Wednesday, 18 September 2024

भगवान के प्रति हम कैसे समर्पित हों? ---

 भगवान के प्रति समर्पित होना एक उच्चतम स्थिति है, भागवत में जिसके उदाहरण जड़भरत हैं। उनकी स्थिति उच्चतम थी। समर्पण के लिए वीतराग होना आवश्यक है। एक वीतराग व्यक्ति ही भगवान के प्रति समर्पित हो सकता है। वीतरागता ही वैराग्य है। भगवान श्रीकृष्ण हमें 'स्थितप्रज्ञ मुनि' होने का आदेश देते हैं जिसके लिए भगवान को समर्पित तो होना ही पड़ता है। भगवान कहते हैं --

"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
अर्थात् - दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥
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भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर के अनुसार -- "आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकार के दुःखों के प्राप्त होने से जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, अर्थात् क्षुभित नहीं होता उसे "अनुद्विग्नमना" कहते हैं। सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा व तृष्णा नष्ट हो गयी है, अर्थात् ईंधन डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुख के साथ साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती, वह "विगतस्पृह" कहलाता है। जिसके आसक्ति, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह "वीतराग भय क्रोध" कहलाता है। ऐसे गुणों से युक्त जब कोई हो जाता है, तब वह स्थितधी यानी स्थितप्रज्ञ और मुनि यानी संन्यासी कहलाता है।"
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यह "स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है। भगवान श्रीकृष्ण ने राग-द्वेष से मुक्ति और वीतराग होने का मार्ग भी बता दिया है, जो निम्न श्लोकों के स्वाध्याय से पूरी तरह समझ में आ सकता है (हालाँकि ये दूसरे संदर्भ में हैं)--
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८:११॥"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८:१५॥"
अर्थात् -- वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा॥
सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ॥
जो पुरुष ॐ इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है॥
हे पृथानन्दन ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभता से प्राप्त हो जाता हूँ॥
परम सिद्धि को प्राप्त हुये महात्माजन मुझे प्राप्त कर अनित्य दुःख के आलयरूप (गृहरूप) पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं॥
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परमात्मा को कर्ता बनाकर हम सब कार्य करें। कर्तव्य निभाते हुए भी अकर्ता बने रहें। सारे कार्य और उनके फल परमात्मा को समर्पित कर दें। किसी भी तरह की अपेक्षा व कामना न हो। किसी के प्रति भी राग और द्वेष न हो। हम बुराई का प्रतिकार करें, युद्धभूमि में शत्रु का भी संहार करें, लेकिन ह्रदय में घृणा और क्रोध बिलकुल भी न हो।
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राग और द्वेष ये दो ही पुनर्जन्म यानि इस संसार में बारम्बार आने के मुख्य कारण हैं। जिनसे भी हम राग या द्वेष रखते हैं, अगले जन्म में उन्हीं के परिवार में जन्म होता है। जिस भी परिस्थिति और वातावरण से हमें राग या द्वेष है, वही वातावरण और परिस्थिति हमें दुबारा मिलती है। राग और द्वेष ही लोभ और अहंकार को जन्म देते हैं। मनुष्य का लोभ और अहंकार ही मनुष्य के सारे पापों का मूल, सब बुराइयों की जड़ और सब प्रकार की हिंसा का एकमात्र कारण है। मनुष्य के लोभ और अहंकार का जन्म भी राग और द्वेष से ही होता है, जिसके कारण हम भगवान को समर्पित नहीं हो पाते। भगवान को समर्पित होना -- मनुष्यत्व की वह परम अवस्था है जहाँ पर हम परम-तत्व से साक्षात्कार करने लगते हैं। समर्पित व्यक्ति के लिए स्वर्ण व धूलि एक समान होते हैं, वह कुछ पकड़ता भी नहीं है और कुछ छोड़ता भी नहीं है। यह चैतन्य की एक बहुत ऊँची अवस्था है।
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भागवत में गोकर्ण अपने पिता को उपदेश देते हैं कि -- हे पिताजी! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिर का पिण्ड है; इसे आप ‘मैं’ मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादि को ‘अपना’ कभी न मानें। इस संसार को रात-दिन क्षणभंगुर देखें, इसकी किसी भी वस्तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एकमात्र वैराग्य रस के रसिक होकर भगवान् की भक्ति में लगे रहें।
भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरन्तर उसी का आश्रय लिये रहें। अन्य सब प्रकार के लौकिक धर्मों से मुख मोड़ लें। सदा साधुजनों की सेवा करें। भोगों की लालसा को पास न फटकने दें तथा जल्दी-से-जल्दी दूसरों के गुण-दोषों का विचार करना छोड़कर एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान् की कथाओं के रस का ही पान करें।
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जितना मैं अपनी अल्प और सीमित बुद्धि से लिख सकता हूँ, वह यहाँ लिख दिया है। भगवान की विशेष परम कृपा से ही यह विषय समझ में आ सकता है। इस लेख में कोई कमी रह गयी है तो वह मेरी अज्ञानता के कारण है। भगवान की परम कृपा से हमें भगवान को समर्पित महापुरुषों का सत्संग प्राप्त होता है। उनके निरंतर सत्संग से हम स्वयं भी समर्पित हो सकते हैं।
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
६ अक्तूबर २०२३
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(पुनश्च) कुछ दिन पूर्व मेरा सत्संग अनंतश्रीविभूषित परिव्राजकाचार्य परमहंस श्रीमद् दंडी स्वामी जोगेन्द्राश्रम से हुआ था। उन्होंने एक आदेश दिया था कि मैं एक लेख "समर्पण" पर लिखूँ। उनके आदेश की पूर्ति में ही अपनी सीमित और अल्प बुद्धि से यह लेख लिखा है।

नर्क, स्वर्ग, सदगति, दुर्गति, मुक्ति, मोक्ष और पुनर्जन्म ---

 नर्क, स्वर्ग, सदगति, दुर्गति, मुक्ति, मोक्ष और पुनर्जन्म --- ये सब हमारे अपने स्वयं के कर्मों पर निर्भर हैं| वास्तव में इन का कोई महत्व भी नहीं है| जीवन में एकमात्र महत्व --परमात्मा का है, जिन्हें हम अपना सर्वस्व अर्पित कर दें| परमात्मा से प्रेम और समर्पण से ही सदगति हो सकती है, न कि किसी कर्मकांड से| अपना स्वयं का किया हुआ सत्कर्म ही काम आता है| हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) ही पिंड है, जिसे परमात्मा को अर्पण कर देना ही पिंडदान और सच्चा श्राद्ध है| अपना अन्तःकरण पूर्ण रूप से परमात्मा को सौंप दें| इस के लिए हमें सत्यनिष्ठा से परमात्मा की उपासना करनी पड़ेगी|

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भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ---
"उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌| आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः||६:५||"
अर्थात् मनुष्य को चाहिये कि वह अपने मन के द्वारा अपना जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन से उद्धार करने का प्रयत्न करे, और अपने को निम्न-योनि में न गिरने दे, क्योंकि यह मन ही जीवात्मा का मित्र है, और यही जीवात्मा का शत्रु भी है||
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श्रुति भगवती भी कहती है ---
"एको हंसः भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः |
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय || श्वेताश्वतरोपनिषद:६:१५||"
अर्थात् इस सम्पूर्ण विश्व के अन्तर में 'एक' 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' है एवं 'वह' अग्निस्वरूप' है जो जल की अतल गहराई में स्थित है| 'उसका' ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है|
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परमात्मा को जानकर ही हम मृत्यु का उल्लंघन कर सकते हैं| परमात्मा को हमें स्वयं ही प्राप्त करना होगा| यह उनकी कृपा और अनुग्रह के द्वारा ही संभव है जो करुणावश वे स्वयं ही कर सकते हैं| श्रुति भगवती ने यहीं यह भी कहा है ---
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः|
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति|| श्वेताश्वतरोपनिषद:६:१४||"
अर्थात् वहाँ न सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्र ही भासमान् है; तारे वहीं अन्धवत् हो जाते हैं; वहीं यह विद्युत् की चमक भी 'उसे' उद्भासित नहीं करती, किसी पार्थिव अग्नि का तो प्रश्न ही नहीं है; जो कुछ भी भास्वर है वह 'उसकी' ज्योति की ही प्रतिच्छाया है तथा 'उसी' की दीप्ति से यह सम्पूर्ण जगत् देदीप्यमान् हो रहा है|
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अपना अंतःकरण भगवान को सौंप दें, यही हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य है| यही हमारा सच्चा पिंडदान और श्राद्ध व मुक्ति है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ दिसंबर २०२०

गणेश जी ओंकार रूप हैं ---

 यह बात मैंने आज तक बहुत अधिक गोपनीय रखी थी और आज तक किसी को भी नहीं बतायी थी। भगवान गणेश जी की प्रेरणा से ही आज इसे लिख रहा हूँ। नित्य अपनी व्यक्तिगत साधना से पूर्व, मैं गणेश जी का साकार रूप में मूलाधारचक्र में जप और ध्यान करता हूँ। इससे मुझे एक अवर्णनीय अति दिव्य अनुभूति होती है, जिसे व्यक्त करने में मैं असमर्थ हूँ।

गणेश जी का वह विग्रह एक अति तीब्र प्रकाश और प्रणव अक्षर के रूप में परिवर्तित होकर सुषुम्ना की ब्रह्म उपनाड़ी में स्थित सभी सूक्ष्म चक्रों को भेदते हुए सहस्त्रारचक्र में भगवान विष्णु के चरण कमलों का स्पर्श कर, सारे ब्रह्मांड में ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में व्याप्त हो जाता है। उस ज्योतिर्मय ब्रह्म का ही मैं अजपा-जप द्वारा ध्यान करता हूँ, और उसमें से निःसृत हो रहे प्रणव मंत्र का तेलधारा की तरह श्रवण करता हूँ। "मैं" का कोई अस्तित्व नहीं रहता, भगवान अपनी साधना स्वयं करते हैं। ब्रह्मांड में व्याप्त प्रणव का श्रवण मुख्य रूप से आनंददायक है।
पहले मुझे कई बार हनुमान जी की साकार रूप में अनुभूतियाँ होती थीं, जो आजकल तो बिल्कुल भी नहीं हो रही हैं। मैं कुछ भी अपने ऊपर नहीं थोपता। जो हो रहा है वह हो रहा है, मैं तो एक साक्षीमात्र हूँ। एकमात्र कर्ता भगवान स्वयं हैं।
भगवान की प्रेरणा से ही ये शब्द लिखे गए हैं, मेरा इसमें कोई श्रेय नहीं है। यही मेरी साधना है। आप सभी का जीवन भगवान को समर्पित होकर कृतार्थ हो, और आप कृतकृत्य हों।
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"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥"
श्रीरामचन्द्रचरणोशरणम् प्रपद्ये !! श्रीमते रामचंद्राय नमः !!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
​कृपा शंकर
१७ सितंबर २०२४

पितर, पितृलोक व अर्यमा ---

 सूक्ष्म देह जब स्थूल देह को त्याग कर चली जाती है, तब वह अपना एक पृथक अस्तित्व बनाये रखती है, जिसे "पितर" कहते हैं। वास्तव में यह प्रेतात्मा ही होती हैं। ये प्रेतात्माएँ एक साथ जिस लोक विशेष में रहती हैं, उसे "पितृलोक" कहा जाता है।

बारह आदित्यों में से एक "अर्यमा" नाम के आदित्य इस "पितृलोक" के देवता होते हैं, जिनका शासन वहाँ चलता है।
गीता के दसवें अध्याय के उनत्तीसवें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को "पितृ़णामर्यमा चास्मि" अर्थात् स्वयं को पित्तरों में अर्यमा बताया है।
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श्राद्ध पक्ष में अपने यहाँ के स्थानीय कर्मकांडी पंडितों से ही सारी जानकारी प्राप्त करें, और उसके अनुसार ही जो करना चाहिए वह करें। गीताप्रेस गोरखपुर की भी एक पुस्तिका इस विषय पर उन की सभी दुकानों पर उपलब्ध है, जिसमें सारी जानकारी दी हुई है।
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आप सब से मेरी एक व्यक्तिगत प्रार्थना है कि १८ सितंबर २०२४ से आरंभ होकर २ अक्टूबर २०२४ तक के पितृ पक्ष में अपने पित्तरों का विधि-विधान से श्राद्ध-कर्म तो करें ही, साथ साथ उनकी सदगति व मुक्ति के लिए कुछ पुण्य कर्म भी करें।
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जिस दिन आपके पित्तरों का श्राद्ध हो, उस दिन श्राद्ध-कर्म के अलावा स्वयं संकल्प लेकर पित्तरों की मुक्ति और सदगति के लिए --- सुंदर कांड, हनुमान चालीसा, या श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ घर पर स्वयं ही करें। उनके निमित्त कुछ भजन-कीर्तन भी स्वयं कर सकते हैं। पितृलोक के देवता भगवान अर्यमा बहुत अधिक दयालु हैं। उनकी कृपा निश्चित रूप से होगी, और वे आपके पित्तरों का कल्याण करेंगे।
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इस पितृपक्ष में मैं कुछ भी नहीं लिखूँगा। मेरी शुभ कामना है कि आप की सात पीढ़ियों का उद्धार हो, और देश को बुरी आत्माओं से मुक्ति मिले।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ सितंबर २०२४

नासे रोग हरे सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत वीरा ---

 जिस चेतना में आज ब्रह्ममुहूर्त में उपरोक्त शब्द ध्यान में आये, उस चेतना में किसी भी तरह के विचारों को व्यक्त करने हेतु शब्द रचना संभव ही नहीं है। फिर भी एक विशेष प्रयोजन हेतु भगवान के अनुग्रह से उपरोक्त पंक्ति ध्यान में आयी। यह भगवान का अनुग्रह ही था क्योंकि -- "दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥"

इतना पढ़ा-लिखा तो मैं नहीं हूँ कि अति प्रभावशाली भाषा में शब्द-रचना कर सकूँ। लेकिन मेरे जैसा एक अनपढ़ व्यक्ति जो लिख सकता है, वही लिख रहा हूँ।
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"हनुमान" और "हनुमत" शब्द को समझने के लिए सब तरह के "मान" यानि अहंभाव से मुक्त होना पड़ेगा। अहंभाव से मुक्त हुये बिना न तो उनको समझ सकते है, और न ही उनके बीजमंत्र "हं" को। अहंभाव से युक्त रहते हुए -- तत्व की बात समझ में नहीं आयेगी। यह साधना का विषय है जो उनकी कृपा से ही हो सकती है।
इसे समझना भी बहुत आवश्यक है क्योंकि हमें निज जीवन में राम जी को प्राप्त करना है। इसके लिए एक उच्चतर से भी अधिक उच्चतर चेतना में स्थित होना होगा जो उनके अनुग्रह के बिना संभव नहीं है -- "राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे"। यहाँ पैसारे का अर्थ प्रवेश है, न कि रुपया पैसा। यह कोई सरकारी कार्यालय नहीं है, जहाँ घूस में पैसा खिलाये बिना कोई आज्ञा नहीं होती। यहाँ किसी का रुपया-पैसा नहीं, पूर्ण प्रेम और समर्पण ही चलता है।
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अब रही बात "जपत निरंतर" की। गीता मे भगवान ने स्वयं को "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि" कहा है। पूरा श्लोक इस प्रकार है --
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥१०:२५॥"
अर्थात् -- "मैं महर्षियों में भृगु और वाणी (शब्दों) में एकाक्षर ओंकार हूँ। मैं यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों (अचलों) में हिमालय हूँ॥"
"Of the great seers I am Bhrigu, of words I am Om, of offerings I am the silent prayer, among things immovable I am the Himalayas."
आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में उपरोक्त श्लोक का अर्थ किया है -- "महर्षीणां भृगुः अहम्। गिरां वाचां पदलक्षणानाम् एकम् अक्षरम् ओंकारः अस्मि। यज्ञानां जपयज्ञः अस्मि। स्थावराणां स्थितिमतां हिमालयः॥"
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अभी जप यज्ञ कैसे करें? इसे समझाना मेरी अति सीमित और अति अल्प क्षमता से परे है। इसके लिए किसी ब्रह्मज्ञ आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त करें।
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ॐ परब्रह्मपरमात्मने नमः॥ श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०२३

Monday, 16 September 2024

इस सृष्टि में सबसे अधिक दुर्लभ क्या है? ---

 सर्वप्रथम हम अपने निज जीवन में भगवान को प्राप्त करें, फिर उस चेतना में स्थित होकर संसार के अन्य कार्य करें। भूतकाल की विस्मृति हो। कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान निरंतर होता रहे।

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(प्रश्न):--- इस सृष्टि में सबसे अधिक दुर्लभ क्या है?
(उत्तर):- यह मैं अब तक के अपने निज अनुभव से लिख रहा हूँ कि इस सृष्टि में सबसे अधिक दुर्लभ तो भगवान के प्रति परमप्रेम यानि अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति है। गीता में इसी के बारे में भगवान कहते हैं --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् -- अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
(Unswerving devotion to Me, by concentration on Me and Me alone, a love for solitude, indifference to social life.)
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आचार्य शंकर ने अपने गीता भाष्य में इस श्लोक पर जो लिखा है, उसका अनुवाद इस प्रकार है --
"ईश्वर में अनन्ययोग से, यानि एकत्वरूप समाधियोग से अव्यभिचारिणी भक्ति। भगवान वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है, अतः वे ही हमारी परमगति हैं। इस प्रकार की जो निश्चित अविचल बुद्धि है, वही अनन्य योग है।
उससे युक्त होकर भजन करना ही कभी विचलित न होनेवाली अव्यभिचारिणी भक्ति है। वह भी ज्ञान है।
विविक्तदेशसेवित्व -- एकान्त पवित्र देश सेवन का स्वभाव। जो देश स्वभाव से पवित्र हो या झाड़ने-बुहारने आदि संस्कारों से शुद्ध किया गया हो, तथा सर्प व्याघ्र आदि जन्तुओं से रहित हो; ऐसे वन, नदी तीर या देवालय आदि विविक्त (एकान्त पवित्र) देश को सेवन करनेका जिसका स्वभाव है, वह विविक्तदेशसेवी कहलाता है। उसका भाव विविक्तदेशसेवित्व है, क्योंकि निर्जन पवित्र देश में ही चित्त प्रसन्न और स्वच्छ होता है। इसलिये विविक्तदेश में आत्मादि की भावना प्रकट होती है। अतः विविक्त देश सेवन करने के स्वभाव को ज्ञान तथा जनसमुदाय में अप्रीति कहा जाता है। यहाँ विनयभावरहित संस्कारशून्य प्राकृत पुरुषों के समुदाय का नाम ही जनसमुदाय है। विनययुक्त संस्कारसम्पन्न मनुष्यों का समुदाय जनसमुदाय नहीं है, क्योंकि वह तो ज्ञानमें सहायक है। प्राकृत जनसमुदाय में प्रीति का अभाव ज्ञानका साधन होने के कारण ज्ञान है।"
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उपरोक्त श्लोक पर हजारों स्वनामधन्य महान भाष्यकारों ने अपने अपने भाष्य लिखे है। सभी का सार यह है कि भगवान की अभीप्सा के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। भगवान हमसे हमारा शत-प्रतिशत प्रेम मांगते हैं, वहाँ ९९.९९% भी नहीं चलेगा। भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार की चाहत को भगवान ने "व्यभिचार" की संज्ञा दी है। महाभारत के वनपर्व में भगवान श्रीकृष्ण ने महाराजा युधिष्ठिर को तंडि ऋषि कृत शिव सहस्त्रनाम का उपदेश दिया है, जो उन्हें महर्षि उपमन्यु ने दिया था। उसमें भी एक स्थान पर "अव्यभिचारिणी भक्ति" का उल्लेख है।
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स्वयं में भगवान को नमन करता हुआ मैं इस लेख का समापन करता हूँ। इस विषय पर और लिखने की आवश्यकता अब मुझे नहीं है।
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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ब्रह्मानंदम् परम सुखदम् केवलं ज्ञान मूर्तिम्।
द्वन्द्वातीतं गगन सदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।।
एकं नित्यं विमलं चलम् सर्वधीसाक्षी भूतम्।
भावातीतं त्रिगुण रहितं सद्गुरुं तम् नमामि।। (गुरुगीता)
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सार की बात यह है कि सर्वप्रथम हम अपने निज जीवन में भगवान को प्राप्त करें, फिर उस चेतना में स्थित होकर संसार के अन्य कार्य करें। भूतकाल की विस्मृति हो। कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान निरंतर होता रहे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ सितंबर २०२३

मेरे पास कोई करामात (चमत्कार) नहीं है, अतः लौकिक दृष्टि से संसार के लिए महत्त्वहीन हूँ ---

मेरे पास कोई करामात (चमत्कार) नहीं है, अतः लौकिक दृष्टि से संसार के लिए महत्त्वहीन हूँ। मुझसे किसी को कोई लाभ नहीं हो सकता। मेरी कोई संपत्ति भी नहीं है। मेरी बुद्धि जो कुबुद्धि, कुरूपा और वृद्धा हो गई थी, अब शिव को समर्पित हो गई है जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया है। मुझ निर्धन के पास भगवान को देने के लिए कुछ भी नहीं था, अतः स्वयं को ही समर्पित कर दिया है। अब मन, अहंकार और चित्त सब -- शिव के हो गए हैं। मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। एकमात्र अस्तित्व परमशिव का है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ सितंबर २०२४
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पुनश्च: --- "हमारा एकमात्र व्यवहार परमात्मा से है।"
युद्धभूमि में सामने शत्रु है तो, भगवान को कर्ता बनाकर बड़े प्रेम से उसका संहार/वध करो, लेकिन मन में घृणा या क्रोध न आने पाये। हमें निमित्त बनाकर भगवान ही उसे नष्ट कर रहे हैं।
मित्र है तो भगवान को ही कर्ता बनाकर उसे अपने हृदय का पूर्ण प्रेम दो। भगवान स्वयं ही सारे सगे-संबंधी, और शत्रु-मित्र के रूप में आते हैं। हमारा एकमात्र व्यवहार परमात्मा से ही है।

मैं सनातन हिन्दू धर्म के ईसाईकरण का हर कदम पर विरोध करता हूँ ---

आजकल हर व्यक्ति अपनी संतान को अंग्रेज़ बनाना चाहता है, कोई भी अपनी संतान को भारतीय नहीं बनाना चाहता। सभी अंग्रेज़ बन गए तो भारतीय कौन होगा? कोई भी अपनी संतान को सनातन धर्म और संस्कृत भाषा की शिक्षा नहीं देना चाहता।

जीसस क्राइस्ट की पूजा भगवान श्रीकृष्ण के साथ, और मदर टेरेसा की पूजा भगवती महाकाली के साथ भारत के अनेक हिन्दू आश्रमों और मंदिरों में हो रही है। यह अधर्म और पाप है। मैं असहमति में अपना हाथ उठाता हूँ। एक सुव्यवस्थित तरीके से सनातन हिन्दू धर्म को नष्ट कर उसके ईसाईकरण का प्रयास किया जा रहा है। गीता और बाइबिल को एक बताया जा रहा है।
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भारत के शासक पिछली दो शताब्दियों से आत्म-मुग्धता और अहंकार में डूबे हुए किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। उन्हें धर्म व राष्ट्र की कोई चिंता नहीं है। ये धर्मनिरपेक्षतावाद/समाजवाद/साम्यवाद/मार्क्सवाद/प्रगतिवाद जैसी विचारधाराएँ -- हिंदुओं की सबसे बड़ी घातक शत्रु हैं। एक बहुत बड़े षड़यंत्र के अंतर्गत हिंदुओं को अपने धर्म की शिक्षा से वंचित रखा गया है। भारत के संविधान की कुछ धाराएँ हिंदुओं को अपने विद्यालयों में हिन्दू धर्म की शिक्षा का अधिकार नहीं देती। कान्वेंट स्कूलों और मदरसों की शिक्षा को मान्यता प्राप्त है, लेकिन गुरुकुलों की शिक्षा को नहीं। हिन्दू मंदिरों का धन हिन्दू-धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए होना चाहिए, न कि सरकारी लूट के लिए।
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एक व्यक्ति जिसने कभी किसी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, सिर्फ मदरसों में ही पढ़ाई की, भारत का केंद्रीय शिक्षामंत्री हो सकता है, लेकिन एक गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त बड़े से बड़ा विद्वान किसी सरकारी कार्यालय में चपड़ासी तक नहीं हो सकता। समाजवाद, मार्क्सवाद, गांधीवाद, सेकुलरवाद, पूंजीवाद आदि फालतू अनुपयोगी सिद्धान्त हमें पढ़ाये जाते हैं, लेकिन सनातन-धर्म (जो हमारा प्राण है), की अपरा-विद्या व परा-विद्या के सार्वभौम नियमों के बारे में कुछ भी नहीं पढ़ाया जाता ।
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इस पृथ्वी पर सत्-तत्व का अभाव है। मैं जहाँ भी हूँ, जहाँ भी भगवान ने मुझे रखा है, वहीं उनको आना ही पड़ेगा, और स्वयं को मुझ में पूर्ण रूप से व्यक्त भी करना होगा। मैं अधर्म का साथ नहीं दे सकता। अंतिम क्षण तक कूटस्थ-चैतन्य (ब्राह्मी स्थिति) यानि परमात्मा की चेतना में रहूँगा। मैं शाश्वत आत्मा हूँ, यह नश्वर देह नहीं। इस संसार से नहीं, मोह सिर्फ परमात्मा से है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ सितंबर २०२४

मेरा स्वधर्म ही सनातन है ---

मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ, और आत्मा का स्वधर्म है -- "निरंतर परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, और निज जीवन में परमात्मा की सर्वोच्च व सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति।" यही सनातन है, और यही मेरा धर्म है।

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गीता के सांख्ययोग मे भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि है --"ब्राह्मी स्थिति", जिसमें मनुष्य निरंतर परमात्मा की चेतना में रहता है।
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
भावार्थ - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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उपर्युक्त ब्राह्मी अवस्था, ब्रह्म में होनेवाली स्थिति है। इसमें केवल ब्रह्म रूप से स्थित हो जाना है। इस स्थिति को पाकर मनुष्य फिर मोहित नहीं होता। यह स्थिति वीतराग और स्थितप्रज्ञ महात्माओं को ही प्राप्त होती है। हमें स्वयं को ही वीतराग व स्थितप्रज्ञ महात्मा होना पड़ेगा, तभी हम ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर सकेंगे। भगवान की कृपा होगी तो वे सीधे ही हमारी पदोन्नति भी कर सकते हैं।
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भगवान कह चुके हैं कि --
"आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥२:७०॥"
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति॥ २:७१॥"
अर्थात् --
"जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में (अनेक नदियों के) जल (उसे विचलित किये बिना) समा जाते हैं? वैसे ही जिस पुरुष के प्रति कामनाओं के विषय उसमें (विकार उत्पन्न किये बिना) समा जाते हैं? वह पुरुष शान्ति प्राप्त करता है? न कि भोगों की कामना करने वाला पुरुष॥"
"जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित, ममभाव रहित और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त करता है॥"
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इसके पूर्व 38वें श्लोक में भगवान कह चुके है --
"सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥२:३८॥"
अर्थात् -- । सुख-दु:ख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ; इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा॥
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जीवन में हमारे समस्त दुखों का कारण अहंकार और उससे उत्पन्न ममभाव स्वार्थ और असंख्य कामनायें हैं। अहंकार और स्वार्थ को पूर्णरूप से परित्याग करके वैराग्य का जीवन जीना वास्तविक संन्यास है जिससे हम अपने पूर्ण दिव्य स्वरूप की अनुभूति में रह सकते हैं।
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आचार्य शंकर के शब्दों में वह पुरुष जो सब कामनाओं को त्यागकर जीवन में सन्तोषपूर्वक रहता हुआ शरीर धारणमात्र के उपयोग की वस्तुओं में भी ममत्व भाव नहीं रखता, न ज्ञान का अभिमान करता है, ऐसा ब्रह्मवित् स्थितप्रज्ञ पुरुष -- निर्वाण (शान्ति) को प्राप्त करता है, जहाँ संसार के सब दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति होती है। संक्षेप में ब्रह्मवित् ज्ञानी पुरुष ब्रह्म ही बन जाता है।
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अब करना क्या है ??? ---
सामने परमात्मा रूपी अथाह जलराशि है। आँखें बंद कर, नाक पकड़ कर, बिना कुछ सोचे-समझे, किन्तु-परंतु आदि सब कुछ को भुला कर, उस अथाह जलराशि मे छलांग लगा लो। जो होगा सो देखा जाएगा। गलती से भी पीछे मुड़कर मत देखना। आर या पार। या तो परमात्मा की ही प्राप्ति होगी या फिर यह शरीर ही रहेगा। आर-पार की जोखिम लेनी होगी, तभी भगवान मिलेंगे। मुफ्त में कुछ नहीं मिलता। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। भगवान भी निःशुल्क नहीं मिलते।
लेकिन मेरे सलाह यही है कि एक बार किन्हीं श्रौत्रीय ब्रहमनिष्ठ महापुरुष से परामर्श कर उनका आशीर्वाद और मार्गदर्शन अवश्य प्राप्त कर लें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ सितंबर २०२४

मैंने सब कुछ खोकर स्वयं को पाया है ---

मैं बहुत अधिक हैरान था यह सोचकर कि मेरा मन इतना बेचैन क्यों है? मन से मेरा क्या संबंध है? मन से मुझे किसने जोड़ रखा है?

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गुरु की परम कृपा से यह स्पष्ट बोध हुआ कि मेरे और मेरे मन के मध्य की कड़ी मेरा "प्राण' है। मन की बेचैनी और चंचलता का एकमात्र कारण भी मेरा "चंचल प्राण" है। मन तब तक नियंत्रण में नहीं आ सकता जब तक प्राणों की चंचलता को स्थिर नहीं किया जाता। अनेक वर्षों से यह प्राण-तत्व ही मुझे धोखा दे रहा था। अब यह पकड़ में आ गया है, भाग नहीं सकता। इसका विज्ञान भी समझ में आ चुका है। इसके गोपनीय रहस्य भी समझ में आ गए है। आगे सच्चिदानंद है। वे अब और छिप नहीं सकते।
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दो-तीन बातें मेरे प्रेमियों को कहना चाहता हूँ ---
(१) जब भी आप बैठते हैं तब आपका मेरूदण्ड सदा उन्नत यानि सीधा रहे, और ठुड्डी भूमि के समानान्तर रहे। दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर रहे, और चेतना सर्वव्यापी रहे।
(२) सांसें नासिका के माध्यम से ही लें। साँसे अपने पेट से यानि नाभी से लें। साँस लेते समय आपका पेट फूलना चाहिए, और साँस छोडते समय आपका पेट सिकुड़ना चाहिए। साँस छाती से न लें। इसका अभ्यास करें। धीरे धीरे आपको लगेगा कि आपका मेरूदण्ड ही सांसें ले रहा है।
(३) सारा ब्रह्मांड आप स्वयं हो। आप यह देह नहीं, स्वयं परमात्मा हो। सारी सृष्टि में आपके सिवाय कोई अन्य नहीं है।
(४) आप वह ज्योति हो जो दिखाई दे रही है। आप ज्योतिषांज्योति हो। उस ज्योति से निःसृत हो रहा नाद भी आप स्वयं हो।
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प्राण आपके पीछे पीछे आयेगा। उसका अवलोकन करो। आप उससे परे हो। अब उसकी चिंता ही छोड़ो। आप यह नश्वर देह नहीं, साक्षात परमशिव हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ सितंबर २०२४

साधकों के लिए मध्यरात्री की तुरीय संध्या अत्यधिक महत्वपूर्ण है ---

 साधकों के लिए मध्यरात्री की तुरीय संध्या अत्यधिक महत्वपूर्ण है, विशेषकर उनके लिए जो क्रियायोग व श्रीविद्या की साधना करते हैं।

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यदि मध्यरात्रि की संध्या नहीं भी कर सको तो रात्रि में सोने से पूर्व ईश्वर का तब तक गहनतम ध्यान कर के ही सोइये, जब तक ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति न हो जाये। शरीर चाहे कितना भी थका हुआ हो, रात्रि को तब तक गहनतम ध्यान करना है जब तक ईश्वर की अनुभूति न हो जाये। शरीर के साथ चाहे जो भी होना हो वह हो जाये। जब तक प्रारब्ध में जीवन लिखा है मृत्यु नहीं हो सकती। जब मृत्यु ही होनी है तब इसे कोई रोक भी नहीं सकता। इस नारकीय जीवन को जीने से तो ईश्वर की चेतना में देहत्याग का विकल्प अधिक कल्याणकारी है। एक बार तो शरीर विरोध करेगा, लेकिन बाद में यह भी सहयोग करने लगेगा।
हो सकता है यह बात कुछ लोगों को अच्छी न लगे। मैं उन्हें नहीं समझा सकूँगा। जो योगमार्ग के पथिक हैं, वे इसे समझ जाएँगे। जिन्हें इसी जीवन में परमात्मा को पाना है, उन्हें यह करना ही होगा। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ सितंबर २०२४

भगवान अपनी साधना स्वयं कर रहे हैं ---

भगवान अपनी साधना स्वयं कर रहे हैं। असत्य के अंधकार से युद्ध भी वे स्वयं ही लड़ रहे हैं। वे ज्योतिर्मय हैं, वे नारायण हैं, वे परमशिव परमब्रह्म हैं। जो वे हैं, वो ही मैं हूँ -- यह भाव सदा हर समय बना रहना चाहिए। मन ही मन निरंतर हर समय उनकी उपस्थिती का बोध सर्वव्यापी दिव्य ज्योति और कूटस्थ अक्षर के रूप में बना रहे। उनके प्रकाश में निरंतर वृद्धि और निरंतर विस्तार ही हमारी साधना और हमारा जीवन है। उनकी विस्मृति ही हमारा पतन और हमारी मृत्यु है।
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असत्य का अंधकार पराभूत हो सकता है, लेकिन नष्ट नहीं हो सकता, अन्यथा सृष्टि ही समाप्त हो जाएगी। यह सृष्टि प्रकाश और अंधकार का खेल है। भगवान ने यह बोध करा दिया है कि वर्तमान में इस समय इस सृष्टि में ९२ प्रतिशत लोग तमोगुणी हैं, ६ प्रतिशत लोग रजोगुणी हैं, और मात्र २ प्रतिशत लोग सतोगुणी हैं। इस समय कोई दो लाख में से एक व्यक्ति के हृदय में भगवान की वास्तविक भक्ति होती है। यह अनुपात कम और अधिक होता रहता है। भगवान हमारे चारों ओर हैं, वे ही हमारे कवच है, और वे ही हमारी रक्षा कर रहे हैं।
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एक बात और है -- इस सृष्टि में यदि शत-प्रतिशत लोग सतोगुणी या तमोगुणी हो जायेंगे, तो यह सृष्टि उसी क्षण नष्ट हो जाएगी, इस सृष्टि का उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा। इस प्रकाश और अंधकार के खेल में हम निरंतर हर समय प्रकाश के साथ रहें। यही हमारी उपासना और यही हमारी साधना है।
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अपेक्षा व कामना ही हमारा पतन और हमारी मृत्यु है। समर्पण ही जीवन और समर्पण ही हमारी साधना है। यह एक रणभूमि है जिसमें भगवान स्वयं युद्ध कर कर रहे हैं। हम एक साक्षीमात्र या उनकी एक अभिव्यक्ति मात्र हैं। राम और रावण के मध्य हो रहे युद्ध के साक्षी भी हम स्वयं हैं। हमारी चेतना में ही वह युद्ध निरंतर हो रहा है।
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सभी का मंगल हो। सभी कृतकृत्य हों व सभी का जीवन कृतार्थ हो। सभी को परमात्मा का शुभ आशीर्वाद !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१४ सितंबर २०२४
. पुनश्च: --- गहन ध्यान में एक बात तो भगवती ने आज स्पष्ट कर दी। उन्होंने कहा कि तुम्हारा ज्ञान, अज्ञान और विज्ञान आदि सब कुछ "मैं" हूँ। तुम सोचते हो कि तुम परमशिव का या पुरुषोत्तम का ध्यान करते हो, यह तुम्हारा अज्ञान है। तुम कुछ नहीं करते, तुम एक निमित्त मात्र हो, एकमात्र कर्ता "मैं" हूँ। तुम्हारा अस्तित्व मेरे मन की एक कल्पना मात्र है। तुम अकिंचन भी हो, और सर्वस्व भी। लेकिन अब से अकिंचन भाव छोड़ कर सर्वस्व भाव में रहो। जो भी तुम कर रहे हो वह करते रहो, लेकिन कर्ता होने का अहंकार मत लाओ। ---------
और कुछ लिखने की मुझ में क्षमता नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!

"फेसबुक" एक निजी अमेरिकन व्यावसायिक कंपनी है जिसका व्यवसाय -- विज्ञापनों से धन कमाना है ---

"फेसबुक" एक निजी अमेरिकन व्यावसायिक कंपनी है जिसका व्यवसाय -- विज्ञापनों से धन कमाना है। भारत में भारत सरकार से लाइसेन्स लेकर यह अपना व्यवसाय कर रही है। हमारा सौभाग्य है कि इसने हमें अभिव्यक्ति का एक माध्यम प्रदान कर रखा है। इसके मालिक श्री जुकरबुर्ग है जो एक अमेरिकन यहूदी हैं। ये इन्स्टाग्राम और थ्रेड्स के मालिक भी हैं।
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इसी तरह गूगल, जीमेल और यूट्यूब भी निजी व्यावसायिक कंपनियाँ हैं। व्हाट्सएप्प, ट्वीटर (वर्तमान में X) व माइक्रोसॉफ्ट आदि सभी निजी व्यावसायिक कंपनियाँ हैं, जो धन कमाने के लिए अपना व्यवसाय कर रही हैं। ये किसी भी समय अपना व्यवसाय बंद कर हमें अपंग बना सकती हैं। किसी दूसरे देश को ये आत्मनिर्भर भी नहीं होने देतीं। इनको पता है कि कहाँ कहाँ दाने डालने हैं।
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भारत ने एक काम सबसे अच्छा कर रखा है कि अपना स्वयं का GPS (Global Positioning System) बना रखा है। पहले इस पर सिर्फ अमेरिका का एकाधिकार था जिसने कारगिल युद्ध के समय अपनी सेवाएँ हमें देनी बंद कर दी थी।
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हमारा स्वयं का Operating System भी है लेकिन किन्हीं ज्ञात/अज्ञात कारणों से हम Microsoft की Windows का प्रयोग करने को ही बाध्य हैं। ये सब व्यावसायिक कारण हैं।
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इन सब सुविधाओं का उपयोग खूब करो, लेकिन सतर्क रहते हुये हमारी अपनी निर्भरता भगवान पर भी रहे, न कि केवल इन व्यावसायिक कंपनियों पर। ये कभी भी हमें धोखा दे सकती हैं। केवल भगवान ही अपनी सृष्टि से अहैतुकी प्रेम रखते हैं।
ॐ तत्सत् !!

सनातन धर्म को समझना बहुत आसान और बहुत सरल है, इसे समझिये और पालन कीजिये ---

सनातन धर्म के अनुसार आत्मा शाश्वत है, जो अपने संचित व प्रारब्ध कर्मफलों को भोगने के लिए बार-बार पुनर्जन्म लेती है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है। जब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती तब तक संचित और प्रारब्ध कर्मफलों से कोई मुक्ति नहीं है।

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संक्षेप में यही सनातन धर्म है, जो इस सृष्टि को आदिकाल से संचालित कर रहा है, और सृष्टि के अंत तक रहेगा। सनातन धर्म के अनुसार हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य और दायित्व -- ईश्वर का साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति है। निश्चिंत होकर इसका पालन कीजिये।
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सारी सृष्टि ही सनातन धर्म से चल रही है। सनातन धर्म को नष्ट करने का अर्थ है -- परमात्मा द्वारा निर्मित सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश, जिसका प्रयास अनेक आत्मघाती असुरों ने किया है। वे सारी आसुरी सत्ताएँ नष्ट हो गयीं, लेकिन सनातन धर्म यथावत है, और यथावत ही रहेगा।
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अन्य सब बातें इसी का विस्तार हैं जो निगमागम ग्रन्थों में समझायी गयी हैं। हम शाश्वत आत्मा हैं, और आत्मा का धर्म परमात्मा की प्राप्ति है। यही हमारा सनातन स्वधर्म है जो हमारा स्वभाव बन जाये। भगवान हमारी रक्षा कर रहे हैं, अतः निश्चिंत होकर अपने सनातन स्वधर्म का पालन कीजिये। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ सितंबर २०२४

ईश्वर, धर्म और राष्ट्र से अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय में मेरी अब कोई रुचि नहीं रही है ---

ईश्वर, धर्म और राष्ट्र से अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय में मेरी अब कोई रुचि नहीं रही है। प्रेरणा मिलती है एकांत में ईश्वर के निरंतर ध्यान और चिंतन-मनन की। स्वाध्याय करने और प्रवचन आदि सुनने में भी मेरी कोई रुचि नहीं रही है। कभी कभी गीता का स्वाध्याय अवश्य करता हूँ, वह भी कभी कभी और बहुत कम। इस वर्तमान जीवन के अंत काल तक परमात्मा के चिंतन, मनन और ध्यान में ही समय व्यतीत हो जाएगा। अन्य कोई स्पृहा नहीं है। बचा-खुचा सारा जीवन परमात्मा को समर्पित है। किसी से कुछ भी नहीं चाहिए। परमात्मा में मैं आप सब के साथ एक हूँ, कोई भी या कुछ भी मुझसे पृथक नहीं है।

"ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत |
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् ||१||"
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् |
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ||१७||"
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते |
ॐ शांति: शांति: शांतिः ||
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
,कृपा शंकर
१५ सितंबर २०२४

बड़े भाई साहब स्व. डॉ. दया शंकर बावलिया जी की वार्षिक पुण्य तिथि पर श्रद्धांजलि ---

आज से चार वर्ष पूर्व १४ सितंबर २०२० को इस क्षेत्र के प्रसिद्ध नेत्र शल्य चिकित्सक, रा.स्व.से.संघ के सीकर विभाग के संघ चालक, सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता, और समाज में अति लोकप्रिय, मेरे बड़े भाई साहब डॉ. दया शंकर बावलिया जी सायं लगभग ८ बजे जयपुर के E.H.C.C. हॉस्पिटल में जहाँ उनका उपचार चल रहा था, अपनी नश्वर देह को त्याग कर एक अज्ञात अनंत यात्रा पर चले गये। आज के दिन यानि १५ सितंबर २०२० को उनकी देह का अंतिम संस्कार झुंझुनूं के बिबाणी धाम श्मशान गृह में कोविड-१९ के कारण तत्कालीन सरकारी नियमानुसार कर दिया गया था। भगवान अर्यमा की कृपा से निश्चित रूप से उन्हें सद्गति प्राप्त हुई है। आज उनकी पुण्य तिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूँ।

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नित्य फोन पर वे मुझसे अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम पर चर्चा करते थे। समसामयिक घटनाक्रमों पर उनकी पकड़ बहुत गहरी थी। बहुत बड़े-बड़े लोगों से उनका संपर्क और मिलना-जुलना था। उपनिषदों और भगवद्गीता पर उनका अध्ययन बहुत अधिक गहरा था। वे एक विख्यात नेत्र चिकित्सक तो थे ही, एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वे बचपन से ही स्वयंसेवक थे। देवलोक गमन के समय वे संघ के सीकर विभाग (झुंझुनूं, सीकर व चूरू जिलों) के विभाग संघ चालक थे। जिला नागरिक मंच झुंझुनूं, झुंझुनूं जिला गौड़ ब्राह्मण महासभा, राजस्थान ब्राह्मण महासभा, व अन्य अनेक सामाजिक संस्थाओं के वे मुख्य संरक्षक थे। जिले का ब्राह्मण समाज तो आज भी उनके बिना अपने आप को अनाथ सा अनुभूत कर रहा है, क्योंकि उनके मुख्य संरक्षक नहीं रहे। उनको अश्रुपूरित सादर विनम्र श्रद्धांजलि !! ॐ ॐ ॐ !!
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"ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत |
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् ||१||"
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् |
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ||१७||"
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते |
ॐ शांति: शांति: शांतिः ||
कृपा शंकर
१५ सितंबर २०२४
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पुनश्च: --- अपने आध्यात्मिक जीवन का आरंभ उन्होने अपने से वरिष्ठ नेत्र-चिकित्सक डॉ.योगेश चन्द्र मिश्र (पीतांबरा पीठ, दतिया के स्वामीजी महाराज के शिष्य) से बगलामुखी दीक्षा लेकर आरंभ किया था| संत-सेवा भी उनके स्वभाव में थी| रामानंदी संप्रदाय के एक विद्वान सिद्ध संत अवधेश दास (औलिया बाबा) जी महाराज से उन्हें विशेष प्रेम था| उन की उन्होने खूब सेवा की| जयपुर ले जा कर अच्छे से अच्छे अस्पतालों में उनका उपचार करवाया था| नाथ संप्रदाय के एक सिद्ध संत रतिनाथ जी से भी उनका विशेष प्रेम और खूब मिलना-जुलना था| क्षेत्र के सभी संत-महात्माओं से उनके बहुत अच्छे संबंध और प्रेम-भाव था|

भगवान ने कभी भी मुझे अंधकार में नहीं रखा ---

आध्यात्मिक साधना में कई बार ऐसे दुरूह प्रश्न हमारे समक्ष आते हैं जिनका कोई उत्तर नहीं होता। उनका उत्तर ढूँढने में समय नष्ट नहीं करना चाहिये। कोई भी उलझन हो तो प्रत्यक्ष परमात्मा से पूछें, न कि किसी अन्य से। आज तक किसी भी आध्यात्मिक विषय पर भगवान से जो कुछ भी मैनें पूछा है, उसका उत्तर मुझे निश्चित रूप से मिला है। भगवान ने कभी भी मुझे अंधकार में नहीं रखा। लेकिन उत्तर सिर्फ आध्यात्मिक विषयों के ही मिले हैं, किसी लौकिक विषय पर नहीं।

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पुनश्च: --- हम निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें। किसी भी तरह का कोई संशय या बंधन हमारे साथ न हो। साधना यानि तप तो हमें करना ही होगा, उसमें कोई छूट नहीं मिल सकती। लेकिन निमित्त मात्र होकर ही करें। ॐ ॐ ॐ !! १६ सितंबर २०२४

अपने दिन का आरंभ और समापन, परमात्मा के गहनतम ध्यान से करें, और हर समय परमात्मा का स्मरण करते रहें :---

 जहाँ तक भगवान के ध्यान का प्रश्न है, इस विषय पर मैं किसी से भी किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं कर सकता। यही मेरा जीवन है, और मेरा समय नष्ट करने वालों को मैं विष (Poison) की तरह इसी क्षण से दूर कर रहा हूँ। तमाशवीन और केवल जिज्ञासु लोगों के लिए भी मेरे पास जरा सा भी समय नहीं है।

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मैंने वे सारी साधनाएँ भी छोड़ दी हैं जो किसी भी तरह के भोग का आश्वासन, या बदले में कुछ देती हैं। किसी भी तरह का कणमात्र भी भोग नहीं, पूर्ण सत्यनिष्ठा से परमात्मा से केवल योग (पूर्ण समर्पण और जुड़ाव) ही चाहिये। साधना भी वह ही करें जो हमें भगवान से पूरी तरह जोड़ती हैं। किसी भी तरह की कामना न होकर, केवल समर्पण और भक्ति होनी चाहिये।
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उन सब लोगों से भी इसी क्षण से संपर्क तोड़ रहा हूँ, जो निष्ठावान नहीं हैं, और जिनके हृदय में भक्ति व सत्य-निष्ठा नहीं है। जो सिर्फ बातें करते हैं, उनकी ओर मुंह उठाकर देखने की भी मेरी इच्छा नहीं है। स्वयं की कमियों का भी मुझे पता है, वे भी भगवान की कृपा से दूर हो रही हैं।
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प्रातः काल उठते ही लघुशंकादि से निवृत होकर, मुंह धोकर, अपने ध्यान के आसन पर बैठ जाएँ, और कम से कम एक घंटे तक परमात्मा का ध्यान करें। ध्यान के समय ऊनी कंबल या कुशा घास के आसन पर बैठें, मेरुदंड उन्नत, ठुड्डी भूमि के समानान्तर, मुख पूर्व या उत्तर दिशा में, दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर, व चेतना सर्वव्यापी हो। प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठते ही, और रात्रि में शयन से पूर्व भी, परमात्मा का गहनतम ध्यान करें।
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प्रश्न : -- ध्यान किस का करें ?
उत्तर :-- ध्यान सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का करें।
"दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥११:१२॥" (श्रीमदभगवद्गीता)
आकाश में सहस्र सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश होगा, वह उस (विश्वरूप) परमात्मा के प्रकाश के सदृश होगा॥ (वही ज्योतिर्मय ब्रह्म है, उसी का ध्यान करें)
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(प्रश्न) : ध्यान कैसे करें?
(उत्तर) : ध्यान का आरंभ अनन्य-योग द्वारा अजपा-जप (हंसःयोग) और ओंकार साधना से करें। आगे का मार्ग जगन्माता स्वयं दिखायेंगी। किसी भी तरह का कोई भी संशय हो तो किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय (जिन्हें श्रुतियों का ज्ञान हों) आचार्य से मार्गदर्शन लें। इधर-उधर न भटकें।
परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी तरह की कामना को गीता में भगवान ने व्यभिचार की संज्ञा दी है। हमारी भक्ति अव्यभिचारिणी हो।
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मंगलमय शुभ कामनाएँ। आपका जीवन कृतार्थ हो, और आप कृतकृत्य हों।
"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ सितंबर २०२४ 🙏🙏🙏🕉 🙏🙏🙏
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पुनश्च: --- कृपा कर के वे सब सज्जन भी मेरे से संपर्क तोड़ दें, जिनके हृदय में भगवान की भक्ति नहीं है। मुझे उनकी आवश्यकता नहीं है। वे मेरी मित्रता सूची से भी हट जाएँ।