Monday 31 October 2022

हमारे में अनन्य योग और अव्यभिचारिणी भक्ति हो ---

 हमारे में अनन्य योग और अव्यभिचारिणी भक्ति हो, तब हर पल एक उत्सव है। तभी हम शिवमय होकर शिव का ध्यान कर सकते हैं ---

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कोई साधक मेरुदंड को उन्नत रखते हुए बिना हिले डुले एक ही आसन में स्थिर होकर कम से कम ढाई-तीन घंटों तक निष्ठापूर्वक बैठ कर ध्यान कर सकता है, और उसमें कुछ सीखने की ललक हो, तब तो उसका मार्गदर्शन किया जा सकता है, लेकिन दूर से किसी अनजान व्यक्ति का नहीं।
इतना अभ्यास तो आवश्यक है कि आप सुख से स्थिर होकर बिना हिले डुले दो-तीन घंटों तक अपनी दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर कर के बैठ सकें।
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और भी कई बातें हैं जिनके बारे में गीता के "क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग" (अध्याय १३) में भगवान कहते हैं --
"अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥१३:८॥"
अर्थात् -- अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्य की सेवा, शुद्धि, स्थिरता और आत्मसंयम॥
"इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥१३:९॥"
अर्थात् -- इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धवस्था, व्याधि और दुख में दोष दर्शन॥
"असक्ितरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥१३:१०॥"
अर्थात् - आसक्ति तथा पुत्र, पत्नी, गृह आदि में अनभिष्वङ्ग (तादात्म्य का अभाव); और इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में समचित्तता॥
"मयि चानन्ययोगेन भक्ितरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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सार की बात यह है की हमारे में अनन्य योग और व्यभिचारिणी भक्ति हो। इसका अभ्यास निष्ठापूर्वक करना पड़ता है। तभी आगे के द्वार खुलते हैं। आप सब निजात्माओं को मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
९ सितंबर २०२२
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पुनश्च :--- मुझे स्वयं को एकांत साधना की आवश्यकता है,और समय भी मेरे पास बहुत कम है, अतः व्यर्थ की बातचीत और चर्चा के लिए मेरे पास भी अब और समय नहीं है।

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