Wednesday, 18 July 2018

"अभ्यास" और "वैराग्य" का महत्त्व :---

"अभ्यास" और "वैराग्य" का महत्त्व :---
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अभ्यास और वैराग्य की उपेक्षा न करें, अन्यथा यह जीवन यों ही व्यर्थ में बीत जाएगा| यह मैं अपने निज अनुभव से कह रहा हूँ| प्रमाद और दीर्घसूत्रता हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं जिनके आगे हम असहाय हो जाते हैं| महिषासुर हमारे अंतर में प्रमाद और दीर्घसूत्रता के रूप में अभी भी जीवित है, बाकी अन्य सारे शत्रु (राग-द्वेष रूपी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य) इसके पीछे पीछे चलते हैं| यह प्रमाद रूपी महिषासुर ही हमारी मृत्यु है| निरंतर प्रभु से प्रेम और उनके प्रेमरूप पर अनवरत ध्यान के अभ्यास और विषयों से वैराग्य द्वारा ही हम इन शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं|
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मैंने अपना सारा जीवन कामनाओं की पूर्ती के लिए उनके पीछे भाग भाग कर नष्ट किया है| इससे मुझे कुछ भी नहीं मिला| मैं नहीं चाहता कि और भी कोई अपना जीवन इस तरह नष्ट करे| हो सकता है कि यह मेरा प्रारब्ध ही था|
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भगवान गीता में कहते हैं .....
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||"
अर्थात् हे महबाहो निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है|
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यहाँ अभ्यास का अर्थ है .... अपनी चित्तभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृत्ति| वैराग्य का अर्थ है दृष्ट व अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन और उन से विरक्ति|
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योगदर्शन में भी सूत्र है ..."अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः||१:१२||
इसके व्यास भाष्य में कहा गया है ....
"चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च| या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा| संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा| तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः||"
अर्थात् .....
चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च (चित्तरूपी नदी दो दिशाओं में प्रवाहित होती है, कल्याण के लिए बहती है और पाप के लिए भी बहती है)|
कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति (कैवल्य की ओर ले जाने वाली विवेकयुक्त वह चित्तनदी की धारा कल्याण के लिए बहती है)|
संसारप्राग्भारा अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति (संसार की ओर ले जानेवाली अविवेक से युक्त वह पाप के लिए बहती है (अवनति की ओर ले जाती है)।
सर्वार्थसिद्धये सर्वभूतानाम् आत्मनश्च सुखावहम् आचरणं कुर्यात् (सकल प्रयोजनों की सिद्धि के लिए समस्त प्राणियों के लिए तथा अपने लिए जो सुखदायक आचरण है, उसे करना चाहिए)|
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हमारा चित्त "उभयतो वाहिनी नदी" यानि परस्पर दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी की तरह है| हमें किस और बहना है .... उस का अभ्यास वैराग्य के साथ साथ करें|
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हमारे चित्त में तमोगुण की प्रबलता होने पर निद्रा, आलस्य, निरुत्साह, प्रमाद आदि मूढ़ अवस्था के दोष उत्पन्न हो जाते हैं|
रजोगुण की प्रबलता होने पर चित्त विक्षिप्त अर्थात् चञ्चल हो जाता है|
इन दोनों प्रकार की बाधक वृत्तियों के प्रशमन के लिये अभ्यास तथा वैराग्य सर्वोत्तम साधन हैं| अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति और वैराग्य से रजोगुण की निवृत्ति होती है| वैराग्य से चित्त का बहिर्मुख प्रवाह रोका जाता है, व अभ्यास से आत्मोन्मुख प्रवाह स्थिर किया जा सकता है|
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आप सभी को सादर सप्रेम नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जुलाई २०१८

नित्यमुक्त को कौन जाने की आज्ञा दे ? ....

हमें अपने अच्युत अपरिछिन्न भाव की सिद्धि और अहम् व इदम् के भेद का ज्ञान हो.
हमारे बंधन स्वतंत्र हैं, परतंत्र नहीं.
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ
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अंततः साधकत्व और मुमुक्षुत्व भी एक भ्रम ही हैं क्योंकि स्वयं से पृथक कोई सत्ता है ही नहीं. 
कोई बद्धता भी नहीं है.
ॐ ॐ ॐ
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परमशिव स्वेच्छा से अविद्या का मजा चखने स्वतंत्र बंधनों में आये हैं,
वे परतंत्र नहीं है| 
नित्यमुक्त को जाने की आज्ञा कौन दे?
ॐ ॐ ॐ
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गुरुरूप कूटस्थ परब्रह्म की कृपा से "इदम्" मिट जाता है.
वे परब्रह्म ही "अहम्" बन जाते हैं.
अजपाजप सोSहं व अनाहत नादश्रवण साधन हैं.

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सभी मुमुक्षुओं का स्वागत है जो इस मृगतृष्णा रूपी भवसागर की निद्रा को त्याग कर परब्रह्म परमशिव परमात्मा में जागृत होना चाहते हैं.

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यह सच्चिदानंद परमात्मा की करुणा, कृपा और अनुग्रह है कि हमें उनकी याद आ रही है, और हमें उनसे परमप्रेम हो गया है. 
ॐ ॐ ॐ

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जो कभी साहस ही नहीं जुटा पाये ! .....

जो कभी साहस ही नहीं जुटा पाये ! .....
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आध्यात्मिक यात्रा उन साहसी वीर पथिकों के लिए है जो अपना सब कुछ दांव पर लगा सकते हैं| लाभ-हानि की गणना करने वाले और कर्तव्य-अकर्तव्य की ऊहापोह में खोये रहने वाले कापुरुष इस मार्ग पर नहीं चल सकते| यह उन वीरों का मार्ग है जो अपनी इन्द्रियों पर विजय पा सकते हैं, और अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक परिस्थितियों से कोई समझौता नहीं करते|
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जो नहीं कर पाए उन्हें भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है| अगले जन्मों में उन्हें फिर अवसर मिलेगा| मैं ऐसे बहुत लोगों को जानता हूँ जो बहुत भले सज्जन हैं, उनमें भगवान को पाने की अभीप्सा भी है, पर वे कभी साहस नहीं जुटा पाए| घर-परिवार के लोगों की नकारात्मक सोच, गलत माँ-बाप के यहाँ जन्म, गलत पारिवारिक संस्कार और गलत वातावरण ... उन्हें कोई साधन-भजन नहीं करने देता| घर-परिवार के मोह के कारण ऐसे जिज्ञासु बहुत अधिक दुखी रहते हैं|
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इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में निश्चित ही उन्हें आध्यात्मिक प्रगति का अवसर मिलेगा| ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर
१६ जुलाई २०१८

गुरुकृपा फलीभूत हो .....

गुरुकृपा फलीभूत हो .....
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हे कूटस्थ, सर्वव्यापी, सच्चिदानन्दमय, गुरु महाराज, जो कुछ भी है वह आप ही हैं| न तो मैं कुछ हूँ, और न ही मेरा कोई पृथक अस्तित्व है| मैं स्वयं को यह शरीर मानता रहा यही मेरा अहंकार और सब दुःखों का कारण था| इस शरीर के सुख के लिए ही मैंने आपके दिए हुए पता नहीं कितने जन्म व्यर्थ में गँवा दिए| ये शरीर तो आपने भजन-साधन के लिए दिये थे पर अज्ञानतावश मैं जन्म-जन्मान्तरों तक मैं इन्हीं का दास बना रहा| अब यह समस्त अंतःकरण आपको समर्पित है| मुझे अपने साथ एक करो, अपनी पूर्णता प्रदान करो, स्वयं को मुझमें व्यक्त करो, कहीं कोई भेद न हो, व किसी भी कामना, अपेक्षा और आकांक्षा का जन्म ही न हो|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
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गीता में भगवान कहते हैं .....
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः| युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः||६:८||
यहाँ भगवान हमें ज्ञान-विज्ञान से तृप्त, कूटस्थ, और जितेन्द्रिय होकर एक ऐसी अवस्था (परमहंस) में होने का आदेश दे रहे हैं जहाँ चैतन्य में मिट्टी और सोना एक सा (ब्रह्ममय) ही लगे|
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शास्त्रोक्त पदार्थों को समझने का नाम ज्ञान है, और समझे हुए भावों को अपने अंतःकरण में प्रत्यक्ष अनुभव करना विज्ञान है| ऐसे ज्ञान और विज्ञान से तृप्त होने पर कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता| अब तो कुछ जानना नहीं बल्कि उसमें समाहित ही होना (ब्रह्ममय) है| यह भाव, इसकी प्रेरणा व इसमें स्थिति .... गुरु की कृपा और आशीर्वाद है|
ऐसे परमेष्टि गुरु को नमन! ॐ ॐ ॐ !!
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भगवान आगे कहते हैं ....
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु | साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ||६:९||
यहाँ भगवान जो बता रहे हैं वह योगारूढ़ होने की अवस्था है जो मुझे अभी तक प्राप्त नहीं हुई है, पर गुरुकृपा से एक न एक दिन निश्चित रूप से मेरे जीवन में भी फलीभूत होगी| यहाँ भगवान .... सुहृत (प्रत्युपकार ना चाहकर उपकार करने वाला), मित्र, प्रेमी, शत्रु, अप्रिय, बन्धु , कुटुम्बी, श्रेष्ठ और पापियों में भी समभाव रखने की बात समझा रहे हैं|
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भगवान का स्वरुप क्या है ? .....
इस विषय को समझने के लिए "पुरुष सूक्त" और गीता के ग्यारहवें अध्याय "विश्वरूप दर्शन योग" का स्वाध्याय, मनन और ध्यान करना होगा|
पुरुष सूक्त की प्रारम्भिक तीन ऋचाएं कहती है .....
"ॐ सहस्त्रशीर्षापुरुष:सहस्त्राक्ष:सहस्त्रपात्॥ सभूमिगूँसर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठ्ठद्दशांगुलम्॥१॥ पुरुषऽएवेदगूँसर्वंयद्भूतंयच्चभाव्यम्॥ उतामृतत्वस्येशानोयदन्नेनातिरोहति॥२॥ एतावानस्यमहिमातोज्यायाँश्चपूरुष:॥ पादोस्यविश्वाभूतानित्रिपादस्यामृतन्दिवि॥३॥"
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ॐ नमो स्त्वनंताय सहस्त्रमूर्तये, सहस्त्रपादा क्षिशिरोरूहावहे | सहस्त्र नाम्ने पुरूषाय शाश्वते, सहस्त्रकोटि युगधारिणे नमः ||
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जुलाई २०१८

मेरी दृष्टि में गुरु, गुरुदक्षिणा, गुरुस्थान और गुरुसेवा क्या है ? .....

मेरी दृष्टि में गुरु, गुरुदक्षिणा, गुरुस्थान और गुरुसेवा क्या है ? .....
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मेरी दृष्टि में कूटस्थ ही गुरु है, कूटस्थ ही गुरुस्थान है, और कूटस्थ पर निरंतर ध्यान ही गुरुसेवा है| कूटस्थ गुरु-रूप ब्रह्म सब गुणों से परे हैं, वह असीम हैं, उसे किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता| वह परमात्मा की अनंतता, पूर्णता और आनंद है| असली गुरुदक्षिणा है ..... कूटस्थ में पूर्ण समर्पण, जिसकी विधी भी स्वयं गुरु ही बताते हैं|
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यह मनुष्य देह तो लोकयात्रा के लिए परमात्मा से मिला हुआ एक वाहन रूपी उपहार है| हम यह वाहन नहीं हैं, गुरु भी यह वाहन नहीं हैं| पर लोकाचार के लिए लोकधर्म निभाना भी आवश्यक है| लोकधर्म निभाने के लिए गुरु यदि देह में हैं तो प्रतीक के रूप में उनकी देह को, यदि नहीं हैं तो उनकी परम्परा को, आवश्यक धन, अन्न-वस्त्र और पत्र-पुष्प आदि अर्पित करना हमारा दायित्व बनता है| गुरु देह में हैं तो यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उन्हें किसी प्रकार का कोई कष्ट तो नहीं है| तब उनकी देह की भी सेवा होनी चाहिए| गुरु के उपदेशों को चरितार्थ करना गुरुसेवा है| गुरु कभी स्वयं को भौतिक देह नहीं मानते| जो स्वयं को भौतिक देह मानते हैं वे गुरु नहीं हो सकते| उनकी चेतना कूटस्थ ब्रह्म के साथ एक होती है| उनके साथ हमारा सम्बन्ध शाश्वत है और वे शिष्य को भी स्वयं के साथ ब्रह्ममय करने के लिए प्रयासरत रहते हैं|
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हमारी सूक्ष्म देह में हमारे मष्तिष्क के शीर्ष पर जो सहस्त्रार है, जहाँ सहस्त्र पंखुड़ियों वाला कमल पुष्प है, वह गुरु के चरण कमल रूपी हमारी गुरु-सत्ता है| वह गुरु का स्थान है| सहस्त्रार में स्थिति ही गुरुचरणों में आश्रय है| उस सहस्त्र दल कमल पर हमें निरंतर परमशिव परात्पर परमेष्टि गुरु का ध्यान करना चाहिए| यह सबसे बड़ी गुरुसेवा है| सहस्त्रार से परे की अनंतता में वे परमशिव हैं| वह अनंतता ही वास्तव में हमारा स्वरुप है| ध्यान करते करते हम स्वयं भी अनंत बन जाते हैं|
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गुरु-चरणों में मस्तक एक बार झुक गया तो वह कभी उठना नहीं चाहिए| वह सदा झुका ही रहे| यही शीश का दान है| इससे हमारे चैतन्य पर गुरु का अधिकार हो जाता है| तब जो कुछ भी हम करेंगे उसमें गुरु हमारे साथ सदैव रहेंगे| तब कर्ता और भोक्ता भी वे ही बन जाते हैं| यही है गुरु चरणों में सम्पूर्ण समर्पण| तब हमारे अच्छे-बुरे सब कर्म भी गुरु चरणों में अर्पित हो जाते हैं| हम पर कोई संचित कर्म अवशिष्ट नहीं रहता| तब गुरु ही हमारी आध्यात्मिक साधना के कर्ता और भोक्ता हो जाते हैं|
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गुरु रूप परब्रह्म को कर्ता बनाओ| साधना, साध्य और साधक; दृष्टा, दृश्य और दृष्टी; व उपासना, उपासक और उपास्य .... सब कुछ हमारे गुरु महाराज ही हैं| हमारी उपस्थिति तो वैसे ही है जैसे यज्ञ में यजमान की होती है| गुरुकृपा ही हमें समभाव में अधिष्ठित करती है| गुरुकृपा हि केवलं||
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जुलाई २०१८

पिंजरे का पंछी और बैलगाड़ी का बैल .....

पिंजरे का पंछी और बैलगाड़ी का बैल .....
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पिंजरे में बँधे पक्षी, बैलगाडी में जुड़े बैल, और हमारे में कोई अंतर नहीं है| हम एक बैल की तरह हैं जो बैलगाड़ी में जुड़ा हुआ है और जिनको हम प्रियजन कहते हैं वे डंडे से मार मार कर हमें हाँक रहे हैं| हम उनकी मार खाकर और उनकी इच्छानुसार चलकर बहुत प्रसन्न हैं और इसे अपना कर्त्तव्य मान रहे हैं|
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हमारा जन्म ही विवशता में इसी कारण होता है कि हम अपनी अतृप्त कामनाओं के दास हैं| हम जन्म ही दास के रूप में लेते है और दास के रूप में ही मरते हैं| कामनाएँ सबसे विकट अति सूक्ष्म अदृष्य बंधन हैं| कामनाओं में बंध कर हम स्वतः ही गुलाम बन जाते हैं, इसके लिए किसी भी प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती है| जब कि स्वतंत्रता के लिए हमें अत्यंत दीर्घकालीन प्रयास करने पड़ते हैं| जो निरंतर बिना थके प्रयासरत रहते हैं, वे ही स्वतंत्र हो पाते हैं|
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स्वतंत्रता अपना मूल्य माँगती हैं, वह निःशुल्क नहीं होती| जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान है उसकी कीमत चुकानी पडती है| बंधन में बंधना कोई दुर्भाग्य नहीं है, दुर्भाग्य है ..... मुक्त न होने का प्रयास करना| गुलाम होकर जन्म लेना कोई दुर्भाग्य नहीं है, पर गुलामी में मरना वास्तव में दुर्भाग्य है|
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जीवन में तब तक कोई आनंद या संतुष्टि नहीं मिल सकती जब तक हम अपनी आतंरिक स्वतंत्रता को प्राप्त ना कर लें| कामनाओं में बंधे होना ही वास्तविक परतंत्रता है| कामनाओं में बंधे मनुष्य, पिंजरे में बंधे पक्षी और बैलगाड़ी में जुड़े बैल में कोई अंतर नहीं है| पराधीन मनुष्य कभी मुक्ति का आनंद नहीं ले सकता| वास्तविक स्वतन्त्रता सिर्फ परमात्मा में ही है, अन्यत्र कहीं नहीं|
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किसी दूसरे को दोष देने का कोई लाभ नहीं है| अपने दुःखों के जिम्मेदार हम स्वयं हैं .....
"सुखस्य दु:खस्य न कोऽपि दाता, परो ददाति इति कुबुद्धिरेषा |
अहं करोमि इति वृथाभिमान:, स्वकर्मसूत्रै: ग्रथितोऽहि लोक: || --- आध्यात्म रामायण
कोई किसी को सुख या दुःख नहीं दे सकता, सिर्फ एक कुबुद्धि ही यह सोचता है कि दूसरे मुझे दुःख या सुख दे रहे हैं| कर्ताभाव भी एक व्यर्थ का अभिमान है, इस लोक में सब अपने कर्मफलों से बँधे हुए हैं|
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ॐ गुरुभ्यो नमः| सब पर परमात्मा की परम कृपा हो! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जुलाई २०१८

हिन्दुओ, आत्मग्लानि कराने वाले लेख न लिखें .....

आजकल अपने धर्म और आस्था के ऊपर आत्म-ग्लानि कराने वाले लेख और विडिओ बहुत अधिक आ रहे हैं| भूतकाल पर पश्चाताप करने का अब कोई लाभ नहीं है| एकमात्र कार्य जो हम कर सकते हैं वे ये हैं कि .........
(१) अपने धर्म पर हम दृढ़ रहें, अपने धर्म का पालन स्वयं करें और अपने बच्चों को धर्म की शिक्षा दें या दिलाएँ| धर्म का प्रचार करें| विधर्मियों का शुद्धिकरण कर के उन्हें बापस अपने पूर्वजों के धर्म में लायें|
(२) हिन्दू धर्म प्रचार के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने का प्रयास करें, जैसे .... भारत के संविधान की धारा ३०(१) जिसके अंतर्गत हिन्दू अपने बच्चों को अपने विद्यालयों में धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते, पर मुसलमान और ईसाई अपने धर्म की शिक्षा दे सकते हैं| विद्यालयों में कुरान और बाईबिल पढाई जा सकती है पर गीता नहीं| मदरसों और कोन्वेंट्स को मान्यता प्राप्त है पर गुरुकुलों को नहीं| ऐसी हिन्दू विरोधी धाराओं को हटवाने का प्रयास करें|
(३) हिन्दू मंदिरों पर से सरकारी नियंत्रण समाप्त करवा कर हिन्दू धर्म गुरुओं की संस्थाओं का नियंत्रण मंदिरों पर हो, इसका प्रयास करें| मंदिरों का उद्देश्य धर्म का प्रचार है, न कि सरकारी लूट को प्रोत्साहन|
(४) धर्म विरोधी अधर्मी प्रचार तंत्र का विरोध करें| जैसे फिल्मों में एक हिन्दू धर्मगुरु को धूर्त, ठग और चोर दिखाते हैं, पर एक मौलवी और पादरी को सज्जन और महात्मा| ऐसे ही सारे निजी टीवी समाचार चैनलों और अंग्रेजी अखवारों के वास्तविक मालिक विदेशी चर्च हैं, जो हिन्दू विरोधी हैं| उनका समर्थन कभी भूल से भी न करें, न उन से प्रभावित हों| हिन्दू विरोधी प्रचार तंत्र बहुत अधिक शक्तिशाली है|
(५) उन सारे सेकुलर, वामपंथी और धर्मद्रोही राजनेताओं का सक्रीय विरोध और प्रतिकार करें जो हिन्दू द्रोही हैं|
(६) भारत में समान नागरिक संहिता लागू कराने का जी-जान से प्रयास करें| एक देश में एक ही क़ानून हो जो सब के लिए लागू हो| हिन्दू विरोधी कानूनों को हटवाने का पूरा प्रयास करें| वोट उसी को दें जो हिन्दूद्रोही न हो|
ऐसा कर के ही हम अपने देश और धर्म का कल्याण कर सकते हैं, आत्म-ग्लानि और हीनभावना से नहीं| भगवान धर्म की रक्षा करें पर उससे पूर्व हम स्वयं भी अपने धर्म की रक्षा करें| दूसरों की निंदा न कर के, सकारात्मक कार्य करें| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन!
कृपा शंकर
१५ जुलाई २०१८

वैदिक राष्ट्रीय प्रार्थना .....

वैदिक राष्ट्रीय प्रार्थना .....
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ओम् आ ब्रम्हन्ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतां
आस्मिन्राष्ट्रे राजन्य इषव्य
शूरो महारथो जायतां
दोग्ध्री धेनुर्वोढाअनंवानाशुः सप्तिः
पुरंधिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः
सभेयो युवाअस्य यजमानस्य वीरो जायतां|
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलिन्यो न औषधयः पच्यन्तां
योगक्षेमो नः कल्पताम ||
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(इस राष्ट्र में ब्रह्मतेजयुक्त ब्राह्मण उत्पन्न हों| धनुर्धर, शूर और बाण आदि का उपयोग करने वाले कुशल क्षत्रिय पैदा होयें| अधिक दूध देने वाली गायें होवें| अधिक बोझ ढो सकें ऐसे बैल होवें| ऐसे घोड़े होवें जिनकी गति देखकर पवन भी शर्मा जावे| राष्ट्र को धारण करने वाली बुद्धिमान तथा रूपशील स्त्रियां पैदा होवें, विजय संपन्न करने वाले महारथी होवें|
समय समय पर योग्य वारिस हो, वनस्पति वृक्ष और उत्तम फल हों| हमारा योगक्षेम सुखमय बने|)

तैत्तिरीय उपनिषद् में नित्य पठनीय शान्ति पाठ और नित्य मननीय उपदेश .....

तैत्तिरीय उपनिषद् में नित्य पठनीय शान्ति पाठ और नित्य मननीय उपदेश .....
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शान्तिपाठ :--
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं बह्मासि । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम । अवतु वक्तारम् ।
ॐ शान्तिः । शान्तिः । शान्तिः ।
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उपदेश :--
वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ।।
(तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र १)
अर्थ:- वेद के शिक्षण के पश्चात् आचार्य आश्रमस्थ शिष्यों को अनुशासन सिखाता है । सत्य बोलो । धर्मसम्मत कर्म करो । स्वाध्याय के प्रति प्रमाद मत करो । आचार्य को जो अभीष्ट हो वह धन (भिक्षा से) लाओ और संतान-परंपरा का छेदन न करो (यानी गृहस्थ बनकर संतानोत्पत्ति कर पितृऋण से मुक्त होओ) । सत्य के प्रति प्रमाद (भूल) न होवे, अर्थात् सत्य से मुख न मोड़ो । धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए । अपनी कुशल बनी रहे ऐसे कार्यों की अवहेलना न की जाए । ऐश्वर्य प्रदान करने वाले मंगल कर्मों से विरत नहीं होना चाहिए । स्वाध्याय तथा प्रवचन कार्य की अवहेलना न होवे ।
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देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव । यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माकं सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि ।।
(तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र २)
अर्थ:- देवकार्य तथा पितृकार्य से प्रमाद नहीं किया जाना चाहिए । (कदाचित् इस कथन का आशय देवों की उपासना और माता-पिता आदि के प्रति श्रद्धा तथा कर्तव्य से है ।) माता को देव तुल्य मानने वाला बनो (मातृदेव = माता है देवता तुल्य जिसके लिए) । पिता को देव तुल्य मानने वाला बनो । आचार्य को देव तुल्य मानने वाला बनो । अतिथि को देव तुल्य मानने वाला बनो । अर्थात् इन सभी के प्रति देवता के समान श्रद्धा, सम्मान और सेवाभाव का आचरण करे । जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्हीं का सेवन किया जाना चाहिए, अन्य का नहीं । हमारे जो-जो कर्म अच्छे आचरण के द्योतक हों केवल उन्हीं की उपासना की जानी चाहिए; उन्हीं को संपन्न किया जाना चाहिए । (अवद्य = जिसका कथन न किया जा सके, जो गर्हित हो, प्रशंसा योग्य न हो ।)संकेत है कि गुरुजनों का आचरण सदैव अनुकरणीय हो ऐसा नहीं है । अपने विवेक के द्वारा व्यक्ति क्या करणीय है और क्या नहीं इसका निर्णय करे और तदनुसार व्यवहार करे ।
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आनंद "प्यास" में है, "तृप्ति" में नहीं .....

आनंद "प्यास" में है, "तृप्ति" में नहीं .....
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जो आनंद "विरह" में है वह "मिलन" में नहीं हो सकता| परमात्मा नहीं मिलें तो ही अच्छा है| बस उन्हें पाने की यह "अभीप्सा" यानि "अतृप्त प्यास" और "तड़प" बनी रहे| ह्रदय में एक "प्रचंड अग्नि" जल रही है, एक बड़ी "प्यास" और "तड़प" है परमात्मा को पाने की| उसका अपना ही आनंद है| यदि परमात्मा मिल गए तो यह "प्यास" बुझ जायेगी, अतः परमात्मा नहीं चाहिए, बस उनको पाने की "अभीप्सा" रूपी "प्रचंड अग्नि" जलती रहे| जो आनंद इस "द्वैत" में है, वह "अद्वैत" में नहीं हो सकता|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जुलाई २०१८

Friday, 13 July 2018

आध्यात्मिक व्यक्ति के लक्षण :---

आध्यात्मिक व्यक्ति के लक्षण :---

(१) निरंतर आनंद और प्रफुल्लता की अनुभूति |
(२) अल्प सात्विक भोजन से ही तृप्ति |
(३) व्यर्थ की बातचीत नहीं करने का स्वभाव |
(४) श्वास-प्रश्वास की धीमी गति |
(५) विस्तार (देह से परे होने) की अनुभूतियाँ |
(६) राग-द्वेष-कामनाओं व दुःखों का अभाव |


उपरोक्त छओं लक्षण जिसमें है, वह निश्चित रूप से एक साधू, संत, सज्जन और आध्यात्मिक व्यक्ति है| ऐसे व्यक्ति सदा प्रणाम करने योग्य हैं, इनका सदा आदर/सम्मान करना चाहिए|

कौन व्यक्ति कैसा है इसका निर्णय उपरोक्त लक्षण देखकर ही करें|

पुनश्चः :-- उपरोक्त में से प्रथम तीन लक्षणों का होना भी आध्यात्म मार्ग पर अग्रसर होने का संकेत है|

कूटस्थ चैतन्य .....

(संशोधित व पुनर्प्रस्तुत). कूटस्थ चैतन्य .....
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गुरु की आज्ञा से शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, और जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़ते हुए तालू से सटा कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करते करते कुछ महिनों की साधना के उपरांत गुरुकृपा से विद् युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है|
ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है|
(इसकी साधना श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध योगी महात्मा गुरु के सान्निध्य में ही करें).
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु (शिखा स्थान) है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष, खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर का भाग है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ आकर मस्तिक से मिलती हैं| यहीं जीवात्मा का निवास है|
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कूटस्थ में परमात्मा सदा हमारे साथ हैं| हम सदा कूटस्थ चैतन्य में रहें| कूटस्थ में समर्पित होने पर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है जिसमें हमारी चेतना परम प्रेममय हो समष्टि के साथ एकाकार हो जाती है| हम फिर परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं| परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे| हम भिक्षुक नहीं हैं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं| एक भिखारी को भिखारी का ही भाग मिलता है, पुत्र को पुत्र का| पुत्र के सब दोषों को पिता क्षमा तो कर ही देते हैं, साथ साथ अच्छे गुण कैसे आएँ इसकी व्यवस्था भी कर ही देते हैं|
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भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं" ||८:१०||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
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आगे भगवान कहते हैं .....
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च,
मूधर्नायाधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्,
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्" ||८:१३||
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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भगवान कहते हैं ....
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||१५:१६||
अर्थात् इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं| समस्त भूत क्षर हैं और कूटस्थ अक्षर कहलाता है||
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पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है कि जीवन भर तो मौज मस्ती करेंगे, फिर मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान बच कर कहाँ जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित है ही| पर यह सौदा इतना सरल नहीं है| दिखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है|
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यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा| उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं|
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ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०१८

दिल का हुजरा साफ़ कर ज़ाना के आने के लिए .....

दिल का हुजरा साफ़ कर ज़ाना के आने के लिए .....
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घर में जब कोई मेहमान आते हैं तो उनको बैठाने के स्थान को बहुत अच्छी तरह से साफ़ करते हैं कि कहीं कोई गन्दगी न रह जाए| पर हम यो यहाँ साक्षात परमात्मा को निमंत्रित कर रहे हैं| देह में या मन में कहीं भी कोई गन्दगी होगी तो वे नहीं आयेंगे| अपने हृदय मंदिर को तो विशेष रूप से साफ़ करना होगा| ह्रदय मंदिर को स्वच्छ कर जब उसमें परमात्मा को बिराजमान करेंगे तो सारे दीपक अपने आप ही जल जायेंगे, कहीं कोई अन्धकार नहीं रहेगा, आगे के सारे द्वार खुल जायेंगे और मार्ग प्रशस्त हो जायेगा| वहाँ उनके सिवा अन्य कोई नहीं होगा| एक बहुत पुरानी और बहुत प्रसिद्ध ग़ज़ल है ....
"दिल का हुजरा साफ़ कर ज़ाना के आने के लिए,
ध्यान गैरों का उठा उसके ठिकाने के लिए |
चश्मे दिल से देख यहाँ जो जो तमाशे हो रहे,
दिलसिताँ क्या क्या हैं तेरे दिल सताने के लिए ||
एक दिल लाखों तमन्ना उसपे और ज्यादा हविश,
फिर ठिकाना है कहाँ उसको टिकाने के लिए |
नकली मंदिर मस्जिदों में जाये सद अफ़सोस है,
कुदरती मस्जिद का साकिन दुःख उठाने के लिए ||
कुदरती क़ाबे की तू मेहराब में सुन गौर से,
आ रही धुर से सदा तेरे बुलाने के लिए |
क्यों भटकता फिर रहा तू ऐ तलाशे यार में,
रास्ता शाह रग में हैं दिलबर पे जाने के लिए ||
मुर्शिदे कामिल से मिल सिदक और सबुरी से तकी,
जो तुझे देगा फहम शाह रग पाने के लिए |
गौशे बातिन हों कुशादा जो करें कुछ दिन अमल,
ला इल्लाह अल्लाहहू अकबर पे जाने के लिए ||
ये सदा तुलसी की है आमिल अमल कर ध्यान दे,
कुन कुरां में है लिखा अल्ल्हाहू अकबर के लिए ||
(लेखक: तुलसी साहिब)
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ह्रदय की अनुभूतियाँ शब्दों से परे हैं| उन्हें कोई व्यक्त नहीं कर सकता| कहीं कोई हसरत, तड़प और अरमान दिल में नहीं रहते| वह एक वर्णनातीत अनुभूति है| उस और ताकते रहो, लगातार देखते रहो, रहस्य अपने आप खुल जायेंगे| कुछ भी नहीं करना है|
"दीदार की हविश है तो नज़रें जमा के रख, चिलमन हो या नकाब सरकता जरूर है|"
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ऊपर से कुछ मत थोपो, सारे गुण अपने आप प्रकट हो जायेगे| एक ही गुण "प्रेम" होगा तो बाकी सारे गुण अपने आप आ जायेंगे| पूर्णता तो हम स्वयं हैं, आवरण अधिक समय तक नहीं रह सकता| ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जुलाई २०१८

आचार्यवान् पुरुषो वेद .....

श्रुति भगवती कहती है ..... "आचार्यवान् पुरुषो वेद" .... अर्थात् आचार्य (गुरु) को प्राप्त व्यक्ति ही परमात्मा को जान सकता है| (छान्दोग्योपनिषद्-६/१४/२)

आज से पंद्रह दिन बाद गुरु-पूर्णिमा आ रही है| उस की अभी से तैयारी करनी आरम्भ करें| गुरुरूप परब्रह्म परमशिव का ध्यान ही मेरे लिए गुरु की सेवा और गुरुवचनों का पालन है| भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करें|

ॐ शिव ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१२ जुलाई २०१८

भवसागर को पार कैसे करें ? ....

भवसागर को पार कैसे करें ? ....
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यह भवसागर एक ऐसा सागर है जिसमें मृगतृष्णा रूपी जल भरा पडा है| हमारी असंख्य कामनाएँ और वासनाएँ ही इस भवसागर का निर्माण करती हैं| कामनाओं ओर वासनाओं से मुक्त होना ही भवसागर को पार करना है| और भी स्पष्ट शब्दों में संसार की निःसारता को समझ कर, विषय-वासनाओं को त्याग कर परमात्मा के प्रेम में मग्न हो जाना ही .... भवसागर को पार करना है|
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अनेक साधन हैं, पर मुझ अल्पज्ञ को तो परमशिव के आत्मस्वरूप से ध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं आता-जाता| साधनों का ज्ञान और सिद्धि, परमात्मा की कृपा से ही मिलती है| जो कभी उत्पन्न ही नहीं हुआ है, जिसका कभी जन्म ही नहीं हुआ है, पर जो शाश्वत ओर परम कल्याणकारी है ..... वह मेरा आराध्य इष्टदेव परमशिव है| उस परमशिव से प्रेम और उस का ध्यान ही मेरा स्वधर्म है| उस परमशिव में स्थिति ही मेरे लिए भवसागर को पार करना है|
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संसार सागर को इस उदाहरण से समझ सकते हैं .... हम खाते क्यों हैं? ....कमाने के लिए, और कमाते क्यों हैं? .... खाने के लिए| यह चक्र कभी समाप्त नहीं होता| यही भवसागर का एक छोटा सा रूप है| इस संसार से सुख की आशा ही वह ईंधन है जो हमें इस भवसागर में फँसाए रखता है|
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श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में संत तुलसीदास जी ने भवसागर को पार करने की जो विधि भगवान श्रीराम के मुख से कहलवाई है, वह समझने में सबसे सरल है .....
चौपाई :--
"एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।।
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं।।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई।।
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।"
दोहा/सोरठा :--
"जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||"

इसका सार यह कि यह मनुष्य शरीर इस भवसागर को पार करने के लिए भगवान द्वारा दी हुई एक नौका है| अनुकूल वायु ....भगवान का अनुग्रह है| इस नौका के कर्णधार सदगुरु हैं| जो इस नौका को पाकर भी भवसागर को न तरे, उस से बड़ा अभागा अन्य कोई नहीं है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जुलाई २०१८
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पुनश्चः :--- यह संसार एक मृगतृष्णा है| अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही इसे पार करना है|

Wednesday, 11 July 2018

अंतिम प्रवचन .....

अंतिम प्रवचन... (ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी महाराजके आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, विक्रम सम्वत-२०६२, तदनुसार ३ जुलाई, २००५ को परमधाम पधारने के पूर्व दिनांक २९-३० जून, २००५ को गीताभवन, स्वर्गाश्रम में दिये गये अन्तिम प्रवचन).
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एक बहुत श्रेष्ठ, बड़ी सुगम, बड़ी सरल बात है । वह यह है कि किसी तरह की कोई इच्छा मत रखो । न परमात्मा की, न आत्मा की, न संसार की, न मुक्ति की, न कल्याण की, कुछ भी इच्छा मत करो और चुप हो जाओ । शान्त हो जाओ । कारण कि परमात्मा सब जगह शान्तरूप से परिपूर्ण है । स्वतः-स्वाभाविक सब जगह परिपूर्ण है । कोई इच्छा न रहे, किसी तरहकी कोई कामना न रहे तो एकदम परमात्मा की प्राप्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, पूर्णता हो जाय !

यह सबका अनुभव है कि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती । सब इच्छाएँ पूरी हो जायँ यह नियम नहीं है । इच्छाओं का पूरा करना हमारे वश की बात नहीं है, पर इच्छाओं का त्याग करना हमारे वशकी बात है । कोई भी इच्छा, चाहना नहीं रहेगी तो आपकी स्थिति स्वतः परमात्मा में होगी । आपको परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जायगा । कुछ चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं, कहीं आना नहीं, कोई अभ्यास नहीं । बस, इतनी ही बात है । इतनेमें ही पूरी बात हो गयी ! इच्छा करनेसे ही हम संसारमें बँधे हैं । इच्छा सर्वथा छोड़ते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा में स्वतः स्वाभाविक स्थिति है ।

प्रत्येक कार्यमें तटस्थ रहो । न राग करो, न द्वेष करो ।
तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार ॥

एक क्रिया है और एक पदार्थ है । क्रिया और पदार्थ यह प्रकृति है । क्रिया और पदार्थ दोनोंसे संबंध-विच्छेद करके एक भगवान्‌ के आश्रित हो जायँ । भगवान्‌के शरण हो जायँ, बस । उसमें आप की स्थिति स्वतः है । ‘भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा’‒ ऐसे परमात्मा में आपकी स्वाभाविक स्थिति है । स्वप्न में एक स्त्रीका बालक खो गया । वह बड़ी व्याकुल हो गयी । पर जब नींद खुली तो देखा कि बालक तो साथ में ही सोया है‒ तात्पर्य है कि जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा पूरे-के-पूरे विद्यमान है । आप जहाँ हैं, वहीं चुप हो जाओ !!

‒२९ जून २००५, सायं लगभग ४ बजे
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श्रोता‒कल आपने बताया कि कोई चाहना न रखे । इच्छा छोड़ना और चुप होना दोनोंमें कौन ज्यादा फायदा करता है ?

स्वामीजी‒मैं भगवान्‌ का हूँ, भगवान्‌ मेरे हैं, मैं और किसी का नहीं हूँ, और कोई मेरा नहीं है । ऐसा स्वीकार कर लो । इच्छा रहित होना और चुप होना‒दोनों बातें एक ही हैं । इच्छा कोई करनी ही नहीं है, भोगोंकी, न मोक्षकी, न प्रेमकी, न भक्तिकी, न अन्य किसीकी ।

श्रोता‒इच्छा नहीं करनी है, पर कोई काम करना हो तो ?

स्वामीजी‒काम उत्साह से करो, आठों पहर करो, पर कोई इच्छा मत करो । इस बात को ठीक तरहसे समझो । दूसरों की सेवा करो, उन का दुःख दूर करो, पर बदले में कुछ चाहो मत । सेवा कर दो और अन्तमें चुप हो जाओ । कहीं नौकरी करो तो वेतन भले ही ले लो, पर इच्छा मत करो ।

सार बात है कि जहाँ आप हैं, वहीं परमात्मा हैं । कोई इच्छा नहीं करोगे तो आपकी स्थिति परमात्मामें ही होगी । जब सब परमात्मा ही हैं तो फिर इच्छा किस की करें ? संसार की इच्छा है, इसलिये हम संसार में हैं । कोई भी इच्छा नहीं है तो हम परमात्मामें हैं ।

‒ ३० जून २००५, दिनमें लगभग ११ बजे

सांसारिक/भौतिक ज्ञान का विस्फोट .....

सांसारिक/भौतिक ज्ञान का विस्फोट .....

आजकल भौतिक विज्ञान और टेक्नोलोजी का विस्तार इतनी तेजी से हो रहा है कि उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलना असंभव सा हो रहा है| एक तरह से यह अच्छा ही हो रहा है| अन्धकार और असत्य से भरी मान्यताएँ धीरे धीरे मूल्य विहीन हो रही हैं और प्राचीन सनातन मान्यताएँ पुनर्स्थापित हो रही हैं| इस प्रगति को कोई रोक नहीं सकता|

मनुष्य के मस्तिष्क का भी उसी द्रुत गति से विकास हो रहा है| यह एक संक्रांति काल है जिसमें अन्याय, छल-कपट और चोरी की घटनाएँ बहुत अधिक हो रही लगती हैं| ये पहले भी होती थीं पर पता नहीं चलता था, अब तुरंत पता चल जाता है| धीरे धीरे इनके दुष्परिणाम आने भी आने लगे हैं| 

मनुष्य के दुःख और पीड़ाओं की वृद्धि हो रही है| धीरे धीरे मनुष्य दुःखी होकर यह सोचने को बाध्य हो जाएगा कि मैं दुःखी क्यों हूँ| यह दुःख से मुक्त होने की तड़प ही उसे बापस आध्यात्म की ओर ले जायेगी, ऐसी मेरी सोच है|
जो भी होगा वह अच्छा ही होगा| दुःखों से मुक्ति के लिए बापस हमें आध्यात्म की ओर ही जाना होगा| यह सनातन धर्म की विजय होगी| सनातन धर्म ही हमें दुःखों से मुक्ति दिला सकता है| विश्व से असत्य और अन्धकार की शक्तियों का निश्चित रूप से पराभव होगा|

चारों ओर छाये असत्य का प्रतिकार करें, और सत्य मार्ग पर अडिग रहें| निश्चित रूप से असत्य का नाश होगा ,और सत्य की विजय होगी|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जुलाई २०१८

परमात्मा के मार्ग पर चलने वाले पथिकों के लिए .....

परमात्मा के मार्ग पर चलने वाले पथिकों के लिए .....
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जो लोग इस भ्रम में हैं कि भगवान की साधना से कुछ मिल जाएगा, तो उन्हें मैं यह बता देना चाहता हूँ कि मिलेगा तो कुछ नहीं, जो कुछ पास में है वह भी चला जाएगा| भगवान को समर्पित होने पर सबसे पहिले तो हम जाति-विहीन हो जाते हैं, फिर वर्ण-विहीन हो जाते हैं, घर से भी बेघर हो जाते हैं, देह की चेतना भी छुट जाती है और मोक्ष की कामना भी नष्ट हो जाती है| विवाह के बाद कन्या अपनी जाति, गौत्र और वर्ण सब अपने पति की जाति, गौत्र और वर्ण में मिला देती है| पति की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है| वैसे ही परमात्मा को समर्पित होने पर अपना कहने को कुछ भी नहीं बचता, सब कुछ उसी का हो जाता है| 'मैं' और 'मेरापन' भी समाप्त हो जाता है| सब कुछ 'वह' ही हो जाता है| भगवान् की जाति क्या है ? भगवान् का वर्ण क्या है ? भगवान् का घर कहाँ है ? मैं कौन हूँ? .... ऐसे प्रश्न भी तिरोहित हो जाते हैं|
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एक बात तो है कि जो कुछ भी परमात्मा का है ..... सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमता आदि आदि आदि उन सब पर हमारा भी जन्मसिद्ध अधिकार है| हम उनसे पृथक नहीं हैं| जो भगवान की जाति है वह ही हमारी जाति है| जो उनका घर है वह ही हमारा घर है| जो उनकी इच्छा है वह ही हमारी इच्छा है|
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मेरी भावनाएँ ....... तुम महासागर हो तो मैं जल की एक बूँद हूँ जो तुम्हारे में मिलकर महासागर ही बन जाती है| तुम एक प्रवाह हो तो मैं एक कण हूँ जो तुम्हारे में मिलकर विराट प्रवाह बन जाता है| तुम अनंतता हो तो मैं भी अनंत हूँ| तुम सर्वव्यापी हो तो मैं भी सदा तुम्हारे साथ हूँ| जो तुम हो वह ही मैं हूँ| मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| जब मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता तो तुम भी मेरे बिना नहीं रह सकते| जितना प्रेम मेरे ह्रदय में तुम्हारे प्रति है, उससे अनंत गुणा प्रेम तो तुम मुझे करते हो| तुमने मुझे प्रेममय बना दिया है| जहाँ तुम हो वहीँ मैं हूँ, जहाँ मैं हूँ वहीं तुम हो| मैं तुम्हारा अमृतपुत्र हूँ, तुम और मैं एक हैं| ॐ शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ||
(यह ध्यान की एक अनुभूति है जो प्रायः सभी उच्च स्तर के साधकों को होती है)
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जुलाई २०१५

स्थिर होकर सुख से बैठने का अभ्यास .....

स्थिर होकर सुख से बैठने का अभ्यास .....
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इतना अभ्यास तो हमें करना चाहिए कि हम कम से कम ढाई से तीन घंटे तक बिना हिले-डुले सुख से एक ही आसन में बैठ सकें| यह विशेषता मैंने सभी साधू-संतों-महात्माओं में देखी है जिनसे मैं अब तक मिला हूँ| वे अपने साधन पर जब बैठते हैं तो उनका शरीर स्थिर रहता है, कोई किसी भी तरह की अनावश्यक हलचल उनके शरीर में नहीं होती| यह अभ्यास से ही संभव है| स्थिर होकर बैठने के अभ्यास के बाद ही कोई उपासना हो सकती है, अन्यथा कभी नहीं|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जुलाई २०१८

क्या भारत के हर जिले में शरिया अदालतें आवश्यक हैं?

क्या भारत के हर जिले में शरिया अदालतें आवश्यक हैं?
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भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व.श्रीमती इंदिरा गाँधी ने राजनीतिक कारणों से अपने शासन काल में "मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड" नाम की एक संस्था बनवाई और उसका पंजीकरण भी एक वैधानिक संस्था के रूप में करवाया था|
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जैसा कि समाचारों में पढ़ रहे हैं, अब उस संस्था की माँग है कि भारत के मुसलमानों के लिए हर जिले में अलग से शरिया अदालतें बनवाई जाएँ| अर्थात जो मुसलमान हैं वे सिर्फ शरिया क़ानून का ही पालन करेंगे, भारत के संविधान या नागरिक संहिता का नहीं| इस का अर्थ है कि देश में दो तरह के कानून होंगे ..... (१) शरिया कानून मुसलमानों के लिए और (२) नागरिक संहिता के कानून गैर मुसलमानों के लिए|
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इस व्यवस्था को लागू करने के लिए फिर पुलिस भी दो तरह की होगी .... एक तो शरिया पुलिस और दूसरी सिविल पुलिस| कोई मुसलमान अपराध करेगा तो उसे शरिया पुलिस ही गिरफ्तार कर सकेगी और उस पर मुक़द्दमा भी शरिया अदालत में ही चलेगा|
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क्या इस तरह की व्यवस्था किसी अन्य देश में भी है ? क्या एक देश में दो तरह की नागरिक संहिताएँ संभव हैं? क्या यह देश के एक और विभाजन की तैयारी नहीं है? इस तरह की माँग को आरम्भ में ही समाप्त कर मुस्लिम पर्सनल बोर्ड नाम की संस्था को बंद कर एक सामान्य नागरिक संहिता लागू कर देनी चाहिए|

किसका संग करूँ ? वह परम पुराण पुरुष ही मेरा शाश्वत् मित्र है .....

किसका संग करूँ ? वह परम पुराण पुरुष ही मेरा शाश्वत् मित्र है .....
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संग मैं उसी का करूँ जो यथावत् मुझे स्वीकार कर ले, अन्य कोई नहीं| मुझेे यथावत् स्वीकार कर सकने वाला मेरा एकमात्र संगी-साथी वह पुराण पुरुष परमात्मा ही हो सकता है जिस के बारे में गीता में भगवान कहते हैं .....
"पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया | यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ||८:२२||"
अर्थात् .... हे पार्थ सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है वह परम पुरुष परमात्मा अनन्यभक्ति से प्राप्त होने योग्य है|
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वह मेरे इस शरीर रूपी पुर में शयन कर रहा है, और सर्वत्र पूर्णतः समान रूप से व्याप्त भी है, इसलिए वह पुरुष कहलाता है| पुराण का अर्थ है ... शाश्वत/सनातन/प्राचीन| वह परम पुराण पुरुष ही मेरा सच्चा मित्र है, अन्य कोई नहीं| वह अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त होता है| उस अनन्य भक्ति को भी मेरे लिए वह स्वयं ही कर रहा है| अतः बलिहारी जाऊँ मैं उस पर, उस से श्रेष्ठतर मित्र होना असंभव है|
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त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ||११:३८||
अर्थात् ..... आप ही आदि देव और पुराण पुरुष हैं तथा आप ही इस संसारके परम आश्रय हैं| आप ही सबको जानने वाले, जानने योग्य और परम धाम हैं| हे अनन्त रूप आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है|
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विवेक-चूडामणि का १३१ वाँ श्लोक कहता है ..... "एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो निरन्तराखण्ड-सुखानुभूति | सदा एकरूपः प्रतिबोधमात्र येनइषिताः वाक्असवः चरन्ति ||"
अन्य भी अनेक ग्रंथों में पुराण पुरुष शब्द का अनेक बार प्रयोग परमात्मा के लिए हुआ है| वह पुराण पुरुष परमात्मा ही मेरा शाश्वत मित्र है| मैं उसमें नाचूँ या गाऊँ ? किसी को क्या ? मैं तो उसमें मग्न हूँ| मेरे लिये एकमात्र साथ उसी का है| उसके अतिरिक्त अन्य कोई है ही नहीं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ जुलाई २०१८
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पुनश्च्च :- ऊपर बताया हुआ गीता के ८ वें अध्याय का २२ वां श्लोक यह भी बताता है कि ईश्वर की प्राप्ति अनन्य भक्ति से ही संभव है| अनन्य का अर्थ वेदान्तिक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा| ध्यान में साधक यह भाव रखता है कि मेरे सिवा अन्य कोई भी नहीं है|

Sunday, 8 July 2018

योग साधना और भक्ति .....

योग साधना और भक्ति .....
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योग साधनाएँ अति प्राचीन वैदिक युग से हैं| जहाँ तक मैं समझता हूँ, योग साधनाओं का मूल कृष्ण यजुर्वेद से है| योग साधनाएँ वैदिक हैं जिनकी शिक्षा कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद से आरम्भ होती हैं| कालान्तर में शेषावतार भगवान पतंजलि ने योगसुत्रों की रचना कर इन्हें एक दार्शनिक रूप दे दिया| ये शेषावतार भगवान पतंजलि ही अगले जन्म में आचार्य गोविन्दपाद के रूप में अवतृत हुए जो आचार्य शंकर के गुरु थे|
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यहाँ मैं भी अपनी सीमित अल्प बुद्धि से थोड़ा बहुत लिखने का दुःसाहस कर रहा हूँ| ये मेरे अपने निजी विचार हैं :---
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यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) और नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) अपने आप में इतने बड़े विषय हैं जिन पर अध्ययन करते करते एक पूरा जन्म भी व्यतीत हो जाए तो कम है| पर इतना समय कहाँ है? मेरा यह मानना है कि मन यदि निर्मल हो, हृदय में भक्ति हो, और भगवान की कृपा हो तो यम और नियम अपने आप ही जीवन में आ जाते हैं| ये यम और नियम भगवान के भक्त के पीछे पीछे चलते हैं| मैं दुबारा जोर देकर कह रहा हूँ कि भक्ति यदि सच्ची हो तो ये यम और नियम भगवान के भक्त के पीछे पीछे चलते हैं|
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आसन तो स्थिर होकर सुख से बैठना ही है जिसमें कमर सीधी हो| हठयोग के आसन और प्राणायाम तो घेरंड संहिता और हठयोग प्रदीपिका से लिए हुए हैं| महर्षि पतंजलि ने इनका उल्लेख कहीं भी नहीं किया है|
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प्राणायाम विषय को आचार्यों द्वारा गोपनीय रखा गया है| सूक्ष्म प्राणायामों से सूक्ष्म शक्तियाँ जागृत होती हैं| साधनाकाल में यदि आचार-विचार सही न हों तो ये लाभ के स्थान पर बहुत अधिक हानि कर देती हैं| अतः यह एक गुरुमुखी विद्या है जिसकी चर्चा मैं यहाँ नहीं करूँगा| आगे का सारा विषय एक गुरुवक्त्रगम्य विद्या है जिसे सिर्फ एक अधिकृत सदगुरु ही समझा सकता है|
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संक्षेप में प्रत्याहार भी एक तरह का इन्द्रियों को प्राणायाम द्वारा दिया हुआ प्रति आहार है| ध्यान के लिए एक धारणा की जाती है| समभाव में स्थिति समाधी है| ये सब गुरुकृपा से ही समझ में आती हैं|
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सार की कुछ बातें श्रीरामचरितमानस से उद्धृत कर रहा हूँ :----
(१) "मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा | किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ||"
कोई कितना भी योग, तप, ज्ञान या वैराग्य का पालन करे, उसको बिना सच्चे और पूर्ण प्रेम के भगवान नहीं मिलेंगे|
(२) "हरि ब्यापक सर्वत्र समाना | प्रेम ते प्रगट होंहि मैं जाना ||"
भगवान सर्वत्र सामान रूप से व्याप्त हैं| वे तो प्रेम से ही प्रकट होते हैं|
(३) "निर्मल मन जन सो मोहि पावा | मोहि कपट छल छिद्र न भावा ||"
सारी साधनाओं का लक्ष्य तो केवल मन की निर्मलता के लिए है, शेष कृपा तो प्रभु के हाथ में है। पर साथ में यह भी पूर्ण विश्वास है कि हम अपनी भमिका निभा जाएंगे तो उनकी कृपा में एक क्षण भी विलम्ब नहीं होगा|
"सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं | जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ||"
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भगवान को खूब प्रेम करो| उनके प्रेम में मग्न होकर डूब जाओ| इतना प्रेम करो कि कोई भेद न रहे| उन्हें तो आना ही पडेगा| वे आयेंगे अवश्य | आगे का सारा मार्गदर्शन भी वे देंगे और वे ही हमारा निरंतर स्मरण करेंगे|
यही है योगसाधना, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जुलाई २०१८

क्या परमात्मा मन का विषय हैं ? .....

क्या परमात्मा मन का विषय हैं ? .....
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श्रुति भगवती कहती है ..... "यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्‌ | तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ||" (केनोपनिषद १-६).
'वह' जो मन के द्वारा मनन नहीं करता, 'वह' जिसके द्वारा मन स्वयं मनन का विषय बन जाता है, 'उसे' ही तुम 'ब्रह्म' जानो, न कि इसे जिसकी मनुष्य यहाँ उपासना करते हैं|
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मेरे विचार से यह विषय समझने के लिए गीता के तेरहवें अध्याय "क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग" का स्वाध्याय बहुत अधिक सहायक होगा|
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एक बात तो निश्चित है कि परमात्मा हमारे मन और बुद्धि की समझ से परे है| उसके गुणों की हम गहरे ध्यान में अनुभूति तो कर सकते हैं, पर अपना रहस्य तो वे स्वयं ही कृपा कर के किसी को अनावृत कर सकते हैं|
"सोइ जानहि जेहि देहु जनाई, जानत तुमहिं तुमहि हुई जाई|"
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जुलाई २०१८

सारी साधनाएँ एक बहाना है, असली चीज तो प्रभु की कृपा है .....

सारी साधनाएँ एक बहाना है, असली चीज तो प्रभु की कृपा है .....
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हमारी सारी आध्यात्मिक साधनाएँ, जप-तप, योग, ध्यान, भजन-कीर्तन और पूजा-पाठ आदि आदि सब एक बहाना मात्र हैं| ये सब सिर्फ हमारी कमियों को दूर करती हैं, इनसे प्रभु नहीं मिलते| शरणागति भी हमारी कमियों को ही दूर करती है| उस से भी प्रभु नहीं मिलते| प्रभु तो करूणावश सिर्फ अपनी कृपा से ही मिलते हैं| उन्हें कोई बाध्य नहीं कर सकता| सारी साधनाएँ तो एक बहाना मात्र हैं, और कुछ नहीं|
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एक बालक अपने माता-पिता से मिलना चाहे तो उसके माता-पिता क्या यह कहेंगे कि बेटा, तुम इतना तप करो, इतना जप करो, इतने यज्ञ करो, इतना ध्यान करो, इतना पुण्य करो, इतनी क्रिया करो, तब मैं मिलूंगा ? एक नालायक से नालायक संतान भी अपने माँ-बाप से मिलना चाहे तो माँ-बाप मना नहीं करते|
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फिर प्रभु से हम दूर क्यों हैं? वे हमें क्यों नहीं मिलते? इस पर ज़रा विचार करें और मुझे भी अपने ज्ञान का प्रकाश दें| धन्यवाद ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जुलाई २०१८
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पुनश्चः :-- मेरे लिए तो प्रभु परम कल्याणकारी, प्रेम और आनंदमय हैं| मैं ऐसे किसी भगवान को नहीं मानता जो प्राणियों की ह्त्या करा कर, उन पर अत्याचार करा कर और दूसरों को दुःख दिला कर प्रसन्न होता है|
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निर्मल मन जन, सो मोहिं पावा। सारी साधनाओं का लक्ष्य तो केवल मन की निर्मलता के लिए है, शेष कृपा तो प्रभु के हाथ में है। पर साथ में यह भी पूर्ण विश्वास है कि हम अपनी भमिका निभा जाएंगे तो उनकी कृपा में एक क्षण भी विलम्ब नहीं होगा ॐ ॐ ॐ !!
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सारी साधनाओं का लक्ष्य मन का मेल दूर करना है ....
श्री रामचरितमानस में भगवान श्रीराम ने एक ऐसा सूत्र पकड़ा दिया है जिस से भगवान स्वयं ही पकड़ में आ गये हैं| वह सूत्र है ....
"निर्मल मन जन सो मोहि पावा | मोहि कपट छल छिद्र न भावा ||"
यही बात हमारे सारे ग्रंथों में कही गयी है| जो इस बात को समझ कर अपने आचरण में ले आयेगा वह एक न एक दिन प्रभू को अवश्य प्राप्त कर लेगा|

अज्ञान कैसे दूर हो ? ....

अज्ञान कैसे दूर हो ?
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एक अति विराट और महत्वपूर्ण विषय पर मैं अपनी सीमित अति अल्प बुद्धि से चर्चा करने का दुःसाहस कर रहा हूँ| भगवान मेरी सहायता करें|
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सारे कर्मफलों के मूल में हमारी कामनाएँ और कर्ताभाव है| कामनाओं और कर्ताभाव का मूल अज्ञान है| अपनी आनंदरूपता यानि परमात्मा के साथ ऐक्यता का ज्ञान न होना ही अज्ञान है| सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि अज्ञान कैसे दूर हो? सिर्फ पढ़ने मात्र से यह अज्ञान दूर नहीं हो सकता| इसके लिए नियमित गहन ध्यान साधना भी करनी होगी|
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अकर्ताभाव के बारे में भगवान कहते हैं .....
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ | पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ||५:८||
इसका भावार्थ है कि कर्मयोगी परमतत्व परमात्मा की अनुभूति करके दिव्य चेतना मे स्थित होकर देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वांस लेता हुआ इस प्रकार यही सोचता है कि मैं कुछ भी नही करता हूँ|
पर इसके लिए परम तत्व परमात्मा की अनुभूति होना आवश्यक है| वह अनुभूति कैसे हो? वह ध्यान साधना में परमात्मा की परम कृपा से ही हो सकती है|
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भगवान आगे कहते हैं .....
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः|
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा||५:१०||
इसका भावार्थ है कि "कर्म-योगी" सभी कर्म-फ़लों को परमात्मा को समर्पित करके निष्काम भाव से कर्म करता है, तो उसको पाप-कर्म कभी स्पर्श नही कर पाते है, जिस प्रकार कमल का पत्ता जल को स्पर्श नही कर पाता है|
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हमें हर कार्य भगवान को समर्पित कर के ही करना चाहिए| इसके लिए अभ्यास करना होगा, वह अभ्यास ही साधना है| गीता में साधना के ऊपर भगवान ने बहुत प्रकाश डाला है| हर मुमुक्षु को चाहिए कि वह गीता का स्वाध्याय करे|
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कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद में योग साधना के ऊपर बहुत गहराई और विस्तार से बताया गया है| उसका भी स्वाध्याय आवश्यक है|
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अंत में सबसे महत्वपूर्ण है परमात्मा की परम कृपा जो परमप्रेम और शरणागति से प्राप्त होती है| वह परम कृपा ही हमारा अज्ञान दूर सकती है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जुलाई २०१८

इतने सारे सदगुण कहाँ से लाएँ ? .....

इतने सारे सदगुण कहाँ से लाएँ ? .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च| निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी||१२:१३||
अर्थात् सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित, सब का मित्र और दयालु, ममता रहित, अहंकार रहित, सुख-दुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीरको वशमें किये हुए, दृढ़ निश्चय वाला, मेरे में अर्पित मन-बुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मेरेको प्रिय है|
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भगवान ने बहुत सारे गुण गिना दिए हैं| अब सिर्फ कामना करने, या संकल्प करने मात्र से तो इतने सारे गुण आ नहीं सकते, अब ये सारे गुण कहाँ से कैसे अपने भीतर लायें? यह तो हमारे वश के बात नहीं है| हे प्रभु आप चाहते हैं कि ये गुण आपके भक्तों में हों तो अब आप स्वयं ही इन्हें हमें प्रदान करें| ये हमारे वश की बात नहीं है कि हम इन्हें विकसित करें| हम तो आपके परम अनुग्रह पर निर्भर हैं|
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हमें तो आप से आप के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| अपने गुण-अवगुण सब अपने पास ही रखो| ये हमारे किसी काम के नहीं हैं| आना है तो आओ, अन्यथा रहने दो| पर हम तुम्हारे बिना नहीं रह सकते| तुम्हें इसी क्षण इसी क्षण आना ही पड़ेगा, कोई अन्य विकल्प तुम्हारे पास भी नहीं है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जुलाई २०१८

परमात्मा की क्या चर्चा करें ? ....

परमात्मा की क्या चर्चा करें ? ....
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गन्धर्वराज पुष्पदंत द्वारा रचित "शिवमहिम्नस्तोत्र" जो अपने आप में एक सम्पूर्ण ग्रन्थ है, का बत्तीसवाँ श्लोक कहता है .....
"असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे| सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी||
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं| तदपि तव गुणानामीश पारं न याति||"
भावार्थ: यदि समुद्र को दवात बनाया जाय, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड की शाखा को लेखनी बनाकर और पृथ्वी को कागज़ बनाकर स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें तो भी आप के गुणों की पूर्णतया व्याख्या करना संभव नहीं है|
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परमात्मा अचिन्त्य है| हम सिर्फ उसके गुणों की ही चर्चा और गुणों का ही स्वाध्याय कर सकते हैं| बौद्धिक संतुष्टि ही पानी है तो रामचरितमानस का, सारे उपनिषदों का, और भगवद्गीता का स्वाध्याय कर लें| इन से बढ़िया और कुछ भी इस सृष्टि में नहीं है| आत्मा की संतुष्टि ही पानी है तो ओंकार का ध्यान किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य के सान्निध्य और मार्गदर्शन में करें| कोई भी साधना हो किसी अधिकृत ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य के मार्गदर्शन में ही करनी चाहिए, सिर्फ पुस्तकें पढ़ कर नहीं|
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बाकी और कुछ भी लिखना मेरे लिए व्यर्थ है| आत्मतत्व के बारे में सारा ज्ञान उपनिषदों में है| स्वाध्याय के साथ साथ ध्यान साधना भी करें| मुझे तो भगवान की परम कृपा और गुरुओं के आशीर्वाद से पूरा मार्गदर्शन प्राप्त है| किसी भी तरह की कोई शंका/संदेह व भ्रम नहीं है|
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आप सब महान आत्माओं को सप्रेम सादर नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१८

भगवान को निवेदित किये बिना, व औरों को खिलाये बिना अकेला ही खाने वाला केवल अपने पापों का ही भक्षण करता है ....

भगवान को निवेदित किये बिना, व औरों को खिलाये बिना अकेला ही खाने वाला केवल अपने पापों का ही भक्षण करता है ....
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गीता में भगवान कहते हैं ....
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः| तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः||१३:१२||
अर्थात यज्ञ द्वारा पोषित देवतागण तुम्हें इष्ट भोग प्रदान करेंगे| उनके द्वारा दिये हुये भोगों को जो पुरुष उनको दिये बिना ही भोगता है वह निश्चय ही चोर है||
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सब कुछ हमें भगवान से उधार मिला है, वह एक ऋण है जो हमें बापस उन्हें लौटाना ही होगा| हमें भोजन भी भगवान की कृपा से ही मिलता है जिसके लिए हमें भगवान का उपकार मानना चाहिए| बिना उन्हें अर्पित किये कुछ भी आहार ग्रहण करना एक चोरी ही है| मनुस्मृति में भगवान मनु महाराज कहते हैं....
अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात् | यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतां अन्नं विधीयते ||३:११८||
अर्थात् जो देवता आदि को अर्पित किये बिना केवल अपने लिए अन्न पकाकर खाता है, वह केवल पाप खाता है|
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श्रुति भगवती भी कहती हैं .....
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य|
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी|| ऋग्वेद १०:११७:६||
(शब्दार्थ-अप्रचेताः = दुर्बु( मनुष्य मोघम्= व्यर्थ ही अन्नम् = भोग-सामग्री को विन्दते= पाता है। सत्यं ब्रवीमि = सच कहता हूं कि सः= वह भोग-सामग्री तस्य = उस मनुष्य के लिए वध इत् = मृत्यु रूप ही होती है - उसका नाश करने वाली ही होती है। ऐसा दुर्बु( न अर्यमणं पुष्यति = न तो यज्ञ द्वारा अर्यमादि देवों की पुष्टि करता है नो सखायम् = और न ही मनुष्य-साथियों की पुष्टि करता है। सचमुच वह केवलादी = अकेला खाने-भोग करनेवाला मनुष्य केवलाघो भवति = केवल पाप को ही भोगनेवाला होता है।
साभार :वैदिक विनय)
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संसार में धनी दिखने वाले दुर्बुद्धि मनुष्यों के पास जो अन्न भण्डार आदि जो भोग विलास की सामग्री है, वह उनका काल यानी मृत्यु की सामग्री है क्योंकि वे इस से अपनी देह को ही पोषित करते हैं| औरों को खिलाये बिना अकेला ही खाने वाला केवल अपने पापों को ही खाता है|
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हे प्रभु, मैं तुम्हारी शरण में हूँ, सिर्फ तुम्हारा ही भरोसा है| इस लालची और स्वार्थमय विपत्ति रूपी रूपी पाप जाल को काटो| 
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१८

Thursday, 5 July 2018

हमारे पतन का एकमात्र कारण हमारा मानसिक व्यभिचार है .....

हमारे पतन का एकमात्र कारण हमारा मानसिक व्यभिचार है .....
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मैं अपने जीवन के अब तक के सारे अनुभवों के आधार पर यह कह रहा हूँ कि हमारे पतन का एकमात्र कारण हमारा मानसिक व्यभिचार है| अन्य कोई कारण नहीं है| मन में बुरी बुरी कल्पनाओं का आना, और उन कल्पनाओं में मन का लगना मानसिक व्यभिचार है| यह मानसिक व्यभिचार ही भौतिक व्यभिचार में बदल जाता है| यह मानसिक व्यभिचार आध्यात्म मार्ग की सबसे बड़ी बाधा तो है ही, लौकिक रूप से भी समाज में दुराचार फैलाता है| अपने चारों ओर जो भी बुराइयाँ हम देख रहे हैं, उनके स्त्रोत में हमारा स्वयं का ही मानसिक व्यभिचार है|
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इससे कैसे बचें इसका निर्णय प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ले| आजकल किसी को कुछ कहना भी अपना अपमान करवाना है| समाज का वातावरण बहुत अधिक खराब है| बड़े बड़े धर्मगुरु भी अपनी बात कहते हुए संकोच करते हैं| मैं फेसबुक के अपने पेज पर तो यह बात निःसंकोच होकर कह रहा हूँ, पर किसी को व्यक्तिगत रूप से कुछ कहने का अर्थ है .... गालियाँ, तिरस्कार और अनेक अपमानजनक शब्दों को निमंत्रित करना| आज के युग में व्यक्ति स्वयं को बचाकर रखे| उपदेश ही देना है तो अपने बच्चों को ही दे, अन्य किसी को नहीं| आजकल तो स्वयं के बच्चे भी नहीं सुनते| इतना लिख दिया यही बहुत है| भगवान सब का कल्याण करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०१७
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पुनश्चः :---
आजकल इतने जो बलात्कार, अपहरण, चोरी, डकैती, लूट-खसोट, और बेईमानी हो रही है इसका कारण भी हमारा मानसिक व्यभिचार है| इसका निदान यही है कि बाल्यकाल से ही सब को अच्छे संस्कार दें, और किशोरावस्था से ही सब में भक्ति व ध्यान साधना में रूचि जागृत करें|

Wednesday, 4 July 2018

मेरे लिए मेरा स्वधर्म है ..... "परमात्मा से परमप्रेम, उनकी उपासना और सदाचरण .....

मेरे लिए मेरा स्वधर्म है ..... "परमात्मा से परमप्रेम, उनकी उपासना और सदाचरण|"
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इसके अतिरिक्त अन्य सब लौकिक धर्म है| "स्वधर्म" ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, अन्य कुछ भी नहीं| परमात्मा की परम कृपा से मुझे स्वधर्म का अच्छी तरह बोध और ज्ञान है, किसी भी तरह का कोई संशय नहीं है| इस संसार को मैनें बहुत समीप से देखा है जिस पर से मेरी आस्था हट गयी है| किसी पर भी अब विश्वास नहीं रहा है| श्रद्धा और विश्वास एकमात्र परमात्मा पर ही है| इसी क्षण से आगे जीवन के अंत तक स्वधर्म में ही स्थिर रहने का प्रयास होगा|
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भगवान भी कहते हैं ...
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||"३:३५||
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राग द्वेष से भरा मनुष्य तो परधर्म को भी स्वधर्म मान लेता है| परन्तु यह उसकी भूल है| जब भगवान से ये शब्द लिखने की प्रेरणा मिली है तो इसी क्षण से स्वधर्म में स्थित रहने का पूरा प्रयास होगा|
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मेरी प्रार्थना है कि सभी अपने स्वधर्म को समझें और उस का आचरण करें|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ जुलाई २०१८

भगवान का अनुस्मरण कैसे हो ?.....

भगवान का अनुस्मरण कैसे हो ?.....
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भगवान का अनुस्मरण कैसे हो ? यह एक अत्यधिक महत्वपूर्ण विषय है जिस की हम उपेक्षा नहीं कर सकते| इसकी उपेक्षा से भविष्य में हमें सुख की नहीं अपितु दुःखों ही दुःखों की प्राप्ति होगी| इस जन्म में तो हम अपना प्रारब्ध भुगत रहे हैं, पर आगे के जन्मों में हमारी क्या गति होगी यह भगवान के लिए हमारे द्वारा किये गए अनुस्मरण पर निर्भर है|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||
अर्थात् ..... इसलिये तू सब समयमें मेरा अनुस्मरण कर और युद्ध भी कर| मेरे में मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला तू निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा|
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अंतकाल की भावना ही अगले जन्म में अन्य शरीर की प्राप्ति का कारण होती है| इस लिए भगवान ने यह बात कही है| पता नहीं कौन सा क्षण या कौन सी साँस अंतिम हो| भगवान हमें आदेश देते हैं कि हर समय हम उनका स्मरण भी करें और स्वधर्म रूपी युद्ध यानी अपने कर्त्तव्य भी शास्त्राज्ञानुसार निभाते रहें| यह भगवान की आज्ञा है जिसका हमें पालन सदा बिना किसी संशय के करना चाहिए|
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स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान शंकर ने उपरोक्त श्लोक का स्पष्ट अर्थ किया है .... "तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर यथाशास्त्रम्| युध्य च युद्धं च स्वधर्मं कुरु| मयि वासुदेवे अर्पिते मनोबुद्धी यस्य तव स त्वं मयि अर्पितमनोबुद्धिः सन् मामेव यथास्मृतम् एष्यसि आगमिष्यसि असंशयः न संशयः अत्र विद्यते||"
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हम अपना मन और बुद्धि भगवान को अर्पित करें .....
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भगवान ने हम को सब कुछ दिया है अतः हमारा भी दायित्व बनता है कि हम भी भगवान को कुछ दें| भगवान हमसे क्या माँगते हैं????? वे हम से हमारा मन और बुद्धि ही तो माँग रहे हैं| क्या हम अपना मन और बुद्धि भी भगवान को अर्पित नहीं कर सकते?????
यदि नहीं कर सकते तो हमारा जीवन व्यर्थ है और हम इस पृथ्वी पर भार ही हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ जुलाई २०१८

Monday, 2 July 2018

"आत्मज्ञान" ही परम धर्म है.....

"आत्मज्ञान" ही परम धर्म है.....
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समाज में व्याप्त विकृतियों का कारण हमारी गलत मनोवृति, गलत विचार व गलत भावनाएँ हैं | दोष कहीं बाहर नहीं है, हमारे भीतर ही है| इनसे बचने के लिए आवश्यक है .... परमात्मा का ध्यान, ध्यान और ध्यान| सबसे बड़ी सेवा जो हम अपने स्वयं, परिवार, समाज, देश और विश्व की कर सकते हैं, और सबसे बड़ा उपहार जो हम किसी को दे सकते हैं, वह है ..... "आत्मसाक्षात्कार"|

निरंतर प्रभु की चेतना में स्थिर रहें, यह बोध रखें कि हमारी आभा और स्पंदन पूरी सृष्टि और सभी प्राणियों की सामूहिक चेतना में व्याप्त हैं, और सब का कल्याण कर रहे हैं|

प्रभु की सर्वव्यापकता हमारी सर्वव्यापकता है, सभी प्राणियों और सृष्टि के साथ हम एक हैं| हमारा सम्पूर्ण अहैतुकी परम प्रेम पूरी समष्टि का कल्याण कर रहा है| हम और हमारे प्रभु एक हैं|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ जुलाई २०१८

अन्धकार और प्रकाश कभी एक साथ नहीं रह सकते .....

अन्धकार और प्रकाश कभी एक साथ नहीं रह सकते .....
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जहाँ काम-वासना है वहाँ ब्रह्मचिंतन या ध्यान साधना की कोई संभावना नहीं है| जो मत काम वासनाओं की तृप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं वे अन्धकार और असत्य की शक्तियाँ हैं| उनका अनुसरण घोर अंधकारमय नारकीय लोकों में ले जाता है| ऐसे असुर लोग नरपिशाच और इस पृथ्वी पर कलंक हैं|
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"जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम|
तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम||"
जहाँ काम-वासना है वहाँ "राम" नहीं हैं, जहाँ "राम" हैं वहाँ काम-वासना नहीं हो सकती| सूर्य और रात्री एक साथ नहीं रह सकते|
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जो मैं लिख रहा हूँ वह आध्यात्मिक साधना के अपने निज अनुभव से लिख रहा हूँ, कोई हवा में तीर नहीं मार रहा हूँ| मनुष्य की सूक्ष्म देह में सुषुम्ना नाड़ी है जिसमें प्राण शक्ति ऊपर-नीचे प्रवाहित होती रहती है| यह प्राण तत्व ही हमें जीवित रखता है| इस प्राण तत्व की अनुभूति हमें ध्यान साधना में होती है|
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जब काम वासना जागृत होती है तब यह यह प्राण प्रवाह अधोमुखी होकर नीचे के तीन चक्रों तक ही सीमित हो जाता है, और सारी आध्यात्मिक प्रगति रुक जाती है| परमात्मा के प्रेम की अनुभूतियाँ हृदय से ऊपर के चक्रों में ही होती है, जिनमें विचरण कामवासना से ऊपर उठ कर ही हो सकता है|
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और आगे की बातों की यहाँ कोई सार्थकता नहीं है| यहाँ मेरा उद्देश्य यही बताने का है कि कामुकता से ऊपर उठकर ही मनुष्य परमात्मा की ओर अग्रसर हो सकता है| कामुकता बढाने वाली या कामवासना की तृप्ति को ही लक्ष्य मानने वाली विचारधाराएँ असत्य और अन्धकार (Falsehood and Darkness) की पैशाचिक शक्तियाँ हैं| जो इनका समर्थन करते हैं वे महा असुर हैं और नर्कगामी हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ जुलाई २०१८

Sunday, 1 July 2018

"भूमा" का रहस्य ....."भगवान के मार्ग में नौकरी करने वाले से व्यापार यानी धंधा करने वाला अधिक व शीघ्र सफल होता है" .....

"भूमा" का रहस्य ....."भगवान के मार्ग में नौकरी करने वाले से व्यापार यानी धंधा करने वाला अधिक व शीघ्र सफल होता है" .....
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नौकरी करने वाला कभी खरबपति धनवान नहीं बन सकता, खरबपति धनवान बनने के लिए उसे व्यापार/धंधा ही करना होगा| एक नौकरी करने वाला दिन में कम से कम आठ घंटे परिश्रम करता है है और महीने के अंत में छोटा मोटा वेतन पाकर प्रसन्न हो जाता है| कभी कभी वेतन बढ़वाने के लिए हड़ताल पर चला जाता है| पर व्यापारी न तो कभी हड़ताल पर जाने की सोच सकता है, और न सिर्फ कुछ घंटे ही काम करने की| वह तो चौबीस घंटे अपने व्यापार की ही सोचता है, सोते समय भी वह व्यापार के स्वप्न लेता है, जागते समय भी व्यापार का ही चिंतन करता है और मिलना-जुलना भी उन्हीं से करता है जो उसके व्यापार में सहायक हैं| फालतू लोगों को वह अपने पास भी नहीं फटकने देता| यही स्थिति आध्यात्म में है|
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भगवान को पाने की नौकरी करने वालों से भगवान को पाने का धंधा यानि व्यापार करने वाले अधिक व शीघ्र सफल होते हैं| अतः भगवान को पाना अपना धंधा यानि व्यापार बना लेना चाहिए| संसार में ऐसा व्यक्ति दो लाख में से एक ही होता है जो भगवान को पाना अपना धंधा बना सकता है| वही भगवान को अत्यधिक प्रिय होता है| अन्धकार कभी सूर्य तक नहीं पहुँच सकता, वैसे ही जिज्ञासामात्र या सिर्फ पुस्तकें पढने मात्र से कोई भगवान को नहीं पा सकता|
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आध्यात्म में "भूमा" तत्व हमें यही सिखाता है| ब्रह्मविद्या के प्रथम आचार्य भगवान सनत्कुमार से उनके प्रिय शिष्य देवर्षि नारद ने पूछा .... " सुखं भगवो विजिज्ञास इति|" जिसका उत्तर भगवान् श्री सनत्कुमार जी का प्रसिद्ध वाक्य है ..... "यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति|" अर्थात् भूमा तत्व में यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में सुख नहीं है| जो भूमा है, व्यापक है वह सुख है| कम में सुख नहीं है| सनत्कुमार नारद को समझाते हुए कहते हैं कि "सत्य' को जानने के लिए विज्ञान और विज्ञान को जानने के लिए बुद्धि-विशेष का उपयोग करना चाहिए| बुद्धि के लिए श्रद्धा का होना अनिवार्य है| श्रद्धा द्वारा ही बुद्धि किसी विषय का मनन कर पाती है| श्रद्धा के साथ निष्ठा का होना भी अनिवार्य है, क्योंकि निष्ठा के बिना श्रद्धा नहीं होती|
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'भूमा' शब्द का अर्थ है ..... विशाल, विस्तृत, विराट, अनन्त, असीम और ऐश्वर्य| इस 'भूमा' की खोज ही भारतीय तत्त्व-दर्शन का आधार है| यह 'भूमा' अनन्त आनन्द का प्रदाता है| यह 'भूमा' ही 'ब्रह्म' का स्वरूप है| इसे ही अमृत, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वोत्तम कहा गया है| यही 'आत्मा' है| इसे जान लेने के उपरान्त मनुष्य समस्त सांसारिक भोगों से मुक्त होकर शुद्ध रूप से अपने अन्त:करण में विद्यमान 'परब्रह्म' को प्राप्त कर लेता है|
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भूमा तत्व की अनुभूति गहन ध्यान में होती है| भगवान को प्रेम करेंगे तभी तो तो उन पर ध्यान करने की पात्रता आयेगी| वह पात्रता हमारे में लानी ही पड़ेगी|
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वेद वाक्य ही प्रमाण हैं| श्रुति भगवती भी यही कहती है ..... यो वै भूमा तत् सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति, भूमैव सुखं .... (छान्दोग्य उप. ७/२३/१)| यह सामवेद का उपनिषद् है|
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श्रुति भगवती ही कहती है कि मुमुक्षा जागृत होने पर श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य के पास जाकर मार्गदर्शन प्राप्त करें .....
"परीक्ष्य लोकान्‌ कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन|
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्||" (मुण्डक.उप. १:२:१२)
अर्थात् ... ‘कर्मसे प्राप्त किये जानेवाले लोकोंकी परीक्षा करके ब्राह्मण वैराग्यको प्राप्त हो जाय, यह समझ ले कि किये जानेवाले कर्मोंसे परमात्मतत्त्व नहीं मिल सकता| वह उस ब्रह्मज्ञानको प्राप्त करनेके लिये हाथमें समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरुके पास जाय|'
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श्रीमद्भागवत की उद्धव गीता में भी यह बात भगवान ने उद्धव को विस्तार से समझाई है| अधिक लिखने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि तत्व की सारी बातें यहाँ आ चुकी हैं| आप सब महान दिव्य आत्माओं को नमन ! आप सब भगवान की श्रेष्ठतम साकार अभिव्यक्तियाँ हैं|
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ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ जुलाई २०१८