सेनाओं ने ही की, और मराठा सेना की सहायता से ही महाराजा रणजीतसिंह पंजाब के शासक बने थे।
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जयपुर के महाराजा ने खामखाँ (बिना किसी कारण के) मराठों का विरोध किया तो दौसा जिले में मनोहरपुरा के पास तुंगा नामक गाँव में जयपुर की सेना और मराठों के मध्य एक अनिर्णायक युद्ध हुआ। बाद में सीकर जिले के पाटन नाम के गाँव के पास जयपुर व जोधपुर की संयुक्त सेनाओं के साथ मराठा सेना का युद्ध हुआ, जिसमें मराठा सेना विजयी रही। पाटन के किले पर मराठों ने अधिकार कर लिया। बाद में जयपुर पर भी मराठों ने अपना अधिकार कर लिया। जयपुर और जोधपुर के शासकों ने चौथ (एक-चौथाई खजाना) भेंट में देकर और माफी मांग कर मराठों को अपने यहाँ से विदा किया। मराठों की शत्रुता सिर्फ मुगलों और पठानों से थी, औरों से नहीं। वे औरों से लड़ना भी नहीं चाहते थे।
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औरंगजेब के मरने के बाद शाह वलीउल्लाह देहलवी ने अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह दुर्रानी उर्फ अहमद शाह अब्दाली को यह संदेश भेजा कि आप भारत पर हमला करो भारत के मुसलमान आपका साथ देंगे। फिर पानीपत की तृतीय लड़ाई में पेशवा की सेना को भारत के मुगलों की मदद से विदेशी अहमद शाह दुर्रानी उर्फ अहमद शाह अब्दाली ने हरा दिया और दिल्ली के तख्त पर काबिज हो गया।
(इस विषय पर फिर कभी आऊँगा कि किस तरह मराठों ने प्रतिकार और बदला लिया। यहाँ मैं अपने मूल विषय से भटक गया हूँ, अतः बापस अपने मूल विषय पर आता हूँ)
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प्रथम विश्व युद्ध के समय जब अंग्रेजों से गैलिपोली की लड़ाई में तुर्की हार रहा था, तब तुर्की के खलीफा ने पूरी दुनिया के मुसलमानों के नाम एक मार्मिक अपील की थी कि सारी इस्लामिक उम्मत आकर मेरी सहायता करे। लेकिन खलीफा के आधीन रहे सऊदी अरब, सीरिया, जॉर्डन, बहरीन, कुवैत, लेबनान, मिश्र, मोरक्को आदि सभी देशों ने अंग्रेजों का साथ दिया। किसी भी इस्लामी देश ने खलीफा का समर्थन नहीं किया।
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लेकिन गांधी के नेतृत्व में भारत के मुसलमान तुर्की के खलीफा के लिए आंदोलन करने लगे जिसे खिलाफत आंदोलन कहते हैं। यह आंदोलन भारत की आजादी के लिए नहीं बल्कि तुर्की के खलीफा को बापस अपनी गद्दी पर बैठाने के लिए था। इसी खिलाफत आंदोलन की आड़ में केरल में मोपला मुस्लिमों ने दस-पंद्रह हजार हिंदुओं की हत्या कर दी, क्योंकि अंग्रेजों का तो वे कुछ भी बिगाड़ने में असमर्थ थे। अतः निरीह हिंदुओं को मारकर ही उन्होने खलीफा की हार का बदला लिया।
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उत्तर प्रदेश (उस समय यूनाइटेड प्रोविन्स) से हजारों कट्टर सुन्नी मुसलमानों ने एक फौज बनाई और अफगानिस्तान के रास्ते तुर्की पहुँच कर, खलीफा की सहायता करने का निर्णय लिया। वे अपने हथियारों, धन और परिवारों के साथ अफगानिस्तान पहुंचे। रात के समय अफगान कबीलों के लड़ाकू डकैतों ने आकर उस खलीफा-समर्थक सेना से उनके धन और औरतों को छीन लिया, और सभी आदमियों के गले काट दिये। यह हाल हुआ भारत की इस्लामिक उम्मत का। यहाँ गले काटने वाले भी उम्मत के ही आदमी थे।