Tuesday, 23 January 2018

सर्वोच्च उपलब्धि .....

सर्वोच्च उपलब्धि .....
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जल की एक बूँद की सर्वोच्च उपलब्धी है ..... महासागर में विलीन हो जाना|
जल की बूँद महासागर में विलीन होकर स्वयं महासागर बन जाती है| इसके लिए क्या वह महासागर की ऋणी है? नहीं, कभी नहीं| उसका उद्गम महासागर से हुआ था और वह अन्ततः उसी में विलीन हो गयी| यही उसका नैसर्गिक धर्म था|
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वैसे ही जीव की सर्वोच्च उपलब्धि है -- परम शिव परमात्मा से मिलन| यही आत्मज्ञान है, और यही आत्मसाक्षात्कार है|
भगवान कहते हैं .....
"मम दरसन फल परम अनूपा | जीव पाव निज सहज सरूपा" ||
भगवान यह भी कहते हैं .....
"सन्मुख होइ जीव मोहि जबही | जनम कोटि अघ नासहिं तबही" ||
हमारा सहज स्वरुप परमात्मा है, हम परमात्मा से आये हैं, परमात्मा में हैं, और परमात्मा में ही उसी तरह बापस चले जायेंगे जिस तरह जल की एक बूँद बापस महासागर में चली जाती है| यह ही हमारा नैसर्गिक धर्म है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जनवरी २०१८

भगवान की अनन्य भक्ति क्या है ? .....

भगवान की अनन्य भक्ति क्या है ? .....
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ध्यान साधना और भगवान की अनन्य भक्ति में मैं कोई भेद नहीं पाता| मेरी अनुभूति में ये दोनों एक ही हैं, इन में कोई अंतर नहीं है| ध्यान साधना में हम ध्यान परमात्मा की अनंतता पर करते हैं, जिसमें सब समाहित है और कुछ भी पृथक नहीं है| अनन्य भक्ति भी यही है|
परमात्मा से मैं पृथक नहीं हूँ, इस प्रकार परमात्मा को अपने से एक जानकर जो परम प्रेम किया जाता है, वह ही अनन्य भक्ति है| भगवान से मैं अन्य नहीं हूँ, वे मेरे साथ एक हैं, वे ही वे हैं, अन्य कोई नहीं है, सिर्फ वे ही वे हैं, यह जो 'मैं' हूँ, वह भी वास्तव में स्वयं परमात्मा ही हैं| मैं उन परम पुरुष से अलग नहीं हूँ, इस प्रकार से उनको अपने से एक जान कर जो प्रेम किया जाता है वह ही अनन्य है| परमात्मा को मैं जब अपना स्वरुप मानता हूँ, तब उनसे जो प्रेम होता वह ही परम प्रेम है, और वह ही अनन्य भक्ति है| उस परम प्रेम से ही भगवान मिलते हैं| इस धारणा का गहन चिंतन ही ध्यान है|
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भगवान कहते हैं .....
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया |
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्‌ ||८.२२||
संधि विच्छेद :--
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्या |
यस्य अन्तः स्थानि भूतानि येन सर्वम् इदं ततम्‌ ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जनवरी २०१८

Monday, 22 January 2018

महाशक्ति कुण्डलिनी और परमशिव का मिलन ही योग है .....

महाशक्ति कुण्डलिनी और परमशिव का मिलन ही योग है .....
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सिद्ध गुरु की आज्ञा से भ्रूमध्य में दृष्टी रखते हुए उसके बिलकुल पीछे आज्ञाचक्र पर ध्यान किया जाता है| गुरुकृपा से कुण्डलिनी स्वयं जागृत होकर हमें जगाती है| ध्यान की गहराई में कुण्डलिनी मूलाधार चक्र से जागृत होकर स्वतः ही विभिन्न चक्रों को भेदती हुई सुषुम्ना में विचरण करने लगती है| उसके लिए कोई प्रयास नहीं करने पड़ते| प्रयास करना पड़ता है सिर्फ गुरु की बताई हुई विधि से आज्ञाचक्र पर ध्यान और बीज मन्त्र के जाप पर| मन्त्र की शक्ति और गुरु की कृपा ही सारे कार्य करती है|
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गुरु कृपा भी तभी होती है जब हमारे विचार और हमारा आचरण पवित्र होता है| विचारों और आचरण में पवित्रता के लिए भगवान के प्रति प्रेम जागृत कर उन्हें समर्पित होना पड़ता है, फिर सारा कार्य स्वतः ही होने लगता है| भगवान से प्रेम जागृत करना, विचारों में और आचरण में पवित्रता लाना .... यही हमारा कार्य है, यही साधना है| आगे का सारा कार्य भगवान की कृपा से स्वतः ही होने लगता है| हमारे विचार और हमारा आचरण पवित्र हों, व हमारे ह्रदय में भगवान् की पराभक्ति जागृत हो, यही भगवान से हमारी प्रार्थना है|
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प्रकृति में कुछ भी निःशुल्क नहीं है| हर चीज का शुल्क देना पड़ता है| भगवान की कृपा भी मुफ्त में नहीं मिलती, उसकी भी कीमत चुकानी पड़ती है| वह कीमत है .... "हमारे ह्रदय का पूर्ण प्रेम और हमारे आचार-विचार में पवित्रता"|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जनवरी २०१८

बसंत पंचमी / सरस्वती पूजा २०१८ की शुभ कामनाएँ .....

बसंत पंचमी / सरस्वती पूजा की शुभ कामनाएँ .....
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आज से बसंत ऋतू का प्रारम्भ हो गया है| बसंत पंचमी पर पचास-साठ वर्ष पूर्व तक हरेक मंदिर में खूब भजन कीर्तन होते थे| आजकल अपना सांस्कृतिक पतन हो गया है अतः इस त्यौहार को मनाना भी प्रायः बंद सा ही हो गया है| बाहर खुले में जाइये, प्रकृति को निहारिये .... चारों ओर सरसों के पीले पीले फूल लहलहा रहे हैं, गेंहूँ की बालियाँ खिल रही हैं, कितना सुहावना मौसम है! लगता है स्वयं परमात्मा ने प्रकृति का शृंगार किया है| प्रकृति का आनंद लीजिये| बचपन में पढ़ी हुई एक लोककथा याद आ रही है कि इस दिन बालक भगवान श्रीकृष्ण ने भगवती श्रीराधा जी का शृंगार किया था| आज से विद्याध्ययन आरम्भ होता था, माँ सरस्वती की आराधना होती थी और गुरुओं का सम्मान होता था|
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आज अधिक से अधिक मौन रखिये और भगवान का खूब ध्यान कीजिये| माँ सरस्वती के गुरु प्रदत्त वाग्भव बीज मन्त्र का खूब जप करें| वाग्भव बीज मन्त्र माँ सरस्वती की आराधना के लिए भी है और गुरु चरणों की आराधना के लिए भी|
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माँ सरस्वती की स्तुति .....
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"या कुंदेंदु तुषारहार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता |
या वीणावर दण्डमंडितकरा, या श्वेतपद्मासना ||
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता |
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष जाड्यापहा ||
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमां आद्यां जगद्व्यापिनीं |
वीणा पुस्तक धारिणीं अभयदां जाड्यान्धकारापहां ||
हस्ते स्फटिक मालीकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां |
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धि प्रदां शारदां" ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ जनवरी २०१८

क्या स्वयं से पृथक अन्य कोई भी है ? .....

क्या स्वयं से पृथक अन्य कोई भी है ? .....
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सांसारिक चेतना में हर प्राणी एक दूसरे से पृथक है, पर आध्यात्मिक चेतना में नहीं| आध्यात्मिक चेतना में एकमात्र अस्तित्व परमात्मा का ही है, अन्य किसी का नहीं| ध्यान साधना की गहराइयों में पूर्णतः समर्पित हो जाने के पश्चात् पृथकता रूपी "मैं" का नहीं, सिर्फ आत्मतत्व रूपी "मैं" का ही अस्तित्व रहता है| उस आत्मतत्वरूपी "मैं" में ही अपनी चेतना बनाए रखें| उस आत्मतत्व "मैं" के अतिरिक्त अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है| जब मुझ से अतिरिक्त अन्य कोई है ही नहीं, तब किस का और किस को भय? जब कोई अन्य होगा तभी तो भय होगा, यहाँ तो कोई अन्य है ही नहीं| पर लोक व्यवहार में इस पृथकतारूपी "मैं" का होना भी आवश्यक है| यह एक गूढ़ विषय है जिसे बुद्धि से नहीं, अनुभव से ही सीखा जा सकता है|
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सभी को सप्रेम सादर नमन और शुभ कामनाएँ| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ जनवरी २०१८

फालतू और घटिया विचारों से स्वयं को मुक्त करें .....

फालतू और घटिया विचारों से स्वयं को मुक्त करें .....
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जब किसी बगीचे में फूल उगाते हैं तब वहाँ की भूमि में कंकर-पत्थर नहीं डालते. अपने दिमाग में फालतू और घटिया विचारों को न आने दें. प्रयास करते हुए फालतू और घटिया विचारों से स्वयं को मुक्त करो. घर में जब किसी को बुलाते हैं तब घर की सफाई करते हैं. यहाँ तो हम साक्षात परमात्मा को आमंत्रित कर रहे हैं. क्या उनको अपने ह्रदय की चेतना में प्रतिष्ठित करने से पूर्व मन को घटिया विचारों से मुक्त नहीं करेंगे? अन्यथा वे यहाँ क्यों आयेंगे?
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निरंतर मन्त्र जाप का उद्देश्य ही यही है कि परमात्मा का एक गुण विशेष हमारे में स्थापित हो जाए और फालतू की बातें मन में न आयें. मन्त्र अनेक हैं, पर सारे उपनिषद् और भगवद्गीता ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं. कहीं पर भी निषेध नहीं है. जो निषेध करते हैं, उन से मैं सहमत नहीं हूँ. मन्त्रों में प्रणव यानि ॐ सबसे बड़ा मन्त्र है, और तंत्रों में आत्मानुसंधान सबसे बड़ा तंत्र है. यदि आप किसी गुरु परम्परा के अनुयायी हैं तो अपने गुरु मन्त्र का ही जप करें क्योंकि गुरु ने आपका दायित्व लिया है.
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मेरे माध्यम से जो भी विचार व्यक्त होते हैं उनका श्रेय परमात्मा को, सदगुरुओं और संतों को जाता है जिन की मुझ पर अपार कृपा है. इसमें मेरी कोई महिमा नहीं है. मेरे में न तो कोई लिखने की सामर्थ्य है न ही मुझे कुछ आता जाता है. ये मेरी कोई बौद्धिक सम्पदा नहीं हैं. सब परमात्मा के अनुग्रह का फल है. मुझे उनसे भी प्रसन्नता है जो इन्हें शेयर करते हैं, और उनसे भी प्रसन्नता है जो इन्हें कॉपी पेस्ट कर के अहंकारवश अपने नाम से पोस्ट करते हैं. मेरी ईश्वर लाभ के अतिरिक्त अन्य कोई कामना नहीं है पर यह एक संकल्प प्रभु ने मुझे अवश्य दिया है कि सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा हो, और भारत माँ अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान हो.
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मुझे मेरी वैदिक संस्कृति, सनातन धर्म व परम्परा, गंगादि नदियाँ, हिमालयादि पर्वत, वन और उन सब लोगों से प्रेम है जो निरंतर परमात्मा का चिन्तन करते हैं और परमात्मा का ही स्वप्न देखते हैं. यह मेरा ही नहीं अनेक मनीषियों का संकल्प है जिसे जगन्माता अवश्यमेव पूर्ण करेगी. मैं उन सब का सेवक हूँ जिन के ह्रदय में परमात्मा को पाने की एक प्रचंड अग्नि जल रही है, जो निरंतर प्रभु प्रेम में मग्न हैं. उन के श्रीचरणों की धूल मेरे माथे की शोभा है. अन्य मेरी कोई किसी से अपेक्षा नहीं है.
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सब के ह्रदय में प्रभुप्रेम जागृत हो और जीवन में पूर्णता प्राप्त हो. सबको शुभ कामनाएँ और सादर प्रणाम !
ॐ श्रीगुरवे नमः | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय !
ॐ तत्सत्ॐ ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ जनवरी २०१८

Sunday, 21 January 2018

समस्त सृष्टि, समस्त विश्व, राष्ट्र, समाज, व स्वयं की समस्याओं, पीड़ा व कष्टों के निवारण हेतु हम क्या कर सकते हैं ? .......

समस्त सृष्टि, समस्त विश्व, राष्ट्र, समाज, व स्वयं की समस्याओं, पीड़ा व कष्टों के निवारण हेतु हम क्या कर सकते हैं ? .......
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एक तो हमारी बुद्धि ही अति अल्प और अति सीमित है, फिर कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं जिनका चिंतन करने के लिए सोचने की अतिमानसी क्षमता और विवेक चाहिए| यह सब के वश की बात नहीं है| फिर भी कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर हमारी अति अल्प बुद्धि भी दे देती है| हिमालय जैसी विराट समस्याएँ और प्रश्न दिमाग में उठते हैं जिनका कोई समाधान नहीं दिखाई देता, वहाँ भी भगवान कुछ न कुछ मार्ग दिखा ही देते हैं| मेरी जहाँ तक सोच है हमारे हर प्रश्न का उत्तर और हर समस्या का समाधान आत्म-साक्षात्कार यानि ईश्वर की प्राप्ति है| यह सृष्टि ईश्वर के मन की एक कल्पना है जिसके रहस्यों का ज्ञान ईश्वर की प्राप्ति से ही हो सकता है|
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भगवान तो सच्चिदानंद हैं जैसे महासागर से मिलने के पश्चात झीलों-तालाबों व नदी-नालों से मोह छूट जाता है, वैसे ही सच्चिदानंद की अनुभूति के पश्चात सब मत-मतान्तरों, सिद्धांतों, वाद-विवादों, राग-द्वेष व अहंकार रूपी पृथकता के बोध से चेतना हट कर उन के लिए तड़प उठती है| सारे प्रश्न भी तिरोहित हो जाते हैं| परमात्मा ही हमारे हर प्रश्न का का उत्तर और हर समस्या का समाधान है|
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भगवान जब हृदय में आते हैं तो आकर आड़े हो जाते हैं, फिर वे हृदय से बाहर नहीं जाते| भगवान हमारे हृदय में रहें और हम उनके हृदय में रहें, बस यही उच्चतम स्थिति है, और इसी का होना ही सभी समस्याओं का समाधान है| यह देह तो नष्ट होकर पञ्च महाभूतों में मिल जायेगी पर परमात्मा का साथ शाश्वत है| उनको समर्पित होना ही उच्चतम सार्थकता है|
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव|
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२१ जनवरी २०१८

पहले परमात्मा को प्राप्त करो, फिर कुछ और .....

पहले परमात्मा को प्राप्त करो, फिर कुछ और .....
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लगता है सारा जीवन मैनें अपने प्रारब्ध कर्मफलों को भोगने में ही व्यतीत कर दिया| जो जीवन का उद्देश्य आत्मज्ञान की प्राप्ति था, उस दिशा में क्या प्रगति की यह तो भगवान ही जानते हैं, कुछ कह नहीं सकता| मुझे तो लगता है कि कुछ भी प्रगति नहीं की है| भगवत प्राप्ति की अभीप्सा और सच्चिदानंद से प्रेम ... बस यही एकमात्र उपलब्धि है इस जीवन की| इससे आगे और कुछ भी नहीं मिला इस जीवन में| कोई बात नहीं, जीवन एक सतत प्रक्रिया है| इस जन्म में नहीं तो अगले में ही सही, भगवान कहीं दूर नहीं है, अवश्य मिलेंगे| वे भी जायेंगे कहाँ? मेरे बिना वे भी दुःखी हैं, वैसे ही जैसे एक पिता अपने पुत्र से बिछुड़ कर दुखी होता है| वे भी मेरे लिए व्याकुल हैं|
श्रुति भगवती के आदेशानुसार बुद्धिमान् ब्राह्मण को चाहिए कि परमात्मा को जानने के लिए उसी में बुद्धि को लगाये, अन्य नाना प्रकार के व्यर्थ शब्दों की ओर ध्यान न दे, क्योंकि वह तो वाणी का अपव्यय मात्र है|
तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः |
नानुध्यायाद् बहूब्छब्दान्वाची विग्लापन हि तदिति ||बृहद., ४/४/२९)
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मुण्डकोपनिषद, कठोपनिषद, गीता और रामचरितमानस में भी इसी आशय के उपदेश हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२० जनवरी २०१८

राग-द्वेष से कैसे मुक्त हों ? .......

राग-द्वेष से कैसे मुक्त हों ? ....... 
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यह सबसे बड़ी आवश्यकता और समस्या है जो हरेक साधक के समक्ष आती है| हर साधक की अपनी अपनी समस्या है अतः कोई एक ही सामान्य उत्तर सभी के लिए नहीं हो सकता| एक सामान्य उत्तर तो यही हो सकता है कि हमारा अनुराग परमात्मा के प्रति इतना अधिक हो जाए कि अन्य सब विषयों से अनुराग समाप्त ही हो जाए| जब राग ही नहीं रहेगा तो द्वेष भी नहीं रहेगा| आत्मानुसंधान भी साथ साथ ही होना चाहिए| सबसे कठिन कार्य है अनात्मा सम्बन्धी सभी विषयों से उपरति, यानि प्रज्ञा करना|
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तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः |
नानुध्यायाद् बहूब्छब्दान्वाची विग्लापन हि तदिति ||बृहद., ४/४/२९)
श्रुति भगवती के आदेशानुसार बुद्धिमान् ब्राह्मण को चाहिए कि परमात्मा को जानने के लिए उसी में बुद्धि को लगाये, अन्य नाना प्रकार के व्यर्थ शब्दों की ओर ध्यान न दे, क्योंकि वह तो वाणी का अपव्यय मात्र है|
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मुण्डकोपनिषद, कठोपनिषद, गीता और रामचरितमानस में भी इसी आशय के उपदेश हैं| पर इन उपदेशों का पालन बिना वैराग्य के असम्भव है|
मैं स्वयं निज जीवन में इन्हें अपनाने में अब तक विफल रहा हूँ, अतः इनके ऊपर स्वयं के अतिरिक्त अन्य किसी को कोई उपदेश नहीं दे सकता| फिर भी मैं वैराग्य का प्रयास करता रहूँगा| इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में ही सही|
वासना सम्बन्धी विषयों का चिंतन न हो, और चिंतन सिर्फ परमात्मा का ही हो, यही तो वास्तविक साधना है, जिस का निरंतर अभ्यास होता रहे| जैसे एक रोगी के लिए कुपथ्य होता है वैसे ही एक आध्यात्मिक साधक के लिए अनात्म विषय होते हैं|
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इस विषय पर इससे आगे और लिखने की सामर्थ्य मुझ अकिंचन में नहीं है| हे प्रभु, आपकी जय हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ
कृपा शंकर
२० जनवरी २०१८

भगवान का ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है .....

भगवान का ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है .....
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अपने आप को बिना किसी शर्त के व बिना किसी माँग के भगवान के हाथों में सौंप देना ही ध्यान साधना है, यही निष्काम कर्म है| 
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बाधाओं से घबराएँ नहीं क्योंकि भगवान का शाश्वत वचन है ..... "मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि"| यानी अपने आपको ह्रदय और मन से मुझे दे देने से तूँ समस्त कठिनाइयों और संकटों को मेरे प्रसाद से पार कर जाएगा|
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"सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज | अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः|" समस्त धर्मों (सभी सिद्धांतों, नियमों व हर तरह के साधन विधानों का) परित्याग कर और एकमात्र मेरी शरण में आजा ; मैं तुम्हें समस्त पापों और दोषों से मुक्त कर दूंगा --- शोक मत कर|
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यही ध्यान साधना है और यही निष्काम कर्म है| अपने आप को सम्पूर्ण ह्रदय से भगवान के हाथों में सौंप दो| कोई शर्त या माँग न हो| कोई भी कामना कभी तृप्त नहीं करती. कामनाओं से मुक्ति ही तृप्ति है. परमात्मा में स्थित होकर ही तृप्त हो सकते हैं.
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जीवन में हम जो भी हैं, जहाँ भी हैं, अपने संचित और प्रारब्ध कर्मों के कारण हैं| भविष्य में जो भी होंगे, जहाँ भी होंगे, वह अपने वर्तमान कर्मों के कारण ही होंगे|
भगवान का ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है, यही निष्काम कर्म है|
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हम केवल उस यजमान की तरह हैं जिसकी उपस्थिति यज्ञ की प्रत्येक क्रिया के लिये आवश्यक है| कर्ता तो स्वयं भगवान ही हैं| कर्ताभाव एक भ्रम है| जो लोग भगवान से कुछ माँगते हैं, उन्हें वे वही चीज़ देते हैं जो वे माँगते हैं| परन्तु जो अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं माँगते उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं| न केवल कर्ताभाव, कर्मफल आदि बल्कि कर्म तक को उन्हें समर्पित कर दो| साक्षीभाव या दृष्टाभाव तक उन्हें समर्पित कर दो| साध्य भी वे ही हैं, साधक भी वे ही हैं और साधना भी वे ही है| यहाँ तक कि दृष्य, दृष्टी और दृष्टा भी वे ही हैं|
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समय समय पर आत्मविश्लेषण आवश्यक है. अपनी सफलताओं/विफलताओं, गुणों/अवगुणों, अच्च्छी/बुरी आदतों, अच्छे/बुरे चिंतन ..... इन सभी का ईमानदारी से विश्लेषण करें और पता लगाएँ कि हम कहाँ पर विफल हुए हैं. अपनी विफलताओं के कारणों का पता लगायें और उनका समाधान करने में जुट जाएँ. किसी की सहानुभूति लेने का भूल से भी प्रयास न करें. हम जो भी हैं, जहाँ भी हैं, और जो भी बनना चाहते हैं, वह हमारे और परमात्मा के बीच का मामला है, किसी अन्य का हस्तक्षेप अनावश्यक है.
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"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० जनवरी २०१८

प्रमाद ही मृत्यु है .....

ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार को प्रणाम निवेदित करते हुए उनका यह कथन बार बार मैं स्वयं को ही याद दिला रहा हूँ ..... "प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि" ...... अर्थात "प्रमाद ही मृत्यु है"| अपने "अच्युत" स्वरूप को भूलकर "च्युत" हो जाना ही प्रमाद है, और इसी का नाम "मृत्यु" है| जहाँ अपने अच्युत भाव से च्युत हुए उसी क्षण हम मर चुके हैं| यह परम सत्य है|
ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय !!
भगवान् सनत्कुमार ब्रह्मविद्या के आचार्य इस लिए माने जाते हैं क्योंकि उन्होंने ब्रह्मज्ञान सर्वप्रथम अपने शिष्य देवर्षि नारद को दिया था| इसे भूमा-विद्या का नाम दिया गया है|
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आध्यात्मिक मार्ग पर प्रमाद ही हमारा सब से बड़ा शत्रु है| उसी के कारण हम काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर्य नामक नर्क के छः द्वारों में से किसी एक में अनायास ही प्रवेश कर जाते हैं| आत्मज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है, यही भूमा-विद्या है| जो इस दिशा में जो अविचल निरंतर अग्रसर है, वही महावीर है और सभी वीरों में श्रेष्ठ है|
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यह बात मैं और किसी को नहीं, स्वयं को ही कह रहा हूँ कि जब तक मेरे मन में राग-द्वेष है तब तक जप, तप, ध्यान, पूजा-पाठ आदि का कोई लाभ नहीं है, सब बेकार हैं|
भगवान और गुरु महाराज सदा मेरी रक्षा करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जनवरी २०१८

मोटापे से मुक्ति पाएँ .....

जो लोग मोटापे के शिकार हैं और अपना वजन कम करना चाहते हैं उन्हें नित्य एक गिलास गुनगुने पानी में .......
आधे नीबू का रस, एक चम्मच शहद, एक चम्मच सेव का शिरका, और एक चौथाई चम्मच दालचीनी मिलाकर .....
प्रातःकाल खाली पेट पीनी चाहिए| साथ साथ नियमित व्यायाम भी नित्य करने चाहियें| खुली स्वच्छ ताजी हवा में खूब चलना भी एक व्यायाम है|
मोटापा बहुत शीघ्रता से कम होगा|

श्री अरुण शौरी के बारे में मेरा एक निजी मत ....

श्री अरुण शौरी के बारे में मेरा एक निजी मत ....

श्री #अरुण #शौरी से मैं कभी मिला नहीं हूँ, न ही उनको व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ| पर मैं उन्हें उनके द्वारा लिखी हुई पुस्तकों और उनके लेखों के माध्यम से जानता हूँ| दिल्ली के Voice of India नाम के एक राष्ट्रवादी प्रकाशन के बारे में जानकारी भी मुझे उनके एक लेख से ही मिली थी|

उन्होंने अब तक जितनी भी पुस्तकें लिखी हैं और जितने भी लेख लिखे हैं, उनमें उनके कट्टर राष्ट्रवादी विचार, स्पष्ट सोच, गहन अध्ययन, विद्वता, और राष्ट्र के लिए कुछ करने की तड़प परिलक्षित होती है| ऐसे विद्वान् व्यक्ति का आज के समय में मिलना अति दुर्लभ है| ऐसे राष्ट्रवादी व्यक्ति की उपेक्षा ने संभवतः उन्हें विद्रोही बना दिया हो|

मुझे कई बार लगता है कि "मानव संसाधन विकास" जैसा मंत्रालय उनके जैसे ही किसी कर्मठ और समर्पित व्यक्ति को ही मिलना चाहिए था| बाकि मंत्री कोई उल्लेखनीय कार्य इस मंत्रालय में अब तक नहीं कर पाए हैं|
वे नहीं तो अन्य कोई वैसा ही सही, पर उस मंत्रालय से जो अपेक्षाएँ थी वे पूरी नहीं हुई हैं|

वन्दे मातरं ! भारत माता की जय |
१७ जनवरी २०१८

हृदयाघात से बचें .....

हृदयाघात से बचें ..... 
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मुझे दो बार हृदयाघात हुआ है और एंजियोप्लास्टी भी हुई है| ऑपरेशन टेबल पर घबरा जाने और अपनी अज्ञानता के कारण ही एंजियोप्लास्टी करवाई अन्यथा कभी नहीं करवाता| हृदय रोगियों के लिए प्रकृति ने कई प्राकृतिक औषधियाँ दी हैं, उनके नियमित सेवन से, और अपनी जीवन पद्धति बदलने से हृदय रोगों से बच सकते हैं| इन सब का ज्ञान होता तो मुझे न तो हृदयाघात होता और न ही एंजियोप्लास्टी करानी पड़ती|
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निम्न उपायों से जीवन भर ह्रदय रोगों से बचा भी जा सकता है, और उपचार भी किया जा सकता है .....
(१) नित्य नियमित प्रातः/सायं स्वच्छ खुली हवा में भ्रमण |
(२) तनाव-मुक्त जीवन |
(३) सादा सात्विक भोजन |
(४) प्रातः खाली पेट नित्य एक अनार का सेवन | यदि अनार न मिले तो पंसारी की दूकान से अनारदाने मिल जाते हैं | एक मुट्ठी भर अनार दानों को यों भी खा सकते हैं, या पानी में उबाल कर और छानकर उनका जूस भी पी सकते हैं |
(५) दिन में एक बार भोजन के साथ लगभग १० से १५ ग्राम अलसी का सेवन | अलसी को भूनकर रख लें | उसे यों ही फाँक कर चबा कर भी खा सकते हैं, दही या दाल के साथ भी खा सकते हैं |
(६) लहसुन, अदरक, नीबू का रस, और थोड़ा सा सेब का शिरका, ..... इनका समुचित मात्रा में सेवन ह्रदय रोगियों के लिए अमृत के समान है | इनसे एक आयुर्वेदिक दवाई भी बनती है जो बहुत अधिक प्रभावशाली है |
(७) रात्रि में अर्जुन की छाल का काढ़ा, या अर्जुन की छाल के थोड़े से चूर्ण को दूध में उबालने के बाद ठंडा कर के पीना |
(८) ह्रदय रोगियों को ठंडा जल नहीं पीना चाहिए, थोड़ा गर्म पानी पीयें |
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यदि मधुमेह या उच्च रक्तचाप की भी बीमारी किसी को है तो उसका उचित और तुरंत उपचार करवाएँ | मधुमेह या उच्च रक्तचाप के रोगी को हृदयाघात बहुत अधिक घातक होता है |
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हृदयाघात होने पर तुरंत मेडिकल सहायता लें, देरी न करें |
शुभ कामनाएँ !
ॐ तत्सत् !ॐ ॐ ॐ !!

निर्बल के बल राम, निर्धन के धन राम, और निराश्रय के आश्रय राम ......

निर्बल के बल राम, निर्धन के धन राम, और निराश्रय के आश्रय राम ....... यह शत प्रतिशत अनुभूत सत्य है|
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कोई मेरे से मिलने आता है तो उससे मैं यदि भगवान की भक्ति की ही बात करता हूँ तो मैंने देखा है कि वह व्यक्ति शीघ्र ही बापस चला जाता है| किसी से वेदान्त पर चर्चा करता हूँ तो वह फिर बापस कभी लौट कर नहीं आता| अन्य विषयों से मेरी रूचि समाप्त हो गयी है| अतः मिलने जुलने वाले बहुत ही नगण्य लोग हैं| यह भी भगवान की एक कृपा ही है|
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मैं परमात्मा के गुणों की बातें इसलिए करता हूँ कि दूसरे विषयों में मेरी रूचि नहीं रही है| अन्य कोई कारण नहीं है| ध्यान का प्रयास भी इसीलिये करता हूँ कि अन्य कुछ जैसे ..... कोई पूजा-पाठ, जप-तप, कोई मंत्र-स्तुति आदि मुझे नहीं आती, इन्हें सीखने की इच्छा भी नहीं है| न तो मुझे श्रुतियों का और न ही आगम शास्त्रों का कोई ज्ञान है| इन्हें समझने की बुद्धि भी नहीं है| किसी भी देवी-देवता और ग्रह-नक्षत्र, में मेरी कोई आस्था नहीं है, क्योंकि इन सब को ऊर्जा और शक्ति परमात्मा से ही मिलती है, इनकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है| परमात्मा से प्रेम ही मेरी एकमात्र संपत्ति है| किसी को देने के लिए भी मेरे पास कुछ नहीं है| फालतू की गपशप की आदत मुझमें नहीं है|
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भगवान की कृपा ही मेरा आश्रय है| सभी को मेरी शुभ कामनाएँ और सप्रेम सादर नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
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पुनश्चः :- धन्य हैं वे सब लोग जो मुझे सहन कर लेते हैं| उन सब को बारंबार नमन !

जो जाति भगवान की है, वह ही मेरी है .....

जो जाति भगवान की है, वह ही मेरी है .....
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प्रिय मित्रगण, मैं किसी भी जाति, सम्प्रदाय, या उनकी किसी संस्था से सम्बद्ध नहीं हूँ| सब संस्थाएँ, सम्प्रदाय व जातियाँ मेरे लिए हैं, मैं उन के लिए नहीं| मुझे किसी जाति से न जोड़ें|
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जो जाति भगवान की है, वह ही मेरी है| जैसे विवाह के बाद स्त्री का वर्ण, गौत्र और जाति वही हो जाती है जो उसके पति की होती है, वैसे ही भगवान को समर्पित हो जाने के बाद मेरा वर्ण, गौत्र और जाति वह ही है जो सर्वव्यापी परमात्मा की है| मेरी जाति 'अच्युत' है|
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मैं असम्बद्ध, अनिर्लिप्त, असंग, असीम, शाश्वत आत्मा हूँ जो इस देह रूपी वाहन पर यह लोकयात्रा कर रही है| वास्तव में मेरा ऐकमात्र सम्बन्ध सिर्फ परमात्मा से है| जिस नाम से मेरे देह की पहिचान है, उस का नाम कृपा शंकर है| सभी को नमन !
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जनवरी २०१८

"बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया".....

एक अति लघु कथा ..... "बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया".
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वन्स अपॉन ए टाइम एक सेठ जी की एक बहुत बड़ी दूकान पर २८ नौकर थे| एक दिन उनमें से चार नौकर नाराज होकर दूकान के बाहर आ कर सड़क पर बैठ गए और अपनी नाराजगी का समाचार देने के लिए पत्रकारों को बुला लिया| सारे बाज़ार में तहलका मच गया| सेठ के विरुद्ध बोलने का आज तक किसी में साहस नहीं हुआ था| सारी जनता एक दूसरे को पूछ रही थी कि क्या गज़ब हो गया?
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चारों नाराज़ नौकर पत्रकारों को चहक चहक कर बता रहे थे कि ..... "दूकान का सेठ उनके साथ भेदभाव करता है, गल्ले पर तो खुद बैठा रहता है और उनसे सिर्फ सामान तुलवाता है"| उनकी मांग थी कि "गल्ले का काम वे खुद करें और सेठ सिर्फ सामान तोले"|
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देखते देखते उन नौकरों के बहुत सारे साथी आ कर नारे लगाने लगे ..... "दुनियाँ के नौकरो एक हो", "नौकरतंत्र खतरे में है" आदि आदि| पत्रकारों को तो खुश होने का मसाला मिल गया| बहुत दिनों के बाद एक ऐसा भयंकर समाचार मिला था| पत्रकार अन्दर ही अन्दर खुश होकर सोच रहे थे कि आज सेठ जी को ब्लैकमेल कर के कुछ रुपये ऐन्ठेंगे| उन चारों नौकरों ने अपना ब्रह्मास्त्र यह कर फेंका कि "आज यदि हम नाराज नहीं होंगें तो बीस साल बाद दुनिया कहेगी कि हमने अपना जमीर बेच दिया"| अब तो घर घर में यह चर्चा होने लगी|
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सेठ भी बहुत काइयां आदमी और मंजा हुआ खिलाड़ी था| उसने अपने आदमियों से पता लगा लिया कि सामने वाले दुकानदार ने इन चारों नौकरों को यह नाटक करने के लिए सत्तर रुपये दिए हैं जिसमें से दस तो इन्होनें अखवार वालों को दिए हैं और पंद्रह पंद्रह खुद की पॉकेट में रख लिए हैं|
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सेठ ने गल्ले से सौ रुपये का एक नोट निकाला और उन चारों नौकरों की ओर लहराया| दो नौकर तो "त्राहिमाम त्राहिमाम" करते हुए उसी समय सेठ जी के पैरों में आकर गिर गए| बाकी बचे हुए दो ने कुछ देर बाद कहा ... "अब हमें कोई शिकायत नहीं है, सेठ जी जो भी काम सौंपेंगे वही करेंगे"|
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सारे पत्रकार, बाकी तमाशबीन और बेचारे अन्य सब लोग ठगे से रह गए|
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उसी दिन से यह कहावत पड़ी कि ...... "बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया"| "चाण्डाल चौकड़ी" शब्द की उत्पत्ति भी उसी दिन हुई होगी|
दी एन्ड.
१६ जनवरी २०१८

तैर कर पार तो स्वयं को ही जाना होगा .....

तैर कर पार तो स्वयं को ही जाना होगा .....
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हमारे हृदय की हर धड़कन, हर आती जाती साँस, ..... परमात्मा की कृपा है| हमारा अस्तित्व ही परमात्मा है| हम जीवित हैं सिर्फ परमात्मा के लिए| सचेतन रूप से परमात्मा से अन्य कुछ भी हमें नहीं चाहिए| माया के एक पतले से आवरण ने हमें परमात्मा से दूर कर रखा है| उस आवरण के हटते ही हम परमात्मा के साथ एक हैं| उस आवरण से मुक्त होंने का प्रयास ही साधना है| यह साधना हमें स्वयं को ही करनी पड़ेगी, कोई दूसरा इसे नहीं कर सकता| न तो इसका फल कोई साधू-संत हमें दे सकता है और न अन्य किसी का आशीर्वाद| अपने स्वयं का प्रयास ही हमें मुक्त कर सकता है| अतः दूसरों के पीछे मत भागो| अपने समक्ष एक जलाशय है जिसे हमें पार करना है, तो तैर कर पार तो स्वयं को ही करना होगा, कोई दूसरा यह कार्य नहीं कर सकता| किनारे बैठकर तैरूँगा तैरूँगा बोलने से कोई पार नहीं जा सकता| उसमें कूद कर तैरते हुए पार तो स्वयं को ही जाना है|
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ब्रह्ममुहूर्त में उठते ही कमर सीधी रखते हुए बैठ जाओ, दृष्टी भ्रूमध्य पर स्थिर रहे| आती-जाती हर साँस के प्रति सजग रहो| पूर्ण ह्रदय से भगवान से प्रार्थना करो| आगे का मार्गदर्शन स्वयं परमात्मा करेंगे| सदा इस बात का बोध रहे कि परमात्मा से अतिरिक्त हमें अन्य कुछ भी नहीं चाहिए|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०१८

Monday, 15 January 2018

भगवान का भजन क्या है ? .......

भगवान का भजन क्या है ? .......
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धन्य हैं वे लोग जो भगवान का भजन करते हैं, पर एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि भगवान का भजन क्या है? क्या किसी भक्ति छंद का गायन ही भजन है या कुछ और भी? भजनानंदी कौन है?
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मेरे विचार से तो भजन वह साधना है जो साधक को परमात्मा की प्राप्ति करा दे| भजनानंदी भी वही साधक है जो भगवान को प्राप्त करने का अधिकारी है|
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इस विषय पर गीता का दृष्टिकोण यह है .....

भगवान कहते हैं .....
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः|
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ||१८.५२||
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् |
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ||१८.५३||
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||१८.५४||

ऐसे श्लोकों की व्याख्या मर्मज्ञ आचार्यों के मुख से प्रत्यक्ष ही सुन कर समझनी चाहिए| पुस्तकों से इन्हें समझना असंभव है| इन पंक्तियों को लिखने का मेरा उद्देश्य सिर्फ पाठकों में एक रूचि जागृत करना है|
सभी को सप्रेम सादर नमन !

ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
१५ जनवरी २०१८

बच्चों को आत्महत्या की प्रवृति से बचाएँ ....

बच्चों को आत्महत्या की प्रवृति से बचाएँ ....
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भारत में हर हर वर्ष हजारों विद्यार्थी आत्महत्या कर के अपने प्राण दे देते हैं| समाज के कर्णधारों को इस विषय पर गंभीर चिंतन करना चाहिए| कोई विद्यार्थी आत्महत्या कर के मरता है तब यह न सोचें कि हमारे स्वयं के घर का बालक थोड़े ही है| कल को अपने ही घर का कोई बालक ऐसे करेगा तो दूसरे भी यही कहेंगे|
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कुछ दिनों पूर्व राजस्थान पत्रिका समाचार पत्र में छपे राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ऐक्सीडेंटल डेथ एंड सुइसाइड इन इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ राजस्थान राज्य में ही वर्ष २०१६ में २२१ बालकों ने आत्महत्या की| हर वर्ष औसत लगभग २२५ बालक राजस्थान में आत्महत्या कर के मरते हैं| सब से अधिक आत्महत्या कोचिंग क्लासेस के बच्चे करते हैं| पूरे भारत में तो बहुत अधिक बालक करते होंगे|

इस में मैं अधिकांश दोष बालकों के माँ-बाप को दूँगा, फिर समाज को| हर बालक की दिमागी क्षमता अलग अलग होती है| यदि कोई पढाई में अच्छा नहीं कर पाता तो जीवन के अन्य किसी क्षेत्र में सफल हो सकता है| यह आवश्यक नहीं है कि हर बालक पढाई में होशियार ही हो| उनके ऊपर माँ-बाप का और समाज का बहुत अधिक दबाव रहता है| कई माँ-बाप अपने बालकों को बहुत बुरी तरह पीटते हैं| क्या मारने पीटने से ही बालक अधिक अच्छा पढ़ लिख सकता है ? मानसिक तनाव व अवसाद से बालकों की रक्षा करनी चाहिए| कई बच्चे अपने घर की तरीबी से तंग आकर और कई बच्चे प्रेम प्रसंगों में भी आत्महत्या करते हैं| आत्महत्या की प्रवृत्ति से बच्चों को बचाना चाहिए|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जनवरी २०१८

Sunday, 14 January 2018

हमारा जीवन उत्तरायण, धर्मपरायण व राममय हो .....

हमारा जीवन उत्तरायण, धर्मपरायण व राममय हो .....
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जीवन में हमारे परम आदर्श आराध्य देव भगवान श्रीराम हैं| उनसे बड़ा कोई दूसरा आदर्श नहीं है| हमारा जीवन राममय हो, यह बड़ी से बड़ी प्रार्थना है| राममय बनकर ही हम अपनी चेतना में अनंत, सर्वव्यापक, असम्बद्ध, अलिप्त व शाश्वत हैं| समझने वाले इसे समझ सकते हैं|
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मकर संक्रांति के दिन संगम स्नान का महत्व है| आध्यात्मिक दृष्टी से संगम स्नान क्या है इस पर विचार करते हैं .....
तंत्र आगमों के अनुसार 'इड़ा' भगवती गंगा है, 'पिंगला' यमुना नदी है और उनके मध्य में 'सुषुम्ना' सरस्वती है| इस त्रिवेणी का संगम तीर्थराज है जहाँ स्नान करने से सर्व पापों से मुक्ति मिलती है| वह तीर्थराज त्रिवेणी प्रयाग का संगम कहाँ है? वह स्थान ... तीर्थराज त्रिवेणी का संगम हमारे भ्रूमध्य में है| अपनी चेतना को भ्रूमध्य में और उससे ऊपर रखना ही त्रिवेणी संगम में स्नान करना है|
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अपनी व्यक्तिगत साधना/उपासना में एक नए संकल्प और नई ऊर्जा के साथ गहनता लायें .....
> रात्रि को सोने से पूर्व भगवान का ध्यान कर के निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ|
> दिन का प्रारम्भ परमात्मा के प्रेम रूप पर ध्यान से करें|
>पूरे दिन परमात्मा की स्मृति रखें| यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः स्मरण करते रहें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०१८

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पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में स्थित हम भारतवासियों के लिए जीवन में तृप्ति, अंतर्ज्ञान, और अनन्त परम पूर्णता को पाने का समय उत्तरायण है| हमारा सम्पूर्ण जीवन ही उत्तरायण हो|
उत्तरायण काल में आज्ञा और सहस्रार चक्रों में ऊर्जा प्रबल रहती है| गुरु-प्रदत्त विधि से कूटस्थ सूर्यमण्डल में जो अनन्य दिव्य परम पुरुष हैं, उन्हीं का अखण्डवृत्ति द्वारा निरंतर ध्यान करते हुए हम उन्हीं को प्राप्त हों|
शुभ कामनाएँ और सप्रेम नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०१८

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अब कोई कामना नहीं है .....


अब कोई कामना नहीं है .....
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इस जीवन का अधिकांश भाग व्यर्थ में ही नष्ट हो चुका है| अब जो अति अति अति अल्प शेष भाग इस जीवन का बचा है, उसे गीता के स्वाध्याय और भगवान के ध्यान में ही व्यतीत करने का आतंरिक आदेश मिल रहा है| अन्य किसी ग्रन्थ के स्वाध्याय और अन्य विषयों के अध्ययन-मनन, और अन्य गतिविधियों के लिए अब समय नहीं रहा है| अपने पूर्व जन्मों के कर्मों का फल भोगने के लिए ही यह जन्म मिला था| पिछले जन्मों में कोई अच्छे कर्म नहीं किये थे इसलिए इस जन्म में इतने उतार-चढ़ाव देखे| किसी से कोई शिकायत नहीं है| सब कुछ अपने अपने स्वयं के ही कर्मों का ही भोग था| मुझे नहीं लगता कि इस जन्म में भी मैनें कोई अच्छे कर्म किये हैं| भगवान ने ही अपनी परम कृपा कर के मेरे हृदय में अपने प्रति परम प्रेम और अभीप्सा जागृत कर दी है| यह उन्हीं की महिमा है, मेरी नहीं| अब कोई कामना नहीं है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !! कृपा शंकर //१३ जनवरी २०१८
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भगवान कहते हैं .....
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||८.५||
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प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||८.१०||
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ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८.१३||
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अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः |
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ||८.१४||
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मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् |
नाप्नुवन्ति महत्मानः संसिद्धिं परमां गताः ||८.१५||
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आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८.१६||
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जो कुछ भी कहना था वह भगवान ने कह दिया है| मेरे पास कहने को अब कुछ भी नहीं है| हे प्रभु, आपकी जय हो| ॐ ॐ ॐ !!

प्रेम होता है, किया नहीं जाता ......

प्रेम होता है, किया नहीं जाता ......
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मैं सदा परमात्मा से परम प्रेम की बात करता रहा हूँ, पर अब मुझे लगता है कि मैंने अपनी भाषा में या शब्द-रचना में अपनी नासमझी से सदा एक बहुत बड़ी भूल की है| उसी भूल को सुधारने का यह प्रयास है| यदि फिर भी भूल रह जाती है तो क्षमा चाहूँगा|
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परम प्रेम कोई क्रिया नहीं है, यह तो चित्त की एक स्थिति है| प्रेम होता है, किया नहीं जाता| प्रेम हमारा अस्तित्व है| हम किसी को प्रेम कर नहीं सकते, पर स्वयं प्रेममय हो कर उस प्रेम को अनुभूत कर सकते हैं| भावों से वह व्यक्त हो सकता है| स्वयं प्रेममय होना ही प्रेम की अंतिम परिणिति है| यही परमात्मा के प्रति अहैतुकी प्रेम है जहाँ कोई माँग नहीं है| जहाँ माँग होती है, वह व्यापार होता है| प्रेम एक समर्पण है, माँग नहीं|
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जब हम कहते हैं कि मैं किसी को प्रेम करता हूँ तो यहाँ अहंकार आ जाता है| मैं कौन हूँ करने वाला? मैं कौन हूँ कर्ता? कर्ता तो सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही है| "मैं" शब्द में अहंकार और अपेक्षा आ जाती है|
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हम स्वयं प्रेममय यानि साक्षात "प्रेम" बन कर परमात्मा के सचेतन अंश बन जाते हैं क्योंकि भगवान स्वयं अनिर्वचनीय परम प्रेम हैं| फिर हमारे प्रेम में सम्पूर्ण समष्टि समाहित हो जाती है| जैसे भगवान भुवन-भास्कर अपना प्रकाश बिना किसी शर्त के सब को देते हैं वैसे ही हमारा प्रेम पूरी समष्टि को प्राप्त होता है| फिर पूरी सृष्टि ही हमें प्रेम करने लगती है क्योंकि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रया होती है| हम स्वयं ही परमात्मा के प्रेम हैं जो अपनी सर्वव्यापकता में सर्वत्र समस्त सृष्टि में सब रूपों में व्यक्त हो रहे हैं| परमात्मा का प्रेम जब अनुभूत होता है तब उसका एक एक कण परम आनंदमय होता है|
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परम प्रेम जहाँ है वहाँ कोई अज्ञान, असत्य और अन्धकार टिक नहीं सकता| परम प्रेम .... परमात्मा की पूर्णता की अभिव्यक्ति है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०१८

अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्तद्वारा दिव्य परम पुरुष का हम चिंतन करें ....

सभी मित्रों से एक प्रश्न .....
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जब अच्छे कर्मों का फल मिलता है तब तो हम कहते हैं कि भगवान की कृपा से ऐसा हुआ| पर जब बुरे कर्मों का फल मिलता है तब हम इसे भगवान की कृपा क्यों नहीं मानते ? तब हम इसे अपना दुर्भाग्य क्यों मानते हैं?
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उपरोक्त प्रश्न का उत्तर मेरी बुद्धि से तो यही हो सकता है कि हमारी बुद्धि और मन दोनों ही परमात्मा को अर्पित नहीं हैं, तभी ऐसा विचार मन में आया| यदि हम अपने मन और बुद्धि दोनों को ही परमात्मा को समर्पित कर दें तब ऐसा प्रश्न ही नहीं उठेगा| भगवान को प्रिय भी वही व्यक्ति है जिसने अपना मन और बुद्धि दोनों ही भगवान को अर्पित कर दिए हैं|
भगवान कहते हैं ....
"सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ||१२.१४||
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इससे पहले भगवान कह चुके हैं ........
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते" ||६.२२||
परमात्मा को प्राप्त करके योगस्थ व्यक्ति परमानंद को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भारी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है|
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हम परमात्मा को प्राप्त नहीं हुए इसी लिए दुःखों से विचलित हैं| अन्यथा दुःख और सुख दोनों ही भगवान के प्रसाद हैं| अभ्यास द्वारा हम ऐसी आनंदमय स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं जो सुख और दुःख दोनों से परे है|
भगवान कहते हैं .....
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना |
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्" ||८.८||
इसका अति गहन अर्थ जो मुझे समझ में आया है वह है ......
"अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्तद्वारा दिव्य परम पुरुष का हम चिंतन करें"|
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Note: ---
विजातीय प्रतीतियों के व्यवधानसे रहित प्रतीतिकी आवृत्तिका नाम अभ्यास है|
वह अभ्यास ही योग है|
जहाँ अन्य कोई नहीं है, वहाँ मैं अनन्य हूँ|
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"उस अभ्यासरूप योगसे युक्त चित्त द्वारा परमात्मा का आश्रय लेकर, विषयान्तर में न जाकर, गुरु महाराज के उपदेशानुसार कूटस्थ सूर्यमण्डल में जो अनन्य दिव्य परम पुरुष हैं, उन्हीं का अखण्डवृत्ति द्वारा निरंतर ध्यान करते हुए हम उन्हीं को प्राप्त हों| अन्य कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है| यही परमात्मा की प्राप्ति है|"
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मुझे तो मेरे गुरु महाराज का यही आदेश और उपदेश है| बाकी सब इसी का विस्तार है| सब विभूतियाँ परमात्मा की हैं, हमारी नहीं| हम परमात्मा को उपलब्ध हों| इधर उधर फालतू की गपशप में समय नष्ट न कर सदा भगवान का स्मरण करें| दुःख और सुख आयेंगे और चले भी जायेंगे, पर हम उन से विचलित न हों| भगवान में आस्था रखें| वे सदा हमारी रक्षा कर रहे हैं|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०१८

कुछ विचार ....

कुछ विचार ....
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हम इसी क्षण से यह सोचना छोड़ दें कि कौन हमारे बारे में क्या सोच रहा है| ध्यान सिर्फ इसी बात का सदा रहे कि स्वयं जगन्माता यानी माँ भगवती हमारे बारे में क्या सोचेंगी| भगवान माता भी है और पिता भी| माँ का रूप अधिक ममता और प्रेममय होता है| भगवान के मातृरूप पर ध्यान अधिक फलदायी होता है|
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जितना अधिक हम भगवान का ध्यान करते हैं, उतना ही अधिक हम स्वयं का ही नहीं, पूरी समष्टि का उपकार करते हैं| यही सबसे बड़ी सेवा है जो हम कर सकते हैं|
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जब हम परमात्मा की चेतना में होते हैं तब हमारे से हर कार्य शुभ ही शुभ होता है|
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जिस के हृदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा पड़ा है वह संसार में सबसे अधिक सुन्दर व्यक्ति है, चाहे उस की भौतिक शक्ल-सूरत कैसी भी हो|
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भगवान से हमें उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं माँगना चाहिए| प्रेम ही मिल गया तो सब कुछ मिल गया|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०१८

Thursday, 11 January 2018

मेरी कन्या का विवाह ....

मेरी कन्या का विवाह ....
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मेरी एक कन्या है जो बहुत ही अच्छे कुल की व सतोगुण के सर्वश्रेष्ठ संस्कारों से संपन्न है| अब वह विवाह के योग्य हो गयी है, और बिना विवाह के नहीं रह सकती| उसके लिए वर भी उस के अनुरूप अति गुणवान चाहिए| वह वर कौन हो सकता है? मेरी कन्या को संसारी पदार्थों से विरक्ति हो चुकी है| संसारी सुख के भोगों में उसकी रूचि नहीं रही है| पर उसका विवाह तो मुझे करना ही पड़ेगा|
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पूरी सृष्टि में उस के अनुरूप वर एक ही है, जिसका कोई विकल्प नहीं है| अतः उसी वर के साथ उसका पाणिग्रहण करना ही पड़ेगा| बहुत अच्छी कन्या है तो वर स्वीकार क्यों नहीं करेंगे? स्वीकार तो उन्हें करना ही पड़ेगा| मेरी कन्या भी तो उसी वर के लिए तड़प रही है| उसे और कुछ भी नहीं चाहिए|
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वह कन्या और कोई नहीं मेरी अपनी निज "बुद्धि" है| और वे वर और कोई नहीं स्वयं साक्षात् सच्चिदानंद भगवान "परमशिव" हैं|
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सारे कर्मों का अंतिम फल आत्म-साक्षात्कार करने की इच्छा का उत्पन्न होना है| आत्म-साक्षात्कार ही उस कन्या का विवाह है जिसका समय लगभग आ चुका है|
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ॐ नमो नारायण ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
११ जनवरी २०१८

हम इस संसार में जो कार्य कर रहे हैं वह कैसे करें ?

हम इस संसार में जो कार्य कर रहे हैं वह कैसे करें ? 

इस बारे में भगवान श्रीकृष्ण का निर्देश है .....
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्" ||८.७||
आचार्य शंकर की व्याख्या ....
तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर यथाशास्त्रम् | युध्य च युद्धं च स्वधर्मं कुरु | मयि वासुदेवे अर्पिते मनोबुद्धी यस्य तव स त्वं मयि अर्पितमनोबुद्धिः सन् मामेव यथास्मृतम् एष्यसि आगमिष्यसि असंशयः न संशयः अत्र विद्यते || किञ्च --,
स्वामी रामसुखदास जी द्वारा किया गया भावार्थ .....
इसलिये तू सब समयमें मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर | मेरेमें मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला तू निःसन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा |
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जैसा मुझे समझ में आया है वह यह है कि स्वाभाविक रूप से स्वधर्मरूपी जो भी कार्य इस संसार में भगवान ने हमें सौंपा है, भगवान का निरंतर चिंतन करते हुए भगवान की प्रसन्नता के लिए हमें वह कार्य करते रहना चाहिए| यह भी एक युद्ध है| इस भावना की निरंतरता भी हमें भगवान को प्राप्त करा देगी|
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अब यह हर व्यक्ति के ऊपर निर्भर है कि वह अपने विवेक से इसे कैसे समझता है| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
११ जनवरी २०१८

शराब के अत्यधिक सेवन के पीछे सरकारी प्रोत्साहन है ......

शराब के अत्यधिक सेवन के पीछे सरकारी प्रोत्साहन है ......
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भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व मद्यपान बहुत ही कम लोग करते थे| यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि अंग्रेजों ने ही इसे अत्यधिक लोकप्रिय बनाया| अंग्रेजों के आने से पूर्व नशा करने वाले या तो भांग खाते थे या गांजा पीते थे जो इतनी हानि नहीं करते थे| भांग-गांजे के पौधे जंगली पौधे होते हैं जो हर कहीं उग सकते हैं, जिन से सरकार को कोई कर यानि टैक्स नहीं मिलता था, सिर्फ इसी लिए अंग्रेजी सरकार ने इन पर प्रतिबन्ध लगा दिया| चूंकि शराब पर चालीस प्रतिशत से अधिक कर लगता था जिस से सरकारी खजाने में खूब वृद्धि होती थी इसलिए अंग्रेजी सरकार ने शराब पीने को खूब प्रोत्साहन दिया| अंग्रेजों के जाने पश्चात भी भारत सरकार ने वही नीति बनाए रखी| अब भी राज्य सरकारें अपनी राजस्व वृद्धि के लिए शराब को जन सुलभ बनाकर उस के प्रयोग को अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित करती हैं| 
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मैं किसी भी तरह के नशे के विरुद्ध हूँ पर यहाँ ऐतिहासिक सत्य को बताना आवश्यक है| अमेरिका में जब गुलामी की प्रथा थी उस समय काले नीग्रो गुलाम लोगों के पास शराब खरीदने को पैसे नहीं होते थे, अतः वे भांग उगा कर भांग का ही नशा करते थे| अमेरिका में उस समय भांग बहुत लोकप्रिय थी और वहाँ की सरकार इसके उत्पादन को खूब प्रोत्साहन देती थी| भाँग गांजे के जंगली पौधों की प्रचुर उपलब्धता के कारण लोग शराब खरीदने के लिए अपने पैसे बर्बाद नहीं करते थे, अपनी पत्नियों को नहीं पीटते थे, और किसी का कोई नुकसान नहीं करते थे| पर सरकार को इसमें कोई टेक्स नहीं मिलता था| बाद में शराब बनाने वाली कंपनियों के दबाव में आकर आर्थिक कारणों से वहाँ की सरकारों ने भंग-गांजे के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया और शराब की खुली बिक्री की छूट दे दी|
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भारत में साधू संत अति प्राचीन काल से भांग गांजे का सेवन औषधि के रूप में करते आ रहे हैं| भांग-गांजे से अधिक हानि तो तम्बाकू से होती है| तम्बाकू खाकर लाखों लोग मरे हैं पर भांग या गांजा पीकर पूरे विश्व के इतिहास में आज तक एक भी व्यक्ति नहीं मरा है| सीमित मात्रा में नियमित भांग खाने वालों ने बहुत लम्बी उम्र पाई है| पर तम्बाकू और शराब की बिक्री टैक्स के रूप में सरकारी खजाने को भरती हैं, अतः सरकारें इन पर प्रतिबन्ध नहीं लगातीं, चाहे कितनी भी हानि जनता को होती रहे|
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हम हर बात में पश्चिम की नकल करते हैं, और पश्चिम की नक़ल कर के ही शराबखोरी को प्रोत्साहन दे रहे हैं| प्राचीन भारत के राजा बड़े गर्व से कहते थे कि उनके राज्य में कोई चोर नहीं है और कोई शराब नहीं पीता|
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अब बताता हूँ कि भारत में अंग्रेजी शराब का आगमन कैसे हुआ| भारत में आरम्भ में समुद्री मार्ग से जितने भी अंग्रेज़ आये वे सब समुद्री लुटेरे डाकू थे| एक पुर्तगाली जहाज को लूट कर उन्हें भारत आने का समुद्री नक्शा मिला जिसके आधार पर वे भारत में आ सके| अन्यथा वे लोग पहले तो भूमध्य सागर में बड़ी नौकाओं से सीरिया आते, जहाँ से पूर्वी तुर्की से आ रही युफ्रेतेस (Euphrates) या ताईग्रिस (Tigris) नदी के मार्ग से इराक़ होते हुए फारस की खाड़ी में शत-अल-अरब तक आते, जहाँ से फिर बड़ी नौका से फारस की खाड़ी और अरब सागर को पार कर भारत आते| इस मार्ग से आने वाले आधे से अधिक लोग तो रास्ते में ही बीमार होकर मर जाते थे, जो बचते थे उन्हें पुर्तगाली समुद्री लुटेरे लूट लेते थे| फिर उन्होंने इराक से ऊंटों पर बैठकर भारत आना आरम्भ किया पर इसमें भी अधिकाँश लोग रास्ते में ही बीमार होकर मरने लगे तो इस मार्ग का प्रयोग बंद कर दिया|
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जहाँ तक प्रमाण उपलब्ध हैं, भारत में सबसे पहले John Mildenhall नाम का एक अँगरेज़ आया था जिसने अकबर बादशाह से मिल कर उसे यूरोप से लाई हुई शराब और फिरंगी गुलाम युवतियाँ भेंट कर भारत में व्यापार करने की अनुमती ली| कुछ समय बाद वह आगरा में ही मर गया| William Hawkins नाम का एक समुद्री लुटेरा डाकू समुद्री मार्ग से सबसे पहले सूरत बंदरगाह पर आया| जहां से उसने कुछ भाड़े के अंगरक्षक सिपाही लिए और सूरत से घोड़ों पर बैठकर मुगल बादशाह जहाँगीर से मिलने आगरा आया और मुग़ल बादशाहों की कमजोरी फिरंगी गुलाम लड़कियाँ और खूब शराब भेंट कर भारत में व्यापार करने की अनुमति ली| फिर यूरोप से बहुत शराब भारत आने लगी| अँगरेज़ लोग मुग़ल बादशाहों से रियायत लेने के लिए उन्हें खूब शराब और फिरंगी गुलाम लड़कियाँ भेंट दिया करते थे| जब मुग़ल बादशाह अंग्रेजी शराब पीने लगे तो राजे रजवाड़ों को भी उसका चस्का लगने लगा|
गोवा में पुर्तगालियों ने बलात् खूब शराब पीने की आदत जन सामान्य में डाली और लोगों में नशे की आदत डालकर पाँच सौ वर्षों तक गोवा में राज्य किया|
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अब और तो क्या कर सकता हूँ, भगवान से प्रार्थना ही कर सकता हूँ कि भारत में एक दिन ऐसा अवश्य आये जब कोई शराबी और चोर नहीं हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर 
११ जनवरी २०१८

परमप्रेम ही सच्चिदानंद का द्वार है .....

परमप्रेम ही सच्चिदानंद का द्वार है .....
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परमात्मा के प्रति परमप्रेम के अतिरिक्त अन्य कोई आदर्श, कर्तव्य, आचार-विचार या नियम नहीं है| जिसने उस प्रेम को पा लिया, उसके लिए आचरण के कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं है क्योंकि उसने परम अनुशासन को पा लिया है| वह सब अनुशासनों और नियमों से ऊपर है|
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यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) आदि सभी गुण उसमें स्वतः ही आ जाते हैं| ये गुण उसके पीछे पीछे चलते हैं, वह इनके पीछे नहीं चलता| प्रभु के प्रति परमप्रेम अपने आप में सबसे बड़ी साधना, साधन और साध्य है| यही मार्ग है और यही लक्ष्य है|
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फिर धीरे धीरे साधक का स्थान स्वयं परमात्मा ले लेते हैं| वे ही स्वयं को उसके माध्यम से व्यक्त करते हैं| यहाँ भक्त और भगवान एक हो जाते हैं| उनमें कोई भेद नहीं रहता| जब शब्दातीत ज्ञान अनुभूत होना आरम्भ हो जाता है, तब शब्दों में रूचि नहीं रहती|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ जनवरी २०१८

मैं और मेरे प्रभु एक हैं, कहीं कोई भेद नहीं है .....

मैं और मेरे प्रभु एक हैं, कहीं कोई भेद नहीं है .....
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मुझे कहीं भी इधर उधर खोजने, किसी के पीछे पीछे भागने, किसी से कुछ भी माँगने या कोई अपेक्षा या कामना आदि करने से प्रभु ने अपनी परम कृपा कर के अब मुक्त कर दिया है|
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सारी खोज का अंत हो गया है| अब खोजने के लिए और कुछ भी नहीं बचा है| सिर्फ आत्मतत्व में गहराई से स्थित होना है, जिसे प्रभु स्वयं कर रहे हैं| कोई संशय या कोई शंका नहीं है| जहाँ मैं हूँ, वहीं मेरे प्रभु है, मेरे साथ एक हैं|
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जिसे मैं खोज रहा था वह तो मेरा स्वयं का अस्तित्व था जो सदा मेरे साथ एक है| सारे प्रश्न और सारे उत्तर अब असंगत हो गए हैं|
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हे परमप्रिय प्रभु, सिर्फ तुम हो, सिर्फ तुम हो और बस तुम ही तुम हो, और कोई नहीं है| तुम और मैं सदा एक हैं| मैं तुम्हारी पूर्णता हूँ|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१० जनवरी २०१८

Wednesday, 10 January 2018

आध्यात्मिक रूप से सबसे बड़ी सेवा .....

आध्यात्मिक रूप से सबसे बड़ी सेवा .....
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धर्म, राष्ट्र, समाज और हम सब के समक्ष, बहुत विकराल समस्याएँ हैं| उनके समाधान पर चिंतन अवश्य करना चाहिए| भारत की आत्मा आध्यात्मिक है अतः भारत का पुनरुत्थान एक विराट आध्यात्मिक शक्ति द्वारा ही होगा| सौभाग्य से ऐसी अनेक महान आत्माओं से मेरा मिलना हुआ है जो शांत रूप से स्वयं अपने प्राणों की आहुति देकर राष्ट्र के उत्थान के लिए दिन-रात निःस्वार्थ रूप से कार्य कर रही हैं| धन्य हैं वे महान आत्माएँ|
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आध्यात्मिक रूप से सबसे बड़ी सेवा और सबसे बड़ा परोपकार जो हम समष्टि, राष्ट्र, समाज या व्यक्ति के लिए कर सकते हैं, वह है ..... "आत्म-साक्षात्कार"| इस से बड़ी सेवा और कोई दूसरी नहीं है| इस बात को वे ही समझ सकते हैं जो एक आध्यात्मिक चेतना में हैं, दूसरे नहीं, क्योंकि यह बुद्धि का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है|
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जिसे हम अन्यत्र ढूँढ रहे हैं, वह कहीं अन्यत्र नहीं है, वह तो हम स्वयं ही हैं| हम में और परमात्मा में कोई भेद नहीं है| भेद अज्ञानता का है| जो ढूँढ रहा है वह परमात्मा ही है जो अपनी लीला में स्वयं स्वयं को ही ढूँढ रहा है| यह पृथकता, यह भेद .... सब उसकी लीला है, कोई वास्तविकता नहीं| वह स्वयं ही आत्म-तत्व, गुरु-तत्व और सर्वस्व है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१० जनवरी २०१८

अंत काल में भगवान का स्मरण .....

अंत काल में भगवान का स्मरण .....

इस देह के अंतकाल के समय जैसे विचार होते हैं वैसा ही अगला जन्म होता है| अंतकाल में भगवान का स्मरण करने वाले भगवान को प्राप्त होते है| जिसने जीवन भर भगवान का स्मरण किया है, उसी को अंत समय में भगवान की स्मृति होती है, अन्यों को नहीं| अंतकाल में स्मरण उसी का होता है जिसको जीवन में सबसे अधिक याद किया हो|

शास्त्रों के अनुसार अंतिम समय बड़ा भयंकर होता है| सूक्ष्म देह की मृत्यु तो होती नहीं है लेकिन पीड़ा उतनी ही होती है जितनी भौतिक देह को होती है| जिन कुटिल लोगों ने दूसरों को खूब ठगा है, पराये धन को छीना है, अन्याय और अत्याचार किये हैं, उनकी बहुत बुरी गति होती है| बहुत अधिक कष्ट उन्हें भोगने पड़ते हैं|

अपने जीवन काल में मुक्त वही है जो सब कामनाओं, यहाँ तक कि मोक्ष यानि मुक्ति की कामना से भी मुक्त है व इस देह की चेतना से ऊपर उठ चुका है| सब से अच्छी साधना वह है जो मनुष्य को इस देह की चेतना से मुक्त करा दे|

कई बाते हैं जिन्हें मैं लिखना नहीं चाहता क्योंकि उनकी प्रतिक्रिया अच्छी नहीं होती| लोग मुंह पर तो वाह वाह करते हैं लेकिन पीठ पीछे बहुत ही अभद्र शब्दों का प्रयोग कर के अपनी दुर्भावनाओं को व्यक्त करते हैं| फेसबुक पर मैं अपना समय ही नष्ट कर रहा हूँ| जितना समय यहाँ दे रहा हूँ उतने समय मुझे परमात्मा का ध्यान करना चाहिए|

अंतिम बात जो मैं सार रूप में कहना चाहूँगा वह यह है कि हम इस देहभाव को छोड़कर ब्रह्मरूप को प्राप्त हों| जिसमे यह जानने की पात्रता होगी उसे निश्चित मार्गदर्शन मिलेगा| मुझे तो किसी भी तरह का कोई संशय नहीं है| सबके अपने अपने कर्म हैं, अपना अपना प्रारब्ध है| सभी को नमन!

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१० जनवरी २०१८

समाज में एकता कैसे स्थापित हो ? .....

समाज में एकता कैसे स्थापित हो ? .....
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समाज में एकता स्थापित करने के लिए समान विचारधारा के लोगों का या तो दैनिक, या साप्ताहिक या पाक्षिक अंतराल से एक निश्चित समय पर एक निश्चित स्थान पर आपस में एक दूसरे से मिलना अति आवश्यक है| वह मिलना चाहे सामाजिक रूप से हो या धार्मिक या राष्ट्र आराधना हेतु|
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मस्जिदों में मुस्लिम समाज के लोग दिन में पाँच बार एक निश्चित समय पर निश्चित स्थान पर एकत्र होते हैं, इस से उनमें एकता और भाईचारा बना रहता है| यही उनकी शक्ति और एकता का रहस्य है|
संघ के स्वयंसेवक दिन में एक बार एक निश्चित स्थान पर खेलने के लिए एकत्र होते हैं, फिर एक साथ प्रार्थना करते हैं| यह उनके संगठन की शक्ति का रहस्य है|
पुराने जमाने में हिन्दू समाज के लोग भगवान की आराधना के लिए प्रातःकाल या सायंकाल नियमित रूप से मंदिरों में जाते थे| वहाँ उनका आपस में एक-दूसरे से मिलना-जुलना हो जाता था| इस से उनमें भाईचारा और प्रेम बना रहता था| अब मंदिरों में नियमित जाना बंद कर दिया तो इस से समाज में एकता समाप्त हो रही है|
कई क्लबों के सदस्य महीने में एक या दो बार नियमित रूप से सभा कर के एक-दूसरे से मिलते हैं| इस से उनमें प्रेम और भाईचारा बना रहता है|
आज से कुछ वर्षों पूर्व तक हिन्दू समाज के लोग एक दूसरे से होली-दिवाली जैसे त्योहारों पर एक दूसरे से राम-रमी यानी अभिनन्दन करने के लिए मिलते थे| इस से समाज में प्रेम बना रहता था| अब वह परम्परा समाप्तप्राय है|
मेरे कई परिचित मित्र साप्ताहिक सत्संग करते हैं| सभी सत्संगियों में बड़ा प्रेम बना रहता है|
चर्चों में सभी सदस्यों का शनिवार या रविवार को प्रार्थना सभा में जाना अनिवार्य है| पादरी बराबर निगाह रखता है कि कौन आया और कौन नहीं आया| कोई नहीं आता तो उसको बुलाने के लिए एक आदमी भेज दिया जाता है| इस से उनके समाज में एकता बनी रहती है|
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समाज में सामान विचारधारा के लोगों को एक निश्चित समय पर एक निश्चित स्थान पर आपस में मिलना जुलना बड़ा आवश्यक है| इसी पद्धति से हम समाज में एकता स्थापित कर सकते हैं, अन्य कोई मार्ग नहीं है|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०९ जनवरी २०१८

Tuesday, 9 January 2018

पता नहीं वह दिन भारत में कब आयेगा ...

पता नहीं वह दिन भारत में कब आयेगा ...
जब शैशव काल से ही बच्चों को सिखाया जाएगा कि तुम ब्रह्मरूप हो, परमात्मा के अमृतपुत्र हो, परमात्मा से खूब प्रेम करो आदि आदि ?
बच्चों को वेदविरुद्ध शिक्षा नहीं दी जायेगी, बालक को बचपन से ही भगवान से प्रेम करने व भगवान का ध्यान करने का प्रशिक्षण दिया जाएगा ?
एक शाश्वत प्रश्न सभी में जागृत होगा कि हम भगवान को प्रिय कैसे बनें ?
जब ऐसा होगा तभी देश का उद्धार होगा| तभी देश में सभी नवयुवक और नवयुवतियाँ उच्च चरित्रवान होंगे ? पता नहीं इस जीवन काल में यह देख पायेंगे या नहीं ?
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
०९ जनवरी २०१८

चित्तवृत्तिनिरोध :----

चित्तवृत्तिनिरोध :----
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हमारा अंतःकरण स्वयं को मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के रूप में व्यक्त करता है| वहीं हमारा बहिःकरण स्वयं को पाँच ज्ञानेन्द्रियों ..... नेत्र, कान, जिह्वा, नाक और त्वचा के रूप में; और पाँच कर्मेन्द्रियों ..... वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा के रूप में व्यक्त करता है| यहाँ आलोच्य विषय चित्त है, अतः उसी पर यह अति लघु चर्चा अपनी अति अल्प और अति सीमित बुद्धि से कर रहा हूँ| यह विषय ऐसा है जिसे ठीक से वही समझ सकता है जिसमें इसे जानने की जिज्ञासा है और जिस पर भगवान की कृपा है| भगवान की कृपा के बिना इस विषय का ज्ञान असंभव है|
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शास्त्रों में चित्त की चार अवस्थाएँ बताई गयी हैं ...... क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, और एकाग्र| चित्त संस्काररूप है जो वासनाओं और श्वास-प्रश्वास के रूप में व्यक्त होता है| चित्त की जैसी अवस्था होती है वह उसी के अनुसार वासनाओं को व्यक्त करता है| वासनाएँ अति सूक्ष्म होती हैं जिन्हें प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित कर पाना असम्भव है, अतः श्वास-प्रश्वास के माध्यम से सूक्ष्म प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान द्वारा चित्त को निरुद्ध करने की साधना करते हैं| चित्त को निरुद्ध किये बिना आत्म-तत्व में स्थित होना असम्भव है| अतः चित्तः को निरुद्ध करने का विज्ञान ही योग-दर्शन है|
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योग मार्ग में ध्यान और सूक्ष्म प्राणायाम की कुछ क्रियाओं को जनहित में अति गोपनीय रखा गया है क्योंकि वे खांडे की दुधार की तरह हैं जो साधक को देवता भी बना सकती हैं और असुर भी| अतः शिष्य की पात्रता देखकर ही आचार्य उन्हें बताते हैं| चित्त जब क्षिप्त, विक्षिप्त, और मूढ़ अवस्था में होता है तब की गयी सूक्ष्म प्राणायाम व ध्यान आदि की साधनाएँ साधक को आसुरी जगत से जोड़ देती हैं, और वह आसुरी जगत का उपकरण यानी एक असुर बन जाता है| पवित्र और एकाग्र अवस्था में की गयी साधनाएँ ही साधक को देवत्व से जोड़ती हैं| इसीलिये यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं, अपरिग्रह) और नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान) अनिवार्य किये गए हैं| जो यम-नियमों का पालन नहीं कर सकता उसके लिए यह योग मार्ग नहीं है| सदविचारों और सदआचरण के बिना योग साधना का निषेध है, अन्यथा इस से मष्तिष्क की एक ऐसी विकृति हो सकती है जिस के ठीक होते होते कई जन्म व्यतीत हो सकते हैं|
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बुद्धि हमारे ज्ञान का केन्द्र है जो भले-बुरे का निर्णय करती है| जानना बुद्धि का काम है, और प्रवृत्ति कराना चित्त का कार्य है| बुद्धि हमें विवेक का मार्ग दिखाती है, और चित्त हमें अपने पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुरूप किसी भी कार्य में प्रवृत्त करता है| जहां बुद्धि और चित्त में अंतर्विरोध होता है वहीं मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है| यह किंकर्तव्यविमूढ़ता मनुष्य को दुविधा में डाल कर अवसादग्रस्त भी कर सकती है और पागल भी बना सकती है| दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम| अतः ऐसी स्थिति से बचना चाहिए| चित्त बहुत अधिक बलशाली है, और बुद्धि उसके सामने अति बलहीन| भगवान की कृपा से बुद्धि में दृढ़ता आ जाए तभी वह चित्त को निरुद्ध करने में सफल हो सकती है, अन्यथा नहीं| अतः भगवान से सदबुद्धि के लिए प्रार्थना करनी चाहिए| यहाँ "रोध" व "निरोध" के अंतर को भी समझना चाहिए| जो रुद्ध होता है वह अस्थायी होता है और अवसर मिलते ही और भी अधिक वेग से आघात करता है| जो निरुद्ध होता है वह स्थायी होता है| अतः चित्त की वृत्तियों का निरोध होना चाहिए, न कि रोध|
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मन हमें संकल्प और विकल्प कराता है| इन संकल्पों और विकल्पों के पीछे भी संस्कारों की भूमिका होती है| मन कभी संस्कारों के साथ हो जाता है और कभी बुद्धि के साथ| इसे ही मन की चंचलता कहते हैं| यह मन की चंचलता हमारे विवेक को क्षीण कर देती है, और हमें मूर्खतापूर्ण कार्य करने को विवश कर देती है| मन को समझना अति कठिन है| यह अपने चेतन और अवचेतन रूप में ही हम से ये सारे नाच नचवा रहा है| इसे वश में नहीं किया जा सकता| जो चीज अपने वश में नहीं है उसे भगवान को समर्पित कर देना चाहिए| अतः अपने मन को भगवान में लीन कर देना भी अपने आप में एक बहुत बड़ी साधना है| 
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हमारे बच्चे हमारा अनादर करते हैं या हमारे से घृणा करते हैं इसके पीछे एक बहुत बड़ा मनोविज्ञान है| जब एक बालक देखता है कि हम कहते तो कुछ और हैं, व करते कुछ और है, तब उसके मन में हमारे प्रति सम्मान समाप्त हो जाता है| यही चीज वह जब लम्बे समय तक देखता है तब उसके मन में हमारे प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है| अतः हमारा आचरण अपने बच्चों के सामने एक आदर्श होना चाहिए, तभी हमारे बालक हमारा सम्मान करेंगे|
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बच्चों को वेदविरुद्ध शिक्षा नहीं देनी चाहिए| बच्चों को सिखाना चाहिए कि तुम ब्रह्म रूप हो, भगवान के अमृत पुत्र हो, अतः भगवान से खूब प्रेम करो| उसे ऐसी शिक्षा भूल से भी नहीं देनी चाहिए जो उसे पापकर्मों की ओर प्रवृत्त करे| बालक को बचपन से ही भगवान से प्रेम करने व भगवान का ध्यान करने का प्रशिक्षण देना चाहिए|
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भगवान की कृपा से इस विषय पर जितना लिखने की मुझे भगवान से प्रेरणा मिली वह मैंने यहाँ व्यक्त कर दिया है| इससे आगे जो कुछ है वह मेरी सीमित बुद्धि से परे है| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०९ जनवरी २०१८
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पुनश्चः :--- योगियों के अनुसार चंचल प्राण ही मन है | चंचल प्राण को स्थिर कर के ही मन को वश में किया जा सकता है | प्राण तत्व की साधनाएँ हैं जो अति गोपनीय है और सिर्फ सिद्ध गुरु द्वारा ही शिष्य को पात्रतानुसार दी जाती हैं |

स्वयं में दृढ़ आस्था रखें, हमारी आस्था हमें निश्चित विजय दिलाएगी .....

स्वयं में दृढ़ आस्था रखें, हमारी आस्था हमें निश्चित विजय दिलाएगी .....
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हम स्वयं में दृढ़ आस्था रखें, सफलता के सारे गुण हम में हैं | वर्तमान काल में सफल व्यक्ति उसी को मानते हैं जिसने अधिकाधिक रुपये बनाए हैं, और खूब धन-संपत्ति एकत्र की है | पर वास्तव में यह सत्य नहीं है | दुनियाँ जिनको सर्वाधिक सफल व्यक्ति मानती है, इन में से अधिकांश व्यक्ति कुण्ठाग्रस्त होकर मरते हैं, कई तो आत्म-ह्त्या कर के मरते हैं, क्योंकि उन्हें जीवन में कोई संतुष्टि नहीं मिलती | वास्तव में सफल व्यक्ति वह है जिसने अपने निज जीवन में परमात्मा को प्राप्त किया है | परमात्मा की खोज एक शाश्वत जिज्ञासा है और यह जिज्ञासा विवेकशील व्यक्तियों में ही होती है | वह सबसे अधिक बुद्धिमान व्यक्ति है, जो परमात्मा को प्राप्त करने की उपासना कर रहा है | अंततः हमें सुख, शांति, संतुष्टि और सुरक्षा परमात्मा में ही मिलती हैं |
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असफलता का मुख्य कारण हमारे नकारात्मक विचार हैं | ये नकारात्मक विचार हमारे आत्मबल को नष्ट कर देते हैं | नकारात्मक विचारों से बचने के लिए हमें प्रातःकाल में उठते ही महापुरुषों का स्मरण करना चाहिए और परमात्मा का चिंतन करना चाहिए | व्यक्ति उसी समय से आत्मबल खोने लगता है जब उसकी आसक्ति परमात्मा से भिन्न वस्तुओं में होने लगती है| यह आसक्ति ही सबसे बड़ा बन्धन है| इसे ही राग कहते हैं| आसक्ति का विषय जब उपलब्ध नहीं होता तब हमें द्वेष और क्रोध आता है | ये हमारे विवेक को नष्ट कर देते हैं |
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मैंने पाया है कि जिस दिन भी मैंने प्रातःकाल में उठते ही प्रातःस्मरणीय महापुरुषों का स्मरण किया और परमात्मा का ध्यान किया उस के बाद लगभग पूरे दिन ही कोई नकारात्मक विचार नहीं आया | जब किसी नकारात्मक व्यक्ति से मिलना होता है या उसकी स्मृति आती है, तब थोड़ी देर में ही एक गहरी नकारात्मकता भी आ जाती है | इसीलिए शास्त्रों में कहा है कि कुसंग का सर्वदा त्याग करना चाहिए | किसी नकारात्मक व्यक्ति का स्मरण भी कुसंग होता है | परमात्मा के निरंतर चिंतन का अभाव ही नकारात्मकता को जन्म देता है| अतः हमें अपने दिन का प्रारम्भ भी परमात्मा के चिंतन से करना चाहिए, और समापन भी परमात्मा के चिंतन से करना चाहिए| हर समय परमात्मा की स्मृति भी रहनी चाहिए| परमात्मा में यानि स्वयं में आस्था निश्चित विजय दिलाएगी |
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०८ जनवरी २०१८

आध्यात्मिक साधना में आने वाली बाधाएँ और उनसे मुक्ति के उपाय .....

आध्यात्मिक साधना में आने वाली बाधाएँ और उनसे मुक्ति के उपाय .....
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आध्यात्मिक साधना में आने वाली आने वाली बाधाओं और कमियों को निश्चित रूप से दूर किया जा सकता है| साधना के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी ये बाधाएँ हैं....
(१) काम वासना. (२) यश यानी प्रसिद्धि की चाह. (३) दीर्घसूत्रता यानी कार्य को आगे के लिए टालने की प्रवृत्ति. (४) प्रमाद. (५) उत्साह का अभाव.
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उपरोक्त बाधाओं को दूर करने के लिए दो उपाय हैं .....
(१) सात्विक आहार और शास्त्रोक्त विधि से भोजन. (२) कुसंग का त्याग और निरंतर सत्संग.
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भक्ति सूत्रों में नारद जी स्पष्ट कहते हैं कि भक्ति के मार्ग में किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग सर्वदा अनिवार्य है| कोई भी व्यक्ति या कोई भी परिस्थिति जो हमें हरि से विमुख करती है, उसका दृढ़ निश्चय से त्याग करने में कोई विलम्ब नहीं करना चाहिए| सनातन धर्म के सभी आचार्यों ने यह बात कही है| चला कर उन्हीं लोगों का साथ करें जो आध्यात्मिक साधना में सहायक हैं, अन्यथा चाहे अकेले ही रहना पड़े| निरंतर हरि-स्मरण का स्वभाव बनाना पडेगा|
भोजन भी पूरी तरह से सात्विक होना चाहिए| हर किसी के हाथ का बना हुआ, या हर किसी के साथ बैठकर भोजन नहीं करना चाहिए| भोजन करने की शास्त्रोक्त विधि है उसका पालन करना चाहिए| आजकल यह बात किसी को कहेंगे तो वह बुरा मानेगा, पर दूसरों से अपेक्षा न करते हुए, स्वयं के निज जीवन में इसका पालन करना चाहिए|
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हरि ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
०८ जनवरी २०१८