जैसे चुम्बक की सूई का मुख सदा उत्तर दिशा की ओर होता है, वैसे ही मेरी चेतना स्वाभाविक रूप से सदा परमशिव परमात्मा की ओर ही रहती है। वे उत्तर दिशा (सहस्त्रारचक्र से बहुत ऊपर ऊर्ध्वस्थ) में परम ज्योतिर्मय रूप में विराजमान हैं, और दक्षिणामूर्ति गुरु रूप में उनका अनुग्रह निरंतर वरष रहा है। मैं धन्य हूँ, मेरा यह जीवन धन्य है कि मुझे उनकी परम कृपा अनुभूत हो रही है।
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सांसारिक रूप से मैं विवश और विकल्पहीन हूँ। पता नहीं किस जन्म में क्या पाप किये थे, जो इस तमोगुणी संसार में जन्म लिया और घर-गृहस्थी, व कुटिल समाज में आकर त्रिशंकु की गति में फँस गया हूँ। कोई बात नहीं, यह इस जीवन का संध्याकाल है, फिर कभी इस ओर मुड़ कर भी नहीं देखूंगा। मेरा एकमात्र आश्रय परमशिव परमात्मा के पद्मपाद (चरण-कमल) हैं, जिनमें शरण मिली हुई है। सुख और शांति के एकमात्र स्त्रोत भी वे ऊर्ध्वस्थ परमशिव ही हैं। वे ही पुरुषोत्तम वासुदेव हैं, और वे ही श्रीराम हैं।
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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८:५४॥"
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
"सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥१८:५६॥"
"चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥१८:५७॥"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् --
ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक। समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है॥
(उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है॥
जो पुरुष मदाश्रित होकर सदैव समस्त कर्मों को करता है, वह मेरे प्रसाद (अनुग्रह) से शाश्वत, अव्यय पद को प्राप्त कर लेता है॥
मन से समस्त कर्मों का संन्यास मुझमें करके मत्परायण होकर बुद्धियोग का आश्रय लेकर तुम सतत मच्चित्त बनो॥
मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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सतत परमात्मा का स्मरण करते हुए (भक्तियोग) हमें परमात्मा के ध्यान आदि का निरंतर अभ्यास (कर्मयोग) करना चाहिये। मच्चित्त होने पर (ज्ञानयोग) परमात्मा की कृपा से समस्त कठिनाइयाँ भी पार हो जायेंगी।
मन का परमात्मस्वरूप में समाहित होना ही गुरुकृपा है। इस गुरुकृपा से अन्तःकरण शुद्ध होता है और विवेक जागृत होता है।
भगवान् श्रीकृष्ण की चेतावनी भी हमें सदा याद रहे कि यदि अहंकारवश उनके उपदेश का पालन नहीं किया तो हम अपना ही नाश कर लेंगे। यहाँ नाश का यह अर्थ है कि अहंकारवश अपने जीवन के परम पुरुषार्थ को नहीं प्राप्त कर सकेंगे।
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परमात्मा रूपी महासागर में जल की एक बूंद की तरह इसी क्षण छलांग लगा लेते हैं। जो होगा सो देखा जाएगा। उनका आकर्षण बहुत अधिक प्रबल है। ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२३ जून २०२५
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