मैं कौन हूँ ?
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अपनी जो आकाशगंगा है जिसका एक नक्षत्र अपना सूर्य है, उस आकाश गंगा के एक छोर से दूसरे छोर तक यदि प्रकाश की गति से यात्रा की जाये तो उस यात्रा को पूर्ण करने में लगभग एक लाख प्रकाश वर्ष लग जाएँगे। इस तरह की अनगिनत लाखों आकाश गंगाएँ हैं। हमारे सूर्य जैसे करोड़ों सूर्य हैं। इस पृथ्वी जैसी अनगिनत पृथ्वियाँ हैं।
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कई बार स्वच्छ अंधेरी रात में अपने घर की छत पर जाकर ध्रुव तारे को देखता हूँ। वह ध्रुव तारा साढ़े चार सौ से भी अधिक वर्षों पूर्व था। उसके प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में साढ़े चार सौ वर्षों से भी अधिक का समय लगा है। आकाश के कई नक्षत्र अब दिखाई दे रहे हैं, जब कि वे सैंकड़ों वर्ष पूर्व थे।
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अरबों-खरबों प्रकाश वर्ष दूर भी अनंत सृष्टियाँ हैं, जिन्हें समझना मनुष्य की बुद्धि से परे है। वहाँ से प्रकाश की किरणें जब चली थीं तब पृथ्वी ग्रह का कोई अस्तित्व नहीं था। जब तक वे किरणें पृथ्वी तक पहुँचेंगी, तब तक पृथ्वी भी नष्ट हो गई होगी।
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यह तो रही स्थूल जगत की बात। सूक्ष्म जगत तो और भी अधिक विराट है। ध्यान साधना करते करते समाधि की अवस्था में सूक्ष्म जगत के भी मुझे कई बार दर्शन होते हैं, जो इस भौतिक जगत से बहुत अधिक बड़ा है। उस से भी परे कारण जगत है जहाँ मेरा कोई प्रवेश नहीं है। उसकी तो मैं कल्पना करने में भी असमर्थ हूँ।
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विभिन्न आयामों पर अनेक सृष्टियाँ हैं। ये स्वर्ग-नर्क आदि सब मनोमय सृष्टियाँ हैं। किसी से बात करते हैं तो वह चुनौती देकर कहता है कि क्या गरुड-पुराण गलत है? मुझे नहीं पता कि वह सही है या गलत। जिस चेतना में वह लिखा गया था, उस चेतना में जाकर ही कहा जा सकता है कि क्या गलत और क्या सही है।
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जो चीज समझ में आती है वही लिख रहा हूँ। जो अज्ञात है वह कोरी कल्पना है। कल्पना में रहना स्वयं को धोखा देना है।
(१) एक बात तो अनुभूत सत्य है कि मैं यह शरीर नहीं हूँ। यह शरीर एक दुपहिया वाहन है जो इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ है। यह नष्ट हो जाएगा तो अंत समय की मति के अनुसार तुरंत दूसरा शरीर मिल जाएगा। पुनर्जन्म का सिद्धान्त शत-प्रतिशत सत्य है।
(२) हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं, जिनका परिणाम निश्चित रूप से मिलता है। कर्मफलों का सिद्धान्त -- शत-प्रतिशत सत्य है। यह सृष्टि परमात्मा के मन का एक विचार है। हमारे विचार ही हमारे कर्म है जिनके अनुसार हमें उनके फल मिलते हैं।
(३) हम यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। सारे देवी-देवता हमारे साथ एक हैं। कोई भी या कुछ भी हमारे से पृथक नहीं है।
(४) आगे की बात समझने के लिए हमें वीतराग और त्रिगुणातीत होना पड़ेगा। तभी हम सत्य को समझ सकेंगे। गीता के अनुसार --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥२:४५॥"
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आत्मवान होकर ही सत्य को समझ सकेंगे। अभी भी अनेक कमियाँ हैं, जिन्हें दूर करनी हैं। परम सत्य परमात्मा को नमन करता हूँ ---
"ॐ वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥११:३९॥"
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (गीता)
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३१ अक्तूबर २०२२
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