Sunday, 31 March 2019

सबसे बड़ा दोष .... "आहार दोष" .....

सबसे बड़ा दोष .... "आहार दोष" .....
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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः| भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्||३:१३||
इसका भावार्थ है कि यज्ञ के अवशिष्ट अन्न का भोजन करने वाले श्रेष्ठ पुरुष हैं| देवयज्ञ आदि कर के उसमें बचे हुए अमृत नामक अन्न को भक्षण करना जिन का स्वभाव है वे सब पापों से अर्थात् गृहस्थ में होने वाले चक्की चूल्हे आदि के पाँच पापों से और प्रमाद से होनेवाले हिंसा आदि से जनित अन्य पापों से भी छूट जाते हैं| तथा जो उदरपरायण लोग केवल अपने लिये ही अन्न पकाते हैं वै स्वयं पापी हैं और पाप ही खाते हैं|
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आहार दोष सबसे बड़ा दोष है क्योंकि जैसा होगा अन्न, वैसा ही होगा हमारा मन| यहाँ भगवान स्वयं यह बात कह रहे हैं कि जो लोग केवल स्वयं के लिए ही अन्न पकाते हैं वे स्वयं तो पापी हैं ही, और पाप को भी खाते है| अब प्रश्न यह है कि यज्ञ का अवशिष्ट भोजन क्या है, और उसका आहार कैसे करें?
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इसके लिए इस लेख के पाठकों को स्वयं परिश्रम कर के उत्तर ढूँढना होगा| स्वयं की मेहनत ही काम आयेगी, दूसरे की नहीं| यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण और मनुस्मृति में पञ्च महायज्ञों का वर्णन है| वे क्या हैं? यह जानना ही होगा| भोजन बनाते समय पांच प्रकार के पाप कौन से हो जाते हैं, यह भी स्वयं को ही जानना होगा| गीता में भी भगवान ने इसका आदेश दिया है, उसका स्वाध्याय भी स्वयं को ही करना होगा|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मार्च २०१९

सन १९६२ में हम चीन से बहुत बुरी तरह अपमानित होकर क्यों हारे ?

सन १९६२ में हम चीन से बहुत बुरी तरह अपमानित होकर क्यों हारे ?
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चारो ओर से हुई आलोचना से दबाव में आकर भारत सरकार ने इसकी जाँच ऑस्ट्रेलिया के अँगरेज़ Lieutenant General Henderson Brooks और भारतीय Brigadier General Premindra Singh Bhagat से करवाई थी| उन्होंने मामले की पूरी जाँच कर के इसकी रिपोर्ट भारत सरकार को दी| इस रिपोर्ट का नाम Henderson Brooks-Bhagat report है जो अभी तक परम गोपनीय है| इसकी एक ही प्रति छपी थी जिसको देखने का अधिकार सिर्फ भारत के प्रधानमंत्री को ही है| भारत का प्रधानमंत्री भी एक शपथ के अंतर्गत इसकी चर्चा किसी से नहीं कर सकता| इतनी परम गुप्त रिपोर्ट है यह|
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पर ऑस्ट्रेलिया के एक अँगरेज़ खोजी पत्रकार Neville Maxwell ने इस रिपोर्ट के १२६ पृष्ठों को पता नहीं कहाँ से खोज निकाला और अपनी निजी वेबसाइट पर 17 March 2014 को डाल दिया| इस से बड़ी हलचल मच गयी| भारत के पूर्व रक्षामंत्री A.K. Antony ने इसे अत्यधिक संवेदनशील बताकर इस पर किसी भी तरह की चर्चा या बहस से मना कर दिया| हालांकि इस पर इंग्लैंड में एक पुस्तक भी छप गयी थी| वह पुस्तक इंग्लैंड में खूब बिकी थी|
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उस लीक हुई रिपोर्ट के अनुसार भारत की १९६२ में हुई अपमानजनक पराजय का सारा दोष तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरु की दोषपूर्ण नीतियों को दिया गया था| साढ़े छप्पन वर्षों के बाद भी वह रिपोर्ट परम गोपनीय है क्योंकि उसमें नेहरु की गलती सिद्ध होती है| नेहरु ने जान बूझकर भारत को हरवाया था| उस समय चीन की स्थल सेना भारत की सेना में मुकाबले बहुत कमजोर थी, चीन के पास वायुसेना तो थी ही नहीं| भारत के पास वायुसेना थी जिसका नेहरू ने उपयोग नहीं होने दिया| चीनी लोग साहसी नहीं होते, वे एक डरपोक कौम हैं| उस डरपोक कौम से हुई हमारी हार वास्तव में बहुत अपमानजनक थी|
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अंत में एक बात और बताता हूँ कि चीन में माओ सता में अपने स्वयं के पराक्रम से नहीं आया, बल्कि स्टालिन द्वारा भेजी गयी रूसी सेना के दम पर आया था| उसका तथाकथित Long March पूरी तरह एक ढकोसला था| पर हमारे यहाँ कई लोगों के लिए माओ भी आदर्श है, और नेहरु का पवित्र परिवार अभी भी पूजनीय है|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मार्च २०१९

भक्ति से क्या मिलता है ?

प्रश्न : भक्ति से क्या मिलता है ?
उत्तर : कुछ भी नहीं| जिसे कुछ चाहिए वह इस मार्ग में नहीं आये| उससे जो कुछ उसके पास है वह भी छीन लिया जाता है| यहाँ का नियम है कि जिसके पास कुछ है उसे और भी अधिक दिया जाता है, पर जिस के पास कुछ नहीं है उससे वह सब कुछ छीन लिया जाता है जो कुछ भी उसके पास है| भिखारी को कुछ नहीं मिलता लेकिन पुत्र को सब कुछ दे दिया जाता है|
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प्रश्न : तुम भक्ति क्यों करते हो?
उत्तर : यह मेरा स्वभाव और जीवन है| मैं भक्ति के बिना जीवित नहीं रह सकता|
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प्रश्न : भक्ति से तुमको क्या मिला?
उत्तर : भगवान का प्रेम| प्रेम के अतिरिक्त कुछ चाहिए भी नहीं था|
इस मार्ग में पाने को कुछ है ही नहीं| सब कुछ खोना ही खोना है| मिलेगा तो सिर्फ प्रेम ही| प्राण भी देना पड़ सकता है|
“कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपनौ, चले हमारे साथ|"


३१ मार्च २०१९

भारत क्यों पराधीन हुआ?

भारत क्यों पराधीन हुआ? इस विषय पर मैनें खूब चिंतन किया है और जिन निष्कर्षों पर पहुँचा हूँ, उनका अति संक्षेप में यहाँ वर्णन कर रहा हूँ|
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वह समय ही खराब था| समाज में कई सद्गुण विकृतियाँ आ गयी थीं| समाज व राष्ट्र की अवधारणा व चेतना ही प्रायः लुप्त हो गयी थी| यह मान लिया गया कि राष्ट्ररक्षा का कार्य सिर्फ क्षत्रियों का ही है| जो भी विजेता होता उसी की आधीनता आँख मीच कर स्वीकार कर ली जाती| क्षत्रिय राजा भी निजी स्वार्थों के कारण संगठित न होकर बिखरे बिखरे ही रहे और कुछ ने तो आतताइयों का साथ भी दिया| क्षत्रिय राजाओं में भी समाज-हित और राष्ट्र-हित की चेतना धीरे धीरे लुप्त हो गयी| जिनमें यह चेतना थी वे असहाय हो गए| यदि सारा समाज और राष्ट्र एकजुट होकर आतताइयों का प्रतिकार करता तो भारत कभी भी पराधीन नहीं होता, और भारत की ओर आँख उठाकर देखने का भी किसी में साहस नहीं होता|
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अब बीता हुआ समय तो बापस आ नहीं सकता, जो हो गया सो हो गया| अब इसी क्षण से हम इस दिशा में अपना सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं, इस पर ही विचार करना चाहिए| हमारा राष्ट्र एक है| राष्ट्र की एकता कैसे बनी रहे, व राष्ट्र कैसे शक्तिशाली और सुरक्षित रहे, सिर्फ इस पर ही विचार करना चाहिए|
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वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्र की सुरक्षा और कल्याण की क्षमता सिर्फ और सिर्फ माननीय श्री नरेन्द्र मोदी में ही है| अन्य किसी भी अन्य राजनेता में यह समझ नहीं है| अतः अपने सारे निजी स्वार्थ और मतभेद भुलाकर राष्ट्र-हित में हमें अपना अमूल्य मत भाजपा को ही देना चाहिए| भाजपा को दिया गया हर मत श्री नरेन्द्र मोदी को ही है|
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जय जननी, जय भारत ! वन्दे मातरं ! भारत माता की जय !
३० मार्च २०१९

पुनश्चः :--- उपरोक्त विषय पर मैंने इतिहास और तत्कालीन परिस्थितियों का खूब अध्ययन भी किया है, विश्व के अनेक देशों का भ्रमण भी किया है, और खूब स्वतंत्र चिंतन भी किया है| जो भी लिखा है वह मेरे अपने निजी अनुभवजन्य विचार हैं|

गीता में भगवान द्वारा बताई हुई यह विधि क्या किसी को सिद्ध है ?

गीता में भगवान द्वारा बताई हुई यह विधि क्या किसी को सिद्ध है ? या क्या किसी को इसका व्यावहारिक ज्ञान है (भावार्थ नहीं) ? ......
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प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्‌- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌ ||८:१०||
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः |
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ||८:११||
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्‌ ||८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌ |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌ ||८:१३||
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः |
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ||८:१४||

अर्थात् .....
जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भक्ति मे लगा हुआ, योग-शक्ति के द्वारा प्राण को दोनों भौंहौं के मध्य में पूर्ण रूप से स्थापित कर लेता है, वह निश्चित रूप से परमात्मा के उस परम-धाम को ही प्राप्त होता है। (१०)
वेदों के ज्ञाता जिसे अविनाशी कहते है तथा बडे़-बडे़ मुनि-सन्यासी जिसमें प्रवेश पाते है, उस परम-पद को पाने की इच्छा से जो मनुष्य ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हैं, उस विधि को तुझे संक्षेप में बतलाता हूँ। (११)
शरीर के सभी द्वारों को वश में करके तथा मन को हृदय में स्थित करके, प्राणवायु को सिर में रोक करके योग-धारणा में स्थित हुआ जाता है। (१२)
इस प्रकार ॐकार रूपी एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करके मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मनुष्य मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है। (१३)
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो मनुष्य मेरे अतिरिक्त अन्य किसी का मन से चिन्तन नहीं करता है और सदैव नियमित रूप से मेरा ही स्मरण करता है, उस नियमित रूप से मेरी भक्ति में स्थित भक्त के लिए मैं सरलता से प्राप्त हो जाता हूँ। (१४)
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मैं थ्योरी की बात नहीं प्रेक्टिकल की बात कर रहा हूँ | क्या कोई ऐसे योगी पुरुष अभी भी हैं जो अपनी देह की त्याग कर फिर बापस इसमें आ सकें ?
क्या अपनी भौतिक देह को ऊर्जा में परिवर्तित करने वाले और फिर उसे बापस ऊर्जा से पदार्थ में परिवर्तित कर सकने वाले योगी इस पृथ्वी पर आभी भी विराजमान हैं ?
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पुनश्चः :----- सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्‌ ||८:१२|| इस क्रिया को मैं जानना चाहता हूँ| इसके जानकार भी निश्चित रूप से होंगे ही|
२८ मार्च २०१९

हमारे धर्म व संस्कृति की रक्षा कैसे हो ? .....

हमारे धर्म व संस्कृति की रक्षा कैसे हो ? .....
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वर्तमान परिस्थितियों में हम सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं, यह निश्चय कर के ही अपनी क्षमतानुसार हर कार्य पूरे मनोयोग से और अपना सर्वश्रेष्ठ करें| यह भाव रखें कि हम भगवान की प्रसन्नता के लिए ही हर कार्य कर रहे है, न कि किसी मनुष्य को प्रसन्न करने के लिए| धीरे धीरे भगवान को कर्ता बनाकर उनके उपकरण मात्र बन जाएँ| किसी की अनावश्यक आलोचना या निंदा न करें| जीवन से ईर्ष्या-द्वेष और अहंकार को मिटाने का प्रयास करते रहें| रात्रि को सोने से पूर्व नाम-स्मरण, जप, ध्यान आदि कर के ही सोयें| प्रातःकाल उठते ही परमात्मा का स्मरण करें| पूरे दिन परमात्मा की स्मृति निरंतर प्रयास करके बनाए रखें| पराये धन और पराई स्त्री/पुरुष कि कामना न करें| अच्छा साहित्य पढ़ें, अच्छे लोगों के साथ रहें, और कुसंगति से दूर रहे| स्वास्थ्यवर्धक अच्छा सात्विक भोजन लें| शराब और जूए से दूर रहें| पर्याप्त मात्रा में विश्राम करें| आयु के अनुसार शारीरिक व्यायाम कर के स्वस्थ रहें| समाज में अपने बालक-बालिकाओं को स्वस्थ व हर दृष्टिकोण से शक्तिशाली बनायें|
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उपरोक्त सब बिन्दुओं पर गंभीरता से विचार कर के और उस पर आचरण कर के ही हम धर्म की रक्षा कर पायेंगे, अन्यथा नहीं| धर्माचरण बहुत आवश्यक है क्योंकि विश्व की ही नहीं, अपने देश की भी कई आसुरी शक्तियाँ अपने राष्ट्र को ही तोड़ना चाहती हैं| धर्माचरण ही हमें बचा पायेगा| भगवान की भक्ति के प्रचार-प्रसार से ही जातिवाद टूटेगा, देशभक्ति जागृत होगी और कभी गृहयुद्ध की सी स्थिति नहीं आएगी| अपने राष्ट्र, अपनी संस्कृति, अपने राष्ट्रधर्म और स्वाभिमान की रक्षा करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! जय जननी जय भारत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ मार्च २०१९

देश में हरामखोरी की आदत न डालें .....

देश में हरामखोरी की आदत न डालें अन्यथा देश में वेनेज़ुएला जैसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी| वेनेज़ुएला दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप में बहुत बड़ा देश है, जहाँ की जनसंख्या भी अधिक नहीं है| वहाँ भगवान का दिया सब कुछ है .... उपजाऊ भूमि, पर्याप्त जल और विश्व में खनिज तेल का सबसे बड़ा भण्डार| पर वहाँ अब स्थिति यह है कि भयानक भुखमरी और मारकाट मची हुई है|
वहाँ तेल के निर्यात से इतना धन बन जाता था कि वहां की सरकार ने जनता के लिए सब कुछ मुफ्त में कर दिया| वहाँ किसानों ने अनाज उगाना बंद कर दिया, मजदूरों ने मजदूरी करनी बंद कर दी क्योंकि राशन में अनाज, फल, सब्जी, दवाइयाँ आदि सब दूसरे देशों से आयातित होकर निःशुल्क मिल जाती थी| लोगों में काम करने की आदत ही समाप्त हो गयी| लोगों को बिना काम किये ही मुफ्त में मोटा वेतन मिल जाता था|
दुनियाँ में जब तेल के दाम गिरे तो सरकारी तेल कंपनियों की हालत खराब हो गयी| सरकार ने उधार में बाहर से राशन-पानी मंगाना शुरू किया अब यह स्थिति है कि कोई उस देश को कुछ भी देने की स्थिति में नहीं है| लोग एक रोटी के लिए एक दूसरे की ह्त्या कर रहे हैं| यह सब हुआ है लोगों को मुफ्तखोर बनाने से| लोग मेहनत करना, खेती करना और उद्योग-धंधे लगाना भूल चुके हैं|
यहाँ जैसे चुनावी वादे किये जा रहे हैं उनसे यह देश कहीं वेनेज़ुएला न बन जाए|

२७ मार्च २०१९

यतो धर्मस्ततो जयः ......

यतो धर्मस्ततो जयः ......
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मेरी दृष्टी में इस आंग्ल वर्ष २०१९ में होने वाला यह लोकसभा का चुनाव एक धर्मयुद्ध और स्वतंत्रता संग्राम है| महाभारत में विभिन्न सन्दर्भों में पचास बार से अधिक "यतो धर्मस्ततो जयः" वाक्य आया है| मैं अपने पूर्ण हृदय से भगवान से प्रार्थना कर रहा हूँ और नित्य करूँगा कि इस चुनाव में विजय धर्म के पक्ष की ही हो, और अधर्म का नाश हो| भगवान हमें इस योग्य बनाए और इतनी क्षमता दे कि हम धर्म की रक्षा कर सकें| भगवान ने भी वचन दिया है .....
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत| अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्||४:७||"
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्| धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे||४:८||"
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हम अपना मत धर्म के पक्ष में ही दें| विजय वहीं होगी जहाँ धर्म होगा| मुझे पूर्ण विश्वास, श्रद्धा, और आस्था है कि भगवान के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का समय आ गया है| भगवान अपना वचन निभायेंगे| मैं सभी भारतवासियों की ओर से प्रार्थना करता हूँ ..... 'धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो|''
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जो मनुष्यता की हानि कर रहे हैं, जो गोबध का समर्थन कर रहे हैं, जो अपनी विचारधारा और पंथों की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हिंसा कर रहे हैं, उन सब का नाश हो| जिस संस्कृति की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप, क्षत्रपति शिवाजी, गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविंदसिंह, बन्दा बैरागी, भाई मतिदास, संभाजी आदि आदि, और स्वतन्त्रता संग्राम के लाखों बलिदानी भारतियों ने अपनी अप्रतिम आहुति दी, उस सनातन संस्कृति की रक्षा हो|
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विजय निश्चित रूप से धर्म की ही होगी, यह भगवान श्रीराम के वचन हैं| गोस्वामी तुलसीदासकृत रामचरितमानस के लंकाकाण्ड में से जिन्हें मैं उदधृत कर रहा हूँ .....

"रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा।।
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।"
"महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।"
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मैं भगवान श्रीराम से प्रार्थना करता हूँ, जिहोनें आतताइयों के नाश के लिए धनुष धारण कर रखा है, वे भारतवर्ष की और धर्म की रक्षा करें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मार्च २०१९

हम धर्मनिरपेक्षता से कैसे मुक्त हों ?

प्रश्न :-- हम धर्मनिरपेक्षता से कैसे मुक्त हों ?

उत्तर :-- हम धर्मशिक्षा के अभाव के कारण धर्मावलम्बी न होकर धर्मनिरपेक्ष हैं| धर्मनिरपेक्षता से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि हम अपने धर्मग्रंथों का स्वाध्याय तो करें ही, साथ साथ तुलनात्मक रूप से अन्य मतों के ग्रंथों का भी गहन अध्ययन करें और समझें कि उनमें क्या लिखा है| फिर उनकी निष्पक्ष तुलना करें| अन्य कोई उपाय नहीं है| हर हिन्दू को चाहिए कि वह गीता को तो समझे ही, साथ साथ न्यू टेस्टामेंट के गोस्पेल और कुरान का भी गहन तुलनात्मक अध्ययन करे| बिना किसी विषय को जाने और समझे, किसी की आलोचना नहीं करनी चाहिए| फिर "सर्वधर्म समभाव" और "धर्मनिरपेक्षता" का भूत उतर जाएगा|

२६ मार्च २०१९

एक स्वाभाविक अभीप्सा .....

एक स्वभाविक अभीप्सा है कि जगन्माता के अनंताकाश में विस्तृत होता ही रहूँ, कहीं कोई पृथकता ही न रहे| अन्य कोई अभिलाषा नहीं है| यह अनंतता और विस्तार ही मेरा जीवन है जिसे मैं परमशिव कहता हूँ| भौतिक, मानसिक व बौद्धिक स्तर पर तो कभी कुछ भगवान से अपेक्षा ही नहीं की, पर आध्यात्मिक स्तर पर भगवान ने जैसी भी मेरी पात्रता थी, उसके अनुसार छोटी से छोटी हर मनोकामना पूर्ण की है, अतः कोई शिकायत असंतोष या क्षोभ नहीं है| अब और कोई अपेक्षा ही नहीं रही है| जीवन से पूरी तरह संतुष्ट व तृप्त हूँ| मेरी समझने की जितनी क्षमता है, उसकी सीमा में तो कोई भी आध्यात्मिक रहस्य अब रहस्य नहीं रहा है| जिसका मुझे बोध नहीं है वह मेरी क्षमता से परे की बात है, अतः उसे जानने या पाने की अब कोई अभिलाषा नहीं है| भगवान ने जितनी ग्रहण करने की क्षमता दी है उसके अनुसार सब कुछ दिया| है| अतः उनका कृतज्ञ व आभारी हूँ|
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आध्यात्मिक स्तर पर यह सारी समष्टि मुझसे जुड़ी हुई है| पूरी सृष्टि मेरे साथ साथ ध्यान करती है| हर प्राणी मेरे साथ साथ ही सूक्ष्म प्राणायाम कर रहा है| मैं सांस लेता हूँ तो सारा ब्रह्मांड सांस लेता है, मैं यह भौतिक देह नहीं समस्त सृष्टि की मूलभूत ऊर्जा व प्राण हूँ|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२६ मार्च २०१९

Monday, 25 March 2019

फांसी से नहीं मरे थे भगत सिंह

फांसी से नहीं मरे थे भगत सिंह
इतिहास और इतिहासकार कुछ भी कहते हों लेकिन 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर 1947 में मिली आजादी तक के कई ऐसे अनछुए पहलू हैं जिस पर या तो इतिहासकारों की नजर नहीं पडी या फिर उसे उन्होंने नजरअंदाज किया। आजादी के लगभग 60 बरस बाद भी लोगों के सामने सच्चाई क्यों नहीं आ सकी। किसने इतिहास लिखा और किसके इशारे पर इतिहास लिखा गया। आदि ऐसे कई सवाल हैं जो आज भी जवाब मांग रहे हैं। मैं इतिहास का विद्यार्थी रहा हूं इतिहासकार नहीं लेकिन स्वतं़त्रता आंदोलन की कई घटनाओं पर मन में सवाल कौंधते हैं जिनका उत्तर इतिहासकारों के पास नहीं है।
आपको जानकर हैरत होगी कि जिन सवालों का जवाब हम आज ढूंढ रहे हैं वो सभी अंग्रेजों के पास मौजूद हैं। लेकिन ब्रिटेन जाकर किसी ने भी उसे जानने की कोशिश नहीं की। कुछ लोगों ने कोशिश जरूर की लेकिन उनकी बातों को कोई मानने वाला नहीं है। 1857 की हम 150 वीं वर्षगांठ भी मना चुके लेकिन शहीदों के बारे में हम आज भी वही जानते हैं जो तत्कालीन सत्ताधारियों ने लिखवाया। हमने अपने स्तर पर कुछ भी जानने का प्रयास नहीं किया। यही वजह है कि भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव के बारे में भी हम वही जानते हैं जो टेस्ट बुक में पढा है, लेकिन सच्चाई कुछ और ही है।
तीनों क्रांतिकारियों ने अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्या की थी। यह बात तो हम सभी जानते हैं। मर जाने के बाद भी सांडर्स पर भगत सिंह ने तीन गोलियां दागी थी, सांडर्स नौजवान था, उसकी इंगेजमेंट हो चुकी थी लेकिन शादी नहीं, किससे इंगेजमेंट हुई थी, क्रांतिकारियों की फांसी से सांडर्स का संबंध आदि कई सवाल हैं? 1857 की 150 वें शताब्दी वर्ष में बहुत सी ऐसी बातें सामने आयीं जिनको भारत सरकार को संज्ञान में लेना चाहिए था। उन्हीं में से एक है शहीद भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की फांसी के साथ जो बर्बर कांड किया गया उस क्रूरता की मिसाल दुनिया में नहीं मिलती। सबसे बडा रहस्योदघाटन तो यह हुआ कि जिस सांडर्स को इन्होंने मारा था वह वायसराय के पीए का दामाद बनने जा रहा था। सांडर्स के परिजन प्रतिशोध ले सकें इसके लिए इन देश भक्तों को फांसी पर लटकाने का नाटक किया गया।
अधमरे हालत में तीनों को उतारा गया और फिर उन्हें गोलियों से भूना गया। इसके बाद उनके अंग अंग काटे गए फिर किसी अज्ञात स्थान पर उनकी अस्थियों को दफन कर दिया गया। इतना ही नहीं इन क्रांतिकारियों के समाधि स्थल पर भी प्रश्नचिन्ह उठाया गया है। दरअसल 23 मार्च 1931 को क्रूर गोरों ने अपने ट्रोजन हार्स नामक प्लान को क्रियान्वित किया। तीनों को फांसी पर लटकाने का नाटक किया गया। जिन अंग्रेज अफसरों को यह जिम्मा सौंपा गया था उस टीम का नाम डेथ स्क्वायड रखा गया था। फांसी के फंदे से उतारने के बाद तीनों को लाहौर कैंटोमेंट बोर्ड के एक गुप्त स्थान पर लाया गया। जहां जेपी सांडर्स के रश्तेदारों ने भगत सिंह और उनके साथियों को गोलियों से छलनी किया। लोगों को बरगलाने के लिए अंग्रेजों ने बताया कि तीनों का अंतिम संस्कार हुसैनीवाला में किया गया है।
जबकि इनका अंतिम संस्कार व्यास और सतलज नदी जहां मिलती है वहां किसी स्थान पर किया गया था। उन्हें यह डर था कि अगर तीनों की लाश उनके परिजनों को सौंपी गई तो पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन शुरू हो जाएगा। इस बात का खुलासा ब्रिटिश-इंडिया इंटैलीजेंस ब्यूरो के एजेंट ने माटरडम आफ शहीद भगत सिंह नामक पुस्तक में किया है। जिस स्थल को आज क्रांतिकारियों के समाधि स्थल के रूप में पूजा जाता है उस पर भी पुस्तक में प्रश्नचिन्ह उठाया गया है। कहा गया है कि जैसा भगत सिंह सोचते थे कि उनके मरने के बाद देश में अंग्रेजों के खिलाफ एक बडा आंदोलन होगा वैसा कुछ भी नहीं हुआ। जबकि उनके अस्थि कलश को भारत में घुमाया गया।
लोगों ने और उस समय नेताओं उनके बलिदान की प्रशंसा की लेकिन साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ कोई गुस्सा नहीं फूटा। मौत के बाद 8 अप्रैल 1931 को अखिल भारतीय भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव मेमोरियल कमेटी बनाई गयी। आनंद किशोर मेहता उसके अध्यक्ष बनाए गए। कमेटी ने खुली अपील जारी की कि लाहौर में इन क्रांतिकारियों का स्मारक बनाने के लिए कुछ दान करें। इसी संदर्भ में मेहता ने एक पत्र गांधी जी को लिखा। 13 अप्रैल 1931 को महात्मा गांधी ने जवाब दिया जो आज भी ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन के गृह विभाग में फाइल नंबर 33-11-1931 रखा है। गांधी जी ने पत्र में सीधे किसी भी तरह की सहायता से इनकार कर दिया। उन्होंने लिखा कि ऐसा करने से लोग और भडकेंगे और ऐसे ही रास्तों को अख्तियार करेंगे। इसलिए ऐसे स्मारक से मैं कम ही इच्छुक हूं कि संबंध रखा जाए। पुस्तक में कहा गया है कि यहां पर गांधी जी अंग्रेजों से बिल्कुल भी अलग नहीं दिख रहे थे। अंग्रेजों का कहना था कि पुलिस के हत्यारों का स्मारक नहीं बनने दिया जाएगा। स्वतंत्र भारत में बहुत स्मारक बनाए गए लेकिन इन क्रांतिकारियों का सच्चा स्मारक आज भी नहीं है।
सवाल जो आज भी मांगते हैं जवाब
भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को सुबह के बजाय रात में ही क्यों दी गई फांसी।
परिजनों को शव न देकर इनका अंतिम संस्कार लाहौर से 80 किलोमीटर दूर हुसैनीवाला में क्यों किया गया।
तीनों क्रांतिकारियों का पोस्टमार्टम क्यों नहीं कराया गया।
24 मार्च को क्यों नहीं दी गई फांसी
जिम्मेदार कौन?
लाहौर जेल प्रशासन, जिला प्रशासन, पंजाब पुलिस के अधिकारी और सीआईडी या फिर तत्कालीन गवर्नर पंजाब।
भारतीय राष्टीय कांग्रेस और पं जवाहर लाल नेहरू
महात्मा गांधी और लार्ड इर्विन
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पुस्तक के लेखक का परिचय
के एस कूनर
ज्ञानी त्रिलोक सिंह के पुत्र कूनर को दिलीप सिंह इलाहाबादी ने गोद लिया हुआ था, जो कि 1925 से 1936 तक ब्रिटिश सीक्रेट सर्विस में सिपाही थे।
गुरूप्रीत सिंह सिंधरा
महज बारह वर्ष के थे जब शहीद भगत सिंह की समाधि स्थल हुसैनीवाला गए। उसके बाद से भगत सिंह और क्रांतिकारियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियों भारत और लंदन लाइब्रेरी से इकट्ठा कीं और उसे पुस्तक का रूप दि

कुण्डलिनी महाशक्ति क्या होती है ? .....

कुण्डलिनी महाशक्ति क्या होती है ? .....
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यह विद्या एक वैदिक उपासना है जिसका वर्णन कृष्ण यजुर्वेद में है| पर किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु के आशीर्वाद व मार्गदर्शन के बिना इसे समझना असंभव है| यदि हो सके तो किन्हीं सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद व आज्ञा प्राप्त कर उन के सान्निध्य में श्वेताश्वतरोपनिषद् का एक बार स्वाध्याय करें| साथ साथ गुरु की आज्ञा से उनके मार्गदर्शन में ध्यान साधना भी करें| बृहदारण्यकोपनिषद में ऋषि याज्ञवल्क्य व राजा जनक के मध्य के संवाद का भी स्वाध्याय करें, गीता का तो नित्य करना ही है|
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"कुण्डलिनी" शब्द एक तांत्रिक नाम है, वैदिक नहीं| सूक्ष्म देह में कुण्डलिनी जागरण की अनुभूतियाँ सिद्धगुरु के रूप में परमात्मा की कृपा व आशीर्वाद से ही होती हैं| श्रीहनुमान जी के ध्यान साधकों में श्रीहनुमान जी की कृपा से भी कुण्डलिनी जागृत हो जाती है| श्रीहनुमान जी वायु व प्राण-तत्व भी हैं| हनुमान चालीसा का आरम्भ "श्रीगुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधार" शब्दों से होता है| इन शब्दों का एक गहनआध्यात्मिक अर्थ भी है| इसका लौकिक अर्थ तो होता है .... "श्रीगुरु चरणकमलों की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को उज्जवल करते हुए"| यहाँ विचार का विषय है कि श्रीगुरुचरण क्या हैं? उनकी धूल क्या है? और उनसे मन रूपी दर्पण कैसे सुधरेगा? इस पर विचार करें|
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हमारा आज्ञाचक्र अवधान का भूखा है| आज्ञाचक्र के ठीक सामने भ्रूमध्य है, जहाँ हम गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं, पर चेतना आज्ञाचक्र में ही रहती है| शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़ कर तालू से सटाते हुए) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करते रहने से, परमात्मा के परम अनुग्रह से कुछ महिनों की साधना के पश्चात् विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान सूर्यमंडल के तरह की ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होने लगती है और प्रणव की ध्वनि भी सुनाई देने लगती है| भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के ब्रह्मरूप दर्शन में इस ज्योति का वर्णन किया है ....
"दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता| यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः||११:१२||"
यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| इसे ही कूटस्थ कहते हैं, और इसकी चेतना ही "कूटस्थ चैतन्य" कहलाती है| गीता में इसी के बारे में भगवान कहते हैं ....
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||१५:१६||
कूटस्थ चैतन्य में निरंतर स्थिति ही ब्राह्मी स्थिति है जिसका वर्णन भगवान श्रीकृष्ण गीता में करते हैं.....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं, क्योंकि यहीं आज्ञाचक्र में जीवात्मा का निवास है| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु (शिखा स्थान) है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे से थोड़ा नीचे की ओर का भाग है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ आकर मस्तिष्क से मिलती हैं|
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कूटस्थ में चेतना को सदा रखने की साधना करने से शरीर की प्राण-ऊर्जा जो बाह्यमुखी है, अंतर्मुखी होकर मूलाधार चक में एकत्र होने लगती है| इस घनीभूत प्राणऊर्जा को ही कुण्डलिनी महाशक्ति कहते हैं| यह अनुभवज्ञेय विषय है, बौद्धिक नहीं| इसे समझाने के लिए तंत्रागमों में प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग किया गया है, जिसे सिर्फ बुद्धि से ही समझना बड़ा भ्रामक है|
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ध्यान साधना करते करते एक समय ऐसा आता है जब लगता है कि कोई पीछे से ठोकर मार रहा है| बस समझ लीजिये कि कुण्डलिनी का जागरण आरम्भ होने ही वाला है| गुरुकृपा से यह घनीभूत प्राणऊर्जा जो मूलाधार में एकत्र है, एक दिन अचानक ही मूलाधार का भेदन कर सुषुम्ना में प्रवेश कर जाती है जिसका पता साधक को चल जाता है| यही कुण्डलिनी जागरण है|
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धीरे धीरे धीरे कूटस्थ-ब्रह्मज्योति सहस्त्रार में दिखाई देने लगती है तब सहस्त्रार में ही ध्यान करना चाहिए| सहस्त्रार ही गुरु महाराज के चरण-कमल हैं| सहस्त्रार पर ध्यान ही श्रीगुरुचरणों का ध्यान है| सहस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है| वहाँ से निकलने वाला प्रकाश-पुंज श्रीगुरुचरणों की रज है| मन को वहीं लगाकर रखना चाहिए|
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श्रीगुरुचरणों के ध्यान से वहाँ का प्रबल आकर्षण उस घनीभूत प्राण को अपनी ओर ऊपर खींचता है| उस घनीभूत प्राण का प्रवाह ऊपर-नीचे चलता रहता है| मूलाधार से आज्ञाचक्र के मध्य का स्थान "अज्ञान-क्षेत्र" है| वह घनीभूत प्राणऊर्जा यानि कुण्डलिनी महाशक्ति एक दिन गुरुकृपा से आज्ञाचक्र का भी भेदन कर लेती है जहाँ से "ज्ञान-क्षेत्र" आरम्भ होता है| इसे उत्तरा-सुषुम्ना भी कहते हैं| सारा ज्ञान और सारी सिद्धियाँ यहीं है| यहीं से ज्येष्ठा, वामा व रोद्री ग्रंथियों का आभास होता है जिनसे सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण निःसृत होते हैं| सहस्त्रार से व ब्रह्मरंध्र से आगे का भाग "पराक्षेत्र" है जहाँ जीवात्मा परमात्मा के एक हो जाती है| उस स्थान के बारे में भगवान कहते हैं .....
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||१५:६||
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पर यह इतना सरल नहीं है| इसके लिए चाहिए गीता में बताई हुई अव्यभिचारिणी अनन्य भक्ति, और पूर्ण समर्पण | गुरुकृपा भी तभी होती है जब निष्ठापूर्वक पूर्ण समर्पण हो, अन्यथा नहीं|
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"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
"तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत| तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्||१८:६२||"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
"न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः| भविता न च मे तस्मा-दन्यःप्रियतरो भुवि||१८:६९||"
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम||१८:७८||"
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ मार्च २०१९

मैं और मेरे परम मित्र जीसस क्राइस्ट ..... (भाग 1)

मैं और मेरे परम मित्र जीसस क्राइस्ट .....
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यह किसी की निंदा या आलोचना नहीं हृदय की एक भावना व अनुभूति मात्र है| मेरी इन पंक्तियों से किसी की भावनाएँ आहत नहीं होनी चाहियें| मैं एक निष्ठावान हिन्दू हूँ पर किशोरावस्था से अब तक मैं जीसस क्राइस्ट का प्रशंसक भी रहा हूँ| जीसस की महिमा में मैंने फेसबुक पर तीन-चार लेख भी लिखे हैं| किशोरावस्था में ही न्यू टेस्टामेंट के सारे उपलब्ध चारों गोस्पेल पढ़ लिए थे, ओल्ड टेस्टामेंट तो बहुत बाद में पढ़ा| पर मैं कभी भी ईसाई पंथ से प्रभावित नहीं हुआ| जिस तरह से ईसाई धर्म-प्रचारकों ने भारत में व समस्त विश्व में छल-कपट वअत्याचार किये उससे मुझे इस पंथ में कोई खूबी दृष्टिगत नहीं हुई| इसे मैं क्रिस्चियनिटी नहीं बल्कि चर्चियनिटी मानता हूँ| पर जीसस से मित्रता बनी रही क्योंकि मेरी दृष्टी में उन्होंने भारत में अध्ययन कर के मूल रूप से सनातन धर्म की शिक्षाओं का ही प्रचार किया था|
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आरम्भ में भारत से जितने भी सन्यासी हिन्दू धर्मप्रचार के लिए अमेरिका गए उन्हें अपनी बात कहने के लिए जीसस क्राइस्ट का सहारा लेना ही पड़ा, अन्यथा वहाँ उनकी बात कोई नहीं सुनता| यह एक तरह की मार्केटिंग थी| ओशो उर्फ़ आचार्य रजनीश ने अमेरिका में पहली बार खुलकर जीसस की आलोचना की तो उन्हें बहुत बुरी तरह अपमानित व प्रताड़ित कर के अमेरिका से भगा दिया गया|
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सन १९८२ ई.में मैं नीदरलैंड से एक धातु की मूर्ति भी जीसस क्राइस्ट की लाया था जिसमें वे क्रॉस पर लटके हुए हैं| मेरे पूजा के कमरे में भी एक चित्र जीसस क्राइस्ट का लगा हुआ है| भारत के कई हिन्दू आश्रमों में भगवान श्री कृष्ण के साथ साथ जीसस क्राइस्ट का चित्र आपको पूजा की वेदी पर मिल जाएगा| रामकृष्ण मिशन के आश्रमों में तो माँ काली की मूर्ति के साथ मदर टेरेसा का चित्र लगा देखकर मैं आहत भी हुआ हूँ|
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पर आजकल मुझे अनुभूत हो रहा है कि जीसस क्राइस्ट एक काल्पनिक चरित्र हैं, जिनको सेंट पॉल नाम के एक पादरी ने परियोजित किया| इनकी कल्पना सेंट पॉल के दिमाग की उपज थी जो बाद में एक राजनीतिक व्यवस्था बन गयी| यूरोप के शासकों ने अपने उपनिवेशों व साम्राज्य का विस्तार करने के लिए ईसाईयत का प्रयोग किया| उनकी सेना का अग्रिम अंग चर्च होता था| रोम के सम्राट कांस्टेंटाइन द ग्रेट ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए ईसाईयत का सबसे आक्रामक प्रयोग किया| कांस्टेंटिनोपल यानि कुस्तुन्तुनिया उसी ने बसाया था जो आजकल इस्तांबूल के नाम से जाना जाता है| यूरोप का सब से बड़ा धर्मयुद्ध (ईसाइयों व मुसलमानों के मध्य) वहीं लड़ा गया था| कांस्टेंटाइन द ग्रेट एक सूर्योपासक था इसलिए उसी ने रविवार को छुट्टी की व्यवस्था की| उसी ने यह तय किया कि जीसस क्राइस्ट का जन्म २५ दिसंबर को हुआ, क्योंकी उन दिनों उत्तरी गोलार्ध में सबसे छोटा दिन २४ दिसंबर को होता था, और २५ दिसंबर को सबसे पहिला बड़ा दिन होता था| आश्चर्य की बात यह है कि ईसाई पंथ का यह सबसे बड़ा प्रचारक स्वयं ईसाई नहीं बल्कि एक सूर्योपासक था| अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए उसने ईसाईयत का उपयोग किया| मृत्यु शैय्या पर जब वह मर रहा था तब पादरियों ने बलात् उसका बपतिस्मा कर के उसे ईसाई बना दिया|
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ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं जिनसे किसी को आहत नहीं होना चाहिए| मुझे तो यही अनुभूत होता है कि जीसस क्राइस्ट का कभी जन्म ही नहीं हुआ था, और उनके बारे में लिखी गयी सारी कथाएँ काल्पनिक हैं| उनके जन्म का कोई प्रमाण नहीं है| यदि वे थे भी तो उनकी मूल शिक्षाएँ भगवान श्रीकृष्ण की ही शिक्षाएँ थीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मार्च २०१९
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पुनश्चः :----
जीसस क्राइस्ट के नाम पर ही योरोपीय साम्राज्य विस्तार के लिए वेटिकन के आदेश से वास्कोडिगामा को यूरोप के पूर्व में, और कोलंबस को पश्चिम में भेजा गया था|
यूरोप से गए ईसाईयों ने ही दोनों अमेरिकी महाद्वीपों के प्रायः सभी करोड़ों मनुष्यों की ह्त्या कर के वहाँ योरोपीय लोगों को बसा दिया| वहां के जो बचे-खुचे मूल निवासी थे उन्हें बड़ी भयानक यातनाएँ देकर ईसाई बना दिया गया| कालान्तर में यही काम ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड में किया गया|
पुर्तगालियों ने यही काम गोवा में किया| गोवा में यदि कुछ हिन्दू बचे हैं तो वे भगवान की कृपा से ही बचे हैं| अंग्रेजों ने भी चाहा था सभी भारतवासियों की ह्त्या कर यहाँ सिर्फ अंग्रेजों को ही बसा देना| पर भगवान की यह भारत पर कृपा थी कि अंग्रेजों को इस कार्य में सफलता नहीं मिली| मुस्लिम शासकों ने अत्याचार करना ईसाई प्रचारकों से ही सीखा| ईसाइयों ने जितने अत्याचार और छल-कपट किया है उतना तो ज्ञात इतिहास में किसी ने भी नहीं किया|

जब राष्ट्र की अस्मिता खतरे में है ....

राष्ट्र की अस्मिता यानि हमारे धर्म व अस्तित्व पर जब मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं, तब हमारा सर्वोपरी धर्म अपनी अस्मिता यानि धर्म और राष्ट्र की रक्षा करना है| हमें कोई मुक्ति नहीं चाहिए| हम तो नित्यमुक्त है, सारे बंधन भ्रम हैं| नित्यमुक्त को मुक्ति की कैसी कामना?
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इस राष्ट्र का ब्रह्मतेज और क्षात्रत्व हम जागृत करेंगे, यह हम सब का संकल्प है| इस राष्ट्र को अन्धकार व असत्य से मुक्त करायेंगे| हम जीयेंगे तो स्वाभिमान और आत्म-गौरव से, अन्यथा नहीं रहेंगे|
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इस लोकसभा के चुनाव में हम खुलकर राष्ट्रवाद का साथ देंगे, क्योंकि हमारा विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प है कि भारतमाता अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बिराजमान हों, सनातन धर्म का पुनरोत्थान हो, व राम-राज्य की स्थापना हो|
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जय जननी जय भारत ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०१९

संध्याकाळ ---

संध्याकाल ..... 
दो श्वासों के मध्य का संधिकाल "संध्या" कहलाता है जो परमात्मा की उपासना का सर्वश्रेष्ठ अबूझ मुहूर्त है| लौकिक रूप से तो संध्याकाल .... प्रातः, सायं, मध्यरात्री और मध्याह्न में आता है, पर एक भक्त के लिए प्रत्येक प्रश्वास और निःश्वास, व निःश्वास और श्वास के मध्य का समय "संध्याकाल" है| हर श्वास पर परमात्मा का स्मरण होना चाहिए क्योंकि परमात्मा स्वयं ही सभी प्राणियों के माध्यम से साँसें ले रहे हैं, यह उनका प्राणियों को सबसे बड़ा उपहार है| हर एक प्रश्वास जन्म है, और हर एक निःश्वास मृत्यु| इनके मध्य के संध्याकाल में सदा परमात्मा का स्मरण होना ही चाहिए| यह ही वास्तविक संध्या उपासना है|
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एक सूक्ष्म श्वास आज्ञाचक्र से ऊपर भी चलता है जो परमात्मा की कृपा से ही समझा जा सकता है| नाक से नाभि तक इस भौतिक देह में जो सांस चलता है वह सूक्ष्म देह में डोल रहे प्राण-तत्व की प्रतिक्रिया मात्र है| प्राण-तत्व को भी परमात्मा की कृपा द्वारा ही समझा जा सकता है| जब प्राण-तत्व का डोलना बंद हो जाता है तब प्राणी की भौतिक मृत्यु हो जाती है| यह प्राण-तत्व हमें मेरुदंड में सुषुम्ना, तत्पश्चात आज्ञाचक्र से ऊपर उत्तरा-सुषुम्ना में अनुभूत होता है| इसके बाद की भी अवस्थाएँ हैं जो अनुभूतियों द्वारा परमात्मा की कृपा से ही समझ में आती हैं जिनका यहाँ वर्णन व्यर्थ है|
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हमारा मन जब मूलाधार व स्वाधिष्ठान केन्द्रों में ही रहता है तब वह धर्म की हानि है| हर श्वास में ईश्वरप्रणिधान का सहारा लेकर आज्ञाचक्र तक व उससे ऊपर उठना धर्म का अभ्युत्थान है|
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गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में मनुष्य देह को इस संसार सागर को पार करने की नौका, गुरु को कर्णधार, व अनुकूल वायु को परमात्मा का अनुग्रह बताया है| मैं वहीं से संकलित कर के इसे उद्धृत कर रहा हूँ .....
" बड़ें भाग मानुष तनु पावा | सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा ||
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा | पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ||
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्‍या दोष लगाइ॥
एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
सार की बात यह कि जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है| ये भगवान श्रीराम के वचन हैं|
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ये अनुकूल वायु हमारी साँसें ही हैं| इनके संध्याकाल में परमात्मा सदा हमारी चेतना में रहें| आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०१९
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पुनश्चः :--- यह एक रहस्य की बात है जिसे सभी को जानना चाहिए कि जब दोनों नासिका छिद्रों से सांस चल रही हो, तब वह परमात्मा की साधना का सर्वश्रेष्ठ समय है| वह समय भी एक संधिकाल ही है| दोनों नासिका छिद्रों से सांस बराबर चलती रहे इस के लिए हठयोग में अनेक क्रियाएँ सिखाई जाती हैं|
आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में सभी सिद्धियों का निवास है| इन सिद्धियों का मोह छूट जाए इसके लिए सहस्त्रार में श्रीगुरु-चरणों का ध्यान करना होता है| सहस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है|
ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता .... परमशिव है| वहाँ स्थित होकर जीव स्वयं शिव हो जाता है| कुण्डलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन ही योग है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२२ मार्च २०१९

पुनर्जन्म न हो, इस पर एक लघु चर्चा .....

पुनर्जन्म न हो, इस पर एक लघु चर्चा .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन | मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८:१६||
अर्थात ... हे अर्जुन ब्रह्म लोक तक के सब लोग पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं| परन्तु हे कौन्तेय मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता||
जिसमें प्राणी उत्पन्न होते और निवास करते हैं, उसका नाम भुवन है| ब्रह्मलोक ब्रह्मभुवन कहलाता है| भगवान के अनुसार ब्रह्मलोक सहित समस्त लोक पुनरावर्ती हैं| अर्थात् जिनमें जाकर फिर संसार में जन्म लेना पड़े ऐसे हैं| परंतु केवल भगवान के प्राप्त होनेपर फिर पुनर्जन्म नहीं होता|
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एक ग्रन्थ में लिखा है .... "रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते|"
अर्थात् शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इस शरीर रूपी रथ में सूक्ष्म आत्मा को कैसे देखे?
इसका उत्तर बड़ा कठिन है| जो लोग दीर्घकाल तक गहन ध्यान साधना करते हैं, वे ही निजानुभूतियों से इसे समझ सकते हैं| मुझे यह विषय बहुत अच्छी तरह समझ में आता है पर किसी जिज्ञासु को समझाने में असमर्थ हूँ, क्योंकि यह बुद्धि का नहीं बल्कि अनुभूति का विषय है जिसे अनुभूतियों द्वारा ही समझा जा सकता है|
इसका अर्थ वही समझ सकता है जो कूटस्थ में ज्योति, अक्षर और स्पंदन के लय को सदा अनुभूत करता है| इसे लययोग भी कहते हैं| अपना संपूर्ण ध्यान ब्रह्मरंध पर केंद्रित करके ब्रह्म में लीन हो जाना "लय योग ध्यान" है| इसमें नादानुसन्धान, आत्म-ज्योति-दर्शन और कुण्डलिनि-जागरण करना पड़ता है| इसे क्रियायोग भी कहते हैं जिसे किसी सिद्ध गुरु से ही सीखना चाहिए, हर किसी से नहीं|
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हम झूले में ठाकुर जी को झूला झुला कर उत्सव मनाते हैंं, यह तो प्रतीकात्मक है| पर वास्तविक झूला तो कूटस्थ में है जहाँ सचमुच आत्मा की अनुभूति .... ज्योति, नाद व स्पंदन के रूप में होती है| तब सौ काम छोड़कर भी उस में लीन हो जाना चाहिए| यह स्वयं में एक उत्सव है| ज्योति, नाद व भगवत-स्पंदन की अनुभूति होने पर पूरा अस्तित्व आनंद से भर जाता है जैसे कोई उत्सव हो| यही ठाकुर जी को झूले में डोलाना है|
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तंत्र शास्त्रों में इसे दूसरे रूप में समझाया गया है....
"पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले |
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते ||" (तन्त्रराज तन्त्र).
अर्थात् पीये, और बार बार पीये जब तक भूमि पर न गिरे| उठ कर जो फिर से पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
यह एक बहुत ही गहरा ज्ञान है जिसे एक रूपक के माध्यम से समझाया गया है| यह क्रियायोग विज्ञान है|
आचार्य शंकर ने "सौंदर्य लहरी" के आरम्भ में ही भूमि-तत्त्व के मूलाधारस्थ कुण्डलिनी के सहस्रार में उठ कर परमशिव के साथ विहार करने का वर्णन किया है| विहार के बाद कुण्डलिनी नीचे भूमि तत्त्व के मूलाधार में वापस आती है| बार बार उसे सहस्रार तक लाकर परमेश्वर से मिलन कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता|
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सार : जिस विषय की चर्चा मैनें छेड़ी है उसकी साधना और अभ्यास में ही सार्थकता है| इस विषय में सिद्ध गुरु से दीक्षा लेकर उनके सान्निध्य में ही साधना करनी चाहिए|
आप सब महान आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ मार्च २०१९

होली की दारुण रात्रि .....

होली की दारुण रात्रि .....
आध्यात्मिक साधना और मंत्र सिद्धि के लिए चार रात्रियों का बड़ा महत्त्व है| ये हैं .... कालरात्रि (दीपावली), महारात्रि (महाशिवरात्रि), मोहरात्रि (जन्माष्टमी). और दारुण रात्रि (होली)| होली की रात्रि दारुणरात्रि है जो मन्त्र सिद्धि के लिए सर्वश्रेष्ठ है| इस रात्रि को किया गया ध्यान, जप-तप, भजन ... कई गुणा अधिक फलदायी होता है| दारुणरात्रि को की गयी मंत्रसाधना बहुत महत्वपूर्ण और सिद्धिदायी है| अनिष्ट शक्तियों से रक्षा, रोग निवारण, शत्रु बाधा, ग्रह बाधा आदि समस्त नकारात्मक बाधाओं के निवारण के लिए किसी आध्यात्मिक रक्षा कवच की साधना करने के इस अवसर का लाभ अवश्य उठाना चाहिए|
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भौतिक देह की चेतना से ऊपर उठने की साधना वैसे तो नित्य करनी चाहिए पर होली पर मिले इस सुअवसर का लाभ उठाना चाहिए|आत्म-विस्मृति ही सब दुःखों का कारण है| इस दारुणरात्रि को गुरु प्रदत्त विधि से अपने आत्म-स्वरुप यानि सर्वव्यापी परमात्मा का ध्यान करें| इस रात्रि में सुषुम्ना का प्रवाह प्रबल रहता है अतः निष्ठा और भक्ति से सिद्धि अवश्य मिलेगी| इस सुअवसर का सदुपयोग करें और समय इधर उधर नष्ट करने की बजाय आत्मज्ञान ही नहीं बल्कि धर्म और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए भी साधना करें| धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए एक विराट आध्यात्मिक शक्ति के जागरण की हमें आवश्यकता है| यह कार्य हमें ही करना पड़ेगा| अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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इस अवसर पर एक बार गीता के आत्मसंयमयोग का कुछ स्वाध्याय कर लेते हैं| भगवान कहते हैं ....
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यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||
भावार्थ : परमात्मा को प्राप्त करके वह योग में स्थित मनुष्य परम आनन्द को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भारी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है।
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तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्| स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा||६:२३||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये कि दृड़-विश्वास के साथ योग का अभ्यास करते हुए सभी सांसारिक संसर्ग से उत्पन्न दुखों से बिना विचलित हुए योग समाधि में स्थित रहकर कार्य करे।
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सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः| मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ||६:२४||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये मन से उत्पन्न होने वाली सभी सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण-रूप से त्याग कर और मन द्वारा इन्द्रियों के समूह को सभी ओर से वश में करे।
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शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया| आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ||६:२५||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे।
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यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ | ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ||६:२६||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे।
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प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ | उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ||६:२७||
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य का मन जब परमात्मा में एक ही भाव में स्थिर रहता है और जिसकी रज-गुण से उत्पन्न होने वाली कामनायें भली प्रकार से शांत हो चुकी हैं, ऎसा योगी सभी पाप-कर्मों से मुक्त होकर परम-आनन्द को प्राप्त करता है।
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युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः| सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते||६:२८||
भावार्थ : इस प्रकार योग में स्थित मनुष्य निरन्तर योग अभ्यास द्वारा सभी प्रकार के पापों से मुक्त् होकर सुख-पूर्वक परब्रह्म से एक ही भाव में स्थिर रहकर दिव्य प्रेम स्वरूप परम-आनंद को प्राप्त करता है।
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सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि| ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः||६:२९||
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव से देखने वाला होता है।
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यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
भावार्थ : जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है।
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सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः| सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ||६:३१||
भावार्थ : योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणीयों के हृदय में मुझको स्थित देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव मुझमें ही स्थित रहता है |
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आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन| सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः||६:३२||
भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान सभी प्राणीयों को देखता है, सभी प्राणीयों के सुख और दुःख को भी एक समान रूप से देखता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना चाहिये।
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आप सब को नमन और होली की हार्दिक शुभ कामनाएँ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मार्च २०१९

दूसरों के घर के दीपक बुझाकर कोई स्वयं के घर में प्रकाश नहीं कर सकता ....

दूसरों के घर के दीपक बुझाकर कोई स्वयं के घर में प्रकाश नहीं कर सकता| शांति का मार्ग जो भगवान् ने बताया है वह यह है ....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति | तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||"
श्रुति भगवती भी कहती है ..... "एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति |"
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विश्व के अनेक लोग जो स्वयं तो शान्ति से रहना नहीं जानते, पर अपनी शान्ति की खोज धर्म के नाम पर दूसरों के प्रति घृणा, दूसरों की सभ्यताओं के विनाश, और दूसरों के नरसंहार में ही ढूँढते रहे हैं| ऐसे ही नरसंहारों का शिकार भारत बहुत लम्बे समय तक रहा है| ऐसे ही लोग इस संसार को नष्ट करने के लिए तत्पर हैं| दूसरों से घृणा कर के या दूसरों का गला काट कर हम परमात्मा को प्रसन्न नहीं कर सकते|
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सभी में हम परमात्मा का दर्शन करें| साथ साथ आतताइयों से स्वयं की रक्षा और राष्ट्ररक्षा के लिए एकजुट होकर प्रतिरोध और युद्ध करने के धर्म का पालन भी करें| अपना हर कार्य और अपनी हर सोच निज विवेक के प्रकाश में हो| जिस भी परिस्थिति में हम हैं, उस परिस्थिति में सर्वश्रेष्ठ कार्य हम क्या कर सकते हैं, वह हम ईश्वर प्रदत्त निज विवेक से निर्णय लेकर ही करें| जहाँ संशय हो वहाँ भगवान से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करें| हम मिल जुल कर प्रेम से रहेंगे तो सुखी रहेंगे | श्रुति भगवती कहती है ....
"संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् | देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ||"
अर्थात् हम सब एक साथ चलें, एक साथ बोले , हमारे मन एक हो |
प्रााचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय हैं|
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ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
१८ मार्च २०१९

Tuesday, 19 March 2019

हमारी हर साँस ही "ब्रह्मसूत्र" है .....

हमारी हर साँस ही "ब्रह्मसूत्र" है .....

भ्रूमध्य में जब अवधान रहता है तब अनुभूति होती है कि हर कार्य मैं नहीं, बल्कि परमात्मा ही कर रहे हैं| यह शरीर जो साँसें लेता है, वह भी परमात्मा ही ले रहे हैं| पूरी सृष्टि और स्वयं परमात्मा ही इस देह के माध्यम से सांस ले रहे हैं| हर सांस में प्रभु को प्रेम करो| हर सांस द्वारा स्वयं को उन्हें समर्पित करने का भाव रखो| यह सांस ही वह सूत्र है जो हमें ब्रह्म से जोड़ रहा है, अतः यह सांस ही ब्रह्मसूत्र है|
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वैसे उपनिषद्, भगवदगीता एवं ब्रह्मसूत्र..... इन तीनों को प्रस्थान-त्रयी कहा जाता है| इसमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं| ब्रह्म सूत्रों को न्याय प्रस्थान कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है|
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एक साधक/उपासक के नाते मेरे लिए हर साँस ही ब्रह्मसूत्र है क्योंकि वह मुझे परमात्मा का बोध कराती है| हर सांस के साथ साथ सुषुम्ना में जो प्राण-तत्व बह रहा है, वह मुझे निरंतर परमात्मा की ओर धकेल रहा है| उस प्राण-तत्व के साथ किया गया क्रिया-योग ही मेरे लिए "वेदपाठ" है|
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गुरु महाराज का मुझ में विलय हो गया है, वे मुझ से पृथक नहीं है| सहस्त्रार की ज्योति ही गुरु पद है, और अनंत महाकाश के ज्योतिर्मय सूर्यमंडल में स्थित परम-पुरुष परमशिव ही मेरे उपास्य देव और मेरा स्वयं का अस्तित्व भी है| वे ही मेरे सर्वस्व हैं, मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| वह कूटस्थ सूर्यमंडल ही मेरा सर्वस्व है|
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कई ज्ञान की बाते हैं जिन्हें लिखने का मुझे आदेश नहीं है| कभी आदेश होगा तो फिर लिखूँगा|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ मार्च २०१९

हमारा वर्तमान जीवन अनंत कालखंड में एक छोटा सा पड़ाव मात्र है ....

हमारा वर्तमान जीवन अनंत कालखंड में एक छोटा सा पड़ाव मात्र है| इस अल्पकाल की तुच्छ चेतना से ऊपर उठकर हम प्रभु की अनंतता, प्रेम और सर्वव्यापकता बन सकें, काल का कोई बंधन न रहे| भगवान का ध्यान ही वास्तविक और एकमात्र सत्संग है| बुरे और नकारात्मक विचार हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं| भगवान की चेतना ही हमारा वास्तविक घर है|
श्रीअरविन्द के शब्दों में -----
"उस कार्य को करने के लिए ही हमने जन्म किया ग्रहण, कि जगत को उठा प्रभु तक ले जाएँ, उस शाश्वत प्रकाश में पहुँचाएँ, और प्रभु को उतार जगत पर ले आएँ, इसलिए हम भू पर आये कि इस पार्थिव जीवन को दिव्य जीवन में कर दें रुपान्तरित |"
"जहाँ है श्रद्धा वहाँ है प्रेम, जहाँ है प्रेम वहीं है शांति| जहाँ होती है शांति, वहीँ विराजते हैं ईश्वर| और जहाँ विराजते हैं ईश्वर, वहाँ किसी की आवश्यकता ही नहीं|"
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भगवान कहते हैं .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति | तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||"
श्रुति भगवती भी कहती है ..... "एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति |"
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सभी में हम परमात्मा का दर्शन करें| साथ साथ आतताइयों से स्वयं की रक्षा और राष्ट्ररक्षा के लिए एकजुट होकर प्रतिरोध और युद्ध करने के धर्म का पालन भी करें| अपना हर कार्य और अपनी हर सोच निज विवेक के प्रकाश में हो| जिस भी परिस्थिति में हम हैं, उस परिस्थिति में सर्वश्रेष्ठ कार्य हम क्या कर सकते हैं, वह हम ईश्वर प्रदत्त निज विवेक से निर्णय लेकर ही करें| जहाँ संशय हो वहाँ भगवान से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करें| हम मिल जुल कर प्रेम से रहेंगे तो सुखी रहेंगे | श्रुति भगवती कहती है ....
"संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् | देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ||"
अर्थात् हम सब एक साथ चलें, एक साथ बोले , हमारे मन एक हो | 

प्रााचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय हैं|

जय जननी जय भारत, जय श्री राम |
कृपा शंकर
१८ मार्च २०१९

विचित्र विदाई ...

विचित्र विदाई .... (गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस से संकलित) .....
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लंका के युद्ध के पश्चात भगवान श्रीराम जब बापस अयोध्या आये तब ब्रह्मानंद में मग्न ये सारे वानर वहीं बैठ गए, बापस जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे| इस तरह छः महीने व्यतीत हो गए| वे लोग अपने घर ही भूल गए| स्वप्न में भी उन्हें अपने घर की याद नहीं आती थी| 
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तब एक दिन भगवान श्रीराम ने सबको अपने पास बुलाया| सब ने आदर साहिर सर नवाया| भगवान श्रीराम ने सबको अपने पास बैठाकर कोमल वचन बड़े प्रेम से कहे कि तुम लोगों ने मेरी बड़ी सेवा की है| मुँह पर किस प्रकार तुम्हारी बड़ाई करूँ? मेरे हित के लिए तुम लोगों ने घरों को तथा सब प्रकार के सुखों को त्याग दिया| इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय लग रहे हो| छोटे भाई, राज्य, संपत्ति, जानकी, अपना शरीर, घर, कुटुम्ब और मित्र .... ये सभी मुझे प्रिय हैं, परंतु तुम्हारे समान नहीं| मैं झूठ नहीं कहता, यह मेरा स्वभाव है| सेवक सभी को प्यारे लगते हैं, यह नीति (नियम) है| (पर) मेरा तो दास पर (स्वाभाविक ही) विशेष प्रेम है| हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ, वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करने वाला जानकर अत्यंत प्रेम करना|
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प्रभु के वचन सुनकर सब के सब प्रेममग्न हो गए| हम कौन हैं और कहाँ हैं? यह देह की सुध भी भूल गई| वे प्रभु के सामने हाथ जोड़कर टकटकी लगाए देखते ही रह गए| अत्यंत प्रेम के कारण कुछ कह नहीं सकते| प्रभु ने उनका अत्यंत प्रेम देखा, (तब) उन्हें अनेकों प्रकार से विशेष ज्ञान का उपदेश दिया| प्रभु के सम्मुख वे कुछ कह नहीं सकते। बार-बार प्रभु के चरणकमलों को देखते हैं| तब प्रभु ने अनेक रंगों के अनुपम और सुंदर गहने-कपड़े मंगवाये| सबसे पहले भरतजी ने अपने हाथ से सँवारकर सुग्रीव को वस्त्राभूषण पहनाये| 
फिर प्रभु की प्रेरणा से लक्ष्मणजी ने विभीषणजी को गहने-कपड़े पहनाए, जो श्री रघुनाथजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे| अंगद बैठे ही रहे, वे अपनी जगह से हिले तक नहीं| उनका उत्कट प्रेम देखकर प्रभु ने उनको नहीं बुलाया| जाम्बवान्‌ और नील आदि सबको श्री रघुनाथजी ने स्वयं भूषण-वस्त्र पहनाए| वे सब अपने हृदयों में श्री रामचंद्रजी के रूप को धारण करके उनके चरणों में मस्तक नवाकर चले गए|
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तब अंगद उठकर सिर नवाकर, नेत्रों में जल भरकर और हाथ जोड़कर अत्यंत विनम्र तथा मानो प्रेम के रस में डुबोए हुए (मधुर) वचन बोले .....हे सर्वज्ञ! हे कृपा और सुख के समुद्र! हे दीनों पर दया करने वाले! हे आर्तों के बंधु! सुनिए! हे नाथ! मरते समय मेरा पिता बालि मुझे आपकी ही गोद में डाल गया था| अतः हे भक्तों के हितकारी! अपना अशरण-शरण विरद (बाना) याद करके मुझे त्यागिए नहीं| मेरे तो स्वामी, गुरु, पिता और माता सब कुछ आप ही हैं| आपके चरणकमलों को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ? हे महाराज! आप ही विचारकर कहिए, प्रभु (आप) को छोड़कर घर में मेरा क्या काम है? हे नाथ! इस ज्ञान, बुद्धि और बल से हीन बालक तथा दीन सेवक को शरण में रखिए| मैं घर की सब नीची से नीची सेवा करूँगा और आपके चरणकमलों को देख-देखकर भवसागर से तर जाऊँगा| ऐसा कहकर वे श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े (और बोले-) हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए| हे नाथ! अब यह न कहिए कि तू घर जा|
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अंगद के विनम्र वचन सुनकर करुणा की सीमा प्रभु श्री रघुनाथजी ने उनको उठाकर हृदय से लगा लिया| प्रभु के नेत्र कमलों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया| तब भगवान्‌ ने अपने हृदय की माला, वस्त्र और मणि (रत्नों के आभूषण) बालि पुत्र अंगद को पहनाकर और बहुत प्रकार से समझाकर उनकी विदाई की| भक्त की करनी को याद करके भरतजी छोटे भाई शत्रुघ्नजी और लक्ष्मणजी सहित उनको पहुँचाने चले| अंगद के हृदय में थोड़ा प्रेम नहीं है (अर्थात्‌ बहुत अधिक प्रेम है)| वे फिर-फिरकर श्री रामजी की ओर देखते हैं और बार-बार दण्डवत प्रणाम करते हैं| मन में ऐसा आता है कि श्री रामजी मुझे रहने को कह दें| वे श्री रामजी के देखने की, बोलने की, चलने की तथा हँसकर मिलने की रीति को याद कर-करके सोचते हैं| किंतु प्रभु का रुख देखकर, बहुत से विनय वचन कहकर तथा हृदय में चरणकमलों को रखकर वे चले| अत्यंत आदर के साथ सब वानरों को पहुँचाकर भाइयों सहित भरतजी लौट आए|
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तब हनुमान्‌जी ने सुग्रीव के चरण पकड़कर अनेक प्रकार से विनती की और कहा- हे देव! दस (कुछ) दिन श्री रघुनाथजी की चरणसेवा करके फिर मैं आकर आपके चरणों के दर्शन करूँगा| (सुग्रीव ने कहा-) हे पवनकुमार! तुम पुण्य की राशि हो (जो भगवान्‌ ने तुमको अपनी सेवा में रख लिया)| जाकर कृपाधाम श्री रामजी की सेवा करो| सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल पड़े| अंगद ने कहा- हे हनुमान्‌ ! सुनो ..... मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, प्रभु से मेरी दण्डवत्‌ कहना और श्री रघुनाथजी को बार-बार मेरी याद कराते रहना|
ऐसा कहकर बालिपुत्र अंगद चले, तब हनुमान्‌जी लौट आए और आकर प्रभु से उनका प्रेम वर्णन किया। उसे सुनकर भगवान्‌ प्रेममग्न हो गए|
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(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! श्री रामजी का चित्त वज्र से भी अत्यंत कठोर और फूल से भी अत्यंत कोमल है| तब कहिए, वह किसकी समझ में आ सकता है? फिर कृपालु श्री रामजी ने निषादराज को बुला लिया और उसे भूषण, वस्त्र प्रसाद में दिए (फिर कहा-) अब तुम भी घर जाओ, वहाँ मेरा स्मरण करते रहना और मन, वचन तथा कर्म से धर्म के अनुसार चलना| तुम मेरे मित्र हो और भरत के समान भाई हो| अयोध्या में सदा आते-जाते रहना| यह वचन सुनते ही उसको भारी सुख उत्पन्न हुआ| नेत्रों में (आनंद और प्रेम के आँसुओं का) जल भरकर वह चरणों में गिर पड़ा| फिर भगवान्‌ के चरणकमलों को हृदय में रखकर वह घर आया और आकर अपने कुटुम्बियों को उसने प्रभु का स्वभाव सुनाया| श्री रघुनाथजी का यह चरित्र देखकर अवधपुरवासी बार-बार कहते हैं कि सुख की राशि श्री रामचंद्रजी धन्य हैं|
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श्रीरामचंद्रजी के राज्य पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता| श्री रामचंद्रजी के प्रताप से सबकी विषमता (आंतरिक भेदभाव) मिट गई| सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेद मार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं| उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक है और न कोई रोग ही सताता है|
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भगवान श्रीराम की जय ! इस धरा पर उनका राज्य एक बार फिर से स्थापित हो| जय श्रीराम!

गुरुकृपा है या नहीं, इसका क्या मापदंड है?

गुरुकृपा है या नहीं, इसका क्या मापदंड है? हम कहते हैं ... गुरुकृपा ही केवलम् | पर इसका कैसे पता चले कि हम पर गुरुकृपा है या नहीं? मेरी तो मान्यता है कि यदि गुरु के उपदेश / वेद-वाक्यों के अनुसार हमारा आचरण है तभी हमारे ऊपर गुरु कृपा है, अन्यथा नहीं| यदि हमारा आचरण ही गुरु के उपदेशों के विपरीत है, वेद-वाक्यों को हम अपने जीवन में नहीं उतार पा रहे हैं, तो हम पर कोई गुरु-कृपा नहीं है| यदि गुरु के उपदेश वेद-विरुद्ध है तो वह गुरु भी त्याज्य है|
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पूजा तो गुरु-पादुका की होती है, गुरु के देह की नहीं| गुरु तो तत्व है देह नहीं| मेरा तो यह मानना है कि गुरु का स्वयं में विलय ही गुरु-पूजा है| गुरु के देह की पूजा तो गुरु की ह्त्या के बराबर है| यदि गुरु में कोई दोष है, तो उसका फल वह स्वयं भुगतेगा, हम इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं| हमारा समर्पण तो गुरु के वेदानुकूल वचनों/उपदेशों के प्रति है, उस की देह के प्रति नहीं| हमारा समर्पण ही हमें इस संसार-सागर / माया-मोह से पार करेगा, गुरु नहीं| 

१८ मार्च २०१९ 

सब कुछ तो गीता और उपनिषदों में पहले से ही लिखा है ....

जब मैं कुछ भी लिखता हूँ तब लगता है कि वह सब कुछ तो गीता में और उपनिषदों में पहले ही विस्तार से लिखा है| जिसमें भी जिज्ञासा होगी वह गीता का स्वाध्याय करेगा| रामचरितमानस में भी धर्म के तत्वों को बहुत ही सरल भाषा में समझाया गया है, जिसे कोई भी समझ सकता है| एक और विवादित बात मैं कहना चाहता हूँ कि वेदों का जितना महत्त्व है उतना ही महत्व पुराणों का भी है| वेदों के रहस्यों को ही पुराणों में दृष्टान्तों के माध्यम से समझाया गया है| कुछ दिनों पूर्व प्रख्यात वैदिक विद्वान् श्री अरुण उपाध्याय जी से उनके घर पर भुवनेश्वर में भेंट हुई थी| उनकी भी यही मान्यता है कि इस युग में वेदों के बिना पुराण नहीं है और पुराणों के बिना वेद नहीं हैं|
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गीता के स्वाध्याय का सही तरीका यह है कि पहले तो मूल श्लोक को संस्कृत में पढ़ें, फिर उसका हिंदी अनुवाद ठीक से समझ कर पढ़ें| फिर भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करें और उनसे समझाने की प्रार्थना करें| एक बार और उसे इसी तरह पढ़ें| फिर भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से जो भी अर्थ समझ में आये उसे स्वीकार कर लें| सब पर भगवान श्रीकृष्ण की कृपा हो|
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"वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् | देवकीपरमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् (१)
आतसीपुष्पसंकाशम् हारनूपुरशोभितम् रत्नकण्कणकेयूरं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् (२)
कुटिलालकसंयुक्तं पूर्णचंद्रनिभाननम् विलसत्कुण्डलधरं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् (३)
मंदारगन्धसंयुक्तं चारुहासं चतुर्भुजम् बर्हिपिञ्छावचूडाङ्गं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् (४)
उत्फुल्लपद्मपत्राक्षं नीलजीमूतसन्निभम् यादवानां शिरोरत्नं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् (५)
रुक्मिणीकेळिसंयुक्तं पीतांबरसुशोभितम् अवाप्ततुलसीगन्धं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् (६)
गोपिकानां कुचद्वन्द्व कुंकुमाङ्कितवक्षसम् श्री निकेतं महेष्वासं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् (७)
श्रीवत्साङ्कं महोरस्कं वनमालाविराजितम् शङ्खचक्रधरं देवं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् (८)
कृष्णाष्टकमिदं पुण्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् | कोटिजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनष्यति||
|| इति कृष्णाष्टकम् ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ मार्च २०१९

Tuesday, 12 March 2019

शक्तिशाली की ही पूजा होती है .....

शक्तिशाली की ही पूजा होती है .....
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हम शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आर्थिक हर दृष्टी से संसार में शक्तिशाली बनें, तभी हम सम्मान से रह सकते हैं| कमजोर व्यक्ति को सदा और भी अधिक कमजोर बना कर उसका दमन और शोषण किया जाता है| भारत में आये सभी विदेशी आक्रमणकारियों ने भारतीयों को और भी अधिक बलहीन और सामर्थ्यहीन बनाने का कार्य किया| अभी भी हम उबरे नहीं हैं|
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हम स्वयं शक्तिशाली हों, हमारा समाज शक्तिशाली हो और हमारा राष्ट्र भी शक्तिशाली हो| हमारी साधना भी शक्ति की हो| भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के विफल रहने का मुख्य कारण यह था कि किसी भी भारतीय राजा के पास इतना सामर्थ्य नहीं था कि वे अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोही सैनिकों को दो समय का भोजन करा सकें और उन्हें अस्त्र-शस्त्र प्रदान कर सकें|
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रक्षात्मक युद्ध सदा हारे जाते हैं| भारत पर आये विदेशी आक्रान्ताओं ने लूट-खसोट, वीभत्स नरसंहार और अत्याचारों से ही पैसा जुटाया| अँगरेज़ भारत छोड़कर इसी लिए भागे क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध ने उनको शक्तिहीन बना दिया था और भारतीय सैनिकों ने उनके आदेश मानने से मना कर दिया था| विजयी हम तभी हो सकते हैं, जब हम रक्षात्मक न होकर आक्रामक हों, और पूरी क्षमता से संपन्न हों| हमारे में इतना सामर्थ्य हो कि हम शत्रु के घर में घुस कर उसका संहार कर सकें| भारत ने शताब्दियों के बाद पहली बार यह साहस जुटाया है| इसके लिए मैं भारत के वर्त्तमान नेतृत्व को साधुवाद देता हूँ|
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ॐ तत्सत् !
१२ मार्च २०१९

चीन के बारे में मेरे कुछ विचार .....

चीन के बारे में मेरे कुछ विचार .....
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सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है|
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो| (रामधारीसिंह दिनकर)
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बचपन में एक कविता हमारी चौथी या पांचवी कक्षा में थी ....
"उड़न खटोले उड़न खटोले चीन देश पहुंचा दे आज,
जहां किसानों मजदूरों ने बना लिया है अपना राज |"

यह दिखाता है कि सन १९५० के दशक में चीन के पक्ष में भारत में कितना अधिक असंतुलित प्रचार था| चीन के बारे में बचपन से मेरी कल्पना कुछ और ही थी| चीन ने तिब्बत पर अधिकार किया और भारत के साथ युद्ध हुआ तब विचार कुछ और ही बने| बड़े होने पर कुछ परिपक्वता आई और काफी अध्ययन किया तब विचार कुछ और ही हुए| तीन-चार बार चीन जाने का अवसर मिला, तब विचार कुछ और भी बदले| मैनें चीन की दीवार देखी भी है, उस पर और उसके आसपास खूब घूमा भी हूँ और वहाँ के कई लोगों से मिला भी हूँ| काफी कुछ वहाँ के बारे में जाना है|
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चीन के बारे में वास्तविकता यह है कि सन १९८५ तक चीन भारत से बहुत अधिक पिछड़ा हुआ देश था, वहाँ कोई विशेष विकास नहीं हुआ था| चीन में सन १९८५ से लेकर सन २००० के बीच के पंद्रह वर्षों में ही बहुत अधिक विकास हुआ और अब चीन एक विकसित देश हो गया है| अब तक तो वहाँ सब कुछ बदल गया है|
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नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पूर्व चीन की राजनीति में भारत की कोई परवाह नहीं करता था| अब भारत शक्तिशाली है, चीन के नेताओं की आँखों में आंख डाल कर देखता है, तब वहाँ भारतीयों का सम्मान बढ़ा है| वहाँ का आजीवन राष्ट्रपति शी जिनपिंग (习近平, Xi Jinping) (जन्म: १५ जून १९५३) जिसकी शक्ति किसी भी दृष्टिकोण से माओ से कम नहीं है, भारत के एक ही व्यक्ति से प्रभावित है, और वह व्यक्ति है ... श्री नरेन्द्र मोदी| ये दोनों व्यक्ति मिलकर ही सीमा-विवाद को निपटा सकते हैं|
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अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में न तो कोई किसी का मित्र है और न शत्रु| हर देश की विदेश नीति अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप बनती है| वहाँ कोई भावुकता नहीं चलती| चीन इस समय पकिस्तान के अधिक समीप अपने आर्थिक हितों के कारण है, पर भारत का सम्मान भी करता है| आशा करता हूँ कि एक न एक दिन भारत और चीन के मध्य का सीमा विवाद भी सुलझ जाएगा, पर यह भारत के और अधिक शक्तिशाली होने पर निर्भर है| भारत शक्तिशाली होगा तभी भारत का सम्मान होगा|
कृपा शंकर
१२ मार्च २०१८

भारत एक हिन्दू राष्ट्र कैसे बने ? इस विषय पर मेरे विचार .....

भारत एक हिन्दू राष्ट्र कैसे बने ? इस विषय पर मेरे विचार .....
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हिन्दू राष्ट्र एक विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प है जो परमात्मा की कृपा से ही साकार हो सकता है| इसके लिए लाखों साधकों को आध्यात्मिक साधना करनी होगी| हम हर दृष्टिकोण से शक्तिशाली बनें पर आध्यात्म की उपेक्षा नहीं कर सकते| राष्ट्र के लिए भी नित्य साधना करें| हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करने के लिए कार्य के साथ-साथ साधना का बल अर्थात ब्रह्म-तेज की भी आवश्यकता है| उसके लिए हिन्दुओं को आध्यात्मिक साधना भी करनी पड़ेगी| हिन्दुओं के पतन का मुख्य कारण उनका धर्मविषयक अज्ञान है| हिन्दुओं को यह ज्ञात नहीं है कि उनके धर्मकर्तव्य कौन से हैं| हिन्दुओं को अब उनके धार्मिक कर्तव्यों का स्मरण करवाने की, अर्थात उन्हें साधना के लिए प्रवृत्त करने की आवश्यकता है| धर्मरक्षा के लिए क्षात्रतेज के साथ-साथ ब्राह्मतेज भी आवश्यक है| यह कार्य केवल बाहुबल से नहीं हो पाएगा| इसके लिए दैवीय सामर्थ्य भी आवश्यक है| केवल शारीरिक, मानसिक अथवा बौद्धिक स्तर पर कार्य करने से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना नहीं हो पाएगी| इसके लिए आध्यात्मिक स्तर पर भी यत्न करने पडेंगे|
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जो जितना अधिक सूक्ष्म है, वह उतना अधिक शक्तिशाली है| प्राचीनकाल में धनुष पर चढाया हुआ बाण मन्त्रोच्चारण के साथ छोडा जाता था| मन्त्रोच्चारण से उस बाण पर शत्रु का नाम सूक्ष्मरूप से अंकित हो जाता था, और वह बाण, तीनों लोकों में कहीं भी छिपे हुए शत्रु को ढूंढकर मार डालता था| हमें उस शक्ति को पुनर्जागृत करने की आवश्यकता है| वह शक्ति ही ब्रह्मतेज है| हम पुराणों में ऋषि-मुनियों के शाप देने की कथाएं पढते हैं| इस शाप में संकल्प की ही शक्ति होती है| ऋषि-मुनियों को यह संकल्पशक्ति साधना से ही प्रप्त होती थी| हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए केवल शारीरिक स्तरपर यत्न करना पर्याप्त नहीं होगा, इसके लिए तो साधना से संकल्पशक्ति प्राप्त कर के कार्य करना होगा|
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कुंभ जैसे मेलों और सन्तों के सत्संग में उनके ब्रह्मतेज के कारण ही लाखों लोग श्रद्धापूर्वक स्वेच्छा से आते हैं| उन्हें बुलाने के लिए राजनीतिक दलों की भांति पैसे नहीं देने पडते अथवा वाहन की निःशुल्क व्यवस्था नहीं करनी पडती है| देश को आवश्यकता किस चीज की है और उसे कैसे साकार किया जा सकता है, इसे आजकल प्रायः सभी समझते हैं| उस दिशा में साकार कार्य करें| कई संस्थाएँ और अनेक व्यक्ति इस कार्य में लगे हुए हैं| पर उनकी संख्या बहुत कम है| देश की क्या समस्याएँ हैं और उनका समाधान क्या है, इसे बहुत लोग समझते हैं पर कार्यरूप में परिवर्तित नहीं कर पा रहे हैं| इस विषय पर मैं कई बार लेख लिख चुका हूँ|
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जो मैं करना चाहता हूँ, सब से पहले तो उसे स्वयं से ही पूर्ण मनोयोग से करने की आवश्यकता है| देश की समस्याओं को मैं बहुत अच्छी तरह समझता हूँ और उनके समाधान को भी| कमी मैं स्वयं में ही पाता हूँ, और समाधान भी स्वयं में ही है| आवश्यकता उस समाधान को और अधिक घनीभूत रूप देने की है| सृष्टिकर्ता परमात्मा की कृपा से ही हम अपनी आकांक्षाओं को साकार कर सकते हैं| हमें चाहिए एक प्रबल आध्यात्मिक शक्ति और ब्रह्मतेज जिसके लिए आध्यात्मिक साधना करनी होगी| वह आध्यात्मिक शक्ति और ब्रह्मतेज ही हमारी अभीप्साओं को घनीभूत रूप दे सकता है|

सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! हर हर महादेव ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० मार्च २०१९

Monday, 11 March 2019

परमगुरु के पुण्य स्मृतिदिवस पर श्रद्धांजलि .....

परमगुरु के पुण्य स्मृतिदिवस पर श्रद्धांजलि .....
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९ मार्च १९३६ सोमवार सायंकाल के पाँच बजने वाले थे| जगन्नाथपुरी के अपने आश्रम में ८१ वर्षीय स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने अपने नारायण नाम के एक शिष्य को आवाज दी| उनका शिष्य नारायण निरंतर सदा अपने गुरु की सेवा में तत्पर रहता था| "नारायण, मेरा आज इस संसार को छोड़ने का समय आ गया है, आज मैं इस देह को त्याग दूँगा| क्या मुझे एक गिलास जल पिला सकते हो?" अत्यंत दुखी हृदय से उनका शिष्य नारायण भाग कर जल का एक गिलास लेकर आया| हाथ में गिलास लेते ही वह फर्स पर छूट कर गिर गया| करुणा और प्रेम से भरे शब्दों में उन्होंने कहा "नारायण, तुम देख रहे हो, किस तरह मैं तुम सब से दूर ले जाया जा रहा हूँ| व्यथित मत हो, अपने गुरु के प्रति तुम्हारा प्रेम, सेवा और भक्ति अनुपम हैं| मैं तुम्हारे से पूरी तरह संतुष्ट हूँ| अपना सम्बन्ध शाश्वत रहेगा|"
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सूर्यास्त का समय था, कुछ कुछ अन्धकार होने लगा था| स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने कृतिवास नाम के एक व्यक्ति को बुलाया और आदेश दिया "कृतिवास, तुरंत पुरी के रेलवे स्टेशन पर जाकर प्रभास को सन्देश भिजवाओ कि वह कोलकाता में योगानंद को सूचित कर दे कि अब मेरा इस देह को त्यागने का समय आ गया है| योगानंद आज रात्री की रेलगाड़ी से ही पुरी आ जाए|"
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प्रभास, योगानंद जी का भतीजा था और रेलवे विभाग खड़गपुर में एक प्रशासनिक अधिकारी था| उस जमाने में टेलीफोन सेवा का आरम्भ नहीं हुआ था| टेलीफोन सेवा सिर्फ रेलवे स्टेशन से रेलवे स्टेशन तक ही हुआ करती थी| खड़गपुर में ज्यों ही प्रभास को जगन्नाथपुरी से यह सूचना मिली, उसने तुरंत कोलकाता रेलवे स्टेशन के माध्यम से योगानंद जी के पास यह सन्देश भिजवा दिया पर गुरु के देह को छोड़ने वाली बात छिपा ली|
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स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि पद्मासन लगा कर नित्य की तरह अपने आसन पर शाम्भवी मुद्रा में बैठे हुए थे| उन्होंने अपने शिष्य नारायण को आदेश दिया कि वह उनकी छाती और कमर को अपने दोनों हाथों से सहारा दे दे| शिष्य ने वैसा ही किया| स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि गहनतम समाधि की अवस्था में चले गए, उनका शरीर एकदम शांत और स्थिर था| फिर सचेतन रूप से स्वयं को अपनी देह की चेतना से मुक्त कर दिया| उनके शिष्य नारायण को अपने गुरु की देह की छाती से ब्रह्मरंध्र तक एक हल्के से स्पन्दन की सी अनुभूति हुई और एक अति धीमी सी ध्वनि भी सुनाई दी जो ॐ से मिलती जुलती थी| हतप्रभ सा हुआ उनका शिष्य नारायण उनकी शांत हुई देह की बहुत देर तक मालिश ही करता रहा|
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थोड़ी देर में कृतिवास भी रेलवे स्टेशन से लौट आया| शिष्य नारायण ने कृतिवास को वहीं बैठाया और पड़ोस में रहने वाले डॉ.दिनकर राव को बुलाने चला गया| डॉ.दिनकर राव भी स्वामीजी के शिष्य थे| डॉ.राव ने निरीक्षण कर के बताया कि आधे घंटे पूर्व ही गुरु जी का शरीर शांत हो गया था|
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स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि के शिष्य स्वामी परमहंस योगानंद गिरि जो स्वयं एक महायोगी सिद्ध संत थे सब कुछ अपनी अंतरप्रज्ञा से समझ गए और रात्री की ट्रेन से पुरी के लिए चल दिए| (आगे का घटनाक्रम "योगी कथामृत" में लिखा है).
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स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी का व्यक्तित्व अत्यधिक प्रभावशाली था| जो भी उनके संपर्क में आया वह उन की अति दिव्यता और असीम विवेक व ज्ञान से प्रभावित हुए नहीं रह पाया| उनकी लम्बी व बलिष्ठ देह, लम्बे हाथ, चौड़ा माथा, मजबूत छाती, चमकती हुई दोनों आँखें, और सफ़ेद दाढी थी| अपने आसन पर हर समय पद्मासन लगाकर शाम्भवी मुद्रा में बैठे रहते थे| उनकी देह का जन्म कोलकाता के पास श्रीरामपुर में गंगा नदी के पास हुआ था| ८१ वर्ष की आयु प्राप्त की| स्वस्थ शरीर था और जगन्नाथपुरी में स्थित अपने आश्रम में सचेतन रूप से समाधिस्थ होकर देह-त्याग किया| वे वास्तविक ज्ञानावतार थे|
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उनकी पुण्य स्मृति पर परमगुरु को कोटि कोटि नमन !
ॐ श्रीपरमगुरवे नमः || ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ मार्च २०१९

मेरी एक प्रार्थना ...

मेरी एक प्रार्थना ...
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हे मेरे आराध्य देव, मैं आपका स्मरण / मनन / चिंतन / ध्यान करने में असमर्थ हूँ| आपकी माया से पार पाना संभव नहीं है| अब आप ही मेरा उद्धार कीजिये| मैं यह देह नहीं हूँ, फिर भी इसी की सुख-सुविधा और विलास में डूबा हुआ हूँ| इस की चेतना से निकने में असमर्थ हूँ| अब आप ही अनुग्रह कर के मुझे मुक्त कीजिये| मैं आप की शरणागत हूँ| यह चेतना और सर्वस्व आप को ही समर्पित कर रहा हूँ| मेरा लक्ष्य और गति आप ही हैं| मैं इस मायावी विक्षेप और आवरण से जकड़ा हुआ हूँ, मेरी रक्षा करो| आपका ही वचन है ....
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते | अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ||
"जो एक बार भी शरणमें आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मेरेसे रक्षाकी याचना करता है| उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ’ .... यह मेरा व्रत है ||"
अब प्रभु, मैं आपकी शरण में हूँ, अपनी इस माया से मुझे मुक्त करो| मेरी रक्षा करो| मुझसे कोई साधना नहीं होती, आप ही इसे करो| आपका ही वचन है ...
"सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं | जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ||"
अब मैं आपके सन्मुख हूँ, मेरी रक्षा करो|
मुझे इतनी पात्रता दो कि मैं आपका अनन्य भक्त बन सकूं| अब आप मुझे भी अपना अनन्य भक्त बनाओ, मेरा भी योगक्षेम वहन करो| आपका ही वचन है ....
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||
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आपका वचन है ....
"अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम् |""
मैं तो सर्वथा असमर्थ हूँ| अतः आप ही करुणावश मेरा इस संसारसागर से उद्धार कर दीजिए|
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"क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर |" मुझ शरणागत की रक्षा करो|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मार्च २०१९

रामद्रोहियों का अंत होगा .....

रामद्रोहियों का अंत होगा .....
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड के श्रीहनुमान्‌ रावण संवाद में से संकलित)
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राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥3॥
रामविमुख पुरुष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है। जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है। (अर्थात्‌ जिन्हें केवल बरसात ही आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं |
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥4॥
हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि रामविमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है। हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी श्री रामजी के साथ द्रोह करने वाले तुमको नहीं बचा सकते |
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥23॥
मोह ही जिनका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी का भजन करो |

ॐ तत्सत्
८ फरवरी २०१९

धर्म और राष्ट्र की रक्षा करें .....

वर्तमान समय में धर्म और राष्ट्र पर वैश्विक जिहादी आतंकवाद के कारण आये हुए इस परम संकटकाल में धर्म और राष्ट्र की रक्षा करना हमारा सर्वोपरी धर्म है| धर्म रहेगा तभी यह राष्ट्र बचेगा, और राष्ट्र बचेगा तभी धर्म यहाँ रहेगा| हर क्षण हर कदम पर धर्म और राष्ट्र की हम रक्षा करें| वैश्विक आतंकवादी जिहाद के कारण आये हुए इस संकट से स्वयं की और राष्ट्र की रक्षा करें| अन्यथा हमारा ही अस्तित्व समाप्त हो जाएगा| वैश्विक जिहादी आतंकवाद के अतिरिक्त ईसाई धर्मांतरण, मार्क्सवाद, धर्मनिरपेक्षतावाद, तुष्टिकरण और धर्म-विहीनता भी हमें नष्ट करने पर तुली हुई हैं| स्वधर्म को न छोड़ें, उसका दृढ़ता से पालन करें| भागवान का आश्वासन है जो हमारी रक्षा करेगा ....
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते | स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ||२:४०||
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इस के लिए हर कदम पर प्रतिकार करना होगा और भक्ति व आध्यात्मिक साधना भी करनी होगी| कामवासना, लोभ और क्रोध ..... ये तीनों नरक के मुख्य द्वार है| जो भी विचारधारा इनको प्रश्रय देती है, वह भी नर्कगामी है| पुरुषार्थ से भ्रष्ट हो जाना ही आत्मा का हनन है, और यही नर्क है| पुरुषार्थ है अपने अंतःकरण (मन,बुद्धि, चित्त और अहंकार) पर पूर्ण विजय| हम अपने धर्म और राष्ट्र की रक्षा करने में समर्थ हों| भगवान हमारी रक्षा करें| ॐ ॐ ॐ !!
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वर्तमान समय में अनिष्ट आसुरी शक्तियों से रक्षा के लिए घर में एक आध्यात्मिक सुरक्षा कवच का निर्माण आवश्यक है| प्रातः सायंकाल की नियमित ध्यान साधना से, निरंतर हरि स्मरण से, पूजा-पाठ से एक रक्षा कवच का निर्माण होता है| पूजा के समय शंख में जल रखें व उस में तुलसी-पत्र हो| पूजा के उपरांत वह जल घर के दरवाजे से लेकर सभी कमरों में छिडकें| माथे पर तिलक और शिखा धारण, परमात्मा में दृढ़ आस्था, सादा जीवन उच्च विचार, भारतीय वेषभूषा, घर का सात्विक वातावरण, सात्विक आहार, नियमित दिनचर्या ..... ये सब हमारी आसुरी शक्तियों से रक्षा करते हैं| आनेवाले संकटों से बचने और बचाने के लिए आध्यात्मिक शक्ति का आवाहन व संवर्धन आवश्यक हो गया है|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ मार्च २०१९

आध्यात्मिक साधना में मार्गदर्शन की आवश्यकता .....

आध्यात्मिक साधना में सफलता के लिए किन्हीं सिद्ध ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से मार्गदर्शन बड़ा आवश्यक है, हर किसी से नहीं| मन्त्र साधना में तो यह अनिवार्य है, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है| मन्त्रयोग संहिता में आठ प्रमुख बीज मन्त्रों का उल्लेख है जो शब्दब्रह्म ओंकार की ही अभिव्यक्तियाँ हैं| लिंग पुराण के अनुसार ओंकार का प्लुत रूप नाद है| मन्त्र में पूर्णता "ह्रस्व", "दीर्घ" और "प्लुत" स्वरों के ज्ञान से आती है जिसके साथ पूरक मन्त्र की सहायता से विभिन्न सुप्त शक्तियों का जागरण होता है|
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वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाद, बिंदु, बीजमंत्र, अजपा-जप, षटचक्र साधना, योनी मुद्रा में ज्योति दर्शन, खेचरी मुद्रा, महामुद्रा, नाद व ज्योति तन्मयता और साधन क्रम आदि का ज्ञान गुरु की कृपा से ही हो सकता है| साधना में सफलता भी गुरु कृपा से ही होती है और ईश्वर लाभ भी गुरु कृपा से होता है|
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किसी भी साधना का लाभ उसका अभ्यास करने से है, उसके बारे में जानने मात्र से या उसकी विवेचना करने से कोई लाभ नहीं है| हमारे सामने मिठाई पडी है तो उसका आनंद उस को चखने और खाने में है, न कि उसकी विवेचना से| भगवान का लाभ उनकी भक्ति यानि उनसे प्रेम करने से है न कि उनके बारे में की गयी बौद्धिक चर्चा से| प्रभु के प्रति प्रेम हो, समर्पण का भाव हो और हमारे भावों में शुद्धता हो तो कोई हानि होने कि सम्भावना नहीं है| जब पात्रता हो जाती है तब गुरु का पदार्पण भी जीवन में हो जाता है|
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मेरी तो मान्यता है कि नाद से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है, आत्मानुसंधान से बड़ा कोई तंत्र नहीं है, अनंताकाश के सूर्यमंडल में व्याप्त निज आत्मा से बड़ा कोई देव नहीं है, स्थिर तन्मयता से नादानुसंधान ही परा पूजा है| उस से प्राप्त तृप्ति और आनंद ही परम सुख है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ऐं गुरवे नमः ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ मार्च २०१९

हृदय में भगवान की भक्ति को और अधिक गहनता व दृढ़ता प्रदान करें ....

हृदय में भगवान की भक्ति को और अधिक गहनता व दृढ़ता प्रदान करें ....
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किसी भी मंदिर में जहाँ ठाकुर जी की आरती विधि-विधान से होती है वहाँ नियमित रूप से आरती के समय जाने पर हृदय में भक्ति निश्चित रूप से जागृत होती है| आरती के समय बजाये जाने वाले घंटा, घड़ियाल, नगाड़े व शंख आदि की ध्वनि अनाहत चक्र पर चोट करती है| अनाहत चक्र से ही आध्यात्म का आरम्भ होता है और वहीं भक्ति का जागरण होता है| अनाहत चक्र का स्थान है मेरु दंड में ह्रदय के पीछे थोडा सा ऊपर पल्लों (shoulder blades) के बीच में|
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जो साधक नियमित रूप से ध्यान करते हैं उन्हें अनाहत चक्र के जागृत होने पर ऐसी ही ध्वनि सुनती है जो हृदय में दिव्य प्रेम की निरंतर वृद्धि करती है| उस ध्वनि की ही नक़ल कर भारत में आरती के समय मंदिरों में घंटा, घड़ियाल, नगाड़े व टाली आदि बजाने की परम्परा आरम्भ की गयी| मंदिरों में होने वाली घंटा ध्वनि भी अनाहत चक्र को आहत करती है| फिर मंदिरों के शिखर आदि के बनाने की शैली भी ऐसी होती है कि वहाँ दिव्य स्पंदन बनते हैं और खूब देर तक बने रहते है| वहाँ जाते ही शांति का आभास होता है| मंदिर में आरती के बाद कुछ देर तक ठाकुर जी के सम्मुख मेरु दंड को उन्नत रखते हुए बैठ कर अनाहत चक्र पर द्वादशाक्षरी भागवत मन्त्र का जाप करना चाहिए --- कम से कम एक माला, तीन या अधिक कर सकें तो और भी उत्तम है|
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रात्रि को सोने से पूर्व अनाहत चक्र पर खूब गहरा ध्यान या जप कर के ही सोना चाहिए| इससे दुसरे दिन प्रातः उठते समय भक्तिमय चेतना रहती है| प्रातः उठते ही पुनश्चः खूब देर तक ध्यान व जप करना चाहिए| बिना तुलसी-चरणामृत लिए प्रातःकाल कुछ भी आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए, और एकादशी का व्रत करना चाहिए| पूरे दिन प्रभु का स्मरण रखें, यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः प्रारम्भ कर दें| बिना भक्ति के हम चाहे कितनी भी यंत्रवत (mechanical) साधना कर लें, कुछ भी लाभ नहीं होगा|
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कभी ऐसे स्थान पर जाएँ जहाँ सरोवर हो या नदी के बहते हुए जल की ध्वनि आ रही हो वहाँ विशुद्धि चक्र पर (कंठकूप के पीछे गर्दन के मूल में) ध्यान करना चाहिए| इससे विशुद्धि चक्र आहत होता है और चैतन्य के विस्तार की अनुभूति होती है| ऐसे स्थान पर गहरा ध्यान करने पर यह अनुभूति शीघ्र होती है कि हम यह देह नहीं बल्कि सर्वव्यापक चैतन्य हैं|
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आज्ञाचक्र पर ध्यान करते करते प्रणव की ध्वनि (समुद्र की गर्जना जैसी) सुननी आरम्भ हो जाती है तब उसी पर ध्यान करना चाहिए|
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मूलाधारचक्र पर भ्रमर या मधुमक्खियों के गुंजन, स्वाधिष्ठानचक्र पर बांसुरी कि ध्वनि, मणिपुरचक्र पर वीणा की ध्वनि, अनाहतचक्र पर घंटे,घड़ियाल,नगाड़े आदि की मिलीजुली ध्वनि, विशुद्धिचक्र पर बहते जल की ध्वनि, और आज्ञाचक्र पर समुद्र की गर्जना जैसी ध्वनि सुनाई देती है| इन ध्वनियों से इन चक्रों की जागृति भी होती है|
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लोग मुझसे प्रश्न करते हैं कि भक्ति से क्या लाभ होगा? यदि दो पैसे का लाभ हो तो भक्ति करें अन्यथा क्यों समय नष्ट करें| भक्ति सिर्फ अपने हृदय के प्रेम की अभिव्यक्ति है, इसमें लाभ वाली कोई बात नहीं है| किसी लाभ के लिए करते हैं तो जो कुछ भी पास में है वह भी छीन लिया जाएगा| जिन लोगों के लिए भगवान एक साधन मात्र है और संसार साध्य, उन्हें इस मार्ग में आकर अपना अमूल्य समय नष्ट करने की कोई आवश्यकता नहीं है| वे संसार में अपने मजे लें|
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भक्ति-सूत्र में नारद जी कहते हैं कि भगवान के भक्त अपने कुल, जाति का ही गौरव नहीं होते वल्कि पूरे विश्व को गौरवान्वित करते हैं| ऐसे दिव्य पुरुष संसार के प्राणियों में दयाभाव व सहिष्णुता बढ़ाकर जगत की वासना को शुद्ध करते हैं| ऐसे प्राणी धरती पर चलते फिरते भगवान हैं| वे जहाँ रहते हैं वह स्थान तीर्थ बन जाता है| भक्तों के पितृगण आनंदित होते हैं, देवता नृत्य करते हैं और यह पृथ्वी इनसे सनाथ हो जाती है|
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भगवान की भक्ति के लिए किसी शुभ समय या मुहूर्त की प्रतीक्षा न करें| जब भी भगवान की याद आये वह समय सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है| अभी इसी समय से बढकर कोई और अच्छा समय हो ही नहीं सकता|अपने जीवन का केंद्रबिंदु भगवान को ही बनायें, जीवन का हर कार्य उसी की प्रसन्नता के लिए करें और उसी को कर्ता, साक्षी और दृष्टा भी बनायें| सत्संग, स्वाध्याय और सात्विक जीवन पद्धति .... दिनचर्या का अंग हो जाये| भगवान के प्रति परमप्रेम और तीब्र अभीप्सा जागृत हो जाने पर जीवन में प्रभु सद्गुरु के रूप में अवश्य आते है|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ऐं गुरवे नमः ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ मार्च २०१९
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पुनश्चः :---
मंदिरों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, उनकी पुनर्प्रतिष्ठा करनी ही पड़ेगी| मंदिर सामूहिक साधना के केंद्र हैं जहाँ अनेक लोग साधना करते हैं| वहाँ ऐसे स्पंदनों का निर्माण हो जाता है कि नवागंतुक की चेतना भी भक्ति से भर जाती है| उनकी स्थापत्य कला भी ऐसी होती है जहाँ सूक्ष्म दिव्य स्पंदनों का निर्माण और संरक्षण बहुत दीर्घकाल तक रहता है| मंदिरों में आरती व भजन पूजन, भक्तों के कल्याण के लिए होते है| विधिवत आरती के समय उपस्थित भक्तों के ह्रदय भक्ति से भर जाते हैं| ठाकुर जी को हमसे हमारे परमप्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| मंदिरों में नियमित जाने से भक्तों का आपस में मिलना जुलना होता है इससे उनमें पारस्परिक प्रेम बना रहता है| मंदिर का शिखर दूर से ही दिखाई देता है अतः इसे ढूँढने में कठिनाई नहीं होती| मंदिर के साथ धर्मशाला भी होती है ताकि आगंतुक वहां विश्राम कर सकें| प्रसाद के रूप में क्षुधा शांति की भी व्यवस्था होती है| अंग्रेजों के शासन से पूर्व मंदिरों के साथ साथ विद्यालय भी होते थे जहाँ नि:शुल्क शिक्षा दी जाती थी| अंग्रेजों ने ऐसे सभी विद्यालय नष्ट करवा दिए| मंदिरों के पुजारी व महंत धर्म-प्रचारक होते थे| हिन्दू साधू संतों के हाथ में ही मंदिरों की व्यवस्था होनी चाहिए| उन्हें फिर से धर्म-प्रचार के केन्द्रों के रूप में पुनर्प्रतिष्ठित करना ही पड़ेगा|
ॐ ॐ ॐ !!

अभ्यास योग क्या है ? ....

जिन्हें भगवान से प्रेम है और जो उपासना करना चाहते हैं, पर कर नहीं पा रहे हैं, उनके लिए भगवान ने अभ्यासयोग बताया है| कम से कम उनको थोड़ा-बहुत अभ्यास तो करते ही रहना चाहिए| भगवान कहते हैं....
"अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् | अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ||१२:९||"
अर्थात् यदि जैसे मैंने बतलाया है उस प्रकार तूँ मुझ में चित्त को अचल स्थापित नहीं कर सकता तो फिर हे धनंजय तूँ अभ्यासयोग के द्वारा चित्त को सब ओर से खींच कर बारंबार एक ही अवलम्बन में लगा कर उससे युक्त जो समाधान रूप योग है, ऐसे अभ्यास योग के द्वारा मुझ विश्वरूप परमेश्वरको प्राप्त करने की इच्छा कर|
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और कुछ नहीं कर सकें तो ऐसी इच्छा तो रखें| हर इच्छा पूरी होती है| इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में भगवान उचित वातावरण और परिस्थितियाँ प्रदान अवश्य करेंगे|

ॐ तत्सत्
५ मार्च २०१९

अंतकाल की भावना ही हमारे अगले देह की प्राप्ति का कारण होती है ......

अंतकाल की भावना ही हमारे अगले देह की प्राप्ति का कारण होती है ......
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इस लेख में भवसागर से मुक्ति का रहस्य छिपा है| जिस का कभी जन्म ही नहीं हुआ उस परमशिव के साथ जुड़कर ही हम मृत्युंजयी हो सकते हैं| फिर कभी जन्म ही नहीं होगा| अन्यथा अंतकाल की भावना ही हमारे अगले शरीर की प्राप्ति का कारण होगी| साधना के कई रहस्य हैं जो भगवान की कृपा से स्वयमेव ही समझ में आते हैं, उन्हें समझाया नहीं जा सकता| भगवान की कृपा होने पर कोई रहस्य रहस्य नहीं रहता| अतः अपने पूर्ण प्रेम से भगवान का निरंतर स्मरण करते हुए हमें अपना मन और बुद्धि भगवान को अर्पित कर देनी चाहिए| पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो या कब बुद्धि और मन काम करना बंद कर दें|
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भगवान का आदेश है ....
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ||८:७||"
अर्थात तूँ हर समय मेरा स्मरण करते हुए शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्मरूप युद्ध भी कर| इस प्रकार मुझ वासुदेव में अपने मन और बुद्धि को अर्पित करने वाला होकर तूँ मुझ को ही अर्थात् मेरे यथा-चिंतित स्वरूप को ही प्राप्त हो जायगा, इसमें संशय नहीं है|
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अंत समय में जैसी भी स्वयं की छवि अपनी कल्पना में हमारे मानस में रहती है वैसी ही देह हमें अगले जन्म में प्राप्त हो जाती है| इसीलिये हमें अपने मन और बुद्धि भगवान को अर्पित कर देने चाहिएँ| हमें भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि अंतकाल में यदि हम आपका स्मरण न कर सकें तो आप ही हमारा स्मरण कर लेना| ईशावास्योपनिषद के अंतिम मन्त्र में यही प्रार्थना की गयी है.....
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्‌ |
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ||"
अर्थात् वस्तुओं का प्राण, वायु, अमर जीवनतत्त्व है, परन्तु इस का अन्त है भस्म| ॐ हे दिव्य संकल्पशक्ति, स्मरण कर, जो किया था उसे स्मरण कर ! हे दिव्य संकल्पशक्ति, स्मरण कर, किये हुए कर्म का स्मरण कर|
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मुझे तो पूरी श्रद्धा और विश्वास है कि भगवान जैसे हर समय मुझे याद करते हैं वैसे ही इस देह के अंतकाल में भी कर ही लेंगे| यह देह तो उन्हीं की है|
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वैसे भगवान का आदेश यही है कि अंतकाल में भ्रूमध्य में ओंकार का स्मरण हो.....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||८:१०||"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः |
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्यमनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८:१३||"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः |
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ||८:१४||"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् |
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ||८:१५||"
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८:१६||"
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गीता के उपरोक्त श्लोकों में मुक्ति का रहस्य छिपा है पर इनकी घुट्टी नहीं पिलाई जा सकती| एक मुमुक्षु को इनका स्वाध्याय भी करना होगा और इन्हें अपने आचरण में भी लाना होगा| यदि गीता के उपरोक्त श्लोकों पर आचरण सही होगा तो इस भवसागर से मुक्ति भी निश्चित है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ मार्च २०१९
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पुनश्चः :---
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यही बात भगवान ने और भी कही है ....
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय| निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः||१२:८||
अर्थात् तूँ मुझ विश्वरूप ईश्वर में ही अपने संकल्प विकल्पात्मक मनको स्थिर कर और मुझ में ही निश्चय करने वाली बुद्धि को स्थिर लगा| इसके पश्चात् शरीर का पतन होनेके उपरान्त तूँ निःसन्देह एकात्म भाव से मुझ में ही निवास करेगा| इसमें कुछ भी संशय नहीं करना चाहिए|
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अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना | परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ||८:८||
अर्थात् ..... हे पृथानन्दन, अभ्यासयोगसे युक्त और अन्यका चिन्तन न करने वाले चित्त से परम दिव्य पुरुष का चिन्तन करता हुआ (शरीर छोड़नेवाला मनुष्य) उसीको प्राप्त हो जाता है|
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आचार्य शंकर के अनुसार अनन्यगामी चित्त द्वारा अर्थात् चित्तसमर्पण के आश्रयभूत एक परमात्मा में ही विजातीय प्रतीतियों के व्यवधान से रहित तुल्य प्रतीति की आवृत्ति का नाम अभ्यास है| ऐसे अभ्यासरूप योग से युक्त उस एक ही आलम्बनमें लगा हुआ विषयान्तर में न जानेवाला जो योगी का चित्त है उस चित्त द्वारा शास्त्र और आचार्य के उपदेशानुसार चिन्तन करता हुआ योगी परम निरतिशय .... दिव्य पुरुष को .... जो आकाशस्थ सूर्यमण्डल में परम पुरुष है ....उसको प्राप्त होता है|
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गजेन्द्रमोक्ष स्तोत्र की प्रथम दो पंक्तियाँ भी यही कहती हैं ....
"एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि |
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ||"

भगवान कब तक हमारी प्रतीक्षा करेंगे ?

भगवान कब तक हमारी प्रतीक्षा करेंगे ? हम क्यों उन्हें निराश कर रहे हैं ? भगवान हमें अपने साथ एक करना चाहते हैं. भक्ति और समर्पण का लक्ष्य ही स्वयं की पृथकता के बोध का विसर्जन कर, भगवान के साथ एकाकार होना है. हम भगवान को निराश नहीं कर सकते. पता नहीं कब से वे हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं.
इसी क्षण से हम अपने प्रेमास्पद प्रभु के साथ एक हैं. उनकी अनंतता ही हमारी अनंतता हैं, उनकी पूर्णता ही हमारी पूर्णता है. वे ही हमारे गुरु हैं, वे ही हमारे एकमात्र सम्बन्धी हैं और वे ही हमारे एकमात्र मित्र हैं. जो वे हैं वह ही हम हैं.
ॐ तत्सत् ! शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि ! ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव !
४ मार्च २०१८

हम जीव नहीं, परमशिव हैं .....

हम जीव नहीं, परमशिव हैं .....
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शिव तत्व का बोध अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं| इसका बोध हमें इस देह की चेतना से परे अनंताकाश में होता है| नित्य नियमित ध्यान साधना द्वारा हमें अपनी चेतना उत्तरा सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य) में निरंतर रखने का अभ्यास करना चाहिए| वहाँ दिखाई देने वाले ज्योतिर्मय ब्रह्म और सुनाई देने वाले प्रणवाक्षर ब्रह्म ही हमारे आराध्य देव भगवान शिव हैं|
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इन्हीं को कूटस्थ ब्रह्म कहते हैं| इन्हीं की चेतना कूटस्थ चैतन्य है| इस चेतना में स्थिति ही भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति है .....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
अर्थात् ... "हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है जिसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता| अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है||"
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आचार्य शंकर के अनुसार उपरोक्त अवस्था ब्राह्मी यानी ब्रह्ममें होनेवाली स्थिति है| सर्व कर्मोंका संन्यास करके केवल ब्रह्मरूपसे स्थित हो जाना है| इस स्थिति को पाकर मनुष्य फिर मोहको प्राप्त नहीं होता| अन्तकाल में ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर मनुष्य ब्रह्म में लीनतारूप मोक्ष को लाभ करता है|
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उपरोक्त रूप में वर्णित भगवान शिव का ध्यान ही हमारी साधना हो| साथ साथ अजपा-जप के अभ्यास से मेरुदंड में सुषुम्ना चैतन्य हो जाती है और एक घनीभूत प्राण-प्रवाह की अनुभूतियाँ होने लगती हैं, जिसे तंत्र की भाषा में कुण्डलिनी महाशक्ति का जागरण कहते हैं|
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सिद्ध गुरु की आज्ञा और निर्देशानुसार इसी कुण्डलिनी को हर चक्र में गुरुप्रदत्त बीजमंत्रों के साथ ऊपर उठाते हुए कूटस्थ में ले जाते हैं| यह अपने आप ही धीरे धीरे उसी गति से नीचे आ जाती है| नीचे आते समय भी हर चक्र में बीज मन्त्रों का जाप होना चाहिए| अंत में इसे कूटस्थ में ही छोड़ देते हैं| यह विधि "क्रिया योग" साधना कहलाती है जो किसी अधिकृत सिद्ध गुरु से ही सीखनी चाहिए| इसी के बारे में भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....
"अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे | प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ||४:२९||
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अंत में यही कहूँगा गीता में दिए भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार हमारी भक्ति "अनन्य" और "अव्यभिचारिणी" हो .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि||१३:१०||
भगवान का आदेश है ....
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||
भगवान कहाँ हैं ?.....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है ? ....
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||
भगवान का सबसे बड़ा आश्वासन है .....
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||
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इतना ही बहुत हैं| भगवान अनंत हैं, उनके उपदेश भी अनंत हैं|
एक साधक को भगवान के ध्यान के साथ साथ यदि समय हो तो गीता के पांच श्लोकों का नित्य अर्थ सहित पाठ, रामचरितमानस के सुन्दर काण्ड के क्रमशः कुछ पृष्ठों का पाठ, और हनुमान चालीसा का भी पाठ नित्य करना चाहिए| ये साधना में बड़े सहायक हैं|
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पुनश्चः :---- उपरोक्त वर्णित कुण्डलिनी महाशक्ति ही मेरुदंड में विचरण करते हुए धीरे धीरे सहस्त्रार से ऊपर ब्रह्मरंध्र को भेदते हुए अनंताकाश में परमशिव के साथ एकाकार हो जाती है| इस महाशक्ति कुंडलिनी और परमशिव का मिलन ही योग है|
ध्यान की गहराई में भी साधक को ब्र्ह्मरंध्र से परे जाने, समाधिस्थ होने और बापस देह की चेतना में आने की अनुभूतियाँ होना बहुत ही सामान्य बात हैं|
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आद्य शंकराचार्यकृत निर्वाण षटकम् .....
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मनोबुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्नतेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥
अर्थ : मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूं, न मैं कान, जिह्वा, नाक और नेत्र हूं । न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥
अर्थ : न मैं मुख्य प्राण हूं और न ही मैं पञ्च प्राणोंमें (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) कोई हूं, न मैं सप्तधातुओंमें (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) कोई हूं और न पञ्चकोशोंमें (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूं और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥
अर्थ :न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है, न ही ईर्ष्याकी भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥
अर्थ : न मैं पुण्य हूं, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूं, न भोज्य(खाया जानेवाला) हूं, और न भोक्ता(खानेवाला) हूं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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न मे मृत्युशंका मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥
अर्थ : न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जातिका कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।
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अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥
अर्थ : मैं समस्त संदेहोंसे परे, बिना किसी आकारवाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियोंको व्याप्त करके स्थित हूं, मैं सदैव समतामें स्थित हूं, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ फरवरी २०१९
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Note: उपरोक्त लेख आज भगवान की प्रेरणा से स्वयं के आनंद के लिए ही लिखा गया| अब और कुछ लिखने की इच्छा नहीं है| भगवान अपने में ही मेरा मन लगाए रखें|