Monday, 31 October 2022

भगवती कुंडलिनी महाशक्ति ---

 भगवती कुंडलिनी महाशक्ति ---

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आत्मप्रेरणावश ही दो शब्द इस विषय पर लिख रहा हूँ, जो बुद्धि का नहीं, अनुभव का विषय है। इस छोटे से लेख में जो कुछ भी लिख रहा हूँ, वह शत-प्रतिशत अनुभूति-जन्य है। कहीं से किसी की किंचित भी नकल नहीं की है, और न ही किसी शास्त्र का उद्धरण दिया है। जो नियमित ध्यान साधना करते हैं, वे इसे बहुत आसानी से समझ पाएंगे, केवल बुद्धिमान होना ही पर्याप्त नहीं है।
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तंत्र शास्त्रों की भाषा हर कोई नहीं समझ सकता। या तो उसे समझाने वाला कोई सिद्ध गुरु हो, या फिर भगवती की कृपा हो। सिर्फ बुद्धि से तो उन्हें कोई नहीं समझ सकता। जो कुछ भी मुझे समझ में आया है वह भगवती की कृपा से ही समझ में आया है। पुस्तकों से तो कभी कुछ भी समझ में नहीं आया। पहले भगवती की कृपा हुई, उसके बाद ही समझने की शक्ति प्राप्त हुई, और जैसी भी मेरी पात्रता थी, उसी के अनुरूप वैसा ही और उतना ही ज्ञान स्वयं ही मुझ में जागृत हो गया।
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कुंडलिनी महाशक्ति -- मनुष्य देह में स्थित प्राण-तत्व का ही घनीभूत रूप है। प्राण-तत्व की समझ भगवती की कृपा से ध्यान में ही होती है। भगवती कुंडलिनी को किसी भी तरह के कर्मकांड या आराधना से नहीं जगाया जा सकता। भगवती हमारी श्रद्धा, विश्वास, भक्ति और समर्पण देखकर स्वयं ही जागृत होती हैं, और हमें जगाती हैं। हमारी कोई औकात नहीं है कि हम उन्हें जगा सकें।
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कुंडलिनी जागरण के क्या लाभ हैं?
इससे हमारी आध्यात्मिक समझ बढ़ती है, और सूक्ष्म जगत का ज्ञान होता है। सूक्ष्म देह के मेरुदंड में स्थित सुषुम्ना नाड़ी का और उसमें स्थित चक्रों का ज्ञान होता है। सभी चक्रों और सहस्त्रार की जटिलताएँ समझ में आती हैं। ब्रह्मरंध्र का ज्ञान होता है। सूक्ष्म जगत में सचेतन रूप से इस देह से बाहर जाने और बापस लौटने की कला भी भगवती की कृपा से ही प्राप्त होती है। आत्मसूर्य के दर्शन होते हैं। उन रश्मियों के दर्शन और उनका बोध बना रहता है, जिनके सहारे हम भगवद्धाम जा सकते हैं। परमशिव का बोध और प्राप्ति भी भगवती की कृपा से होती है। एक सत्य यह भी है भगवान की प्राप्ति हमें भगवती की कृपा से ही हो सकती है। मुझे तो एक ही लाभ हुआ है कि भगवान की निरंतर स्मृति और प्रेम बना रहता है।
कुंडलिनी जागृत हो जाये तो हमें हमारा आचरण और विचार सही रखने पड़ते हैं। अन्यथा लाभ के स्थान पर बहुत अधिक हानि हो सकती है।
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आप सब को बहुत बहुत धन्यवाद जो इस लेख को पढ़ा। मैं एक अकिंचन और अनाड़ी व्यक्ति हूँ, मुझे कुछ आता-जाता नहीं है। भगवती की कृपा से ही आप सब मुझे इतना प्रेम करते हो। मैं आपके किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाऊँगा, इसलिए पूछने का कष्ट न करें। धन्यवाद !!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२ सितंबर २०२२

मन ख्वाहिशों में अटका रहा और जिंदगी मुझे जी कर चली गई ---

 

🙏🙏🙏💐🌷🌹🥀🪷🌺🌸🙏🙏🙏
मन ख्वाहिशों में अटका रहा और जिंदगी मुझे जी कर चली गई ---
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मेरे जीवन में आप जैसे शानदार और अद्भुत मित्र हैं, यह मेरे लिए गर्व की बात है। ग्रेगोरियन कलेंडर के अनुसार इस शरीर का जन्म ३ सितंबर को हुआ था।
मैं और मेरे परिवार के सभी सदस्य हिन्दी तिथि से भाद्रपद अमावस्या को मनाते हैं।
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मिर्जा गालिब का एक शेर, और अन्य कवियों की कुछ कवितायें आज याद आ रही हैं --
"न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता"
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"एक अजीब रिश्ता है मेरे और ख्वाहिशों के दरमियां
वो मुझे जीने नहीं देती और में उन्हें मरने नहीं देता
ज़िन्दगी ने मेरे मर्ज का एक कारगर इलाज बताया
वक़्त को दवा कहा और ख्वाहिशो का परहेज़ बताया
उम्र भारी है पर ख्वाहिशें सारी है,
ख्वाहिशों के आगे अक्सर उम्र हारी है"
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आज के दिन गीता के पांचवें अध्याय का स्वाध्याय कर रहा हूँ। पुनश्च आप सब को नमन। आप का जीवन शुभ और मंगलमय हो। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
३ सितंबर २०२२
🙏🙏🙏💐🌷🌹🥀🪷🌺🌸🙏🙏🙏

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक ---

 आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक ---

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भारत से असत्य का अंधकार दूर हो, सत्य-सनातन-धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो, और भारत अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान हो। ये ही मेरे संकल्प हैं, ये ही मेरी इच्छाएँ हैं, और ये ही मेरे अरमान हैं, जो पता नहीं कब पूर्ण होंगे? संसार से उम्मीद छोड़ दी है। भगवान पर ही पूरी तरह निर्भर हूँ। वे अवश्य मेरे संकल्प पूर्ण करेंगे। गीता में दिए उनके वचनों में मेरी पूर्ण श्रद्धा है --
"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९:२७॥
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९:२८॥
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९:२९॥
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
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अब और धैर्य नहीं है। हरिःकृपा तुरंत इसी समय फलीभूत हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२२

परमात्मा के प्रति जो प्रेम हमारे हृदय में छिपा हुआ है, उसकी निरंतर अभिव्यक्ति हो, यही मनुष्य जीवन की सार्थकता है ---

 परमात्मा के प्रति जो प्रेम हमारे हृदय में छिपा हुआ है, उसकी निरंतर अभिव्यक्ति हो, यही मनुष्य जीवन की सार्थकता है ---

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साकार रूप में जो भगवान श्रीगणेश हैं, निराकार ओंकार रूप में वे ही सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म हैं। वे ही आत्म-तत्व हैं, पंचप्राण उनके ही गण हैं। पंचप्राणों के पाँच सौम्य और पाँच उग्र रूप -- दस महाविद्यायें हैं। वे ही सर्वव्यापी आत्मा हैं, जिसमें विचरण से धर्म के सारे गूढ़ तत्व हमारे समक्ष प्रकट हो जाते हैं। उनकी उपासना से सब देवों की उपासना हो जाती है।
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निराकार ध्यान साधना -- ज्योतिर्मय ब्रह्म की होती है।
साकार ध्यान साधना -- या तो भगवान शिव, या भगवान विष्णु, या उनके किसी अवतार की होती है।
जैसी भी किसी की श्रद्धा हो, जैसी भी प्रेरणा भगवान से मिले, वैसी ही साधना अपने पूर्ण प्रेम (भक्ति) से सभी को करनी चाहिए। यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। अधिक लिखने को इस समय और कुछ नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२२

सब प्रकार की परिस्थितियों से ऊपर उठना हमारा आध्यात्मिक दायित्व है ---

 सब प्रकार की परिस्थितियों से ऊपर उठना हमारा आध्यात्मिक दायित्व है ---

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मेरे सुख-दुःख हरिःइच्छा से नहीं, भूतकाल में (या पूर्व जन्मों में) रहे मेरे स्वयं के विचारों के कारण हैं। हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं, जिन का फल भुगतना ही पड़ता है। । जिन गलत परिस्थितियों में मैं हूँ, उसके लिए मैं स्वयं उत्तरदायी हूँ, भगवान नहीं। मैं इसके लिए भगवान को दोष या श्रेय नहीं दे सकता। मेरा अब तक का अनुभव यही है कि जैसा हम सोचते हैं और जैसे लोगों के साथ रहते हैं, वैसी ही परिस्थितियों का निर्माण हमारे चारों ओर हो जाता है।
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जीवन एक रण है जिस में आहें भरना, और स्वयं पर तरस खाना एक कायरता है, जो हमें अज्ञान की सीमाओं में बंदी बनाती है। हर समस्या का समाधान करने, और हर विपरीत परिस्थिति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करना हमारा दायित्व है, जिस से हम बच नहीं सकते। यह हमारे विकास के लिए प्रकृति द्वारा बनाई गई एक आवश्यक प्रक्रिया है, जिसका होना अति आवश्यक है। हमें इसे भगवान का अनुग्रह मानना चाहिए। बिना समस्याओं के कोई जीवन नहीं है।
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कई मामलों में भगवान का कोई हस्तक्षेप नहीं होता, हमारे (सोच-विचार) कर्मफल ही काम करते हैं। हमें परिस्थितियों से ऊपर उठना ही पड़ेगा, दूसरा कोई विकल्प नहीं है। दुर्बलता स्वयं में होती है। बाहर की समस्त समस्याओं का समाधान स्वयं के भीतर है।
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मेरी सदा यह कमजोरी रही थी कि मैं अपनी विफलताओं के लिए हर समय परिस्थितियों को, भाग्य को, और भगवान को दोष देता रहता था। स्वयं को सदा परिस्थितियों का शिकार बताता था। उससे कभी कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि परिस्थितियाँ और भी विकट होती गईं। फिर हरिःकृपा से एक दिन अंतर में यह स्पष्टता आई कि मैं गलत था। भगवान ने सहायता की, अच्छे मित्र मिले, सोच बदली और परिस्थितियाँ भी बदलने लगीं।
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जब हम परिस्थितियों के सामने समर्पण कर देते हैं या उनसे हार मान जाते हैं, तब हमारे दुःखों और दुर्भाग्य का आरम्भ होता है। इसमें किसी अन्य का क्या दोष? नियमों को न जानने से किये हुए अपराधों के लिए किसी को क्या क्षमा मिल सकती है? नियमों को न जानना हमारी ही कमी है।
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श्रीमद्भगवद्गीता का नियमित अर्थ सहित स्वाध्याय करना सब प्रकार की परिस्थितियों से ऊपर उठने में हमारी सहायता करता है। यह भारत का प्राण है और समस्त मानव जाति को परमात्मा द्वारा दिया हुआ सन्देश है।
हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ सितंबर २०२२

हमारे में अनन्य योग और अव्यभिचारिणी भक्ति हो ---

 हमारे में अनन्य योग और अव्यभिचारिणी भक्ति हो, तब हर पल एक उत्सव है। तभी हम शिवमय होकर शिव का ध्यान कर सकते हैं ---

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कोई साधक मेरुदंड को उन्नत रखते हुए बिना हिले डुले एक ही आसन में स्थिर होकर कम से कम ढाई-तीन घंटों तक निष्ठापूर्वक बैठ कर ध्यान कर सकता है, और उसमें कुछ सीखने की ललक हो, तब तो उसका मार्गदर्शन किया जा सकता है, लेकिन दूर से किसी अनजान व्यक्ति का नहीं।
इतना अभ्यास तो आवश्यक है कि आप सुख से स्थिर होकर बिना हिले डुले दो-तीन घंटों तक अपनी दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर कर के बैठ सकें।
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और भी कई बातें हैं जिनके बारे में गीता के "क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग" (अध्याय १३) में भगवान कहते हैं --
"अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥१३:८॥"
अर्थात् -- अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्य की सेवा, शुद्धि, स्थिरता और आत्मसंयम॥
"इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥१३:९॥"
अर्थात् -- इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धवस्था, व्याधि और दुख में दोष दर्शन॥
"असक्ितरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥१३:१०॥"
अर्थात् - आसक्ति तथा पुत्र, पत्नी, गृह आदि में अनभिष्वङ्ग (तादात्म्य का अभाव); और इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में समचित्तता॥
"मयि चानन्ययोगेन भक्ितरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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सार की बात यह है की हमारे में अनन्य योग और व्यभिचारिणी भक्ति हो। इसका अभ्यास निष्ठापूर्वक करना पड़ता है। तभी आगे के द्वार खुलते हैं। आप सब निजात्माओं को मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
९ सितंबर २०२२
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पुनश्च :--- मुझे स्वयं को एकांत साधना की आवश्यकता है,और समय भी मेरे पास बहुत कम है, अतः व्यर्थ की बातचीत और चर्चा के लिए मेरे पास भी अब और समय नहीं है।

ईश्वर की प्राप्ति ---

 ईश्वर की प्राप्ति ---

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महाशक्ति कुंडलिनी का परमशिव से मिलन ही योग है और यही योगसाधना का लक्ष्य है। कुंडलिनी जागृत होकर जब परमशिव से एकाकार हो जाती है, तब हम भी परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं। यही ईश्वर की प्राप्ति है।
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योग साधना में सूक्ष्म जगत में ज्योतिर्मय कूटस्थ ब्रह्म के दर्शन जब ध्यान में होने लगते हैं, नाद की ध्वनि सुनाई देने लगती है, और कुंडलिनी जागरण भी होने लगता है, तब उसके पश्चात ही गुरुकृपा से धीरे धीरे सारे आध्यात्मिक रहस्य अनावृत होते हैं।
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ध्यान सदा विष्णु या परमशिव के अनंत रूप का ही किया जाता है, यथार्थ में दोनों एक ही हैं। कंबल के आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह कर के बैठिए, मेरुदंड उन्नत रहे, ठुड्डी भूमि के समानान्तर रहे, अर्धोन्मीलित नेत्रों के दोनों गोलक बिना किसी तनाव के भ्रूमध्य के समीप रहें। भगवान से प्रार्थना करो और स्वयं को उनके अनंत प्रकाशमय विस्तार में समर्पित कर दो। आगे का मार्गदर्शन वे स्वयं करेंगे।
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विष्णु सहस्त्रनाम का आरंभ "ॐ विश्वं विष्णु:" शब्दों से होता है। इन तीन शब्दों में ही सारा सार आ जाता है। आगे सब इन्हीं का विस्तार है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह पूरी सृष्टि यानि सम्पूर्ण ब्रह्मांड ही विष्णु है। जो कुछ भी सृष्ट या असृष्ट है, वह सब विष्णु है। हम विष्णु में विष्णु को ढूंढ रहे हैं। ढूँढने वाला भी विष्णु है। एक महासागर की बूंद, महासागर को ढूंढ रही है। यह बूंद समर्पित होकर स्वयं भी महासागर है।
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥" (विष्णु सहस्त्रनाम)
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। "ॐ विश्वं विष्णु: ॐ ॐ ॐ" --- बस इतना ही पर्याप्त है पुरुषोत्तम के गहरे ध्यान में जाने के लिए।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० सितंबर २०२२

उपसंहार ---

 उपसंहार ---

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मैं इस समय कूटस्थ-चैतन्य (ब्राह्मी-स्थिति) में हूँ, और जो कुछ भी मुझे पता है, उसका उपसंहार कर रहा हूँ। पहली बात तो यह है कि इस सृष्टि के नियामक तीनों गुणों से मेरी कोई शत्रुता नहीं है। वे सब अपने अपने स्थानों पर ठीक हैं। मेरे अवचेतन मन में अनेक जन्मों से बहुत गहरी जड़ें जमाये हुये बैठा तमोगुण भी वहाँ शोभा दे रहा है। रजोगुण और सतोगुण भी अपने अपने स्थानों पर शोभा दे रहे हैं। मैं इन सब से परे हूँ। मेरे में जो भी कमियाँ, बुराइयाँ और अच्छाइयाँ हैं, वे सब अति दुर्धर्ष हैं। उनसे संघर्ष करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। अतः उन सब को बापस परमात्मा को लौटा रहा हूँ। एक अति प्रबल अभीप्सा मुझे परमात्मा की ओर ले जा रही है। गुरु कृपा से सामने का मार्ग प्रशस्त है, कहीं कोई अंधकार नहीं है।
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मैं शांभवी-मुद्रा में बैठ कर अपनी सूक्ष्म देह के मूलाधारचक्र से सुषुम्ना मार्ग से होते हुए एक सीधी ऊर्ध्वगामी रेखा खींचता हूँ, जो सूक्ष्म देह के सभी चक्रों और ब्रह्मरंध्र को बेंधते हुए सीधी ऊपर जा रही है। लाखों करोड़ प्रकाश वर्ष से भी कई गुणा ऊपर सृष्टि की अनंतता से भी परे एक ज्योतिर्मय लोक है जहाँ क्षीरसागर है। भगवान नारायण स्वयं वहाँ बिराजमान हैं। वे ही परमब्रह्म हैं, वे ही परमशिव हैं, उनके संकल्प से ही यह सृष्टि निर्मित हुई है। सारी श्रुतियाँ और स्मृतियाँ उन्हीं का महिमागान कर रही हैं। समर्पित होकर मैं उनकी अनंतता में उनके साथ एक हूँ। वे ही मेरा अस्तित्व हैं। वहीं से मैं इस सृष्टि और अपनी नश्वर भौतिक देह को भी देख रहा हूँ। मेरी चेतना परमात्मा के साथ अविछिन्न रूप से एक है। सारे कार्मिक बंधन टूट रहे हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ सितंबर २०२२

निराकार से तृप्ति नहीं मिलती -----

 निराकार से तृप्ति नहीं मिलती। साकार रूप में मुझे भगवान की जितनी आवश्यकता इस समय है उतनी तो इस जीवन में कभी भी नहीं थी। भगवान निराकार रूप में नहीं, साकार रूप में चाहिएँ, अभी और इसी समय। अब और प्रतीक्षा नहीं हो सकती। मुझे न तो निर्विकल्प-समाधि चाहिए, न कोई आनंद या अन्य अनुभूति।

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भगवान ने अब तक तो मँगते-भिखारियों से ही मिलवाया है जिनके लिए भगवान केवल कुछ माँगने के लिए एक साधन मात्र है, साध्य तो उनके लिए संसार है। वे भगवान की जो भी आराधना करते हैं, वह कुछ माँगने के लिए ही करते हैं। ऐसे लोगों की भगवान मुझे शक्ल भी न दिखलाएँ। यह संसार मँगते-भिखारियों से ही भरा पड़ा है, जिनसे मुझे कोई मतलब नहीं है। मुझे न तो किसी की दुआ चाहिए, और न किसी का आशीर्वाद। मुझे किसी की शुभ मंगल कामना भी नहीं चाहिए। मुझे आवश्यकता सिर्फ परमात्मा की है, वह भी साकार रूप में। उपदेश और ज्ञान देने वाले दूर रहें। मुझे उनकी आवश्यकता नहीं है।
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भगवान यदि स्वयं को प्रकट नहीं करना चाहते तो कोई बात नहीं। लेकिन वे भी याद रखें कि मुझे उनकी आवश्यकता साकार रूप में है, निराकार में नहीं। नुकसान उन्हीं का है, उनका एक भक्त संसार में कम हो जाएगा। मुझे कोई नुकसान नहीं है। पता नहीं कितने जन्मों में कितनी बार मरे हैं। एक बार और मर जायेंगे, लेकिन दर्शन करेंगे तो साकार रूप में ही करेंगे।
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यह मेरा दुर्भाग्य या पुण्यों में कुछ कमी है कि ऐसे लोग मुझे नहीं मिलते जिनके हृदय में भगवान के लिए Unconditional Love हो, यानि किसी भी तरह की शर्त न हो, जिनको परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए। मैं ऐसे लोगों के साथ, उन्हीं के मध्य रहना चाहता हूँ जो दिन-रात, दिन में २४ घंटे, सप्ताह में सातों दिन सिर्फ परमात्मा का ही बिना किसी माँग या शर्त के चिंतन करते हों।
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लेकिन सबसे पहिले साकार रूप में उनके दर्शन चाहियें। मुझे सिर्फ भगवान की ही आवश्यकता है, अन्य किसी की या कुछ की नहीं। उपदेश देने वाले मुझसे दूर रहें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ सितंबर २०२२

भगवान का कार्य ---

भगवान का कार्य ---
भगवान ने एक कार्य सौंपा है मुझे; वह है उनके परमप्रेम को (यानि स्वयं उन्हें) शांत रूप से समष्टि में व्यक्त करना। वह कार्य मुझे निमित्त यानि एक उपकरण बना कर वे स्वयं कर रहे हैं। मैं धन्य हूँ, कि मुझे भी भगवान ने इस कार्य के लिए चुना है। मेरा जीवन धन्य हुआ।
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गीता में उनका यही संदेश है। भगवान जब कहते हैं -- "मामेकं शरणं व्रज", तब "माम्" शब्द से वे अपना स्वयं का परिचय दे रहे हैं। जिस के स्मरण मात्र से जीवात्मा मुक्त हो जाती है, उस "विष्णु सहस्त्रनाम" के आरंभ में ही उनका परिचय दिया गया है कि वे कौन है? -- "ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।" यह पंक्ति ही नहीं, सम्पूर्ण स्तोत्र ही भगवान का परिचय है।
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ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के १६४वें सूक्त की ४६वीं ऋचा कहती है --
"इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:॥"
यहाँ "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" का आजकल के राजनेता, मार्क्सवादी और कुतर्की अधर्मी अपने अधर्म को धर्म सिद्ध करने के लिए गलत अर्थ बताते हैं। वास्तविक अर्थ है कि ईश्वर ही एकमात्र सत्य है। उसी सत्य का हमें अनुसंधान करना है।
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"कृष्णं वंदे जगत्गुरूं" -- भगवान श्रीकृष्ण सभी गुरुओं के गुरु हैं। वे ही कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म है, और वे ही कूटस्थ नादब्रह्म ओंकार हैं। जब भी समय मिले अपनी कमर को सीधी रखते हुए एक कंबल के आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह रखते हुए बैठ जाओ। अपने पूर्ण प्रेम से, पूर्ण श्रद्धा-विश्वास से, भ्रूमध्य में कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करो, और कूटस्थ अक्षर को सुनो। कूटस्थ रूप में वह ज्योतिर्मय ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है। सब कुछ उसी में समाहित है। पूर्ण श्रद्धा से उस ज्योतिर्मय ब्रह्म के गहन और दीर्घ ध्यान और नादश्रवण से --
गुरुकृपा भी होती है, अजपा-जप भी होने लगता है, कुंडलिनी भी जागृत हो जाती, शास्त्रों को समझने की भी शक्ति भी आ जाती है, और ईश्वर की प्राप्ति भी हो जाती है।
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शास्त्रों के स्वाध्याय से, ब्रह्मचर्य के पालन से, आध्यात्मिक साधना से और गुरुकृपा से मैं उसी तरह आप सब को परमात्मा की ओर ले कर जा रहा हूँ, जिस तरह से यह पृथ्वी चंद्रमा को साथ लेकर सूर्य की परिक्रमा कर रही है। भगवान में श्रद्धा और विश्वास रखो। आप परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं, और मेरे प्रिय निजात्मगण हैं। ईश्वर से आपका साक्षात्कार कराना यानि जीवन में भगवत् प्राप्ति कराना मेरा दायित्व है। आप न चाहेंगे तो भी मैं आपको उठाकर अमृत कुंड में धकेल दूंगा। आप सब के माध्यम से ही मैं ईश्वर की साधना/उपासना कर रहा हूँ। मैं मेरे गुरु और परमात्मा के साथ एक हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ परमात्मने नमः !!
कृपा शंकर
३० अक्तूबर २०२२

मैं कौन हूँ ?

 मैं कौन हूँ ?

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अपनी जो आकाशगंगा है जिसका एक नक्षत्र अपना सूर्य है, उस आकाश गंगा के एक छोर से दूसरे छोर तक यदि प्रकाश की गति से यात्रा की जाये तो उस यात्रा को पूर्ण करने में लगभग एक लाख प्रकाश वर्ष लग जाएँगे। इस तरह की अनगिनत लाखों आकाश गंगाएँ हैं। हमारे सूर्य जैसे करोड़ों सूर्य हैं। इस पृथ्वी जैसी अनगिनत पृथ्वियाँ हैं।
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कई बार स्वच्छ अंधेरी रात में अपने घर की छत पर जाकर ध्रुव तारे को देखता हूँ। वह ध्रुव तारा साढ़े चार सौ से भी अधिक वर्षों पूर्व था। उसके प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में साढ़े चार सौ वर्षों से भी अधिक का समय लगा है। आकाश के कई नक्षत्र अब दिखाई दे रहे हैं, जब कि वे सैंकड़ों वर्ष पूर्व थे।
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अरबों-खरबों प्रकाश वर्ष दूर भी अनंत सृष्टियाँ हैं, जिन्हें समझना मनुष्य की बुद्धि से परे है। वहाँ से प्रकाश की किरणें जब चली थीं तब पृथ्वी ग्रह का कोई अस्तित्व नहीं था। जब तक वे किरणें पृथ्वी तक पहुँचेंगी, तब तक पृथ्वी भी नष्ट हो गई होगी।
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यह तो रही स्थूल जगत की बात। सूक्ष्म जगत तो और भी अधिक विराट है। ध्यान साधना करते करते समाधि की अवस्था में सूक्ष्म जगत के भी मुझे कई बार दर्शन होते हैं, जो इस भौतिक जगत से बहुत अधिक बड़ा है। उस से भी परे कारण जगत है जहाँ मेरा कोई प्रवेश नहीं है। उसकी तो मैं कल्पना करने में भी असमर्थ हूँ।
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विभिन्न आयामों पर अनेक सृष्टियाँ हैं। ये स्वर्ग-नर्क आदि सब मनोमय सृष्टियाँ हैं। किसी से बात करते हैं तो वह चुनौती देकर कहता है कि क्या गरुड-पुराण गलत है? मुझे नहीं पता कि वह सही है या गलत। जिस चेतना में वह लिखा गया था, उस चेतना में जाकर ही कहा जा सकता है कि क्या गलत और क्या सही है।
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जो चीज समझ में आती है वही लिख रहा हूँ। जो अज्ञात है वह कोरी कल्पना है। कल्पना में रहना स्वयं को धोखा देना है।
(१) एक बात तो अनुभूत सत्य है कि मैं यह शरीर नहीं हूँ। यह शरीर एक दुपहिया वाहन है जो इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ है। यह नष्ट हो जाएगा तो अंत समय की मति के अनुसार तुरंत दूसरा शरीर मिल जाएगा। पुनर्जन्म का सिद्धान्त शत-प्रतिशत सत्य है।
(२) हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं, जिनका परिणाम निश्चित रूप से मिलता है। कर्मफलों का सिद्धान्त -- शत-प्रतिशत सत्य है। यह सृष्टि परमात्मा के मन का एक विचार है। हमारे विचार ही हमारे कर्म है जिनके अनुसार हमें उनके फल मिलते हैं।
(३) हम यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। सारे देवी-देवता हमारे साथ एक हैं। कोई भी या कुछ भी हमारे से पृथक नहीं है।
(४) आगे की बात समझने के लिए हमें वीतराग और त्रिगुणातीत होना पड़ेगा। तभी हम सत्य को समझ सकेंगे। गीता के अनुसार --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥२:४५॥"
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आत्मवान होकर ही सत्य को समझ सकेंगे। अभी भी अनेक कमियाँ हैं, जिन्हें दूर करनी हैं। परम सत्य परमात्मा को नमन करता हूँ ---
"ॐ वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥११:३९॥"
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (गीता)
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३१ अक्तूबर २०२२

मेरा आध्यात्मिक पतन कब कब हुआ है?

 मेरा आध्यात्मिक पतन कब कब हुआ है?

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यह आध्यात्मिक यात्रा एक साँप-सीढ़ी का खेल है। जिस क्षण ही कुछ पाने की कामना मन में उत्पन्न हुई है, उसी क्षण मेरा सन्मार्ग से पतन हुआ है। कोई भी कैसी भी कामना हो वह हमें पतन के गड्ढे में डालती है।
एक ओर तो हम ब्रह्मज्ञान यानि वेदान्त की बात करते हैं, दूसरी ओर लौकिक कामनाएँ करते हैं। दोनों ही एक दूसरे के विपरीत हैं। हृदय में एक अभीप्सा होनी चाहिए, न कि कोई कामना।
आध्यात्म में हम परमात्मा को समर्पित होते हैं, न कि उनसे कोई आकांक्षा करते हैं। समर्पित होना ही परमात्मा को प्राप्त करना है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३१ अक्तूबर २०२२

Saturday, 29 October 2022

कौन सा मत/संप्रदाय/सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ है?

 मैं सत्य-सनातन-हिन्दू-धर्म के सभी संप्रदायों का सम्मान समभाव से करता हूँ। मैंने हिन्दू-धर्म के लगभग सभी प्रमुख संप्रदायों के संत-महात्माओं के साथ सत्संग किया है। सभी संप्रदायों में एक से बढ़कर एक तपस्वी और विद्वान साधु हैं। जितना सम्मान मैं शंकराचार्यों का करता हूँ, उतना ही सम्मान वैष्णवाचार्यों का करता हूँ। मैं अपना एक निजी विचार व्यक्त कर रहा हूँ ---

प्रश्न :--- कौन सा मत/संप्रदाय/सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ है?
उत्तर :--- हम स्वभावतः उसी मत या संप्रदाय की ओर आकृष्ट होते हैं, जिस के संस्कार हमारे में पूर्वजन्मों से होते हैं। फिर भी मैं बड़ी स्पष्टता से कहता हूँ कि वही सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ है जो हमें शीघ्रातिशीघ्र इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करा दे। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है, और जो हमारे में परमात्मा के प्रति परमप्रेम जागृत कर हमे आनंदमय बना दे, वही मत/सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ है। जो हमें ईश्वर से दूर ले जाये वह सिद्धान्त गलत है।
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कृपा शंकर
१३ सितंबर २०२२

स्वयं का पिंडदान ---

 स्वयं का पिंडदान ---

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जब यह दृढ़ अनुभूति हो जाये कि मैं यह भौतिक शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, उसी समय हमारा स्वयं का पिंडदान हो जाता है। मूलाधारस्थ कुंडलिनी -- "पिंड" है। गुरु-प्रदत्त विधि से बार-बार कुंडलिनी महाशक्ति को मूलाधार-चक्र से उठाकर सहस्त्रार में भगवान विष्णु के चरण-कमलों (विष्णुपद) में अर्पित करना यथार्थ "पिंडदान" है। इसे श्रद्धा के साथ करना "श्राद्ध" है।
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लेकिन शास्त्रों के आदेशानुसार गृहस्थों का दायित्व है कि परिवार में अपने से बड़े-बूढ़ों की सेवा करे, और पितृ-पक्ष में पूरी श्रद्धा से अपने पित्तरों का श्राद्ध करे। इस विषय पर मनु महाराज और याज्ञवल्क्य ऋषि के शास्त्रों में कथन ही अंतिम प्रमाण हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
१४ सितंबर २०२२

परमात्मा के ध्यान से प्राप्त आनंद ही वास्तविक सत्संग है ---

 परमात्मा के ध्यान से प्राप्त आनंद ही वास्तविक सत्संग है ---

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बंद आँखों के अंधकार के पीछे सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में परमात्मा की अनुभूति सभी ध्यान साधकों को होती है। सारी सृष्टि ही इस ब्रह्मज्योति में समाहित हो जाती है। प्रणव की ध्वनि भी इसी ज्योति में लिपटी रहती है। इस का दर्शन, श्रवण और निरंतर अनुभूति होते रहना -- परम सौभाग्य की बात होती है। "कूटस्थ" शब्द का प्रयोग इसी के लिए होता है। निरंतर इस के चैतन्य में बने रहना "कूटस्थ चैतन्य" कहलाता है। कूटस्थ चैतन्य में निरंतर स्थिति -- "ब्राह्मी स्थिति" है।
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मेरे लिए सूक्ष्म देह में मेरुदंडस्थ सुषुम्ना नाड़ी ही पूजा की वेदी और मंडप है, जहाँ भगवान वासुदेव स्वयं बिराजमान हैं। सहस्त्रार-चक्र में दिखाई दे रही ज्योति "विष्णुपद" है। ये ही गुरु महाराज के चरण-कमल हैं। इनका ध्यान -- गुरु-चरणों का ध्यान है। इनमें स्थिति -- श्रीगुरुचरणों में आश्रय है।
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कुंडलिनी महाशक्ति का सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र से भी ऊपर उठकर अनंत महाकाश से परे परमशिव से स्थायी मिलन जीवनमुक्ति और मोक्ष है। यही अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१४ सितंबर २०२२

"खान" शब्द भगवान श्रीकृष्ण के एक नाम "कान्ह" का अपभ्रंस है ---

 "खान" शब्द भगवान श्रीकृष्ण के एक नाम "कान्ह" का अपभ्रंस है ---

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भगवान श्रीकृष्ण के देवलोक गमन के पश्चात भी सैंकड़ों वर्षों तक पूरे विश्व में उनकी उपासना की जाती थी। प्राचीन संस्कृत साहित्य में जिस शिव भक्त "किरात" जाति का उल्लेख है, वह "मंगोल" जाति ही है। उन में "कान्ह" शब्द बहुत सामान्य था, जो अपभ्रंस होकर "हान" हो गया। चीन के बड़े बड़े सामंत स्वयं के नाम के साथ "हान" की उपाधी बड़े गर्व के साथ लगाते थे। यही "हान" शब्द और भी अपभ्रंस होकर "खान" हो गया। प्रख्यात इतिहासकार श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक, और अन्य अनेक इतिहासकारों का यही मत है।
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मंगोलिया के महा नायक चंगेज़ खान का वास्तविक नाम मंगोल भाषा में "गंगेश हान" (अंग्रेजी में Genghis Khan) था। यह उसका संस्कृत भाषा में एक हिन्दू नाम था। वह किसी आसुरी दैवीय शक्ति का उपासक था, जो उसे बता देती थी कि उसे कहाँ कहाँ और कैसे आक्रमण करना है, और कैसे विजय प्राप्त करनी है। वह सदा विजयी रहा। कालांतर में उसके सगे पौत्र कुबलई खान (चंगेज़ खान के सबसे छोटे बेटे तुलई खान का बेटा) ने बौद्ध मत स्वीकार कर लिया और बौद्ध मत का प्रचार किया।
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"कुबलई" शब्द संस्कृत भाषा के "कैवल्य" शब्द का अपभ्रंस है। कुबलई खान के समय ही चीनी लिपि का अविष्कार हुआ। उसी के समय मार्को पोलो ने चीन की यात्रा की थी। कुबलाई खान का राज्य उत्तर में साईबेरिया की बाइकाल झील (विश्व की सर्वाधिक गहरी मीठे पानी की झील) से दक्षिण में विएतनाम तक, और पूर्व में कोरिया से लेकर पश्चिम में कश्यप सागर तक था। पिछले एक हज़ार में हुआ वह अकेला ही इस पृथ्वी के २०% भूभाग का शासक था। उसी ने तिब्बत के प्रथम दलाई लामा की नियुक्ति की थी।
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वर्तमान में जो इतिहास पढ़ाया जाता है ,वह पश्चिमी लेखकों का लिखा हुआ है।
पश्चिमी लोगों ने अपने से अतिरिक्त अन्य सब की अत्यधिक कपोल कल्पित बुराइयाँ ही की हैं। योरोपियन लोग इतिहास के सबसे बड़े लुटेरे थे, अतः उन्होंने अपने से अलावा सबको लुटेरा ही बताया है। भारत में आया पहला यूरोपीय व्यक्ति वास्को-डी-गामा था जो एक नर पिशाच समुद्री डाकू था। भारत में जो अँग्रेज़ सबसे पहिले आये वे सब भी लुटेरे समुद्री डाकू थे। भारत पर जिन यूरोपीयों ने अधिकार किया वे सब -- चोर, लुटेरे डाकू, धूर्त, और बदमाश श्रेणी के सजा पाए हुए लोग थे, जिन्हें अपनी सजा काटने के लिए यहाँ भेजा गया था। विश्व में सबसे अधिक नर-संहार और लूट-खसोट यूरोपीय लोगों ने ही की है।
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योरोपियन इतिहासकारों ने सिकंदर को महान योद्धा और चंगेज़ खान को लुटेरा सिद्ध किया है। निष्पक्ष दृष्टी से देखने पर मुझे चंगेज़ खान की उपलब्धियाँ सिकंदर से बहुत अधिक लगती हैं। मंगोलिया कभी विभिन्न घूमंतू जातियों द्वारा शासित था। चंगेज़ खान ने मंगोलियाई साम्राज्य की स्थापना की। पश्चिमी एशिया में इस्लाम के अनुयायियों का मंगोलों ने बहुत बड़ा नरसंहार किया था। बग़दाद का खलीफा जो इस्लामी जगत का मुखिया था, एक नौका में बैठकर टाइग्रस नदी में भाग गया था, जिसे चंगेज़ खान की मंगोल सेना नदी के मध्य से पकड़ लाई और एक गलीचे में लपेट कर लाठियों से पीट पीट कर हत्या कर दी। कालांतर में पश्चिमी एशिया में बचे खुचे मंगोलों ने इस्लाम अपना लिया, पर इस्लाम मंगोलिया की मुख्य भूमि तक कभी भी नहीं पहुँच पाया।
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चंगेज़ खान के भय से ही आतंकित होकर मध्य एशिया के कुछ मुसलमान कश्मीर में शरणार्थी होकर आये और आगे जाकर छल-कपट से कश्मीर के शासक बन गए व हिन्दुओं पर बहुत अधिक अत्याचार किये। इसका वर्णन "राजतरंगिनी" नामक ग्रंथ में उसके लेखक कल्हन ने किया है।
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चंगेज़ खान का अधिकाँश समय घोड़े की पीठ पर ही व्यतीत होता था। घोड़े की पीठ पर चलते चलते ही वह सो भी लेता था। चंगेज खान के समय ही घोड़े पर बैठने की आधुनिक काठी व काठी के नीचे पैर रखने के लोहे के मजबूत पायदान का आविष्कार हुआ था। बहुत तेजी से भागते हुए घोड़े की पीठ पर से तीर चलाकर अचूक निशाना लगाने का उसे पक्का अभ्यास था, जो प्रायः उसके सभी अश्वारोहियों को भी था। जो उसके सामने समर्पण कर देता, उसे तो वह जीवित छोड़ देता था, अन्य सब का वह बड़ी निर्दयता से वध करा देता था।
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एक और प्रश्न उठता है यदि चंगेज़ खान मात्र लुटेरा था तो उसका पोता कुबलई ख़ान (मंगोल भाषा में Хубилай хаан; चीनी में 忽必烈; २३ सितम्बर १२१५ – १८ फ़रवरी १२९४) चीन का सबसे महान शासक कैसे हुआ? कुबलई ख़ान -- चंगेज़ ख़ान के सबसे छोटे बेटे तोलुइ ख़ान का बेटा था। उसके राज्य में मंगोलों से एक समय पूरा यूरोप और एशिया काँपती थी।
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वर्षों पूर्व जापान और दक्षिण कोरिया के कुछ प्रसिद्ध बौद्ध मठों के भ्रमण का मुझे अवसर मिला था। बहुत पुरानी बातें हो गई हैं, जो अब स्मृति से लुप्त हो रही हैं। कई पुराने चित्र और फोटोग्राफ भी थे। अब पता नहीं कहाँ हैं। सब महत्वहीन बातें हो गई हैं। आप ने इस लेख को पढ़ा, इसके लिए आपको धन्यवाद और नमन !!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ मई २०१५
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नीचे का पहला चित्र चंगेज़ खान का है, और दूसरा चित्र उसके पोते कुबलई खान का है।