Tuesday 27 August 2024

राजस्थान के लोक-देवता रामदेव जी ---

भाद्रपद शुक्ल दशमी के दिन लोक देवता बाबा रामदेव जी के मेले का समापन होता है| जैसलमेर जिले में उनका स्थान एक जागृत स्थान है जिसकी प्रत्यक्ष अनुभूति मैंने स्वयं वहाँ की है|

१५वीं शताब्दी के आरम्भ में भारत में विदेशी आक्रांताओं द्वारा लूट-खसोट के कारण स्थिति बड़ी खराब थी| समाज में दुर्भाग्य से छुआछूत भी फैल गई थी| ऐसे विकट समय में पश्चिमी मारवाड़ में जैसलमेर के समीप पोकरण नामक प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में तोमर वंशीय राजपूत और रुणिचा के शासक अजमाल जी के घर भाद्रपद शुक्ल द्वितीया वि.स. १४०९ के दिन बाबा रामदेव जी अवतरित हुए, जिन्होने अत्याचार और छुआछूत का सफलतापूर्वक विरोध किया| बाबा रामदेव ने अपने अल्प जीवन के तेंतीस वर्षों में वह कार्य कर दिखाया जो सैकडो वर्षों में भी होना सम्भव नही था| राजस्थान के जनमानस में पाँच वीरों की प्रतिष्ठा है, जिन में बाबा रामदेव जिन्हें "रामसा पीर" भी कहते हैं, का विशेष स्थान है ...
"पाबू हडबू रामदेव माँगळिया मेहा |
पांचू वीर पधारजौ ए गोगाजी जेहा ||"
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बाबा रामदेव ने डाली बाई नामक एक दलित कन्या को अपने घर बहन-बेटी की तरह रख कर पालन-पोषण किया था| बाबा रामदेव पोकरण के शासक भी रहे| लेकिन उन्होंने राजा बनकर नहीं, अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों, असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरुरत मंदों की सेवा की| उन्होने भाद्रपद शुक्ला एकादशी वि.स.१४४२ को जीवित समाधी ले ली| बाबा रामदेव के भक्त दूर- दूर से रुणिचा उनके दर्शनार्थ और आराधना करने आते हैं| वे अपने भक्तों के दु:ख दूर करते हैं, और उन की मनोकामना पूर्ण करते हैं। हर वर्ष लगने वाले मेले में तो लाखों की संख्या में एकत्र होने वाले भक्तों की भीड़ से उनकी महत्ता व उनके प्रति जन समुदाय की श्रद्धा का आंकलन आसानी से किया जा सकता है|
२८ अगस्त २०२०

सत्य की खोज मनुष्य की एक शाश्वत जिज्ञासा है ---

विकल्प -- अनेकता में होता है, एकता में नहीं। परमात्मा में पूर्ण समर्पण को ही -- निर्विकल्प कहते हैं। निर्विकल्प में कोई अन्य नहीं होता। समभाव से परमात्मा में पूर्ण रूप से समर्पित अधिष्ठान -- निर्विकल्प समाधि है। पृथकता के बोध की समाप्ति का होना -- निर्विकल्प में प्रतिष्ठित होना है। निर्विकल्प समाधि में ही हम कह सकते है -- "शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि", क्योंकि तब कल्याणकारी ब्रह्म से अन्य कोई नहीं है। परमात्मा की अनंतता, व उससे भी परे की अनुभूति, और पूर्ण समर्पण -- निर्विकल्प समाधि है। . हमारा पुनर्जन्म भगवान की इच्छा से नहीं, हमारी स्वयं की इच्छा से होता है। हमारे मन में छिपी कामनाएँ ही हमारे पूनर्जन्म का कारण हैं, न कि भगवान की इच्छा। यह शत-प्रतिशत सत्य है। आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों की प्राप्ति, और पुनर्जन्म -- ये तीनों ही शाश्वत सत्य हैं -- जिन पर हमारा सनातन धर्म आधारित है। चूंकि हमारा सनातन धर्म -- सत्य पर आधारित है, इसीलिए वह कभी नष्ट नहीं हो सकता। संसार मे यदि सभी हिंदुओं की हत्या कर भी दी जाये तो भी सनातन धर्म नष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि जिन अपरिवर्तनीय सत्य शाश्वत सिद्धांतों पर यह खड़ा है उनको फिर कोई मनीषी अनावृत कर देगा। संसार में यदि कहीं कोई सुख-शांति है तो वह इन मूलभूत सत्य सिद्धांतों के कारण ही है। जहाँ पर इन सत्य सिद्धांतों की मान्यता नहीं है, वहाँ अशांति ही अशांति है। राग-द्वेष व अहंकार से मुक्ति -- वीतरागता कहलाती है। यह वीतरागता और सत्यनिष्ठा ही मोक्ष का हेतु है। एकमात्र सत्य -- भगवान हैं। भगवान से परमप्रेम और समर्पण -- सत्यनिष्ठा कहलाते है। .

सत्य की खोज -- मनुष्य की एक शाश्वत जिज्ञासा है, वह शाश्वत जिज्ञासा ही इन सत्य सनातन सिद्धांतों को पुनः अनावृत कर देगी। भौतिक देह की मृत्यु के समय जैसे विचार हमारे अवचेतन मन में होते हैं, वैसा ही हमारा पुनर्जन्म होता है। हमारे पुनर्जन्म का कारण हमारे अवचेतन में छिपी हुई सुप्त कामनाएँ हैं, न कि भगवान की इच्छा।
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हम अपनी भक्ति के कारण ही कहते हैं कि यह सृष्टि भगवान की है, अन्य कोई कारण नहीं है। हम भगवान के अंश हैं अतः भगवान ने हमें भी अपनी सृष्टि रचित करने की छूट दी है। भगवान की सृष्टि में कोई कमी नहीं है। कमी यदि कहीं है तो वह अपनी स्वयं की सृष्टि में है। ये चाँद-तारे, ग्रह-नक्षत्र, और प्रकृति -- भगवान की सृष्टि है, और हमारे चारों ओर का घटनाक्रम -- हमारी स्वयं की सृष्टि है, भगवान की नहीं।
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(१) हमारे सामूहिक विचार ही घनीभूत होकर हमारे चारों ओर सृष्ट हो रहे हैं। जिन व्यक्तियों की चेतना जितनी अधिक उन्नत है, उनके विचार उतने ही अधिक प्रभावी होते हैं। अतः हमारे चारों ओर की सृष्टि -- हमारी स्वयं की सृष्टि है, भगवान की नहीं।
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(२) हम जो कुछ भी हैं, वह अपने स्वयं के ही अनेक पूर्व जन्मों के विचारों और भावों के कारण हैं, न कि भगवान की इच्छा से। हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं, जिनका फल निश्चित रूप से मिलता है। इन कर्मफलों से हम मुक्त भी हो सकते हैं, जिसकी एकमात्र विधि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताई है। अन्य कोई विधि नहीं है।
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(३) प्रकृति के नियमों के अनसार कुछ भी निःशुल्क नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। बिना कीमत चुकाये मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता। कुछ भी प्राप्त करने के लिए निष्ठा पूर्वक परिश्रम करना पड़ता है। हमारी निष्ठा और परिश्रम ही वह कीमत है। भगवान को प्राप्त करने के लिए भी भक्ति, समर्पण, श्रद्धा-विश्वास, लगन, और निष्ठा रूपी कीमत चुकानी होती है। मुफ्त में भगवान भी नहीं मिलते।
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कभी मैं भिखारियों की भीड़ देखता हूँ तो उनमें मुझे कई तो पूर्व जन्मों के बड़े-बड़े हाकिम (प्रशासक) दिखाई देते हैं, जिनसे कभी दुनियाँ डरती थी। उनकी मांगने की आदत नहीं गई तो भगवान ने इस जन्म में उनकी नियुक्ति (duty) यहाँ लगा दी। जो जितने बड़े घूसखोर, कामचोर, ठग, छल-कपट करने वाले, दूसरों का अधिकार छीनने वाले, और पाप-कर्म में रत रहने वाले अत्याचारी हैं -- उन को ब्याज सहित सब कुछ बापस चुकाना पड़ेगा। प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगी। नर्क की भयानक यातनाओं के रूप में उनसे उनके पापकर्म की कीमत बसूली जाएगी।
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आप सब के हृदय में प्रतिष्ठित परमात्मा को मैं नमन करता हूँ। वे ही मेरे प्राण और अस्तित्व हैं। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२८ अगस्त २०२१
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पुनश्च :--- "कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।"
इसमें ईश्वर मात्र दृष्टा हैं। करुणानिधान होने के कारण मनुष्य को सही मार्ग दिखाने का प्रयास करते हैं लेकिन हस्तक्षेप नहीं करते। कर्मफल में उनकी कोई भूमिका नहीं होती है।

भारत कभी किसी भी कालखंड में किसी का गुलाम नहीं था ---

 भारत कभी किसी भी कालखंड में किसी का गुलाम नहीं था। जिन विदेशियों ने भारत में शासन किया वह कुछ भारतियों के सहयोग से ही किया। कुछ अदूरदर्शी व स्वार्थी भारतीयों के सहयोग के बिना कोई भी विदेशी सत्ता भारत में नहीं रह सकती थी। भारतीयों ने कभी भी पराधीनता स्वीकार नहीं की और सर्वदा अपने स्वाभिमान के लिए संघर्ष करते रहे। भारत में अंग्रेजों का शासन भी कुछ भारतीय जमींदार, स्वार्थी शासक वर्ग, और कुछ ढोंगी राजनेताओं के कारण ही था, जिन्होने लोभवश या किसी विवशता में अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार की और बड़ी क्रूरता से जनभावनाओं को दबाकर रखा।

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सन १८५७ ई. के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के समय अंग्रेजों ने एक योजना बनाई थी कि भारत से सारे भारतीयों की हत्या कर दी जाये और सिर्फ गोरी चमड़ी वाले यूरोपीय लोगों को ही यहाँ रहने दिया जाये, और कुछ भारतीयों को गोरों के गुलाम के रूप में जीवित रखा जाये। वे ऐसा काम दोनों अमेरिकी महाद्वीपों और ऑस्ट्रेलिया में कर चुके थे।
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१८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के समय इसी नरसंहार के लिए अंग्रेजों ने जनरल जेम्स जॉर्ज स्मिथ नील (General James George Smith Neill), जनरल सर हेनरी हेवलॉक (General Sir Henry Havelock), और फील्ड मार्शल हेनरी हयूग रोज़ (Field Marshal Henry Hugh Rose) को ज़िम्मेदारी सौंपी थी। ये तीनों ही नरपिशाच हत्यारे थे। अंग्रेजों ने इन नरपिशाच हत्यारों की स्मृति में अंडमान द्वीप समूह में तीन द्वीपों के नाम रखे।
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इन नराधम हत्यारे अंग्रेज़ सेनापतियों ने १८५७ में भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को निर्दयता से कुचला और करोड़ों भारतीयों का नरसंहार किया। इन राक्षसों ने १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का बदला लेने के लिए व्यापक नर-संहार किया था जो विश्व के इतिहास में सबसे बड़ा नरसंहार था। एक करोड से अधिक निर्दोष भारतीयों की पेड़ों से लटका कर या गोली मार कर हत्याएँ की गयी थीं। दो माह के भीतर भीतर इतना बड़ा नर-संहार विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं हुआ है|
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नील के नेतृत्व में अंग्रेज़ सेनाएँ इलाहाबाद से कानपुर की ओर चल पड़ीं। इलाहाबाद से कानपुर तक के मार्ग में नील ने हर गाँव में सार्वजनिक नर-संहार किया, और लाखों निरीह भारतीयों की हत्या की। उसे मार्ग में जो भी भारतीय मिलता उसे वह निकटतम पेड़ पर फांसी दे देता। इलाहाबाद से कानपुर तक के मार्ग में पड़ने वाले हरेक गाँव को जला दिया गया, ऐसा कोई भी पेड़ नहीं था जिस पर किसी असहाय भारतीय को फांसी पर नहीं लटकाया गया हो। बाद में नरसंहार के लिए वह लखनऊ गया जहाँ भारतीय वीरों ने उसे मार डाला। उस नर-पिशाच की स्मृति में अंग्रेजों ने अंडमान में एक द्वीप का नाम Neil Island रखा। उस नर-पिशाच का नाम वर्तमान भाजपा सरकार ने सत्ता में आने के बाद ही हटवाया। इस नर-पिशाच ने बिहार में भी लाखों भारतीयों की हत्या की थी। बिहार में कुंवर सिंह के क्षेत्र में आरा और गंगा नदी के बीच के एक गाँव में इस राक्षस ने वहाँ के सभी ३५०० लोगों की हत्याएँ की। फिर बनारस के निकट के एक गाँव में जाकर वहाँ के सभी ५५०० लोगों की हत्याएँ करवाई। यह जहाँ भी जाता, गाँव के सभी लोगों को एकत्र कर उन्हें गोलियों से भुनवा देता।
हेवलॉक के नेतृत्व में अँगरेज़ सेना ने झाँसी की रानी को भागने को बाध्य किया और उनकी ह्त्या की। इस राक्षस ने झांसी के आसपास के क्षेत्रों में लाखों भारतीयों की हत्याएँ करवाई थीं।
रोज ने कानपुर की ३ लाख की जनसंख्या में से लगभग दो लाख सत्तर हज़ार नागरिकों की ह्त्या करवा कर कानपुर नगर को श्मसान बना दिया था। यह एक भयानक हत्यारा था। कानपुर के पास के एक गाँव कालपी की तो पूरी आबादी को ही क़त्ल कर दिया गया। वहाँ किसी पशु-पक्षी तक को भी जीवित नहीं छोड़ा गया।
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उपरोक्त तीनों अँगरेज़ सेनाधिकारियों में से हरेक ने अपनी सेवा काल में लाखों भारतीयों की हत्याएँ की, इसलिए उन्हें अंग्रेज सरकार ने खूब सम्मानित किया।
केंद्र में वर्तमान सरकार ने रोज द्वीप का नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वीप, नील द्वीप का नाम शहीद द्वीप और हैवलॉक द्वीप का नाम स्वराज द्वीप रख दिया है।
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नेताजी सुभाषचंद्र बोस भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे। ३० दिसंबर १९४३ को नेताजी ने पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराया था और भारत की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। अनेक देशों ने उनकी सरकार को मान्यता भी दे दी थी। पर द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की पराजय के कारण उन्हें भारत छोड़कर ताईवान और मंचूरिया होते हुए रूस भागना पडा जहाँ शायद उन की ह्त्या कर दी गयी। उन की ह्त्या के पीछे स्वतंत्र हो चुके भारत की सरकार की भी सहमति थी। ताईवान में वायुयान दुर्घटना में उनकी मृत्यु की झूठी कहानी रची गयी। आज़ाद हिन्द फौज का खजाना जवाहार लाल नेहरू ने अपने अधिकार में ले लिया था। वह कहाँ गया उसे वे ही जानें।
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
२८ अगस्त २०२३

(१) सुख और दुःख का कारण क्या हैं ? (२) मन में किसी भी तरह की कामना का होना, सब पापों का मूल है​।

(१) ("ॐ खं ब्रह्म॥" (यजुर्वेद ४०/१७)

" ख" -- आकाश तत्व, यानि ब्रह्म, यानि सर्वव्यापी आत्मा का नाम है। "स' का अर्थ होता है "समीप", और "द" का अर्थ होता हो दूर। जो परमात्मा से समीप है, वह सुखी है। जो परमात्मा से दूर है, वह दुःखी है।
परमात्मा से दूरी "नर्क" है, और परमात्मा से समीपता "स्वर्ग" है। हमारा लोभ और अहंकार ही हमें परमात्मा से दूर करते हैं। नर्क के सबसे बड़े और आकर्षक द्वार का नाम "लोभ" है, और उससे अगला द्वार "अहंकार" है।
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(२) मन में किसी भी तरह की कामना का होना, सब पापों का मूल है​ --
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कोई कामना है तो वह स्वयं "श्रीराम" की हो, हमारी नहीं। सारा जीवन राम-मय हो, इधर-उधर कहीं भी, या पीछे मुड़कर देखने का अवकाश न हो। रां रां रां रां रां रां रां -- यह राम नाम की ध्वनि है जो सारे अस्तित्व में गूंज रही है। चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, इस ध्वनि को न भूलें। इसी में अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का विसर्जन कर दें। यह जीवन निहाल हो जाएगा। जीवन में और कुछ भी नहीं चाहिए। "ॐ" और "रां" -- ये दोनों एक हैं, इनमें कोई भेद नहीं है। "कामना" (Desire) और "अभीप्सा" (Aspiration) -- इन दोनों शब्दों में दिन-रात का अंतर है। "अभीप्सा" कहते हैं -- परमात्मा के प्रति तड़प को, और "कामना" कहते है -- भोग्य पदार्थों के प्रति तड़प को। ये दोनों विपरीत बिन्दु हैं।
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राम, कृष्ण, और शिव आदि भगवान के नामों में कोई भेद नहीं है। यदि कहीं कोई भेद है तो वह हमारे मन में ही है, मन से बाहर कोई भेद नहीं है। भ्रू-मध्य में या आज्ञाचक्र में मानसिक रूप से एक दीपक जला दीजिये। उस दीपक के प्रकाश को सारे ब्रह्मांड में फैला दीजिये। कहीं कोई अंधकार नहीं है। उस दीपक के प्रकाश में "राम" नाम का जप कीजिये --- "ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ" या "रां रां रां रां रां"। उस दीपक का प्रकाश और कोई नहीं, हम स्वयं है। हम यह शरीर नहीं, वह सर्वव्यापी प्रकाश हैं। उस प्रकाश को ही ब्रह्मज्योति कहते हैं। वह "ब्रह्मज्योति" हम स्वयं हैं।
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जीवन का हर क्लेश, हर पीड़ा और हर दुःख दूर हो जाएगा। उस ब्रह्मज्योति के प्रकाश में इस मंत्र का निरंतर जप कीजिये ---
"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥"
इस मंत्र के प्रकाश में कोई आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। बड़े से बड़ा ब्रह्मराक्षस, ब्रह्मपिशाच, भूत-प्रेत, शैतान और कोई भी दुष्टात्मा हो, आपका कोई अहित नहीं कर सकता। लेकिन यह मंत्र जपना तो स्वयं आपको ही पड़ेगा, किसी अन्य को नहीं। किसी अन्य से जप करवाने से कोई लाभ नहीं होगा।
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यदि और भी आगे बढ़ना है तो "गोपाल सहस्त्रनाम" में भगवान श्रीकृष्ण का एक मंत्र दिया है -- "ॐ क्लीं"। "गोपाल" रूप में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान कीजिये और ऊपर बताई हुई ब्रह्मज्योति के प्रकाश में इस मंत्र का निरंतर जप कीजिये। यह मंत्र आपको विश्वविजयी बना देगा, लेकिन निष्काम भाव से ध्यान करें "गोपाल" रूप में भगवान श्रीकृष्ण का ही।
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आज श्रावण मास की नवमी है, और सोमवार है। बड़ा पवित्र और शुभ दिन है। और कुछ न कर सको तो प्रणव का जप करते करते भगवान शिव का ध्यान करो। एक बार कर लिया तो नित्य निरंतर करते रहो। भगवान शिव ही गुरु हैं। ॐ इति॥
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! गुरु ॐ !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ जुलाई २०२४

हम परमात्मा के साथ एक, और उनके अमृत पुत्र हैं ---

परमात्मा से पृथक हमारी कोई पहिचान नहीं है। जैसे विवाह के बाद स्त्री का वर्ण, गौत्र, और जाति वही हो जाती है, जो उसके पति की होती है; वैसे ही परमात्मा को समर्पण के पश्चात हमारी भी पहिचान वही हो जाती है, जो परमात्मा की है।

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हम यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। यह शरीर तो एक वाहन है जो हमें इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ है। यह सारी सृष्टि ही परमात्मा का शरीर है। हम सब का धर्म "सनातन" है, जिसे इस सृष्टि की रचना के समय स्वयं परमात्मा ने रचा था। हम परमात्मा के साथ एक, और उनके अमृत पुत्र हैं। यह सत्य एक न एक दिन सभी को समझना ही पड़ेगा॥
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धर्म की जय हो। अधर्म का नाश हो। प्राणियों में सद्भावना हो। जीव का कल्याण हो। भारत माता की जय हो। हर हर महादेव ! महादेव महादेव महादेव !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जुलाई २०२४

हमारी सब की सबसे बड़ी पीड़ा ----

सृष्टि के आरंभ से ही भारत में शासन का सबसे बड़ा दायित्व "धर्म की रक्षा" रहा है। त्रेतायुग से सभी क्षत्रिय राजाओं ने "राम-राज्य की स्थापना" को ही अपना आदर्श माना है। धर्म सिर्फ एक ही है, और वह है "सनातन", जो मनु-स्मृति में दिये धर्म के दस लक्षणों को धारण करता है --

"धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।" (मनुस्मृति ६.९२)
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कणाद ऋषि के वैशेषिक-सूत्रों के अनुसार --
"यतो अभ्युदयः निःश्रेयस सिद्धि सधर्मः" जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है।
याज्ञवल्क्य ऋषि ने बृहदारण्यक में, व वेदव्यास जी ने भागवत-पुराण, पद्म-पुराण, और महाभारत आदि ग्रन्थों में धर्म-तत्व को बहुत अच्छी तरह से समझाया है।
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भारत में धर्म-शिक्षा के अभाव में धर्म का ह्रास बहुत तीब्रता से हो रहा है। भारत का वर्तमान शासन "धर्म-निरपेक्ष" और पश्चिम की ईसाई व्यवस्थाओं पर आधारित अधर्म-सापेक्ष है। यह व्यवस्था सदा नहीं रह सकती। इस समय तो हम भगवान से प्रार्थना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर सकते। भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि भारत का शासन सत्यनिष्ठ, धर्मसापेक्ष और धर्माधारित हो। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२७ जुलाई २०२४
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पुनश्च: -- हमारी आध्यात्मिक साधना का एकमात्र उद्देश्य धर्म की पुनः स्थापना और वैश्वीकरण है। ईश्वर की उपासना से हमारा उद्देश्य अवश्य पूर्ण होगा। अन्य कुछ भी हमें नहीं चाहिए।

हे जगन्माता, हे परमशिव, अपनी माया के आवरण, विक्षेप और सब दुर्बलताओं से मुझे मुक्त करो। मेरे अन्तःकरण में आप स्वयं सदा निवास करो, इसे इधर-उधर कहीं भटकने मत दो। मैं आपकी शरणागत हूँ। मेरा निवास सदा आपके हृदय में हो, और आप सदा मेरे हृदय में रहो। ॐ ॐ ॐ !!
चारों ओर के नकारात्मक परिवेश का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। लेकिन अब भगवान का आश्वासन है, इसलिए निश्चिंत होकर ईश्वर की चेतना में रहते हुए उपासना कर सकता हूँ। किसी भी तरह का कोई रहस्य, अब रहस्य नहीं रहा है। कोई संशय नहीं है। गुरु-कृपा और हरिःकृपा -- पूर्णतः फलीभूत हो रही हैं। जैसे कल का सूर्योदय निश्चित है, वैसे ही इसी जीवनकाल में परमात्म लाभ भी अब सुनिश्चित है। सभी का कल्याण हो।




वर्ण-व्यवस्था ---

 वर्ण-व्यवस्था ---

"वर्ण" शब्द का सही अर्थ क्या हो सकता है? मेरी सोच के अनुसार --
(१) ब्राह्मण --- ब्रह्मचर्य और ब्रह्मज्ञान ही ब्राह्मणत्व है। ब्राह्मणत्व का आरम्भ ब्रह्मचर्य, और ब्राह्मणत्व की पूर्णता ब्रह्मज्ञान है। एक ब्रह्मचारी या ब्रह्मज्ञानी ही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है।
(२) क्षत्रिय --- जो अपने प्राणों की चिन्ता न कर, यथाशक्ति सभी निर्बलों की रक्षा, यानि क्षति से त्राण करता है, वह क्षत्रिय है। धर्म की रक्षा क्षत्रियों का मुख्य धर्म है।
(३) वैश्य --- जो समाज में सभी के कल्याण हेतु धन कमाता है, वह वैश्य है।
(४) शूद्र --- जो निःस्वार्थ भाव से समाज की सेवा करता है, वह शूद्र है।
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(५) चांडाल कौन है? आज के समय में एक पाँचवाँ वर्ण "चांडाल" भी है। आजकल के सारे तथाकथित "सेकुलर बुद्धिजीवियों" को चांडाल ही कहना चाहिए। ये काम ही चांडाल का कर रहे हैं।
वर्णाश्रम धर्म नहीं रहा है। भगवान ही अवतृत होकर इसकी पुनः स्थापना कर सकते हैं। और कुछ लिखना नहीं चाहता। सभी का मंगल हो।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३० जुलाई २०२४

आवरण और विक्षेप :---

 ​(यह लेख प्रतीकात्मक है लेकिन सत्य है। समझने वाले समझ जायेंगे, और जो न समझेंगे वे अभी अनाड़ी हैं।)

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परमात्मा के राजमार्ग में "आवरण" और "विक्षेप" नाम की दो बड़ी मायावी और अति शक्तिशाली राक्षसियाँ बैठी हैं, जो अपना रूप बदलने में अति निपुण हैं। वे किसी को आगे बढ़ने ही नहीं देतीं। कैसे भी उनको चकमा देकर आगे बढ़ना ही है। हरिः कृपा से ही उनको चकमा दिया जा सकता है, अन्यथा वे दोनों राक्षसियाँ बड़ी मायावी हैं, और उनसे पार पाना बड़ा दुस्तर है।
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उनको चकमा देकर आगे बढ़ भी गए तो राजमार्ग के बगल में "लोभ" और "अहंकार" नाम के दो बड़े आकर्षक नर्क के द्वार हैं, जिनके सामने से जाना पड़ता है। उन दरवाजों में जो प्रवेश कर जाता है, उसका एक बार तो बाजे-गाजे के साथ में बड़ा जबर्दस्त स्वागत किया जाता है, फूलमालाएँ पहिनाई जाती हैं, और मिठाई भी खिलाई जाती है। लेकिन अंदर प्रवेश करते ही वह पाता है कि वह तो किसी गलत स्थान में आ गया है। पीछे मुड़कर देखता है तो पाता है कि वहाँ कोई दरवाजा नहीं है, पर्दों के पीछे छिपे हुए यमदूत आते हैं और उसे घसीट कर मारते-पीटते ले जाते हैं और नर्ककुंड में डाल देते हैं।
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यदि वह लोभ और अहंकार के दरवाजों से बच भी गया तो आगे जाकर "काम", और "मोह" नाम के दो नर्कद्वार और भी आते हैं, जहाँ बड़ी सुंदर और आकर्षक युवतियाँ और युवक अपनी मनमोहिनी मुस्कान लिए खड़े मिलते हैं। मोह नामक द्वार में आपको अपने पुराने मित्र और सगे-संबंधी भी दिखाई दे सकते हैं। वहाँ भी अंदर प्रवेश करने वाले की बड़ी दुर्गति होती है और अंततः वह स्वयं को नर्ककुंड में पाता है।
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"क्रोध" और "मत्सर्य" नाम के अंतिम दरवाजे हैं। क्रोध नाम के दरवाजे के बाहर आप पायेंगे कि बड़े क्रोधी स्त्री और पुरुष वहाँ एक दूसरे से लड़ रहे है, और एक-दूसरे को गालियां दे रहे हैं। आपको उनकी गालियां और लड़ाई-झगड़ा अच्छा लगा तो वे आपको भी अपने में मिला लेंगे, और अंततः आप भी स्वयं को नर्ककुंड में पायेंगे। ऐसे ही मत्सर्य नाम के द्वार पर बड़ी सुंदर और आकर्षक युवतियाँ और युवक एक-दूसरे की चुगली करते मिलेंगे। आप भी उनके साथ मजा लेने लग गए तो वे आपको भी अपने साथ पटाकर ले जाएँगे और पकड़कर नर्ककुंड में डाल देंगे।
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किस नर्ककुंड में आपको कितने समय तक रहना है, और क्या कष्ट सहना है, इसका निर्णय अपने अपने कर्मानुसार यमराज के हाथ में हैं। यमराज के भैंसे के गले में जो घंटी बंधी होती है, उसकी आवाज बड़ी कर्कश होती है। उसे सुनते ही व्यक्ति अपनी सारी होशियारी भूल जाता है। पूरे जीवन के सारे दृश्य उस के सामने आ जाते हैं। इतने में उसके प्राण हर लिए जाते हैं। यमराज सिर्फ पुण्यात्माओं के ही प्राण हरते हैं, बाकी का काम तो उन के दूत ही करते हैं। जो भूत-प्रेत और जिन्नों की साधना करते हैं, उनको लेने तो यमदूत भी नहीं आते। उन्हें भूत-प्रेत और जिन्न ही अपने साथ ले जाते हैं।
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कोई दूसरा व्यक्ति किसी के काम नहीं आता। कुछ दिनों पूर्व मैंने एक लेख लिखा था जिसका सार था कि -- "Other person is the hell", यानि दूसरा व्यक्ति नर्क है। कोई किसी के काम नहीं आता। अपनी यात्रा अकेले ही पूरी करनी पड़ती है। भगवान भी केवल अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति की बात करते हैं।
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जो मेरे मन के भाव थे, वे मैंने इस लेख में व्यक्त कर दिये। मेरे पास परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। वे ही मेरे एकमात्र धन और संपत्ति हैं। वे ही अब तक की मेरी एकमात्र उपलब्धि हैं। और मेरे पास कुछ भी नहीं है। उनके बिना मैं अकिंचन और निर्धन हूँ।
जो मेरे इस लेख को समझ जाएँगे उन्हें मैं बुद्धिमान समझूँगा, बाकी के लोग अनाड़ी हैं। उनको कुछ और समय लगेगा समझने में।
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अंतिम बात पश्चिमी जगत की महानतम महिला संत श्रीश्री ज्ञानमाता के शब्दों में --
1. See nothing, look at nothing but your goal, ever shining before you.
2. The things that happen to us do not matter; what we become through them does.
3. Each day, accept everything as coming to you from God.
4. At night, give everything back into His hands.
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और क्या लिखूँ? मेरी चेतना में इस समय परमात्मा ही परमात्मा हैं। और कुछ भी नहीं है। आज एकादशी का पावन दिन है। सामने भगवान श्रीकृष्ण अपनी शांभवी मुद्रा में बैठे है। उनके ध्यान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मेरी समझ में नहीं आ रहा है।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। ॐ नमः शिवाय। ॐ तत्सत्। ॐ स्वस्ति।
कृपा शंकर
३१ जुलाई २०२४

भगवान मुझे हर तरह के पाखंड व दिखावे से दूर रखे ---

"मैं" और "मेरा" --- इन दो शब्दों ने मेरा सारा काम गड़बड़ कर रखा है। इन शब्दों का प्रयोग केवल परमात्मा के लिए ही होना चाहिए, न कि इस शरीर महाराज के लिए। जब तक मैं स्वयं को यह शरीर महाराज समझता हूँ, मेरी स्थिति स्थायी रूप से परमात्मा मे स्थिर नहीं रह सकती। इस शरीर की चेतना से स्थायी मुक्ति आवश्यक है। सिर्फ ध्यान साधना के समय ही मेरी चेतना इस देह से बाहर कूटस्थ में रहती है। बाद में फिर इस देह में लौट आती है। अब हर समय चेतना का इस देह से बाहर कूटस्थ में रहना आवश्यक है। यह शरीर एक साधन मात्र है, मैं नहीं।

(प्रश्न): इस संसार में मैंने जन्म क्यों लिया था?
(उत्तर): केवल ईश्वर की प्राप्ति के लिए, न की सांसारिक यश और इंद्रीय सुख के लिए। हर कदम पर भटकाव है। साधु, सावधान !!
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गीता में भगवान कहते है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् -- अनन्य-योग के द्वारा मुझ में अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
भावार्थ --
"अनन्य-योग", यानि "एकत्व-रूप समाधि-योग" से, अव्यभिचारिणी भक्ति का तात्पर्य यही हो सकता है कि -- भगवान् वासुदेव से अन्य कुछ भी नहीं है। वे ही हमारी परम गति हैं। इस भाव से युक्त होकर की गई उपासना ही अव्यभिचारिणी भक्ति है। भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई भी कामना नहीं होनी चाहिए। भगवान हम से हमारा शत-प्रतिशत प्रेम मांगते हैं, ९९.९९% भी नहीं चलेगा। भगवान के अतिरिक्त की गई अन्य किसी भी कामना को भगवान ने व्यभिचार की संज्ञा दी है।
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इसके अतिरिक्त एकान्त पवित्र देश में रहने, और विनयभाव-रहित संस्कार-शून्य मनुष्यों के समुदाय को भी त्यागने का निर्देश भगवान ने दिया है। भगवान की सृष्टि में पूर्णता है, अपूर्णता केवल हमारे मन में है। अनन्य भक्ति होगी तो उसके पुत्र ज्ञान और वैराग्य को भी आना ही पड़ेगा। अन्य कुछ भी नहीं चाहिए।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ अगस्त २०२४

वेदान्त की अधिष्ठात्री माँ छिन्नमस्ता ---

 

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वेदान्त की अधिष्ठात्री माँ छिन्नमस्ता का विग्रह अनुपम है। उन की साधना में कोई मांग नहीं है, सिर्फ समर्पण है। माँ ने कामदेव और उसकी पत्नी रति को अपने पैरों के नीचे पटक रखा है। यह संकेत है कि मेरा साधक एक ब्रह्मचारी ही हो सकता है। दशों दिशाएँ उनके वस्त्र हैं। माँ ने एक हाथ में कटार लिए अपने स्वयं के सिर को काट कर दूसरे हाथ की हथेली में ले रखा है, और सुषुम्ना नाड़ी से निकल रही रक्त की धारा का पान कर रही है। इसके दो अर्थ हैं। पहला अर्थ तो यह है कि साधक को अहंकार-शून्य होना होगा। दूसरा अर्थ है कि सुषुम्ना में ही परम गति है। सुषुम्ना के भीतर ही क्रमशः वज्रा, चित्रा और ब्राह्मी नाड़ियाँ हैं। भगवती की कृपा से कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर वज्रा और चित्रा से होती हुई ब्रह्मनाड़ी में प्रवेश करती है और विचरण करती हुई परमशिव से जा मिलती हैं। इस प्रक्रिया में साधक भी परमशिव के साथ एक हो कर स्वयं परमशिव हो जाता है।
इड़ा नाड़ी से निकल रही रक्त की धारा का पान डाकिनी महाशक्ति कर रही है। डाकिनी कृष्ण वर्ण की है और बहुत अधिक शक्तिशाली है। सारी तामसिक शक्तियाँ उसके आधीन हैं। पिंगला नाड़ी से निकल रही रक्त की धारा का पान वर्णिनी महाशक्ति कर रही हैं। वे गौर वर्ण की हैं और सारी राजसिक शक्तियों की स्वामिनी हैं। सारी सात्विक शक्तियाँ माँ के आधीन हैं, लेकिन माँ त्रिगुणातीत यानि निःस्त्रेगुण्य हैं। वे इन सब सिद्धियों से परे हैं। अपने भक्त को वे सारी सिद्धियाँ प्रदान करती हैं, लेकिन उसका परम वैराग्य भी जागृत कर देती है। वह उन सिद्धियों की ओर देखता भी नहीं है। साधक का एक ही लक्ष्य -- "परमशिव" रह जाता है। माँ का साधक एक अवधूत श्रेणी का महात्मा हो जाता है।
माँ के दो ही मंदिर हैं, एक हिमाचल में चिंत्यपूर्णी में है, और दूसरा झारखंड में राजरप्पा में है। तिब्बत का वज्रयान मत माँ की ही साधना पर आधारित है। उनके मंत्र "ॐ मणिपद्मे हूँ" का अर्थ है कि मैं मणिपुर चक्र में स्थित पद्म में "हुं" यानि भगवती छिन्नमस्ता को नमन करता हूँ।
माँ छिन्नमस्ता का निवास मणिपुर चक्र के पद्म में है। उनका बीजमंत्र "हुं" है। उनका मंत्र -- "ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं वज्र वैरोचनीए हुं हुं फट् स्वाहा" है। इसकी साधना किसी परमहंस अवधूत श्रेणी के महात्मा से दीक्षा लेकर ही करनी चाहिए। अन्यथा साधना निष्फल भी हो सकती है।
हरेक दस महाविद्या विष्णु के किसी न किसी अवतार से जुड़ी होती है। भगवती छिन्नमस्ता -- विष्णु के अवतार भगवान नृसिंह से जुड़ी हुई हैं। ये भगवान नृसिंह की शक्ति हैं। दोनों के बीजमंत्र एक ही हैं।
माँ भगवती छिन्नमस्ता को नमन। मैं समर्पित होकर उनसे सिर्फ "परम वैराग्य" और "अनन्य भक्ति" मांग रहा हूँ। वे हमारी माता हैं, जिनसे मांगना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। ये तो उन्हें देने ही होंगे। और मुझे कुछ नहीं चाहिए। मेरी वेदान्त-वासना तो उन्होने जागृत कर ही रखी है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ अगस्त २०२४
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पुनश्च: -- माँ छिन्नमस्ता के उपासकों में गुरु गोरखनाथ हुए हैं। उन्हें सारी सिद्धियाँ माँ छिन्नमस्ता से मिली थीं। उन्होने माँ छिन्नमस्ता का बहुत सुंदर स्तोत्र लिखा है। इस विद्या का प्राचीन वैदिक नाम कुछ और था। अभी स्मृति में नहीं है।

प्रश्न) (१): आध्यात्मिक साधना में विघ्न क्यों आते है? (प्रश्न) (२): भगवत्-प्राप्ति के लिए किन किन अवस्थाओं से गुजरना पड़ेगा? (प्रश्न) (३): भगवत्-प्राप्ति के लिए अब इस समय क्या करना चाहिए?

 मैं जो भी कुछ भी लिख रहा हूँ, वह मेरे स्वयं के निजी अनुभवों पर आधारित है। मेरे लिए मेरे निज अनुभव ही प्रमाण हैं।

(उत्तर) (१): एक बार यह प्रश्न मैंने बहुत ही विह्वल होकर भगवान से पूछा कि बार बार मुझे ये विघ्न क्यों आते हैं? क्यों आपकी माया का विक्षेप मुझे विक्षिप्त कर रहा है? चित्त में स्थिरता क्यों नहीं है? कहीं मैं पागलपन की ओर तो नहीं बढ़ रहा हूँ?
चैतन्य में जगन्माता की ओर से तुरंत उत्तर मिला कि यह विक्षेप ही तुम्हारी सबसे बड़ी और एकमात्र बाधा है। इसी के कारण अन्य सारे विघ्न आ रहे हैं, और इसी के कारण तुम्हारा चित्त अस्थिर है। इस विक्षेप का कारण तुम्हारे अवचेतन मन में भरा हुआ तमोगुण है। वह तमोगुण जब तक नष्ट नहीं होगा, तब तक यह विक्षेप तुम्हें दुःखी करता रहेगा। उपासना में सत्यनिष्ठापूर्वक दीर्घता और गहराई से अभ्यास निरंतर करते रहने से ही यह तमोगुण हटेगा।
(उत्तर) (२): जगन्माता ने करुणावश बताया कि -- "तुम स्वयं को ही धोखा दे रहे हो, तुम अपने लोभ और अहंकार से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाये हो। राग-द्वेष और अहंकार से पूरी तरह मुक्त होने पर ही आगे का मार्गदर्शन तुम्हें प्राप्त होगा।"
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इससे आगे किसी मेरे किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया गया। लेकिन भगवान का आशीर्वाद प्राप्त हुआ और सब कुछ समझ में आ गया। संक्षेप में संशयात्मक सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि --
"अपनी दृष्टि निरंतर अपने लक्ष्य परमात्मा की ओर स्थिर रखो। ऊपर-नीचे, दायें-बाएँ, इधर-उधर, किधर भी मत देखो। दृष्टि अपने लक्ष्य पर स्थिर रहे।"
अब अन्य कोई प्रश्न नहीं बचा है। उन के प्रति सिर्फ समर्पण और परमप्रेम है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ अगस्त २०२४

"परमशिव" एक अनुभूति है ---

 परमशिव को परिभाषित नहीं किया जा सकता। यह अनुभूति गहन ध्यान में होती है। ध्यान करते करते जब सहस्त्रारचक्र का ऊपरी भाग हट जाये तब अनंतता की अनुभूति होती है। इस अनंतता से भी परे जाने का अभ्यास करें। अपनी चेतना में लाखों करोड़ किलोमीटर ऊपर उठ जाएँ। और ऊपर उठें, और ऊपर उठें, जितना ऊपर उठ सकते हैं, उतना ऊपर उठते जाएँ। मार्ग में कोई प्रकाश पुंज मिले तो उससे भी ऊपर उठते रहें। अंततः एक विराट श्वेत ज्योति पुंज, और पञ्चकोणीय श्वेत नक्षत्र के दर्शन होंगे। उसी में स्थित होकर ध्यान कीजिये। वहीं रहिये। कहीं कोई अंधकार नहीं है। जब आप इतनी ऊंचाई पर पहुँच जाएँगे तब आपको परमशिव की अनुभूति होगी। वहीं हमारा घर है। वहीं हमारा निवास है। किसी भी तरह की लौकिक आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। समर्पित होकर उसी में स्वयं को स्थित कीजिये। उसी चेतना में रहते हुए सारे सांसारिक कर्तव्यों को निभाएँ। आप यह मनुष्य देह नहीं, स्वयं परमशिव हैं।

यह अनुभूति स्वयं परमशिव और सिद्ध गुरु की परम कृपा से ही होती है। लेकिन प्रयास तो करते रहिए। उनकी कृपा अवश्य होगी।
ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ अगस्त २०२४

भगवत्-प्राप्ति हमारा सत्य-सनातन-धर्म है ---

भारत एक तपोभूमि है, आने वाला समय धर्म की पुनः स्थापना का है। आने वाला युग "धर्मयुग" होगा। भारत की रक्षा होगी। भारत ही धर्म है, और धर्म ही भारत है। धर्म की रक्षा होगी, अधर्म का नाश होगा। यह भगवान का शाश्वत वचन है। भगवत्-प्राप्ति हमारा सत्य-सनातन-धर्म है। इस धर्म की रक्षा के लिए ही हम आध्यात्मिक साधना करते हैं। धर्म क्या है? इस विषय पर अनेक बार लिख चुके हैं। हमारी आध्यात्मिक साधना का उद्देश्य "धर्म की रक्षा" है, व्यक्तिगत मोक्ष नहीं। धर्म की रक्षा भगवान करते हैं, लेकिन उसका निमित्त तो हमें बनना ही होगा। अब इस विकट समय में जब हमारे धर्म पर मर्मांतक प्रहार हो रहे हैं, धर्मरक्षा हेतु ही हमारी आध्यात्मिक साधना होगी। जितना समय इन मंचों पर लेख लिखने में व्यय होता है, उसका उपयोग परमात्मा की उपासना में करेंगे। यही प्रेरणा हमें परमात्मा से मिल रही है। जब भी परमात्मा की इच्छा होगी हम पुनश्च: आध्यात्मिक विषयों पर लिखेंगे। वर्तमान समय में कुछ समय तक के लिए तो भगवान को नमन!!
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"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥"
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥"
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"यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम् ||”
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नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारूचापं, नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥
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"वसुदॆव सुतं दॆवं कंस चाणूर मर्दनम्।
दॆवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दॆ जगद्गुरुम्॥"
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"वंशीविभूषित करान्नवनीरदाभात्, पीताम्बरादरूण बिम्बफला धरोष्ठात्।
पूर्णेंदु सुन्दर मुखादरविंदनेत्रात्, कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने॥"
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"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणत क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:॥"
"नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च, जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्। यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्॥"
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"कस्तूरी तिलकम् ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम् ,
नासाग्रे वरमौक्तिकम् करतले, वेणु: करे कंकणम्।
सर्वांगे हरिचन्दनम् सुललितम्, कंठे च मुक्तावली,
गोपस्त्री परिवेष्टितो विजयते, गोपाल चूड़ामणि:॥"
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥"
"वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोपि नमो नमस्ते॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !! श्रीमते रामचंद्राय नमः !!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
६ अगस्त २०२४

असत्य और अंधकार की शक्तियों से अपनी रक्षा के लिए हर कदम पर इनका प्रतिकार करना होगा। परमात्मा का परम ज्योतिर्मय रूप -- अंधकार और असत्य की शक्तियों से हमारी रक्षा करता है।

 सब तरह के वासनात्मक विचारों से ऊपर उठकर कूटस्थ में भगवान श्रीराम का ध्यान कीजिये, जिन्होंने आतताइयों के विनाश के लिए हाथ में धनुष धारण कर रखा है। आप चाहें तो शांभवी मुद्रा में ध्यानस्थ, या त्रिभंग मुद्रा में खड़े भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान भी कूटस्थ में कर सकते हैं। यदि आपके लिए स्वभाविक है तो परमशिव का ध्यान कीजिये, या कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान कीजिये। वे सब अपने परम ज्योतिर्मय रूप में हैं।

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आप यह भौतिक शरीर नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं। उन्हें स्वयं में अवतरित कीजिये। उनके निरंतर स्मरण, चिंतन, मनन और निदिध्यासन से स्वतः ही ध्यान होने लगेगा। स्वयं में परमात्मा का बोध कीजिये और परमात्मा की चेतना में रहिए। आप यह नश्वर भौतिक देह नहीं, स्वयं साक्षात परमशिव हैं। सदा उनकी चेतना में रहने का अभ्यास करें।
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सृष्टि के संचालन के लिए तमोगुण यानि अंधकार भी आवश्यक है। उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। लेकिन उससे बच कर ही हम सत्य का बोध कर सकते हैं।
"श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥" "श्रीमते रामचंद्राय नमः॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
८ अगस्त २०२४

हम इतने डरपोक और कायर क्यों हैं? कायरता और दब्बूपन को दूर कैसे करें?

 इसमें गलती हमारी नहीं, हमारे बड़े-बूढ़ों, और हमारे समाज की है जिसने बचपन से ही डरा-धमका कर हमारा पालन-पोषण किया और डरा-धमका कर ही हमें बड़ा किया। इस के पीछे उनका स्वार्थ था कि बच्चा हमारी बात मानेगा और हमसे डर कर रहेगा। इस का परिणाम यह हुआ है कि कुछ अपवादों को छोड़कर पूरी हिन्दू कौम ही डरपोक, दब्बू और स्वार्थी हो गई है।

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अन्यथा हम इतने भयभीत क्यों हैं? किसी अज्ञात भय से हर समय हम भयग्रस्त क्यों रहते हैं? आसुरी और पैशाचिक शक्तियों से हमारी रक्षा सिर्फ क्षत्रिय वर्ग ने ही की है। आतताइयों के विरुद्ध समाज के अन्य वर्गों ने शस्त्र क्यों नहीं उठाये? अभी भी हम क्यों भूल जाते हैं कि हम देश की जनसंख्या का ८०% हैं, हम ८० करोड़ हैं। जरा जरा सी बात पर हम डर जाते हैं और भयभीत होकर रहते हैं। एक अज्ञात भय से भयग्रस्त रहना ही हमारा स्वभाव बन गया है।
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एक बालक हो या बालिका, उनमें इतना साहस विकसित करना चाहिए कि वे बिना किसी भय के निडर और निर्भीक होकर पूरे साहस के साथ अपनी बात अपने माता-पिता को कह सकें। माता-पिता का कर्तव्य है कि वे अपनी संतानों की समस्या को समझें और उनकी पूरी बात को सुनें।
जो लोग बात बात पर अपने बच्चों को मार मार कर उन्हें कायर व दब्बू बनाते हैं वे सब नर्क में जायेंगे, चाहे वे कितने भी पूज्य और वंदनीय क्यों न हों। वे पूरे राष्ट्र को ही कायर बनाने का अपराध कर रहे हैं।
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कायरता और दब्बूपन को दूर कैसे करें? ---
इसके लिए भगवान श्रीराम की आराधना करनी होगी। इस विषय पर पर मैं पहले भी बहुत लिख चुका हूँ, अब और नहीं लिखा जा रहा। जिसने जन्म लिया है वह मरेगा भी। बार बार मरने से तो अच्छा है कि हम एक बार ही मर जायें।
मन में सदा राम जी को, और उनके सेवक हनुमान जी को रखें, कोई भय हमारे समीप नहीं आयेगा।
"नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारूचापं, नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥"
"श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥" "श्रीमते रामचंद्राय नमः॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
८ अगस्त २०२४

बांग्लादेश और बंगाल की समस्या का एकमात्र स्थायी समाधान :---

इसके लिए बहुत बड़ा राजनीतिक, कूटनीतिक और सैनिक साहस चाहिए जो हमारे सौभाग्य से हमारी वर्तमान केंद्र सरकार में है। हमें बहुत बड़ा कदम उठाना पड़ेगा। बंगाल और बांग्लादेश दोनों का नीचे बताए हुये अनुसार विभाजन करना पड़ेगा।
(1) सर्वप्रथम बंगाल का विभाजन दो भागों में करना होगा उत्तरी बंगाल और दक्षिणी बंगाल।
बंगाल के दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी, कूचबिहार, उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर, और मालदा --- इन छह जिलों को बंगाल से पृथक कर एक केंद्र शासित राज्य बनाना होगा।
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बाकी तेरह जिले -- मुर्शिदाबाद, वीरभूम, पुरुलिया, बांकुड़ा, बर्धमान, नादिया, हुगली, हावड़ा, पश्चिमी मिदिनापुर, पूर्वी मिदिनापुर, उत्तर चौबीस परगना, दक्षिण चौबीस परगना, और कोलकाता -- इन सब को मिलाकर वर्तमान बंगाल राज्य हो।
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(2) बांग्लादेश के रंगपुर और राजशाही -- इन दो जिलों का सीमावर्ती भूभाग अधिग्रहण कर इनमें बांग्लादेश के हिंदुओं को बसाया जाये। इस भूभाग को बंगाल के केंद्र शासित राज्य में मिला दिया जाये। इससे भारत की सामरिक स्थिति भी बहुत अधिक मजबूत हो जाएगी। चिकननेक का क्षेत्र बहुत मजबूत हो जाएगा और आसाम से आना-जाना भी बहुत अधिक आसान हो जाएगा।
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(3) बहुत दृढ़ राजनीतिक निर्णय लेकर सारे रोहिंगिया और अवैध रूप से आए बांग्लादेशियों को पकड़ पकड़ कर भारत से बाहर निकाल दिया जाये।
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बांग्लादेश और बंगाल की समस्या यही स्थायी समाधान मेरे दिमाग में आता है। अन्य कोई समाधान नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
८ अगस्त २०२४

भगवती बाला त्रिपुर सुंदरी को नमन --

 भगवती बाला सुंदरी की साधना भगवती के बाल रूप की मोक्षदायिनी साधना है।

यह तंत्र की दस महाविद्याओं में से एक, अति अति गोपनीय साधना है जिसका ज्ञान दण्डी-सन्यासियों और नाथ संप्रदाय के सिद्ध योगियों से ही प्राप्त हो सकता है। वे भी किसी की पात्रता देखकर सुपात्र को ही यह विद्या प्रदान करते हैं। यह एक दुधारी तलवार है जिससे शत्रु का संहार भी हो सकता है, और स्वयं का सिर भी काटा जा सकता है।
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इसे ही "श्रीविद्या" भी कहते हैं। सृष्टि का कोई भी वैभव, और मोक्ष इनकी साधना से प्राप्त हो सकता है। यदि आप ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते, और सदाचारी नहीं हैं तो इसे भूल जाएँ। यह साधना फिर आपके लिए नहीं है। यह साधना दिखने में ही सौम्य है, लेकिन वास्तव में बहुत ही अधिक उग्र है।
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इनका वर्णन श्रीब्रह्मांडपुराण के उत्तर खंड में भगवान विष्णु के अवतार श्रीहयग्रीव और अगस्त्य ऋषि के मध्य संवाद के रूप में है। भगवती श्रीललिता महात्रिपुरसुंदरी की साधना का क्रम होता है। पहले उनकी साधना बाल रूप में एक नौ वर्ष की कन्या के रूप में होती है, फिर षोड़सी के रूप में, फिर माता के रूप में। जिस तरह एक शिशु अपनी माता की गोद में सोता है, वैसे ही एक साधक इनकी गोद में ही शरणागत होकर सोता है, उठता भी इन्हीं की गोद में है, और सारे कार्य भी इन्हीं की शरणागत होकर करता है। ये हमारी माता हैं। हम इनकी शरणागत हैं।
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"सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुरत्
तारानायकशेखरां स्मितमुखीमापीनवक्षोरुहाम्।
पाणिभ्यामलिपूर्णरत्नचषकं रक्तोफळं बिभ्रतीं
सौम्या रत्नघटस्थरक्तचरणां ध्यायेत्पराम्बिकाम्॥"
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॥श्री ललितामहात्रिपुरसुन्दर्यै नमः