वेदान्त के अनसार जब हम यह शरीर नहीं, प्रत्यगात्मा हैं, तब हमारा गुरु कौन है?
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प्रत्यगात्मा (प्रत्यक्+आत्मा) शब्द कृष्ण-यजुर्वेद के कठोपनिषद के द्वितीय अध्याय की प्रथम वल्ली के प्रथम मंत्र में आता है। आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में इसे समझाया भी है। यह विषय मेरी बौद्धिक क्षमता से परे का है, लेकिन अनुभूतियों से परे का नहीं है। इस विषय पर मैं शब्द-रचना नहीं कर सकता, लेकिन शब्दों से परे के अनुभव ले सकता हूँ। मेरे अनुभव कोई अन्य समझ भी नहीं सकता। लेकिन मुझे कोई संशय नहीं है। मेरे लिए एक ही विकल्प बचता है कि मैं मौन होकर साधना करूँ, और बाकी सब परमात्मा पर छोड़ दूँ। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३ जुलाई २०२५
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(पुनश्च: -- आध्यात्मिक अनुभूतियों पर मुझे कुछ भी नहीं कहना है। सर्वप्रथम हम वीतराग होकर स्थितप्रज्ञ बनें, फिर समर्पित होकर ब्रह्म में स्थित हों। इससे आगे की समस्या परमात्मा की है, हमारी नहीं। बिना वीतराग हुए आगे के द्वार नहीं खुलते। राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त व्यक्ति ही महात्मा है।)
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