चित्तवृत्तिनिरोध :----
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हमारा अंतःकरण स्वयं को मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के रूप में व्यक्त करता है| वहीं हमारा बहिःकरण स्वयं को पाँच ज्ञानेन्द्रियों ..... नेत्र, कान, जिह्वा, नाक और त्वचा के रूप में; और पाँच कर्मेन्द्रियों ..... वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा के रूप में व्यक्त करता है| यहाँ आलोच्य विषय चित्त है, अतः उसी पर यह अति लघु चर्चा अपनी अति अल्प और अति सीमित बुद्धि से कर रहा हूँ| यह विषय ऐसा है जिसे ठीक से वही समझ सकता है जिसमें इसे जानने की जिज्ञासा है और जिस पर भगवान की कृपा है| भगवान की कृपा के बिना इस विषय का ज्ञान असंभव है|
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शास्त्रों में चित्त की चार अवस्थाएँ बताई गयी हैं ...... क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, और एकाग्र| चित्त संस्काररूप है जो वासनाओं और श्वास-प्रश्वास के रूप में व्यक्त होता है| चित्त की जैसी अवस्था होती है वह उसी के अनुसार वासनाओं को व्यक्त करता है| वासनाएँ अति सूक्ष्म होती हैं जिन्हें प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित कर पाना असम्भव है, अतः श्वास-प्रश्वास के माध्यम से सूक्ष्म प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान द्वारा चित्त को निरुद्ध करने की साधना करते हैं| चित्त को निरुद्ध किये बिना आत्म-तत्व में स्थित होना असम्भव है| अतः चित्तः को निरुद्ध करने का विज्ञान ही योग-दर्शन है|
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योग मार्ग में ध्यान और सूक्ष्म प्राणायाम की कुछ क्रियाओं को जनहित में अति गोपनीय रखा गया है क्योंकि वे खांडे की दुधार की तरह हैं जो साधक को देवता भी बना सकती हैं और असुर भी| अतः शिष्य की पात्रता देखकर ही आचार्य उन्हें बताते हैं| चित्त जब क्षिप्त, विक्षिप्त, और मूढ़ अवस्था में होता है तब की गयी सूक्ष्म प्राणायाम व ध्यान आदि की साधनाएँ साधक को आसुरी जगत से जोड़ देती हैं, और वह आसुरी जगत का उपकरण यानी एक असुर बन जाता है| पवित्र और एकाग्र अवस्था में की गयी साधनाएँ ही साधक को देवत्व से जोड़ती हैं| इसीलिये यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं, अपरिग्रह) और नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान) अनिवार्य किये गए हैं| जो यम-नियमों का पालन नहीं कर सकता उसके लिए यह योग मार्ग नहीं है| सदविचारों और सदआचरण के बिना योग साधना का निषेध है, अन्यथा इस से मष्तिष्क की एक ऐसी विकृति हो सकती है जिस के ठीक होते होते कई जन्म व्यतीत हो सकते हैं|
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बुद्धि हमारे ज्ञान का केन्द्र है जो भले-बुरे का निर्णय करती है| जानना बुद्धि का काम है, और प्रवृत्ति कराना चित्त का कार्य है| बुद्धि हमें विवेक का मार्ग दिखाती है, और चित्त हमें अपने पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुरूप किसी भी कार्य में प्रवृत्त करता है| जहां बुद्धि और चित्त में अंतर्विरोध होता है वहीं मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है| यह किंकर्तव्यविमूढ़ता मनुष्य को दुविधा में डाल कर अवसादग्रस्त भी कर सकती है और पागल भी बना सकती है| दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम| अतः ऐसी स्थिति से बचना चाहिए| चित्त बहुत अधिक बलशाली है, और बुद्धि उसके सामने अति बलहीन| भगवान की कृपा से बुद्धि में दृढ़ता आ जाए तभी वह चित्त को निरुद्ध करने में सफल हो सकती है, अन्यथा नहीं| अतः भगवान से सदबुद्धि के लिए प्रार्थना करनी चाहिए| यहाँ "रोध" व "निरोध" के अंतर को भी समझना चाहिए| जो रुद्ध होता है वह अस्थायी होता है और अवसर मिलते ही और भी अधिक वेग से आघात करता है| जो निरुद्ध होता है वह स्थायी होता है| अतः चित्त की वृत्तियों का निरोध होना चाहिए, न कि रोध|
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मन हमें संकल्प और विकल्प कराता है| इन संकल्पों और विकल्पों के पीछे भी संस्कारों की भूमिका होती है| मन कभी संस्कारों के साथ हो जाता है और कभी बुद्धि के साथ| इसे ही मन की चंचलता कहते हैं| यह मन की चंचलता हमारे विवेक को क्षीण कर देती है, और हमें मूर्खतापूर्ण कार्य करने को विवश कर देती है| मन को समझना अति कठिन है| यह अपने चेतन और अवचेतन रूप में ही हम से ये सारे नाच नचवा रहा है| इसे वश में नहीं किया जा सकता| जो चीज अपने वश में नहीं है उसे भगवान को समर्पित कर देना चाहिए| अतः अपने मन को भगवान में लीन कर देना भी अपने आप में एक बहुत बड़ी साधना है|
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हमारे बच्चे हमारा अनादर करते हैं या हमारे से घृणा करते हैं इसके पीछे एक बहुत बड़ा मनोविज्ञान है| जब एक बालक देखता है कि हम कहते तो कुछ और हैं, व करते कुछ और है, तब उसके मन में हमारे प्रति सम्मान समाप्त हो जाता है| यही चीज वह जब लम्बे समय तक देखता है तब उसके मन में हमारे प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है| अतः हमारा आचरण अपने बच्चों के सामने एक आदर्श होना चाहिए, तभी हमारे बालक हमारा सम्मान करेंगे|
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बच्चों को वेदविरुद्ध शिक्षा नहीं देनी चाहिए| बच्चों को सिखाना चाहिए कि तुम ब्रह्म रूप हो, भगवान के अमृत पुत्र हो, अतः भगवान से खूब प्रेम करो| उसे ऐसी शिक्षा भूल से भी नहीं देनी चाहिए जो उसे पापकर्मों की ओर प्रवृत्त करे| बालक को बचपन से ही भगवान से प्रेम करने व भगवान का ध्यान करने का प्रशिक्षण देना चाहिए|
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भगवान की कृपा से इस विषय पर जितना लिखने की मुझे भगवान से प्रेरणा मिली वह मैंने यहाँ व्यक्त कर दिया है| इससे आगे जो कुछ है वह मेरी सीमित बुद्धि से परे है| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०९ जनवरी २०१८
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पुनश्चः :--- योगियों के अनुसार चंचल प्राण ही मन है | चंचल प्राण को स्थिर कर के ही मन को वश में किया जा सकता है | प्राण तत्व की साधनाएँ हैं जो अति गोपनीय है और सिर्फ सिद्ध गुरु द्वारा ही शिष्य को पात्रतानुसार दी जाती हैं |