भाद्रपद शुक्ल दशमी के दिन लोक देवता बाबा रामदेव जी के मेले का समापन होता है| जैसलमेर जिले में उनका स्थान एक जागृत स्थान है जिसकी प्रत्यक्ष अनुभूति मैंने स्वयं वहाँ की है|
Tuesday, 27 August 2024
राजस्थान के लोक-देवता रामदेव जी ---
सत्य की खोज मनुष्य की एक शाश्वत जिज्ञासा है ---
विकल्प -- अनेकता में होता है, एकता में नहीं। परमात्मा में पूर्ण समर्पण को ही -- निर्विकल्प कहते हैं। निर्विकल्प में कोई अन्य नहीं होता। समभाव से परमात्मा में पूर्ण रूप से समर्पित अधिष्ठान -- निर्विकल्प समाधि है। पृथकता के बोध की समाप्ति का होना -- निर्विकल्प में प्रतिष्ठित होना है। निर्विकल्प समाधि में ही हम कह सकते है -- "शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि", क्योंकि तब कल्याणकारी ब्रह्म से अन्य कोई नहीं है। परमात्मा की अनंतता, व उससे भी परे की अनुभूति, और पूर्ण समर्पण -- निर्विकल्प समाधि है। . हमारा पुनर्जन्म भगवान की इच्छा से नहीं, हमारी स्वयं की इच्छा से होता है। हमारे मन में छिपी कामनाएँ ही हमारे पूनर्जन्म का कारण हैं, न कि भगवान की इच्छा। यह शत-प्रतिशत सत्य है। आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों की प्राप्ति, और पुनर्जन्म -- ये तीनों ही शाश्वत सत्य हैं -- जिन पर हमारा सनातन धर्म आधारित है। चूंकि हमारा सनातन धर्म -- सत्य पर आधारित है, इसीलिए वह कभी नष्ट नहीं हो सकता। संसार मे यदि सभी हिंदुओं की हत्या कर भी दी जाये तो भी सनातन धर्म नष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि जिन अपरिवर्तनीय सत्य शाश्वत सिद्धांतों पर यह खड़ा है उनको फिर कोई मनीषी अनावृत कर देगा। संसार में यदि कहीं कोई सुख-शांति है तो वह इन मूलभूत सत्य सिद्धांतों के कारण ही है। जहाँ पर इन सत्य सिद्धांतों की मान्यता नहीं है, वहाँ अशांति ही अशांति है। राग-द्वेष व अहंकार से मुक्ति -- वीतरागता कहलाती है। यह वीतरागता और सत्यनिष्ठा ही मोक्ष का हेतु है। एकमात्र सत्य -- भगवान हैं। भगवान से परमप्रेम और समर्पण -- सत्यनिष्ठा कहलाते है। .
भारत कभी किसी भी कालखंड में किसी का गुलाम नहीं था ---
भारत कभी किसी भी कालखंड में किसी का गुलाम नहीं था। जिन विदेशियों ने भारत में शासन किया वह कुछ भारतियों के सहयोग से ही किया। कुछ अदूरदर्शी व स्वार्थी भारतीयों के सहयोग के बिना कोई भी विदेशी सत्ता भारत में नहीं रह सकती थी। भारतीयों ने कभी भी पराधीनता स्वीकार नहीं की और सर्वदा अपने स्वाभिमान के लिए संघर्ष करते रहे। भारत में अंग्रेजों का शासन भी कुछ भारतीय जमींदार, स्वार्थी शासक वर्ग, और कुछ ढोंगी राजनेताओं के कारण ही था, जिन्होने लोभवश या किसी विवशता में अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार की और बड़ी क्रूरता से जनभावनाओं को दबाकर रखा।
(१) सुख और दुःख का कारण क्या हैं ? (२) मन में किसी भी तरह की कामना का होना, सब पापों का मूल है।
(१) ("ॐ खं ब्रह्म॥" (यजुर्वेद ४०/१७)
हम परमात्मा के साथ एक, और उनके अमृत पुत्र हैं ---
परमात्मा से पृथक हमारी कोई पहिचान नहीं है। जैसे विवाह के बाद स्त्री का वर्ण, गौत्र, और जाति वही हो जाती है, जो उसके पति की होती है; वैसे ही परमात्मा को समर्पण के पश्चात हमारी भी पहिचान वही हो जाती है, जो परमात्मा की है।
हमारी सब की सबसे बड़ी पीड़ा ----
सृष्टि के आरंभ से ही भारत में शासन का सबसे बड़ा दायित्व "धर्म की रक्षा" रहा है। त्रेतायुग से सभी क्षत्रिय राजाओं ने "राम-राज्य की स्थापना" को ही अपना आदर्श माना है। धर्म सिर्फ एक ही है, और वह है "सनातन", जो मनु-स्मृति में दिये धर्म के दस लक्षणों को धारण करता है --
हे जगन्माता, हे परमशिव, अपनी माया के आवरण, विक्षेप और सब दुर्बलताओं से मुझे मुक्त करो। मेरे अन्तःकरण में आप स्वयं सदा निवास करो, इसे इधर-उधर कहीं भटकने मत दो। मैं आपकी शरणागत हूँ। मेरा निवास सदा आपके हृदय में हो, और आप सदा मेरे हृदय में रहो। ॐ ॐ ॐ !!
वर्ण-व्यवस्था ---
वर्ण-व्यवस्था ---
आवरण और विक्षेप :---
(यह लेख प्रतीकात्मक है लेकिन सत्य है। समझने वाले समझ जायेंगे, और जो न समझेंगे वे अभी अनाड़ी हैं।)
भगवान मुझे हर तरह के पाखंड व दिखावे से दूर रखे ---
"मैं" और "मेरा" --- इन दो शब्दों ने मेरा सारा काम गड़बड़ कर रखा है। इन शब्दों का प्रयोग केवल परमात्मा के लिए ही होना चाहिए, न कि इस शरीर महाराज के लिए। जब तक मैं स्वयं को यह शरीर महाराज समझता हूँ, मेरी स्थिति स्थायी रूप से परमात्मा मे स्थिर नहीं रह सकती। इस शरीर की चेतना से स्थायी मुक्ति आवश्यक है। सिर्फ ध्यान साधना के समय ही मेरी चेतना इस देह से बाहर कूटस्थ में रहती है। बाद में फिर इस देह में लौट आती है। अब हर समय चेतना का इस देह से बाहर कूटस्थ में रहना आवश्यक है। यह शरीर एक साधन मात्र है, मैं नहीं।
वेदान्त की अधिष्ठात्री माँ छिन्नमस्ता ---
प्रश्न) (१): आध्यात्मिक साधना में विघ्न क्यों आते है? (प्रश्न) (२): भगवत्-प्राप्ति के लिए किन किन अवस्थाओं से गुजरना पड़ेगा? (प्रश्न) (३): भगवत्-प्राप्ति के लिए अब इस समय क्या करना चाहिए?
मैं जो भी कुछ भी लिख रहा हूँ, वह मेरे स्वयं के निजी अनुभवों पर आधारित है। मेरे लिए मेरे निज अनुभव ही प्रमाण हैं।
"परमशिव" एक अनुभूति है ---
परमशिव को परिभाषित नहीं किया जा सकता। यह अनुभूति गहन ध्यान में होती है। ध्यान करते करते जब सहस्त्रारचक्र का ऊपरी भाग हट जाये तब अनंतता की अनुभूति होती है। इस अनंतता से भी परे जाने का अभ्यास करें। अपनी चेतना में लाखों करोड़ किलोमीटर ऊपर उठ जाएँ। और ऊपर उठें, और ऊपर उठें, जितना ऊपर उठ सकते हैं, उतना ऊपर उठते जाएँ। मार्ग में कोई प्रकाश पुंज मिले तो उससे भी ऊपर उठते रहें। अंततः एक विराट श्वेत ज्योति पुंज, और पञ्चकोणीय श्वेत नक्षत्र के दर्शन होंगे। उसी में स्थित होकर ध्यान कीजिये। वहीं रहिये। कहीं कोई अंधकार नहीं है। जब आप इतनी ऊंचाई पर पहुँच जाएँगे तब आपको परमशिव की अनुभूति होगी। वहीं हमारा घर है। वहीं हमारा निवास है। किसी भी तरह की लौकिक आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। समर्पित होकर उसी में स्वयं को स्थित कीजिये। उसी चेतना में रहते हुए सारे सांसारिक कर्तव्यों को निभाएँ। आप यह मनुष्य देह नहीं, स्वयं परमशिव हैं।
भगवत्-प्राप्ति हमारा सत्य-सनातन-धर्म है ---
असत्य और अंधकार की शक्तियों से अपनी रक्षा के लिए हर कदम पर इनका प्रतिकार करना होगा। परमात्मा का परम ज्योतिर्मय रूप -- अंधकार और असत्य की शक्तियों से हमारी रक्षा करता है।
सब तरह के वासनात्मक विचारों से ऊपर उठकर कूटस्थ में भगवान श्रीराम का ध्यान कीजिये, जिन्होंने आतताइयों के विनाश के लिए हाथ में धनुष धारण कर रखा है। आप चाहें तो शांभवी मुद्रा में ध्यानस्थ, या त्रिभंग मुद्रा में खड़े भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान भी कूटस्थ में कर सकते हैं। यदि आपके लिए स्वभाविक है तो परमशिव का ध्यान कीजिये, या कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान कीजिये। वे सब अपने परम ज्योतिर्मय रूप में हैं।
हम इतने डरपोक और कायर क्यों हैं? कायरता और दब्बूपन को दूर कैसे करें?
इसमें गलती हमारी नहीं, हमारे बड़े-बूढ़ों, और हमारे समाज की है जिसने बचपन से ही डरा-धमका कर हमारा पालन-पोषण किया और डरा-धमका कर ही हमें बड़ा किया। इस के पीछे उनका स्वार्थ था कि बच्चा हमारी बात मानेगा और हमसे डर कर रहेगा। इस का परिणाम यह हुआ है कि कुछ अपवादों को छोड़कर पूरी हिन्दू कौम ही डरपोक, दब्बू और स्वार्थी हो गई है।
बांग्लादेश और बंगाल की समस्या का एकमात्र स्थायी समाधान :---
भगवती बाला त्रिपुर सुंदरी को नमन --
भगवती बाला सुंदरी की साधना भगवती के बाल रूप की मोक्षदायिनी साधना है।