परमात्मा का निरंतर चिंतन क्यों आवश्यक है? परमात्मा से दूर हमें कौन ले जाता है? ---
जो अपने सब कर्तव्यों को पूर्ण कर चुका है, और जिस का कोई भी कर्तव्य नहीं बचा है, उसे कृतकृत्य कहते हैं। कृतकृत्य कौन है? इसका उत्तर भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बड़े स्पष्ट शब्दों में दिया है ---
"यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३:१७॥"
न चास्य सर्वभूतेषु कश्िचदर्थव्यपाश्रयः॥३:१८॥"
अर्थात् -- "परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमने वाला आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रहता॥"
"इस जगत् में उस पुरुष का कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं है और न वह किसी वस्तु के लिये भूतमात्र पर आश्रित होता है॥"
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जो व्यक्ति पूरी तरह परमात्मा को समर्पित हो चुका है, उस का अस्तित्व ही हमारे लिए एक वरदान है। वह निरंतर परमात्मा की चेतना में रहे तो उसका कोई लौकिक कर्तव्य नहीं रहता। ऐसा व्यक्ति ही "कृतकृत्य" कहला सकता है।
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रामचरितमानस के सुंदरकांड में हनुमान जी -- सीता जी को कहते हैं --
"बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥
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शब्दकोशों में कृतकृत्य और कृतार्थ शब्दों को पर्यायवाची बताया गया है, लेकिन ये पर्यायवाची नहीं हैं। दोनों के अर्थों में सूक्ष्म भेद है।
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हम कृतकृत्य और कृतार्थ -- दोनों ही एक साथ हो सकते हैं -- अपना विलय (समर्पण) परमात्मा में कर दें, और परमात्मा में ही निरंतर रमण करें। तब हमारे योगक्षेम की चिंता स्वयं भगवान करते हैं --
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् - अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
२९ अगस्त २०२१