Thursday, 3 July 2025

"कबीर बिछड्या राम सूँ , ना सुख धूप न छाँह" ---

 "कबीर बिछड्या राम सूँ , ना सुख धूप न छाँह" ---

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विरही को कहीं सुख नहीं है। सुख सिर्फ राम में ही है, बाकी सब मृगतृष्णा है। सुख के स्वप्न और मधुर कल्पनायें -- हमें कर्मफलों के बंधनों में बांधती हैं। फिर क्या करें? संसार का सार क्या है?
स्वयं से बार-बार यही पूछते रहो, यही संसार का सार है। जीवन में सफलता का मापदंड "संतोष", "तृप्ति" और "आनंद" है, रुपया-पैसा नहीं। सांसारिक दृष्टि से अति सफल लोगों को मैनें आत्म-ह्त्या करके मरते हुए देखा है।
सभी व्थथाओं का संबंध इस देह से है, हम यह देह नहीं, परमात्मा के अमृतपुत्र हैं।
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भगवान से अलग हो चुकी आत्मा को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता है। दिन और रात, धूप और छाँह - कहीं भी सुख नहीं है। प्राण तो उनके विरह में ही तप कर समाप्त हो जाएँगे। लगता है यह आत्मा इस योग्य नहीं हुई है कि इस जन्म में हरिःदर्शन कर सके। इस पीड़ा को या तो मारने वाला जानता है, या फिर इसे भोगने वाला ही।
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भगवान भी निशाना लेकर बड़े यत्न से खींच-खींच कर साधते हुए अपने प्रेम का बाण चलाते हैं, जो चित्त के आर-पार हो जाता है। उनकी यह सधी हुई मार ही हमारी वेदना है। विरह की अग्नि असहनीय है।
नैनन की करि कोठरी पुतली पलंग विछाय।
पलकों की चिक डारिकै पिय को लिया रिझाय॥
पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात।
देखत ही छिप जाएगा ज्यों तारा परभात॥
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रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलइहैं लोग सब, बांट न लइहैं कोय॥"
मेरी व्यथा साक्षात् परमात्मा की ही व्यथा है, जिसका समाधान भी वे ही हैं। उनकी व्यथा उन्हें ही समर्पित है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ जुलाई २०२२

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