Friday, 31 January 2025

भारत में "अल्पसंख्यक" कौन है?

 भारत में "अल्पसंख्यक" कौन है?

अल्पसंख्यक होने का मापदंड क्या है? यह "अल्पसंख्यक शब्द वैधानिक रूप से परिभाषित नहीं है| अल्पसंख्यकता का आधार क्या है? भारत में हिन्दू संगठित नहीं हैं, और विभिन्न जातियों में बँटे हुए हैं| भारत की हर जाति को, हर संप्रदाय व मत के अनुयायियों को चाहिए कि वे स्वयं को अल्पसंख्यक घोषित करवाने के लिए आंदोलन करें| भारत में जब धर्म के नाम पर अल्पसंख्यकों को विशेष सुविधा प्राप्त है तो यह सुविधा यहूदी और पारसी धर्म के अनुयायियों को क्यों नहीं है? यहूदी और पारसी वास्तव में अल्पसंख्यक हैं|अल्पसंख्यक आयोग में एक भी यहूदी और पारसी नहीं है| जब धर्म के नाम पर कुछ अल्पसंख्यकों को भारत में विशेष सुविधाएं प्राप्त हैं तो ये सुविधाएँ उन लोगों को क्यों नहीं है जो स्वतंत्र विचारक हैं या नास्तिक हैं? वे भी तो धार्मिक अल्पसंख्यक है| कई वर्ष पूर्व 'रामकृष्ण मिशन' और 'आर्य समाज' ने स्वयं को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित किये जाने का अनुरोध किया था जिसे ठुकरा दिया दिया गया था| जिस आधार पर वह ठुकराया गया था वह भी मेरी समझ से परे है| जब सभी अपने आप को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की चेष्टा करेंगे तभी भारत को अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति मिलेगी| अन्य कोई मार्ग नहीं है| भारत में सभी लोग धार्मिक अल्पसंख्यक हैं| इस विषय पर एक राष्ट्रीय बहस छेड़ी जाए क्योंकि यह एक राष्ट्रीय महत्त्व का मुद्दा है| धन्यवाद|
१ फरवरी २०२०

अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति कैसे मिले ? ---

 अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति कैसे मिले ? ---

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मैं कुछ बातें इस मंच के प्रबुद्ध पाठकों से जानना चाहता हूँ। यदि हो सके तो कृपया मुझे इसकी जानकारी दें। यह मैं मात्र अपनी जानकारी के लिए पूछ रहा हूँ, किसी के प्रति द्वेष की भावना मेरे में नहीं है। मैं यही जानना चाहता हूँ कि भारत में अल्पसंख्यकवाद का वैधानिक आधार और मापदंड क्या है? इसे मैं अपनी अल्प बुद्धि से समझ नहीं पाया हूँ।
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(१) विश्व के किस देश में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक का अधिकारिक व संवेधानिक दर्जा प्राप्त है, और उन्हें अल्पसंख्यक के नाम पर क्या सुविधा मिलती है?
(२) भारत में जब धर्म के नाम पर तथाकथित अल्पसंख्यकों को विशेष सुविधा प्राप्त है, तो यह सुविधा यहूदी मत के अनुयायियों को क्यों नहीं है? अल्पसंख्यक आयोग में एक भी यहूदी नहीं है।
(३) जब धर्म के नाम पर कुछ तथाकथित अल्पसंख्यकों को भारत में विशेष सुविधाएँ प्राप्त हैं, तो ये सुविधाएँ उन लोगों को क्यों नहीं है जो स्वतंत्र विचारक हैं, और किसी भी मत में आस्था नहीं रखते? वे भी तो धार्मिक अल्पसंख्यक हैं।
(४) भारत सरकार ने जैन मतावलंबियों को अल्पसंख्यक घोषित किया है। यहाँ मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। श्रमण परम्परा में भगवान महावीर स्वामी जन्मजात वर्ण व्यवस्था के घोर विरुद्ध थे। उनका कथन था कि बिना कैवल्य पद को प्राप्त किये कोई सत्य का बोध नहीं कर सकता। जैन मत का लक्ष्य ही 'वीतरागता' है, और जैन वह है जो जितेन्द्रिय है। अतः 'जैन' कोई जाति नहीं हो सकती, अपितु एक मत है। जैन मत का पालन करने के लिए जैन परिवार में जन्म लेना अनिवार्य नहीं है, कोई भी जैन मत का पालन कर सकता है। अतः जैन मतावलम्बी किस आधार से अल्पसंख्यक हुए? यह मेरी समझ से परे है। मेरा निवेदन है की कोई इस पर प्रकाश डाले।
(५) कई वर्षों पूर्व 'रामकृष्ण मिशन' और 'आर्य समाज' ने स्वयं को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित किये जाने का अनुरोध किया था जिसे ठुकरा दिया दिया गया था। जिस आधार पर वह ठुकराया गया था वह भी मेरी समझ से परे है। मेरा अनुरोध है कि कोई मुझे समझाये|।
(६) इस प्रकार से तो सनातन वैदिक धर्म को मानने वाले भी भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। उन को भी अल्पसंख्यक की श्रेणी में सम्मिलित किये जाने के लिए आन्दोलन करना चाहिए। इतना ही नहीं जितने भी सम्प्रदाय और मत-मतान्तर भारत में हैं उन सब को अपने आप को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित करवाने के लिए आन्दोलन करना चाहिए।
(७) जब सभी अपने आप को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की चेष्टा करेंगे, लगता है तभी भारत को अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति मिलेगी। अन्य कोई मार्ग नहीं है। भारत में सभी लोग धार्मिक अल्पसंख्यक हैं।
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अल्पसंख्यक होने का मापदंड क्या है?
इस विषय पर एक राष्ट्रीय बहस छेड़ी जाए क्योंकि यह एक राष्ट्रीय महत्त्व का मुद्दा है।
धन्यवाद !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१ फरवरी २०१४

सच्चिदानंद की भावातीत अनुभूति ---

 सच्चिदानंद की भावातीत अनुभूति ---

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सच्चिदानंद की भावातीत अनुभूति, और उसमें स्वयं के विसर्जित होने का बोध -- परमात्मा का आशीर्वाद है। यह मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि और स्थिति है, जिसमें निरंतर बने रहना चाहिये। इसे "ब्राह्मी-स्थिति" भी कह सकते हैं, "कैवल्य" या "कूटस्थ-चैतन्य" भी कह सकते हैं। ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। यहाँ किसी भी तरह का विकल्प यानि किसी भी तरह की "किन्तु-परंतु" नहीं होती। जहां तक मैं समझता हूँ, इसमें बने रहना ही -- "परमात्मा को समर्पण" है।
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"स्कन्द-पुराण" के उत्तर खंड में दी हुई "गुरुगीता" के निम्न श्लोक में इसकी कुछ कुछ अभिव्यक्ति है। अन्यत्र भी कहीं है तो उसका मुझे नहीं पता।
"ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्, भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि॥"
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यहाँ गुरु रूप में स्वयं परमशिव है, जिनके स्मरण मात्र से जन्म और संसार के सारे बंधन समाप्त हो जाते हैं। जो शिव हैं, वे ही विष्णु हैं। और जो विष्णु हैं, वे ही शिव हैं।
"ॐ नमः शिवाय विष्णु रूपाय शिव रूपाय विष्णवे।
शिवस्य हृदयं विष्णुं विष्णोश्च हृदयं शिवः॥"
“यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्। विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे॥”
"कायेन वाचा मनसेंद्रियैर्वा बुध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात्।
करोमि यद्यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि॥"
"अच्युतम् केशवं राम नारायणं,
कृष्ण दामोदरम् वासुदेवं हरिं।
श्रीधरं माधवं गोपिका वल्लभं,
जानकी नायकं रामचंद्रम भजे॥"
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ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ जनवरी २०२५
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पुनश्च: -- यह जीवन परमशिव परमात्मा को पूर्णतः समर्पित है। इसमें परमशिव के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!

हमारे विचार सही होंगे तभी हमारा आचरण भी सही होगा ---

 हमारे विचार सही होंगे तभी हमारा आचरण भी सही होगा ---

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आज मैं चार अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करना चाहता हूँ। यह मेरा स्वयं के साथ स्वयं का एक सत्संग है। अन्य कोई पढ़े या न पढ़े, लेकिन मुझे तो इससे बहुत अधिक लाभ हो रहा है। मैं न तो आत्म-मुग्ध हूँ, न अहंकारी और न ही फेंकू हूँ, जैसा की कुछ लोग मुझ पर आरोप लगाते हैं। कौन मेरे बारे में क्या सोचता है, यह उसकी समस्या है; मेरी नहीं। मुझे स्पष्टीकरण देने की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरा ध्यान मेरे विचारों की पवित्रता, और परमात्मा को समर्पण पर है। जो चार विचार मेरे समक्ष हैं, उन पर चर्चा कर रहा हूँ।
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(१) विषयों का चिंतन महा पाप है --
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विषयों में लिप्त होने से अधिक पाप, विषयों के चिंतन से होता है। विषयों के भोग से इतना पाप नहीं लगता, जितना विषयों के चिंतन से लगता है। विषयों का चिंतन ही मुख्य पाप है, क्योंकि हम मन से जो कुछ ही सोचते हैं वह ही हमारा कर्म है, जिसका फल मिले बिना नहीं रहता।
गीता में भगवान कहते हैं --
"कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३:६॥"
अर्थात् -- जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी कहा जाता है॥
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जो कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है, वह मिथ्याचारी है। शरीर से अनैतिक और अपराध पूर्ण कर्म करने की अपेक्षा मन से उनका चिन्तन करते रहना अधिक हानिकारक है। मन का स्वभाव है एक विचार को बारंबार दोहराना। इस प्रकार एक ही विचार के निरन्तर चिन्तन से मन में उसका दृढ़ संस्कार (वासना) बन जाता है। निरन्तर विषयचिन्तन से, वैषयिक संस्कार मन में गहराई से उत्कीर्ण हो जाते हैं, और उनसे प्रेरित मनुष्य विवश होकर उसी प्रकार के कर्म करता है।
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जो व्यक्ति बाह्य रूप से नैतिक और आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों के चिंतन में रहता है, वह मिथ्याचारी और महापाप का भागी है। भगवान तो यहाँ तक कहते हैं कि मन को परमात्मा में लगाकर अन्य किसी भी विषय का चिंतन न करें --
"सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६:२४॥
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
अर्थात् -- संकल्प से उत्पन्न समस्त कामनाओं को नि:शेष रूप से परित्याग कर मन के द्वारा इन्द्रिय समुदाय को सब ओर से सम्यक् प्रकार वश में करके।
शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे।
यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे॥
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(२) समष्टि के कल्याण की भावना रखें --
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हम समष्टि के कल्याण की भावना रखेंगे तो समष्टि भी हमारा कल्याण करेगी। वे देवता जो हमारा कल्याण कर सकते हैं, उन्हें भी शक्ति हमारे कर्मों से ही मिलती है। हम देवताओं को जो अर्पित करते हैं, उसे ही देवता बापस हमें कई गुणा अधिक कर के लौटाते हैं।
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अपने कर्तव्य-कर्म में हम नित्य प्रतिष्ठित रहें। भगवान को अर्पित करना हमारा कर्तव्य-कर्म है जिसे किए बिना यदि हम कुछ भी ग्रहण करते हैं तो हम चोरी करते हैं। बिना भगवान को अर्पित किये कुछ भी पाना -- पाप का भक्षण है।
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(३) आत्माराम का कोई कर्तव्य नहीं है --
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आत्माराम शब्द का प्रयोग देवर्षि नारद ने "भक्ति-सूत्रों" में उस व्यक्ति के लिए किया है जो निरंतर आत्मा में रमण करता है। आत्माराम का कोई कर्तव्य नहीं है। वह कृतकृत्य और जीवन-मुक्त है। उस पुरुष का कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं है। वह परमात्मा का ही एक रूप है और इस धरा पर विचरण करता हुआ एक देवता है। यह धरा उसे पाकर धन्य और पवित्र हो जाती है। देवता भी उसे देखकर आनंदित होकर नृत्य करने लगते हैं। उसकी सात पीढ़ियाँ तुरंत मुक्त हो जाती हैं। उसे सामान्य नियमों में नहीं बांधा जा सकता। वह कुल धन्य हो जाता है जिसमें उसने जन्म लिया है।
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(४) कर्ताभाव से मुक्त होकर ही हम परमात्मा का अनुग्रह पा सकते हैं --
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अनासक्त कर्तव्य-कर्म हमें परमात्मा से जोड़ देते हैं। सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, "मैं कर्ता हूँ" ऐसा मान लेता है। सम्पूर्ण कर्म और उनके फल भगवान को अर्पित कर दें। कर्मों और कर्मफलों से मुक्त होने की प्रक्रिया आध्यात्मिक उपासना है। हम निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें, यही हमारा स्वधर्म है। हम अपने स्वधर्म का पालन करें।
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उपसंहार --- उपरोक्त चार विषयों पर सत्संग पाने की मेरी घनिष्ठ इच्छा थी। अब मैं स्वयं के साथ सत्संग कर के आने वाले लंबे समय तक के लिए तृप्त और संतुष्ट हूँ। सभी का कल्याण हो। हम वही हो जाते हैं, जैसा हम सदा सोचते हैं| निरंतर परमात्मा का चिंतन करने से परमात्मा के सारे गुण हमारे में आ जाते हैं| अतः ऐसे ही लोगों का संग करें जो सदा परमात्मा के बारे में सोचते हैं| उन लोगों का साथ विष की तरह छोड़ दें जो परमात्मा से विमुख हैं| उनसे मिलना तो क्या उनकी और आँख उठाकर देखना भी बड़ा दुःखदायी होता है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२५

आजकल अधिकांश विवाह विफल क्यों हैं? ---

(प्रश्न) : आजकल अधिकांश विवाह विफल क्यों हैं?

(उत्तर) : जो भी वैवाहिक सम्बन्ध -- त्वचा के रंग, चेहरे के कोण, धन-लालसा या अन्य किसी स्वार्थ से किये जाते हैं, उनका नारकीय होना निश्चित है। विवाह वो ही सफल हो सकता है, जहाँ पति-पत्नी का स्वभाव एक-दूसरे के प्रति अनुकूल और सम्मानजनक हो। पत्नी के लिए जहां पति परमेश्वर हो, वहीं पति के लिए पत्नी अन्नपूर्णा हो। ऐसे ही परिवारों में अच्छी आत्माएं जन्म लेती हैं।
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जब पुरुष का शुक्राणु और स्त्री का अंडाणु मिलते हैं, तब सूक्ष्म जगत में एक विस्फोट होता है, और जैसी उनकी भावस्थिति और सोच होती है, सूक्ष्म-जगत से वैसी ही आत्मा आकृष्ट होकर गर्भस्थ हो जाती है। प्राचीन भारत में लोगों को इस तथ्य का ज्ञान था, तभी भारत ने इतने महापुरुषों को जन्म दिया। गर्भाधान भी एक संस्कार है, जिसका ज्ञान लुप्तप्राय ही हो गया है। आजकल की अधिकांश मनुष्यता कामज-संतानों के कारण ही इतनी घटिया है।
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परमात्मा में भी श्रद्धा, विश्वास, और निष्ठा होना आवश्यक है। कोई सूर्योदय में विश्वास करता है या नहीं, सूर्योदय तो होगा ही। वैसे ही परमात्मा का अस्तित्व किसी के विश्वास/अविश्वास पर निर्भर नहीं हैं। परमात्मा अपरिभाष्य, एकमात्र सत्य और हमारा अस्तित्व हैं, जिनका बोध हुए बिना जीवन में हम अतृप्त रह जाते हैं। उन्हें जानने का प्रयास स्वयं को जानने का प्रयास है। हमारे निज जीवन में परमात्मा में आस्था का न होना भी वैवाहिक असफलताओं का एक कारण है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ जनवरी २०२५
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पुनश्च: --- अगर भूल से भी कोई वामपंथी या नारी-स्वतन्त्रतावादी लड़की घर में बहु बनकर आ गयी तो उस घर का विनाश निश्चित है।

"भूमा" का साक्षात्कार करने की जिज्ञासा है ---

"भूमा" का साक्षात्कार करने की जिज्ञासा है। भगवान सनतकुमार ने जिस भूमाविद्या का ज्ञान अपने प्रिय शिष्य देवर्षि नारद को दिया, वह भूमा ही ब्रह्मविद्या/ब्रह्मज्ञान है। छांदोज्ञोपनिषद व अन्य कुछ ग्रन्थों में सूत्र रूप में इसका वर्णन है। उन्हें मैं बुद्धि के द्वारा समझने में असमर्थ हूँ, क्योंकि वेदांगों के ज्ञान के बिना श्रुतियों (वेदों) को समझना असंभव है।

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मुझे जो कुछ भी समझ में आता है वह गुरुकृपा व हरिःकृपा से ध्यान साधना के द्वारा ही समझ में आता है। परमात्मा एक महासागर है, और जीवात्मा एक जल की बूँद। परमात्मा को जानने के लिए जीवात्मा को बहुत गहरी डुबकी लगानी पड़ती है, तभी बोध होता है। यदि कहीं कोई कमी है तो वह कमी हमारी डुबकी में है, महासागर में नहीं। महासागर ऊर्ध्व में है, जिसका बोध गुरु/हरिःकृपा से ही होता है।
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इस समय आज इस विषय पर मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि विख्यात वैष्णवाचार्य आचार्य सियारामदास नैयायिक महाराज ने उपरोक्त विषय पर अपना एक प्रवचन विडियो के माध्यम से मुझे भेजा है, जिसका स्वाध्याय मैंने आज अभी कुछ समय पूर्व ही किया है। उनका इस विषय पर प्रवचन, उनके गहन ज्ञान और साधना को दर्शाता है। वह विडिओ उनका निजी/व्यक्तिगत है इसलिए साझा नहीं कर सकता।
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आज के समय में ज्ञान प्राप्ति के लिए ध्यान-साधना ही एकमात्र मार्ग है। अन्य कोई उपाय नहीं है। ध्यान साधना भी किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य के मार्गदर्शन में ही की जा सकती है। मैं भाग्यशाली हूँ कि मुझे वह मार्गदर्शन प्राप्त है। कमियाँ बहुत अधिक हैं, लेकिन वे मुझमें ही हैं, कहीं अन्यत्र नहीं।
गुरु व परमात्मा की कृपा बनी रहे। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२८ जनवरी २०२५ . पुनश्च: ---- आप के हृदय में परमात्मा को पाने की अभीप्सा गहनतम हो। आप वीतराग व स्थितप्रज्ञ होकर ब्राह्मी स्थिति यानि कैवल्य पद को प्राप्त हों। यही आत्म-साक्षात्कार है। परमात्मा स्वयं ही यह सम्पूर्ण सृष्टि बन गये हैं। कहीं कोई भेद नहीं है।

हम अपने बच्चों को जो प्यार करते हैं, वह वास्तव में परमात्मा को प्यार करते हैं। हमारे बच्चे भी परमात्मा के रूप में उस प्यार को स्वीकार करते हैं।

हम अपने बच्चों को जो प्यार करते हैं, वह वास्तव में परमात्मा को प्यार करते हैं। हमारे बच्चे भी परमात्मा के रूप में उस प्यार को स्वीकार करते हैं।

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सभी माता-पिताओं से मेरा हाथ जोड़ कर अनुरोध है कि वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें, और घर में खूब प्यार दें, जिसके लिए वे घर से बाहर प्यार नहीं ढूंढें। मनोवैज्ञानिक रूप से --
* जिन बच्चों को (विशेष रूप से बालिकाओं को) घर में बाप का प्यार नहीं मिलता है, वे बड़े होकर जीवन में पर पुरुषों में प्यार ढूंढते हैं।
* जिन बच्चों को (विशेष रूप से बालकों को) माँ का प्यार नहीं मिलता है, वे बड़े होकर अपने जीवन में पर स्त्रियों में प्यार ढूंढते हैं।
अतः माँ और बाप दोनों का प्यार बच्चों के विकास के लिए अति आवश्यक है।
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मैंने जीवन में जो प्रत्यक्ष स्वयं देखा है वही कह रहा हूँ --
(१) मेरे साथ कुछ ऐसे सहकर्मी भी थे जो घर में सुन्दर पत्नी और समझदार वयस्क बच्चों के होते हुए भी बेशर्म होकर परस्त्रीगामी थे। गहराई से विचार करने पर मैनें पाया कि उनकी विकृति का कारण बचपन में उन को माँ से प्यार न मिलना था।
(२) ऐसे ही कुछ महिलाओं को भी मैंने देखा है जो घर में अच्छे पति और संतानों के होते हुए भी परपुरुषगामी थीं। वे भी अपने बाल्यकाल में पिता के प्रेम से वंचित थीं। कुसंगति दूसरा कारण था।
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बच्चों को अपने स्वयं के आचरण से, अपना स्वयं का उदाहरण देकर अच्छे से अच्छे संस्कार दें। अपने बच्चों को, विशेष रूप से अपनी लड़कियों को वामपंथी और सेकुलर प्रभाव से बचाएँ, अन्यथा परिणाम बड़े दुखद होंगे। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०२५

अनात्म में बहुत अधिक भटक गया हूँ, परमात्म मूल में बापस लौट रहा हूँ ---


अनात्म में बहुत अधिक भटक गया हूँ। परमात्म मूल में बापस लौट रहा हूँ। स्थिर हो सदा वहीं रहूँगा। अब और भटकने का मन नहीं है। जीव भाव से मुक्त होकर हम ऊपर उठें, और शिव भाव में प्रतिष्ठित हों, तभी हम गूढ आध्यात्मिक रहस्यों को समझ पायेंगे। परमात्मा का स्मरण हर समय करना चाहिये। किसी परिस्थिति विशेष में हम यदि स्मरण न भी कर पायें तो परमात्मा स्वयं हमारा स्मरण कर हमें परम गति प्रदान करते हैं। मेरे लिये शब्द-रचना अब बड़ी कठिन और असंभव सी होती जा रही है, क्योंकि मेरी स्मृति लगातार क्षीण हो रही है। ईश्वर की चेतना सदा बनी रहे। सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म॥ ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
३० जनवरी २०२५

Thursday, 30 January 2025

कूटस्थ, उपास्य और उपासना :---

 कूटस्थ, उपास्य और उपासना :---

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"ॐ गुरुभ्यो नमः॥" "ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥" "ॐ शांति शांति शांति॥" "हरिः ॐ॥"
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यह "कूटस्थ" शब्द मुझे इसलिए बहुत अधिक प्रिय लगता है क्योंकि इस शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक बार किया है। यह भगवान श्रीकृष्ण का ही शब्द है। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कूटस्थ हैं, क्योंकि वे सर्वत्र होते हुए भी कहीं दिखाई नहीं देते।
जो साधक योग-साधना करते हैं, उनके लिए भी यह शब्द बहुत अधिक प्रिय है, क्योंकि वे कूटस्थ सूर्य-मण्डल में ही विस्तार-क्रम से परमात्मा का ध्यान करते हैं, और उन्हें जो भी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ होती हैं, वे कूटस्थ में ही होती हैं। सारे ज्ञान की प्राप्ति भी कूटस्थ में ही होती है। कूटस्थ ही भगवान हैं, और भगवान ही कूटस्थ हैं, क्योंकि वे कूट रूप से सर्वत्र हैं, लेकिन कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होते।
जो सर्वत्र हैं लेकिन कहीं भी दिखाई नहीं देते, वे कूटस्थ हैं।
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उन्हें जानने की विद्या गुरुमुखी है जो गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है। श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु से उपदेश व आदेश लेकर बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए उसी में सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए। समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान एक देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है; जिसमें स्थिति योगमार्ग की एक अति उच्च उपलब्धी है। गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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साहित्यिक दृष्टि से इस शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं, लेकिन भक्त/साधकों के लिए इसका एक ही अर्थ है --
भगवान के ज्योतिर्मय रूप के दर्शन और अनाहत नाद का श्रवण।
धन्य हैं वे सब साधक जिन्हें भगवान की कूटस्थ ज्योति के दर्शन होते हैं। भगवान के दर्शन कूटस्थ ज्योतिर्मयब्रह्म रूप में ही होते हैं। उस के साथ जो अक्षरब्रह्म सुनाई देता है, उस में दीर्घकाल तक स्थित होकर तैलधारा के समान उसका श्रवण निरंतर अधिकाधिक करना चाहिये। वह अक्षर अव्यक्त होने के कारण किसी प्रकार भी बतलाया नहीं जा सकता, और किसी भी प्रमाण से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। वह आकाश के समान सर्वव्यापक है और अव्यक्त होने से अचिन्त्य और कूटस्थ है।
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उपास्य :--
प्रकृति तो माया है, और भगवान मायापति हैं। भगवान की माया अति दुस्तर है। उसी का नाम "कूट" है। उस "कूट" नामक माया में जो अधिष्ठाता के रूप में कुछ भी क्रिया न करते हुये स्थित हैं, उनका नाम कूटस्थ है। इस प्रकार कूटस्थ होने के कारण वे अचल, ध्रुव अर्थात् नित्य है। वे हमारे उपास्य हैं।
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उपासना :--
उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बना कर उसके समीप पहुँच कर तैलधारा के तुल्य समान वृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थित रहने को "उपासना" कहते हैं।
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जिन भक्तों को कूटस्थ ज्योतिर्मयब्रह्म के दर्शन होते हैं, वे भगवान की कृपा से उनकी माया के आवरण और विक्षेप से परे चले जाते हैं। उनकी स्थाई स्थिति कूटस्थ चैतन्य में हो जाती है। कूटस्थ में दिखाई देने वाला पञ्चकोणीय श्वेत नक्षत्र पञ्चमुखी महादेव का प्रतीक है। यह एक नीले और स्वर्णिम आवरण से घिरा हुआ दिखाई देता है, जिसके चैतन्य में स्थित होकर साधक की देह शिवदेह हो जाती है, और वह जीव से शिव भी हो सकता है। इस श्वेत नक्षत्र की विराटता - क्षीरसागर है, जिसका भेदन और जिसके परे की स्थिति योग मार्ग की उच्चतम साधना और उच्चतम उपलब्धि है। इसका ज्ञान भगवान की परम कृपा से किसी सिद्ध सद्गुरु के माध्यम से ही होता है।
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं। आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर जहाँ होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु है। आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष है जो खोपड़ी के ऊपर मध्य में पीछे की ओर है। यह जीवात्मा का निवास है।
गुरुकृपा से धीरे धीरे सहस्त्रार में स्थिति हो जाती है। सामान्यतः एक उन्नत साधक की चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरा-सुषुम्ना में रहती है।
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चेतावनी :-- कुसंग का त्याग और यम-नियमों का पालन अनिवार्य है, अन्यथा तुरंत पतन हो जाता है। जब इस ज्योति पर साधक ध्यान करता है तब कई बार वह ज्योति लुप्त हो जाती है, यह 'आवरण' की मायावी शक्ति है जो एक बहुत बड़ी बाधा है। इस ज्योति पर ध्यान करते समय 'विक्षेप' की मायावी शक्ति ध्यान को छितरा देती है। इन दोनों मायावी शक्तियों पर विजय पाना साधक के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। ब्रह्मचर्य, सात्विक भोजन, सतत साधना और गुरुकृपा से एक आतंरिक शक्ति उत्पन्न होती है जो आवरण और विक्षेप की शक्तियों को कमजोर बना कर साधक को इस भ्रामरी गुफा से पार करा देती है।
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आवरण और विक्षेप का प्रभाव समाप्त होते ही साधक को धर्मतत्व का ज्ञान होता है| यहाँ आकर कर्ताभाव समाप्त हो जाता है और साधक धीरे धीरे परमात्मा की ओर अग्रसर होने लगता है। हम सब को परमात्मा की अनन्य पराभक्ति प्राप्त हो, और हम सब उन के प्रेम में निरंतर मग्न रहें इसी शुभ कामना के साथ इस लेख को विराम देता हूँ।
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इस लेख को लिखने से पहिले मैंने संबंधित विषय का गीता के शंकर भाष्य से स्वाध्याय किया, और गुरु महाराज, व भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की। उनकी कृपा से ही यह लेख लिख पाया, अन्यथा मुझ अकिंचन में कोई योग्यता नहीं है।
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ॐ नमः शिवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०२३

भगवान ही भक्ति हैं, भगवान ही भक्त हैं, भगवान ही क्रिया और कर्ता हैं --- .

 भगवान ही भक्ति हैं, भगवान ही भक्त हैं, भगवान ही क्रिया और कर्ता हैं ---

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भूल कर भी कभी साधक, उपासक, भक्त या कर्ता होने का मिथ्या भाव मन में नहीं आना चाहिए| मैं यह बात अपनी निज अनुभूतियों से लिख रहा हूँ, कोई मानसिक कल्पना नहीं है| एक बार ध्यान करते करते एक भाव-जगत में चला गया, जहाँ कोई अदृश्य शक्ति मुझसे पूछ रही थी कि तुम्हें क्या चाहिए| स्वभाविक रूप से मेरा उत्तर था कि आपके प्रेम के अतिरिक्त मुझे अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| मुझे उत्तर मिला कि -- "प्रेम का भी क्या करोगे? मैं स्वयं सदा तुम्हारे समक्ष हूँ, मेरे से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है|" तत्क्षण मुझे मेरी अभीप्सा (तड़प, अतृप्त प्यास) का उत्तर मिल गया| एक असीम वेदना शांत हुई| अगले ही क्षण मैं फिर बापस सामान्य चेतना में लौट आया| वास्तव में हमें परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| वे हैं तो सब कुछ हैं, उनके बिना कुछ भी नहीं है|
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वे निरंतर हमारे हृदय में हैं| वे निकटतम से भी अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं| वे सदा हमारे हृदय में हैं| भगवान कहते हैं ---
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति| भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया||१८:६||"
" उमा दारु जोषित की नाईं| सबहि नचावत रामु गोसाईं||" (श्रीरामचरितमानस)
हम सब कठपुतलियाँ हैं भगवान के हाथों में| कठपुतली में थोड़ा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार डाल दिया है, जो हमें दुःखी कर रहा है|
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निमित्त मात्र होने के लिए भगवान कह रहे हैं ---
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||११:३३||"
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अब और कहने के लिए कुछ भी नहीं बचा है| अंत में थोड़ा अति-अति संक्षेप में प्राणतत्व और परमशिव का अपना अनुभव भी साझा कर लेता हूँ| परमात्मा का मातृ रूप जिसे हम अपनी श्रद्धानुसार कुछ भी नाम दें, वे भगवती आदिशक्ति -- प्राण-तत्व के रूप में हमारी सूक्ष्म देह के मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी में सभी चक्रों को भेदते हुए विचरण कर रही हैं| जब तक उनका स्पंदन है, तभी तक हमारा जीवन है| वे ही साधक हैं, और वे ही कर्ता हैं| जिनका वे ध्यान कर रही हैं, उनको मैं मेरी श्रद्धा से परमशिव कहता हूँ, आप कुछ भी कहें| परमशिव एक अनुभूति है जो गहरे ध्यान में इस भौतिक देह के बाहर की अनंतता से भी परे होती है| वह अवर्णणीय है|
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सारी साधना वे जगन्माता, भगवती, आदिशक्ति ही स्वयं कर के परमशिव को अर्पित कर रही हैं| हम तो साक्षीमात्र हैं उस यजमान की तरह जिस की उपस्थिति इस यज्ञ में आवश्यक है| और कुछ भी नहीं| वे ही गुरु रूप में प्रकट हुईं और मार्गदर्शन किया| वे ही इस जीवात्मा का विलय परमशिव में एक न एक दिन कर ही देंगी| और कुछ भी नहीं चाहिए| उन परमशिव और जगन्माता को नमन !!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० जनवरी २०२१

Wednesday, 29 January 2025

पुरुषोत्तम ---

 पुरुषोत्तम ---

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उपनिषदों का सार श्रीमद्भगवद्गीता है, तो श्रीमद्भगवद्गीता का सार उसका १५वाँ अध्याय (पुरुषोत्तम योग) है। १५ वें अध्याय का भी सार उसका १५ वाँ श्लोक है। दूसरे शब्दों में गीता का सार उसके १५ वें अध्याय का १५ वाँ श्लोक है --
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
अर्थात् - मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ॥
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गीता के स्वाध्याय और परमात्मा के ध्यान की आदत पड़ गई है, जिनके बिना जीवन सूना सूना और व्यर्थ लगता है। परमात्मा से प्रेम और उनकी ध्यान-साधना के बिना तो एक दिन भी जीवित रहने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। आज यदि मैं जीवित हूँ तो परमात्मा से प्रेम के कारण ही जीवित हूँ, अन्यथा एक दिन भी जीने की इच्छा नहीं है। वास्तव में भगवान स्वयं ही मेरे माध्यम से यह जीवन जी रहे हैं।
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योगी लोग कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान करते हैं। मेरे जैसे अकिंचन साधकों की भी यही उपासना है। ये पुरुषोत्तम ही मेरे जीवन हैं। ये ही परमशिव हैं, ये ही विष्णु हैं, और ये ही वेदान्त के ब्रह्म हैं। ध्यान में मैं उनके साथ एक हूँ। भगवान पुरुषोत्तम को ही यह जीवन समर्पित है, जिन्हें मैं परमशिव कहता हूँ।
(इससे पूर्व भगवान यह समझा चुके हैं कि गुणातीत होकर अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति द्वारा ही हम उन्हें प्राप्त हो सकते हैं)
ॐ गुरुभ्यो नमः !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
३० जनवरी २०२३

Tuesday, 28 January 2025

इस समय जिस तरह से हमारी अस्मिता (हिंदुत्व) पर प्रहार हो रहा है, मुझे लगता है मुझे कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को भी उजागर करना ही होगा ---

 इस समय जिस तरह से हमारी अस्मिता (हिंदुत्व) पर प्रहार हो रहा है, मुझे लगता है मुझे कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को भी उजागर करना ही होगा|

करणी सेना के विरुद्ध यदि सरकार करवाई करती है तो सभी हिन्दुओं को एकजूट होना होगा| यह सभी हिन्दुओं के स्वाभिमान की बात है|
क्या भंसाली ने ये तथ्य भी फिल्माये हैं?..
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(1) अल्लाउद्दीन खिलजी अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी को मारकर गद्दी पर बैठा था| उसने अपने चाचा के सर को काटकर अपने महल के दरवाजे पर टंगवा दिया था ताकि लोग आतंकित हों|
(2) उसने अपने पुरुष प्रेमी मलिक कफूर को हिंजड़ा घोषित कर के अपना सेनापति भी बना दिया था| वास्तव में अल्लाउद्दीन खिलजी का ही प्रेमी मलिक कफूर था| वह वास्तव में हिंजड़ा नहीं था| अल्लाउद्दीन को पुरुषों से प्रेम करवाने का बहुत शौक था| उसने अपने हरम में हज़ारों निरीह हिन्दू महिलाओं के साथ साथ अनेक निरीह सुन्दर लड़के भी रखे हुए थे जिनका यौन शोषण करने के बाद उनको बलात् हिजड़ा बना दिया जाता था|
(3) अल्लाउद्दीन के बाद उसका बेटा जब गद्दी पर बैठा तब वह लड़कियों के ही कपड़े पहिनता था, लड़कियों की ही तरह दरबार में नाचता था| उसने अपनी हीन भावना को छिपाने के लिए हरम में एक हज़ार से ऊपर निरीह मजबूर हिन्दू स्त्रियों को रखा हुआ था| कुछ राजपूतो ने उसका वध करने के लिए उसका विश्वास प्राप्त किया और उसको एक दिन अकेले में घेर लिया| वह भागकर अपने हरम की एक हज़ार औरतों में छिप गया| पर राजपूतों ने उसको ढूँढ ही लिया और उसका वध कर दिया| इससे पहिले उन्होंने मलिक कफूर को भी ऐसे ही अकेले में ढूँढ कर मार दिया था|
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(4) अल्लाउद्दीन के समय लाखों हिन्दुओं की हत्याएं और नरसंहार हुआ था| लाखों हिन्दू भारत छोड़कर दक्षिण-पूर्वी एशिया में शरणार्थी होकर चले गए थे|
सारे हिन्दू शासक बिखरे हुए थे, उनमें एकता नहीं थी| अल्लाउद्दीन ने एक एक कर के उत्तरी भारत के प्रायः सभी राजाओं को हरा दिया था| जैसलमेर के किले में उस के सेनापती मलिक कफूर को बंदी भी बना लिया गया था पर वह अपनी धूर्तता से छूट गया|
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(5) रणथम्बोर के किले की दो वर्ष तक अल्लाउद्दीन ने घेरेबंदी कर के रखी थी| वहाँ के हिन्दू राजा हमीर चौहान ने कभी पराजय नहीं मानी| जब किले में खाद्य सामग्री समाप्त हो गयी तब वहाँ की मातृशक्ति ने जौहर की तैयारी कर ली और राजपुरोहित को छोड़कर सभी पुरुष अंतिम युद्ध के लिए अल्लाउद्दीन की फौज पर टूट पड़े| राजा हमीर उस युद्ध में पराजित नहीं हुए थे जैसे की पढ़ाया जाता है| अल्लाउद्दीन पराजित होकर भाग गया था| शाम का समय था| राजा हमीर के बचे हुए सैनिक बापस किले में लौट रहे थे| कुछ सैनिकों ने भूलवश अल्लाउद्दीन की फौज के झंडे अपने हाथों में ले रखे थे| ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था| ऊपर से रानियों ने अल्लाउद्दीन की फौज के झंडे देखकर सोचा कि राजा हमीर पराजित हो गए हैं और आतताई फौज आ रही है| किले की हज़ारों महिलाऐं अपने बच्चों के साथ किले की जौहर बावड़ी की जलती हुई प्रचंड अग्नि में कूद पडीं और स्वयं को भस्म कर लिया| राजा हमीर ने जब देखा कि पूरी मातृशक्ति नहीं रही है तब उसने भी अपने इष्ट देव भगवान शिव के मन्दिर में जाकर अपना भी सर काटकर अपने इष्टदेव को चढ़ा दिया| २९ जनवरी २०१७

जैसे जैसे मैं अपने आध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ रहा हूँ ---

 जैसे जैसे मैं अपने आध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ रहा हूँ, निज चेतना से द्वैत की भावना शनैः शनैः समाप्त हो रही है| जड़ और चेतन में अब कोई भेद नहीं दिखाई देता| अब तो कुछ भी जड़ नहीं है, सारी सृष्टि ही परमात्मा से चेतन है| कण कण में परमात्मा की अभिव्यक्ति है| इस भौतिक संसार की रचना जिस ऊर्जा से हुई है, उस ऊर्जा का हर कण, हर खंड और हर प्रवाह परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है|

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वर्त्तमान में संसार के जितने भी मत-मतान्तर व मज़हब हैं, उन सब से परे श्रुति भगवती का कथन है ..... "सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत | अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत ||छान्दोग्योपनिषद्.३.१४.१||
अर्थात यह ब्रह्म ही सबकुछ है| यह समस्त संसार उत्पत्तिकाल में इसी से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में लीन हो जायेगा| ऐसा ही जान कर उपासक शांतचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म की सदा उपासना करे| जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मांतर में वैसा ही हो जाता है|
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कुछ भी मुझ से परे नहीं है| मेरे मन से ही मेरी यह सृष्टि है| मेरा मन ही मेरे बंधन का कारण है और यही मेरे मोक्ष का कारण होगा| उस चैतन्य की सत्ता के साथ मैं एक हूँ, उस से परे सिर्फ माया है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ जनवरी २०१८

शोकगीत के रूप में लिखी गई हिन्दी भाषा की एक प्रसिद्ध साहित्यिक रचना ---

 शोकगीत के रूप में लिखी गई हिन्दी भाषा की एक प्रसिद्ध साहित्यिक रचना ---

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बसंत पंचमी के दिन सन १८९९ में जन्मे हिन्दी के प्रसिद्ध कवि पं.सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" ने अपनी पुत्री सरोज की मृत्यु पर "सरोज स्मृति" नाम का शोकगीत एक बहुत लंबी कविता के रूप में लिखा था| उन्हें अपनी प्रिय पुत्री के निधन पर इतनी गहरी वेदना हुई जिसकी करुणात्मक अभिव्यक्ति मर्माहत कर देने वाले काव्य के रूप में उन्होने की है| उनके वेदनात्मक गहन भावों का और शब्दों का चयन इतना अनुपम है कि उसकी किसी भी साहित्य में कोई बराबरी नहीं हो सकती| ऐसा शोक-गीत हिन्दी में दूसरा नहीं है| इस कविता में जीवन के संघर्ष से छनकर आयी हुई साहस, विद्रोह, वात्सल्य, अवसाद और ग्लानि की मिली-जुली अनुभूतियाँ उद्भूत होती हैं| कहीं-कहीं से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ ..... (पूरी कविता बहुत अधिक लंबी है)
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मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल
दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नही कही
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अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
कुछ दिन को, जब तू रही साथ,
अपने गौरव से झुका माथ,
पुत्री भी, पिता-गेह में स्थिर,
छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।
आँसुओं सजल दृष्टि की छलक
पूरी न हुई जो रही कलक
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मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
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यहाँ लेखक ने अपनी पुत्री सरोज का तर्पण अपने सारे संचित अच्छे कर्मों का उसे अर्पण कर के किया है| आज उनकी यह रचना सामने आई जिसे आंशिक रूप से पढ़कर ही मैं भावुक हो उठा| एक पिता द्वारा दिए गए तर्पण से उच्च तर्पण हो ही नहीं सकता|

शब्दार्थों पर नहीं, आध्यात्मिक अर्थों पर विचार करें ---

 शब्दार्थों पर नहीं, आध्यात्मिक अर्थों पर विचार करें कि --

(१) हरिःकृपा क्या होती है? तथा
(२) "श्रीहरिः" व "हरिःॐ" का अर्थ क्या होता है?
इन प्रश्नों का उत्तर सरल नहीं है। आप अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा का उपयोग करेंगे तब जाकर आप को समझ में आयेगा। "हरिः" भी एक अनुभूति है, और "ॐ" भी एक अनुभूति है जो बहुत गहरे ध्यान में होती हैं।
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आंशिक रूप से नहीं, अपनी समग्रता में भगवान का अनुसंधान कीजिये। हमारा जन्म ही भगवत्-प्राप्ति के लिए हुआ है, जो अंततः सभी को होगी। सब पर भगवान श्रीहरिः की कृपा बनी रहे। हमारा एकमात्र संबंध भगवान से है, क्योंकि इस जन्म से पूर्व भगवान ही हमारे साथ थे, और इस जन्म के पश्चात भी भगवान ही हमारे साथ होंगे। वे ही माँ-बाप, सगे-संबंधियों, व मित्रों के रूप में आये। वह भगवान का ही प्रेम था जो इन सब के माध्यम से हमें प्राप्त हुआ। एक दिन अचानक ही बिना किसी पूर्व सूचना के, सब कुछ यहीं छोड़कर उनके पास जाना ही पड़ेगा, अतः अभी से उनसे मित्रता कर लो। बाद में मित्रता का अवसर नहीं मिलेगा।
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दूसरों का धन ठगने, उनको लूटने, या उनका गला काटने के लिये भगवान का नाम मत लो, अन्यथा नर्क की भयावह यंत्रनाएँ आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं। । कोई भी बचाने नहीं आयेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! हरिःॐ !!
कृपा शंकर
२९ जनवरी २०२४
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पुनश्च: --- मेरे पास लगभग नित्य ही किसी न किसी दुःखी व्यक्ति का फोन आता है। उनको मैं कुछ कह भी नहीं सकता, उनके लिए प्रार्थना ही कर सकता हूँ।धोखाधड़ी और दुःख-कष्टों का शिकार मैं भी हूँ। लेकिन सब कुछ "श्री कृष्ण-समर्पण" कर के मैं प्रसन्न हूँ।
जय शंकर प्रसाद की कालजयी रचना "कामायनी" की ये पंक्तियाँ सदा याद रखो --
"जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल;
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत इसको जाओ भूल॥"

Monday, 27 January 2025

भगवान हमारी चेतना में हैं, कहीं बाहर नहीं, सारा ब्रह्मांड, सारी सृष्टि हमारी चेतना में है ---

 भगवान की बड़ी कृपा है कि मन में भटकाने वाले तरह तरह के विचार आने बंद हो गए हैं। पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म का भी अब कोई महत्व नहीं रहा है। आध्यात्मिक अनुभूतियाँ भी महत्वहीन हो गई हैं। भगवान हैं, इसी समय हैं, सर्वदा और सर्वत्र हैं; जो चेतना से कभी लुप्त नहीं होते। उनका आनंद अपने आप ही सर्वदा सर्वत्र व्याप्त हो रहा है, उनसे भी कुछ नहीं चाहिए। किसी से कुछ भी कोई अपेक्षा नहीं है। वे पूर्ण तृप्ति और पूर्ण संतुष्टि हैं।

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भगवान हमारी चेतना में हैं, कहीं बाहर नहीं। सारा ब्रह्मांड,सारी सृष्टि हमारी चेतना में है। भगवान कोई ऊपर से उतर कर आने वाली चीज नहीं है, हमें स्वयं को ही भगवान की चेतना में जाकर उनके साथ एक होना पड़ता है।
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व्यष्टि द्वारा समष्टि को समर्पण -- सबसे बड़ी साधना है। इससे चित्त सदा शांत और क्रियाशील रहेगा। प्रमाद ही मृत्यु है। अवचेतन मन को संस्कारित किये बिना हम भगवान की भक्ति, धारणा, ध्यान, समर्पण आदि कुछ भी नहीं कर सकते। इस के लिए आवश्यक है -- भगवान के साथ निरंतर सत्संग।
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प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चल रही है। उन नियमों को न जानना हमारी अज्ञानता है। भगवान को सदा याद रखेंगे तो वे भी हमें सदा याद रखेंगे, मृत्यु के समय भी। भगवान यदि कहीं हैं तो वे हमारे हृदय में ही हैं, अन्यत्र कहीं भी नहीं। सारी सृष्टि ही हमारा हृदय है, जिसका केंद्र सर्वत्र है, लेकिन परिधि कहीं भी नहीं। वे एक श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा और अनुभूति हैं। उन का अस्तित्व किसी के विश्वास/अविश्वास पर निर्भर नहीं है। वे अपरिभाष्य हैं, उन को किसी परिभाषा में नहीं बाँध सकते। वे हमारे अस्तित्व हैं, जिन्हें जाने बिना हमारा जीवन अतृप्त है। उन्हें जानने का प्रयास स्वयं को जानने का प्रयास है। उन की कृपा सभी प्राणियों पर निरंतर है। हम उन के साथ एक, और उन की पूर्णता हैं।
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ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ जनवरी २०२४

सर्वाधिक महत्व एक ही बात का है -- वह है "निरंतर भगवान का स्मरण", प्रातःकाल उठते ही भगवान का कीर्तन और ध्यान करें ---

 (१) सर्वाधिक महत्व एक ही बात का है -- वह है "निरंतर भगवान का स्मरण"। गीता में भगवान कहते हैं --

"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
Therefore meditate always on Me, and fight; if thy mind and thy reason be fixed on Me, to Me shalt thou surely come.
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(२) प्रातःकाल उठते ही भगवान का कीर्तन और ध्यान करें। तत्पश्चात् दिन का आरंभ करें। रात्रीशयन से पूर्व भी भगवान का कीर्तन और ध्यान करें। परिणाम आप के जीवन को आनंदमय और धन्य बना देंगे।
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जीवन में सदा प्रसन्न रहें। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ जनवरी २०२४

Saturday, 25 January 2025

अब किसी भी तरह की आध्यात्मिक साधना/उपासना/ जप/तप आदि करना मेरे लिए संभव नहीं है --

 अब किसी भी तरह की आध्यात्मिक साधना/उपासना/ जप/तप आदि करना मेरे लिए संभव नहीं है। भगवान से भी कुछ नहीं चाहिए, नर्क में रखें या स्वर्ग में; मेरी इसमें कोई रुची नहीं है। कोई मोक्ष भी नहीं चाहिए। जो करना है वह वे करें, उनकी इच्छा। मुझे कोई भय या कामना नहीं है।

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लेकिन भगवान का भी मन नहीं लगता मेरे बिना। इसीलिए हर क्षण जबर्दस्ती मुझे याद करते हैं। मैं धर्म-अधर्म -- सबसे परे हूँ। मेरा कोई लक्ष्य नहीं है। यह भगवान का ही लक्ष्य है कि वे मुझमें स्वयं को व्यक्त करें। मेरी कोई समस्या नहीं है। सारी समस्याएँ भी वे हैं, और समाधान भी वे ही हैं। मुझे इतनी जोर से पकड़ रखा है कि मैं सब बँधनों से मुक्त हो गया हूँ। जय हो भगवन। आपकी जय हो।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२३

परमात्मा से पृथकता का बोध हमारे पतन का कारण है ---

 परमात्मा से पृथकता का बोध हमारे पतन का कारण है ---

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कुछ होने का अहंकार हमें परमात्मा से दूर ले जाता है। वास्तव में जो कुछ भी है वह परमात्मा है। हम उनको समर्पित हों, हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। भगवान ने गीता में यही बताया है --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात - तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
Dedicate thyself to Me, worship Me, sacrifice all for Me, prostrate thyself before Me, and to Me thou shalt surely come. Truly do I pledge thee; thou art My own beloved.
Give up then thy earthly duties, surrender thyself to Me only. Do not be anxious; I will absolve thee from all thy sin.
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मिर्जा गालिब के इस शेर में सारा रहस्य छिपा है --
"न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता॥
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भगवान से प्रेम नहीं है तो कितने भी शास्त्र पढ़ लो, कितनी भी तपस्या कर लो; कुछ नहीं मिलने वाला है। हमारी कोई औकात नहीं है कि हम कोई भक्ति कर लें। हमारे माध्यम से भगवान स्वयं ही अपनी भक्ति करते हैं। जो कुछ भी हो रहा है, वह भगवान कर रहे हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२३