हम जीव नहीं, परमशिव हैं .....
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शिव तत्व का बोध अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं| इसका बोध हमें इस
देह की चेतना से परे अनंताकाश में होता है| नित्य नियमित ध्यान साधना
द्वारा हमें अपनी चेतना उत्तरा सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य)
में निरंतर रखने का अभ्यास करना चाहिए| वहाँ दिखाई देने वाले ज्योतिर्मय
ब्रह्म और सुनाई देने वाले प्रणवाक्षर ब्रह्म ही हमारे आराध्य देव भगवान
शिव हैं|
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इन्हीं को कूटस्थ ब्रह्म कहते हैं| इन्हीं की चेतना
कूटस्थ चैतन्य है| इस चेतना में स्थिति ही भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में
बताई हुई ब्राह्मी स्थिति है .....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
अर्थात् ... "हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है जिसे प्राप्त कर पुरुष मोहित
नहीं होता| अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण
(ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है||"
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आचार्य शंकर के
अनुसार उपरोक्त अवस्था ब्राह्मी यानी ब्रह्ममें होनेवाली स्थिति है| सर्व
कर्मोंका संन्यास करके केवल ब्रह्मरूपसे स्थित हो जाना है| इस स्थिति को
पाकर मनुष्य फिर मोहको प्राप्त नहीं होता| अन्तकाल में ब्राह्मी स्थिति में
स्थित होकर मनुष्य ब्रह्म में लीनतारूप मोक्ष को लाभ करता है|
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उपरोक्त रूप में वर्णित भगवान शिव का ध्यान ही हमारी साधना हो| साथ साथ
अजपा-जप के अभ्यास से मेरुदंड में सुषुम्ना चैतन्य हो जाती है और एक घनीभूत
प्राण-प्रवाह की अनुभूतियाँ होने लगती हैं, जिसे तंत्र की भाषा में
कुण्डलिनी महाशक्ति का जागरण कहते हैं|
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सिद्ध गुरु की आज्ञा और
निर्देशानुसार इसी कुण्डलिनी को हर चक्र में गुरुप्रदत्त बीजमंत्रों के साथ
ऊपर उठाते हुए कूटस्थ में ले जाते हैं| यह अपने आप ही धीरे धीरे उसी गति
से नीचे आ जाती है| नीचे आते समय भी हर चक्र में बीज मन्त्रों का जाप होना
चाहिए| अंत में इसे कूटस्थ में ही छोड़ देते हैं| यह विधि "क्रिया योग"
साधना कहलाती है जो किसी अधिकृत सिद्ध गुरु से ही सीखनी चाहिए| इसी के बारे
में भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....
"अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे | प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ||४:२९||
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अंत में यही कहूँगा गीता में दिए भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार हमारी भक्ति "अनन्य" और "अव्यभिचारिणी" हो .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि||१३:१०||
भगवान का आदेश है ....
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||
भगवान कहाँ हैं ?.....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है ? ....
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||
भगवान का सबसे बड़ा आश्वासन है .....
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||
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इतना ही बहुत हैं| भगवान अनंत हैं, उनके उपदेश भी अनंत हैं|
एक साधक को भगवान के ध्यान के साथ साथ यदि समय हो तो गीता के पांच श्लोकों
का नित्य अर्थ सहित पाठ, रामचरितमानस के सुन्दर काण्ड के क्रमशः कुछ
पृष्ठों का पाठ, और हनुमान चालीसा का भी पाठ नित्य करना चाहिए| ये साधना
में बड़े सहायक हैं|
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पुनश्चः :---- उपरोक्त वर्णित कुण्डलिनी
महाशक्ति ही मेरुदंड में विचरण करते हुए धीरे धीरे सहस्त्रार से ऊपर
ब्रह्मरंध्र को भेदते हुए अनंताकाश में परमशिव के साथ एकाकार हो जाती है|
इस महाशक्ति कुंडलिनी और परमशिव का मिलन ही योग है|
ध्यान की गहराई में
भी साधक को ब्र्ह्मरंध्र से परे जाने, समाधिस्थ होने और बापस देह की चेतना
में आने की अनुभूतियाँ होना बहुत ही सामान्य बात हैं|
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आद्य शंकराचार्यकृत निर्वाण षटकम् .....
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मनोबुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्नतेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥
अर्थ : मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूं, न मैं कान, जिह्वा,
नाक और नेत्र हूं । न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूं, मैं चैतन्य रूप
हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥
अर्थ : न मैं मुख्य प्राण हूं और न ही मैं पञ्च प्राणोंमें (प्राण, उदान,
अपान, व्यान, समान) कोई हूं, न मैं सप्तधातुओंमें (त्वचा, मांस, मेद,
रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) कोई हूं और न पञ्चकोशोंमें (अन्नमय, मनोमय,
प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूं और न मैं
जननेंद्रिय या गुदा हूं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥
अर्थ :न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है, न
ही ईर्ष्याकी भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं
चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥
अर्थ : न मैं पुण्य हूं, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न
वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूं, न भोज्य(खाया जानेवाला) हूं, और न
भोक्ता(खानेवाला) हूं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न मे मृत्युशंका मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥
अर्थ : न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जातिका कोई भेद है, न मेरा कोई
पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न
कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद
हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥
अर्थ : मैं समस्त संदेहोंसे परे, बिना किसी आकारवाला, सर्वगत, सर्वव्यापक,
सभी इन्द्रियोंको व्याप्त करके स्थित हूं, मैं सदैव समतामें स्थित हूं, न
मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव
हूं
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ फरवरी २०१९
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Note: उपरोक्त लेख आज भगवान की प्रेरणा से स्वयं के आनंद के लिए ही लिखा
गया| अब और कुछ लिखने की इच्छा नहीं है| भगवान अपने में ही मेरा मन लगाए
रखें|